काव्य हेतु काव्यशास्त्र || हिंदी साहित्य – काव्यशास्त्र

दोस्तो आज काव्यशास्त्र के महत्वपूर्ण विषय काव्य हेतु (Kavya Hetu) के बारे मे जानेंगे। साथ ही आलोचकों के विचार जानेंगे।

     काव्य हेतु – Kavya Hetu

’हेतु’ का शाब्दिक अर्थ है कारण, अतः ’काव्य हेतु’ का अर्थ हुआ काव्य की उत्पत्ति का कारण।  किसी व्यक्ति में काव्य रचना की सामर्थ्य उत्पन्न कर देने वाले कारण काव्य हेतु कहलाते हैं।

  • साहित्य की रचना क्यों होती है ?
  • क्या कारण है जो कवि अथवा रचनाकार को रचना करने के लिए प्रेरित करतें है ?

चलो थोड़ा और समझतें है 

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि काव्य ’कार्य’ है और ’हेतु’ कारण है।
बाबू गुलाबराय ने काव्य हेतु पर विचार करते हुए लिखा है-’’हेतु का अभिप्राय उन साधनों से है, जो कवि की काव्य रचना में सहायक होते हैं।’’

भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य हेतुओं पर पर्याप्त विचार किया गया है और तीन काव्य हेतु माने गए हैं-

  1. प्रतिभा
  2. व्युत्पत्ति (ज्ञान उपलब्धि के शास्त्रों का अध्ययन व लोक व्यवहार)
  3. अभ्यास

इनमें से प्रतिभा सर्वप्रमुख काव्य हेतु है जिसे काव्यत्व का बीज माना गया है। ’प्रतिभा’ के अभाव में कोई व्यक्ति काव्य रचना नहीं कर सकता।
काव्य हेतुओं पर सर्वप्रथम ’अग्निपुराण’ में विचार किया गया और प्रतिभा, वेदज्ञान तथा लोकव्यवहार को काव्य हेतु के रूप में स्वीकार किया गया।


नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।

कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।। –अग्निपुराण


अर्थात् ’’लोक में नरत्व दुर्लभ है और उसमें विद्यावान नर होना दुर्लभ है। कवित्व परम दुर्लभ है और कविता करने की शक्ति (प्रतिभा) तो और भी दुर्लभ है।’’


हम प्रमुख संस्कृत आचार्यों के ’काव्य हेतु’ से सम्बन्धित मत कालक्रमानुसार प्रस्तुत कर रहे हैं।

आचार्यों के मत 

काव्य हेतु काव्यशास्त्र

1. आचार्य भामह का मत

आचार्य भामह ने अपने ग्रन्थ ’काव्यालंकार’ में स्वीकार किया है कि गुरु के उपदेश से जङ बुद्धि भी शास्त्र अध्ययन करने में समर्थ हो सकता है, किन्तु काव्य तो किसी ’प्रतिभाशाली’ द्वारा ही रचा जा सकता है।


गुरुदेशादध्येतुं शास्त्रं जङधिमोडप्यलम्।
काव्यं तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावतः।।


भामह ’प्रतिभा’ को काव्य का प्रधान हेतु स्वीकार करते हैं, किन्तु एक अन्य श्लोक में वे स्वीकार करते हैं कि ’’शब्दशास्त्र को जानने वालों की सेवा और उपासना करके, शब्द का तथा शब्दार्थ का ज्ञान करके तथा अन्य कवियों के कृतित्व का अध्ययन करके ही काव्य रचना में प्रवृत्त होना चाहिए।’’

भामह ’प्रतिभा’ के साथ-साथ व्युत्पत्ति (शास्त्र ज्ञान) एवं अभ्यास को भी काव्य हेतुओं में स्थान देने के पक्षधर थे।

2. आचार्य दण्डी का मत

आचार्य दण्डी ने अपने ग्रन्थ ’काव्यादर्श’ में प्रतिभा, आनन्द अभियोग (अभ्यास) और लोकव्यवहार एवं निर्मल शास्त्रज्ञान को काव्य हेतुओं के रूप में मान्यता दी है। उनके अनुसार:

नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहु निर्मलम्।
आनन्दाश्चयाभियोगो अस्याः कारणं काव्य सम्पदा।।

