आधुनिक काल में भारतेन्दु मंडल के चर्चित लेखकगण

आधुनिक काल में भारतेन्दु मंडल के चर्चित लेखकगण

 

भारतेंदु हरिश्चंद्रः

कविवर हरिश्चंद्र (1850-1885) इतिहासप्रसिद्ध सेठ अमीचंद की वंश-पंरपरा में उत्पन्न हुए थे। उनके पिता बाबू गोपालचंद्र ’गिरिधरदास’ भी अपने समय के प्रसिद्ध कवि थे। हरिश्चंद्र ने बाल्यावस्था में ही काव्य-रचना आंरम्भ कर दी थी और अल्पायु में कवित्व प्रतिभा और सर्वतोमुखी रचना क्षमता का ऐसा परिचय दिया था कि उस समय के पत्रकारों तथा साहित्यकारों ने 1880 ई. में उन्हे ’भारतेंदु’ की उपाधि से सम्मानित किया था।

कवि होने के साथ ही भारतेंदु पत्रकार भी थे।’कविवचनसुधा’ और ’हरिश्चंद्र चंद्रिका’ उनके संपादन में प्रकाशित होने वाली प्रसिद्ध पत्रिकाएं थीं। नाटक, निबंध आदि की रचना द्वारा उन्होंने खङीबोली की गद्य-शैली के निर्धारण में भी महत्त्वपूर्ण योग दिया था। उनकी कविताएं विविध-विषय-विभूषित हैं।

भक्ति, श्रंगारिकता , देशप्रेम, सामाजिक परिवेश और प्रकति के विभिन्न सदर्भों को ले कर उन्होंने विपुल परिणाम में काव्य-रचना की, जो कहीं सरसता और लालित्य में अद्वितिय है और अन्यत्र स्थूल वर्णानात्मक की परिधि को लांघने में असमर्थ है।उनकी काव्य-कृतियों की सख्यां सत्तर है, जिनमें ’प्रेम-मालिका’, ’प्रेम-सरोवर’, ’गीत-गोविंदानंद’, ’वर्षा-विनोद’, ’विनय-ग्रंथावली’, ’प्रेम-फुलवारी’, ’वेणु-गीति’ आदि विशेषतः उल्लेख-योग्य है।

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वैसे ’भारतेंदु-ग्रंथावली’ के प्रथम भाग में उनकी सभी छोटी-बङी काव्यरचनाएं एक ज़िल्द में उपलब्ध हैं। उनकी प्रमुख विशेषता यह है कि अपनी अनेक रचनाओं में जहां वे प्राचीन काव्य-प्रवृत्तियों के अनुवर्ती रहे, वहीं नवीन काव्यधारा के प्रवर्तन का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है।

राजभक्त होते हुए भी वे देशभक्त थे, दास्य भाव की भक्ति के साथ ही उन्होंने माधुर्य भाव की भक्ति भी की है, नायक-नायिका के सौंदर्य वर्णन में ही न रम कर उन्होंने उनके लिए नवीन कर्तव्य क्षेत्रों का भी निर्देश किया है और इतिवृत्तात्मक काव्यशैली के साथ ही उनमें हास्य-व्यंग्य का पैनापन भी विद्यमान है।

अभिव्यंजना-क्षेत्र में भी उन्होंने ऐसी ही परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियों को अपनाया है, जो उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृति का प्रमाण है।

’हिंदी भाषा’ में प्रबल हिंदीवादी के रूप में सामने आने पर भी उन्होंने उर्दू-शैली में कविताएं लिखी हैं और काव्य-रचना के लिए ब्रजभाषा को ही उपयुक्त मानने पर भी वे खङीबोली में ’दशरथविलाप’ तथा ’फूलों का गुच्छा’ कविताएं लिखते दिखायी देते हैं। काव्यरूपों की विविधता उनकी अनन्य विशेषता है।

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छंदोबद्ध कविताओं के साथ ही उन्होंने गेय पद-शैली में भी विदग्धता का परिचय दिया है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि कविता के क्षेत्र में वे नवयुग के अग्रदूत थे।

अपनी ओजस्विता, सरलता, भावमर्मज्ञता और प्रभविष्णुता से उनका काव्य इतना प्राणवान है कि उस युग का शायद ही कोई कवि उनसे अप्रभावित रहा हो। उनकी काव्यशैली के निदर्शनार्थ एक पद यहां उद्धृत किया जा रहा हैः

रहैं क्यों एक म्यान असि दोय।
जिन नैनन में हरि-रस छायो तेहि क्यौं भावै कोय।।
जा तन-मन में रमि रहे मोहन तहाँ ग्यान क्यौं आवै।
चाहे जितनी बात प्रबोधो ह्यां को जो पतिआवै।
अमृत खाइ अब देखि इनारुन को मूरख जो भूलै।
’हरीचन्द’ ब्रज तो कदली-बन काटौ तौ फिरि फूलै।।

