आचार्य शुक्ल के कथन -आदिकाल || Hindi Literature

 आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आदिकाल के सम्बन्ध में आचार्य शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथनों की चर्चा करेंगे  ।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के महत्वपूर्ण कथन पार्ट -2

*आदिकाल के सम्बन्ध में*

⇒”हिन्दी साहित्य का आदिकाल संवत् 1050 से लेकर संवत् 1375 तक अर्थात महाराज भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है।”

⇒”जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह ‘भाषा’ या ‘देशभाषा’ ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए ‘अपभ्रंश’ शब्द का व्यहार होने लगा।”
⇒ “नाथपंथ के जोगियों की भाषा ‘सधुक्कड़ी भाषा’ थी।”

⇒”सिद्धों की उद्धृत रचनाओं की भाषा ‘देशभाषा’ मिश्रित अपभ्रंश या ‘पुरानी हिन्दी ‘ की काव्य भाषा है।”
⇒”सिद्धो में ‘सरह’ सबसे पुराने अर्थात विक्रम संवत् 690 के हैं।”
⇒ “कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले उसी प्रकार साखी और बानी के लिए बहुत कुछ सामग्री और ‘सधुक्कड़ी’ भाषा भी।”

⇒ “वीरगीत के रूप में हमें सबसे पुरानी पुस्तक ‘बीसलदेव रासो’ मिलती है।”
⇒”बीसलदेवरासो में ‘काव्य के अर्थ में रसायण शब्द’ बार-बार आया है। अतः हमारी समझ में इसी ‘रसायण’ शब्द से होते-होते ‘रासो’ हो गया है।”

*आदिकाल के सम्बन्ध में*

⇒ “बीसलदेव रासो में आए ‘बारह सै बहोत्तरा’ का स्पष्ट अर्थ 1212 है।”
⇒बीसलदेव रासो के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, “यह घटनात्मक काव्य नहीं है, वर्णनात्मक है।”
⇒बीसलदेव रासो के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, “भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं है, राजस्थानी है।”

⇒”अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह ‘डिंगल’ कहलाता था।”
⇒ चन्दरबरदाई के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, “ये हिन्दी के ‘प्रथम महाकवि’ माने जाते हैं और इनका ‘पृथ्वीराज रासो’ हिन्दी का ‘प्रथम महाकाव्य’ है।”

⇒पृथ्वीराज रासो के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, “भाषा की कसौटी पर यदि ग्रंथ को कसते हैं तो और भी निराश होना पड़ता है क्योंकि वह बिल्कुल बेठिकाने हैं౼ उसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं है।”
⇒”विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही है जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण है।”

“विद्यापति को कृष्ण भक्तों की परम्परा में न समझना चाहिए।”
⇒ आध्यात्मिक रंग के चश्में आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोविंद’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।

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