⇒काव्य रीति को पढ़ें 


स्पष्टीकरण – ’’नैसर्गिक प्रतिभा, निर्मल शास्त्र ज्ञान और बढ़ा-चढ़ा अभ्यास काव्य सम्पत्ति में कारण होते है।’’ नैसर्गिक प्रतिभा से उनका तात्पर्य जन्मजात प्रतिभा से है, जो ईश्वर प्रदत्त होती है। इस प्रतिभा को अर्जित नहीं किया जा सकता। प्रतिभा के अभाव में निम्नकोटि की काव्य रचना निरन्तर अभ्यास एवं शास्त्र ज्ञान से हो सकती है।

3. आचार्य वामन का मत

आचार्य वामन ने अपने ग्रन्थ ’काव्यालंकार सूत्रवृत्ति’ में प्रतिभा को जन्मजात गुण मानते हुए इसे प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया है:

’’कवित्व बीजं प्रतिभानं कवित्वस्य बीजम्’’

वे लोक व्यवहार, शास्त्रज्ञान, शब्दकोश आदि की जानकारी को भी काव्य हेतुओं में स्थान देते हैं। एक अन्य स्थान पर वे काव्य हेतुओं में प्रतिभा को कवित्व का बीज स्वीकार करते हैं जो जन्म-जन्मान्तर के संस्कार से शक्ति रूप में कवि में विद्यमान होती है। अभियोग, वृद्ध सेवा, अवेक्षण, अबधान आदि से ही उत्तम काव्य का निर्माण कर सकना सम्भव हो पाता है।

वामन ने ’प्रकीर्ण के अंतर्गत छह तत्त्वों को सम्मिलित किया था –

  • लक्ष्यज्ञता (काव्य-परिचय)
  • अभियोग (काव्य-रचना का अभ्यास)
  • वृद्ध-सेवा (गुरु-महत्त्व)
  • अवेक्षण (उचित शब्द-प्रयोग)
  • प्रतिभा 
  • अवधान (चित्त की एकाग्रता)।

4. आचार्य रुद्रट का मत

आचार्य ’रुद्रट’ ने अपने ग्रन्थ ’काव्यालंकार’ में प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को काव्य हेतु स्वीकार किया है।

प्रतिभा के वे दो भेद मानते हैं-

  1. सहजा शक्ति
  2. उत्पाद्या शक्ति

सहजा शक्ति प्रतिभा कवि में जन्मजात होती है और यही काव्य निर्माण का मूल हेतु है जबकि उत्पाद्या शक्ति प्रतिभा लोकशास्त्र एवं अभ्यास से व्युत्पन्न होती है। यह सहजा प्रतिभा को संस्कारित करती है।

5. आचार्य मम्मट का मत

आचार्य ’मम्मट’ ने अपने ग्रन्थ ’काव्यप्रकाश’ में काव्य हेतुओं पर विचार करते हुए लिखा है।

शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात्।
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।।

अर्थात् काव्य के तीन हेतु हैं –

  1. शक्ति (प्रतिभा)
  2. लोकशास्त्र का अवेक्षण
  3. अभ्यास

वे एक अन्य स्थान पर यह भी कहते हैं-’’शक्तिः कवित्व बीजरूपः’’ अर्थात् ’शक्ति’ काव्य का बीज संस्कार है, जिसके अभाव में काव्य रचना सम्भव ही नहीं है। जिसे अन्य आचार्य ’प्रतिभा’ कहते हैं, उसी को मम्मट ने ’शक्ति’ कहा है।

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6. केशव मिश्र

’प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्ति विभूषणं’ अर्थात् ’’प्रतिभा काव्य का कारण है तथा व्युत्पत्ति उसे विभूषित करती है।’’

7. हेमचन्द्र

अपने ग्रन्थ ’शब्दानुशासन’ में लिखा है-

’’प्रतिभाऽस्य हेतुः प्रतिभा नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा’’

स्पष्टीकरण – ’’प्रतिभा काव्य का हेतु है, तथा नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा को प्रतिभा कहते हैं।’’

8. राजशेखर

’’प्रतिभा व्युत्पत्ति मिश्रः समवेते श्रेयस्यौ इति’’ अर्थात् प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों समवेत रूप में काव्य के श्रेयस्कार हेतु हैं।