बदरीनारायण चौधरी  ’प्रेमघन-

भारतेंदु-मंडल के कवियों में प्रेमघन (1855-1923) का प्रमुख स्थान है। उनका जन्म उत्तरप्रदेश के जिला मि.र्जापुर के एक संपन्न ब्राह्मणकुल में हुआ था। भारतेंदु की भांति उन्होंने पद्य और गद्य दोनों में विपुल साहित्य-रचना की है। साप्ताहिक ’नगरी-नीरद’ और मासिक ’आनंदकादंबिनी’ के संपादन द्वारा उन्होंने तत्कालीन पत्रकारिता को भी नयी दिशा दी थी। ’अब्र’ नाम से उन्होंने उर्दू में कुछ कविताएं लिखी हैं।

’जीर्ण जनपद’, ’आनंद अरुणोदय’, ’हार्दिक हर्षादर्श’, ’मयंक-महिमा’, ’अलौकिक लीला’, ’वर्षा-बिंदु’ आदि उनकी काव्यकृतियां हैं, जो अन्य रचनाओं के साथ ’प्रेमघन-सर्वस्व के प्रथम भाग में संकलित हैं।

भारतेंदु के काव्य में प्राप्त होने वाली सभी प्रवृत्तियां प्रेमघन की रचनाओं में भी समुपलब्ध हैं। ’लालित्य-लहरी’ के वंदना संबंधी दोहों और ’बृजचंद-पंचक’ में उनकी भक्ति-भावना व्यक्त हुई है, तो उनकी शृंगारिक कविताएं भी रसिकता-संपन्न हैं। उनका मुख्य क्षेत्र जातीयता, समाजदशा और देशप्रेम अभिव्यक्ति है।

यद्यपि उन्होंने राजभक्ति संबंधी कविताओं की भी रचना की है, तथापि राष्ट्रीय भावना की नयी लहर से उनका अविच्छिन्न संबंध था। देश की दुरवस्था के कारणों और देशोन्नति के उपायों का जितना वर्णन उन्होंने किया है, उतना भारतेंदु की कविताओं में भी नहीं मिलताइस संदर्भ में नयीै-से-नयी घटना को भी वे कविता का विषय बना लेते थे।

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उदाहरणस्वरुप, पार्लियामेंट के सदस्य दादाभाई नौरोजी को जब विलायत में ’काला’ कहा गया, तब उन्होंने इस पर यह क्षोभपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त की थीः-

अचरज होत तुमहुँ सम गोरे बाजत कारे,
तासों कारे ’कारे’ शब्दहु पर हैं वारे।
कारे कृष्ण, राम, जलधर जल-बरसनवारे,
कारे लागत ताहीं सों कारन कौं प्यारे।
यातें नीको है तुम ’कारे’ जाहु पुकारे,
यहै असीस देत तुमको मिलि हम सब कारे-
सफल होहिं मन के सब ही संकल्प तुम्हारे।

प्रेमघन ने मख्यतः ब्रजभाषा में काव्यरचना की है, किंतु खङीबोली के लिए उनके काव्य में विरक्ति नहीं थी। वे कविता में भावगति के कायल थे। न तो उन्हें भाषा के शुद्ध प्रयोग की चिंता थी और न वे यतिभंग से विचलित होते थे। छंदोबद्ध रचनाओं के अतिरिक्त उन्होंने लोकसंगीत की कजली और लावनी शैलियों में भी सरस कविताएं लिखी हैं।
जगमोहन सिंह:- ठाकुर जगमोहन सिंह (1857-1899) मध्यप्रदेश की विजय राघवगढ़ रियासत के राजकुमार थे।

उन्होंने काशी में संस्कृत और अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की। वहां रहते हुए उनका भारतेंदु हरिश्चंद्र से संपर्क हुआ, किंतु भारतेंदु की रचनाशैली की उन पर वैसी छाप नहीं मिलती, जैसी प्रेमघन और प्रतापनारायण मिश्र के कृतित्व में लक्षित होती है। शृंगार-वर्णन और प्रकृति-सौंदर्य की अवतारणा उनकी मुख्य काव्य-प्रवृित्तयां हैं, जिन्हे उनकी काव्य-कृतियों -प्रेमसंपत्तिलता (1885), श्यामालता (1885), श्यामा-सरोजिनी (1886) और देवयानी (1886) में सर्वत्र पाया जा सकता है।

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’श्यामास्वप्न’ शीर्षक उपन्यास में भी उन्होंने प्रंसगवंश कुछ कविताओं का समावेश किया हैं। उनके द्वारा अनूदित ’ऋतुसंहार’ और ’मेघदूत’ भी ब्रजभाषा की सरस कृत्तियां हैं। जगन्मोहन सिंह में काव्य-रचना की स्वाभाविक प्रतिभा थी और वे भावुक मनोवृत्ति के कवि थे। कल्पना-लालित्य, भावकुता, चित्रशैली और सरस-मधुर ब्रजभाषा उनकी रचनाओं की अन्यतम विशेषताएं हैं।