वे प्रतिभा के दो भेद स्वीकारते है –

  1. कारयित्री प्रतिभा 
  2. भावयित्री प्रतिभा

कारयित्री प्रतिभा जन्मजात होती है तथा इसका सम्बन्ध कवि से है। भावयित्री प्रतिभा का सम्बन्ध सहृदय पाठक या आलोचक से है।

9. पण्डितराज जगन्नाथ

इन्होंने अपने ग्रन्थ ’रस गंगाधर’ में ’प्रतिभा’ को ही प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया है:
’’तस्य च कारणं कविगता केवलं प्रतिभा’’

उक्त विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि काव्य के तीन प्रमुख हेतु हैं

  1. प्रतिभा
  2. व्युत्पत्ति
  3. अभ्यास

10. आचार्य भट्टतौत्त –

’प्रशा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मताः

स्पष्टीकरण – आचार्य भट्टतीत्त अनुसार प्रतिभा उस प्रज्ञा का नाम है जो नित जीवन रसानुकूल उत्पन्न करती है।

काव्य कौतुक ग्रंथ की रचना की।

काव्य हेतुओं का स्वरूप

(। ) प्रतिभा

प्रतिभा वह शक्ति है जो किसी व्यक्ति को काव्य रचना में समर्थ बनाती हैं। राजशेखर ने प्रतिभा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है-सा शक्तिः केवल काव्य हेतुः
आचार्य भट्टतौत्त के अनुसार प्रतिभा उस प्रज्ञा का नाम है जो नित नवीन रसानुकूल विचार उत्पन्न करती है:
’प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मताः’

आचार्य वामन का मत है कि प्रतिभा जन्म से प्राप्त संस्कार है जिसके बिना काव्य रचना सम्भव नहीं है। अर्थात् अभिनव गुप्त ने प्रतिभा की परिभाषा करते हुए लिखा है-’प्रतिभा अपूर्व वस्तु निर्माण क्षमा प्रज्ञा’
अर्थात् प्रतिभा प्रज्ञा का वह रूप है जिसमें अपूर्व की सृष्टि करने की क्षमता होती है। कवि इसी के बल पर काव्य सृजन में समर्थ होता है।

विभिन्न आचार्यों ने प्रतिभा के भेद इस प्रकार से किये हैं –

रुद्रट –

(1) सहजा (2) उत्पाद्या।  -सहजा पूर्व-जन्म के संस्कारों से प्राप्त प्रतिभा है तथा उत्पाद्या से तात्पर्य इस जन्म में अर्जित प्रतिभा से है।

राजशेखर –

(1) कारयित्री (2) भावयित्री  -कारयित्री का संबंध कवि से तथा भावयित्री का संबंध सहृदय (पाठक) से है।

हेमचंद्र –

(1) सहजा (2) औषधिकी। यह रुद्रट द्वारा किये गए भेद का ही रूप है। सहजा जन्म से संबंधित है तो औषधिकी का संबंध श्रम आदि से है।

वक्रोक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य कुन्तक ने प्रतिभा उस शक्ति को माना है जो शब्द और अर्थ में अपूर्व सौन्दर्य की सृष्टि करती है, नाना प्रकार के अलंकारों, उक्ति वैचित्र्य आदि का विधान करती है।

प्रतिभा प्रथमोद्भेद समये यत्र वक्रता।
शब्दाभिभेय योरन्तः स्फुरतीव विभाव्यते।।

आचार्य मम्मट ने प्रतिभा को एक नया नाम दिया। वे इसे ’शक्ति’ कहते हैं और काव्य का बीज स्वीकार करते हैं जिसके बिना काव्य की रचना असम्भव है।
’शक्तिः कवित्व बीज रूपः संस्कार विशेषः’
अर्थात् शक्ति (प्रतिभा) कवित्व का बीजरूप संस्कार विशेष है। जिसके बिना काव्य सृजन नहीं हो सकता।

आचार्यों ने प्रतिभा का जो स्वरूप यहां स्पष्ट किया है उससे हम निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं:
 

  1. प्रतिभा काव्य का मूल हेतु है।
  2. यह ईश्वर प्रदत्त शक्ति है।
  3.  प्रतिभा नव्नवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा है।
  4. .प्रतिभा के बल पर ही कवि अपूर्व शब्दों, अपूर्व भावों, अलंकारों, उक्ति वैचित्र्य आदि का विधान करता है।