अलंकारो का स्वाभाविक नियोजन भी उनमें भारतेंदुयुगीन कवियों में सबसे अधिक दृष्टिगत होता हैं। उनकी कविता का एक उदाहरण द्रष्टव्य है:-
कुलकानि तजी गुरु लोगन में बसिकै सब बैन-कुबैन सहा।
परलोक नसाय सबै बिधि सों उनमत्त को मारग जान गहा ।।
’जगमोहन’ धोय हया निज हाथन या तन पाल्यो है प्रेम महा ।
सब छोङि तुम्हैं हम पायो अहो तुम छोङि हमैं कहो पायो कहा ।।

अंबिकादत्त व्यास

कविवर दुर्गादत्त व्यास के पुत्र अंबिकादत्त व्यास (1858-1900) काशी-निवासी सुकवि थे। वे संस्कृत और हिंदी के अच्छे विद्वान थे और दोनों भाषाओं में साहित्य-रचना करते थे। ’पीयूष-प्रवाह’ के संपादक के रूप में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। उनकी काव्यकृतियों में ’पावस पचासा’ (1886), ’सुकवि-सतसई’ (1887) और ’हो हो होरी’ (1891) उल्लेखनीय हैं।

इनकी रचना ललित ब्रजभाषा में हुई है। उन्होंने खङीबोली में ’कंस-वध’ (अपूर्ण) शीर्षक प्रंबधकाव्य की रचना भी आरंभ की थी, किंतु इसके केवल तीन सर्ग ही लिखे जा सके। ’बिहार-विहार’ उनकी एक अन्य प्रसिद्ध रचना है, जिसमें महाकवि बिहारी के दोहों का कुंडलिया छंद में भावविस्तार किया गया है।

उनके द्वारा लिखित समस्यापूर्तियां भी उपलब्ध होती हैं। अपने नाटकों (भारत-सोभाग्य, गोसंकट नाटक) में भी उन्होंने कुछ गेय पदों का समावेश किया हैं। व्यास जी की प्राचीन भारतीय संस्कृति में गहन आस्था थी, जिसे प्रत्यक्ष रूप में व्यक्त करने के अतिरिक्त उन्होंने सरल और कोमलकांत पदावली के प्रयोग को वरीयता दी है।

’सुकवि-सतसई’ के निम्नलिखित दोहों में स्वच्छ-सरस ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण के प्रति भाव-निवेदन किया गया हैः-
सुमरित छवि नन्दनन्द की, बिसरत सब दुखदन्द।
होत अमन्द अनन्द हिय, मिलत मनहुं सुख कन्द।।
रसना हू बस ना रहत, बरनि उठत करि जोर ।
नन्दनन्द मुखचन्द पै, चितहू होत चकोर।।

राधाकृष्णदास

भारतेंदु हरिश्चंद्र के फुुफेरे भाई राधाकृष्णदास (1865-1907) बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता के अतिरिक्त उन्होंने नाटक, उपन्यास और आलोचना के क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय साहित्य-रचना की है। उनकी कविताओं में भक्ति, शृंगार और समकालीन सामाजिक-रातनीतिक चेतना को विशेष स्थान प्राप्त हुआ है। ’भारत-बारहमासा’ और ’देश-दशा’ समसामयिक भारत के विषय में उनकी प्रसिद्ध कविताएं हैं।

कुछ कविताओं में प्रसंगवश प्रकृति के सुंदर चित्र भी उकेरे गये हैं। राधाकृष्ण-प्रेम के निरूपण में भक्तिकाल और रीतिकाल की वर्णन-परंपराओं का उन पर समान प्रभाव पङा हैं। एक सवैया देखिए:-

मोहन की यह मोहिनी मूरत, जीय सों भूलत नाहिं भुलाये।
छोरन चारत नेह को नातो, कोऊ बिधि छूटत नाहिं छुराये।।
’दास जू’ छोरि कै प्यारै हहा, हमैं और के रूप पै जाइ लुभाये।
भूलि सकै अब कौन जिया उन, तौ हंसि कै पहिले ही चुराये।।

राधाकृष्णदास की कुछ कविताएं ’राधाकृष्ण-ग्रंथावली’ में संकलित हैं, किंतु उनकी अनेक रचनाएं अभी भी अप्रकाशित हैं। अंबिकादत्त व्यास की परंपरा में उन्होंने भी रहीम के दोहोें पर कुंडलियां रची हैं। ब्रजभाषा की कविताओें में मधुरता और खङीबोली की रचनाओं में प्रासादिकता की ओर उनकी सहज प्रवृत्ति रही है।

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