⇒ प्रतिभा दो प्रकार की होती है-

  1. कारयित्री प्रतिभा 
  2. भावयित्री प्रतिभा


कारयित्री प्रतिभा वह होती है जिसके बल पर कवि कविता लिखता है और भावयित्री प्रतिभा वह होती है जिसके बल पर कोई पाठक कविता को समझता है।
सभी आचार्यों ने प्रतिभा के महत्त्व को स्वीकार किया है और इसे काव्य का मूल हेतु माना है।

अभिनव गुप्त – ’’प्रतिभा अपूर्ववस्तु निर्माणक्षमा प्रज्ञा।’’
(अपूर्व वस्तु के निर्माण में सक्षम प्रज्ञा, प्रतिभा है।)

डा. नगेन्द्र ने प्रतिभा की असाधारण कोटि को मेधा मानते हए कहा है कि प्रतिभा को नीरस और साधारण वातावरण अच्छे नहीं लगते वह असाधारणता में खुलकर खेलती है।

(2) व्युत्पत्ति

व्युत्पत्ति का शाब्दिक अर्थ है निपुणता, पांडित्य या विद्वत्ता। ज्ञान की उपलब्धि को भी व्युत्पत्ति कहा गया है। यह ज्ञानोपलब्धि शास्त्रों के अध्ययन और लोक व्यवहार के अवेक्षण से होती है। विद्वानों का मत है कि साहित्य के गहन चिन्तन-मनन से कवि की उक्ति में सौन्दर्य का समावेश हो जाता है और उसकी रचना सुव्यवस्थित हो जाती है।

राजशेखर के अनुसार- उचितानुचित विवेकौ व्युत्पत्तिः। अर्थात् उचित-अनुचित का विवेक ही व्युत्पत्ति है।

रुद्रट ने यह बताया है कि छन्द, व्याकरण, कला, पद और पदार्थ के उचित-अनुचित का सम्यक् ज्ञान ही व्युत्पत्ति कहा जाता है।

आचार्य मम्मट ने व्युत्पत्ति को एक नया नाम दिया है-निपुणता। यह निपुणता चराचर जगत के निरीक्षण और काव्य आदि के अध्ययन से प्राप्त होती है। 
संस्कृत आचार्यों ने व्युत्पत्ति को काव्य हेतुओं में दूसरा स्थान दिया है।

आखिर ये शब्द शक्ति क्या होती है 

व्युत्पत्ति के बल पर ही कोई व्यक्ति यह निर्णय कर पाता है कि किस स्थान पर किस शब्द का प्रयोग उचित होगा। सच तो यह है कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति समवेत रूप में ही काव्य रचना के हेतु हैं। जैसे लावण्य के बिना रूप फीका लगता है वैसे ही रूप के बिना लावण्य भी आकर्षक नहीं लगता। लोक और शास्त्र का अध्ययन कवि को त्रुटियों से बचाता है।

वर्ण्य विषय का ज्ञान, ऋतु ज्ञान, देश ज्ञान, भौगोलिक जानकारी आदि से कविता में त्रुटि आने की सम्भावना नहीं रहतीं अन्यथा मूर्ख कवि रेगिस्तान में धान की खेती का वर्णन कर सकता है। शब्द शिल्प और भाषा पर अधिकार बहुज्ञता से ही होता है अतः कवि को निरन्तर सजग रहने की आवश्यकता होती है तभी वह उत्तम काव्य की रचना करने में समर्थ हो पाता है।

(3) अभ्यास

काव्य निर्माण का तीसरा हेतु अभ्यास है। भामह ने लिखा है कि शब्दार्थ के स्वरूप का ज्ञान करके सतत अभ्यास द्वारा उसकी उपासना करनी चाहिए, साथ ही अन्य कवियों के कृतित्व का अध्ययन भी करना चाहिए। जिससे अभ्यास नित्यप्रति दृढ़ होता जाए। आचार्य वामन ने भी अभ्यास को महत्त्व देते हुए लिखा है-’अभ्यासोहि कर्मसु कौशलं भावहिति।’
अर्थात् अभ्यास के द्वारा ही कवि कर्म में कुशलता प्राप्त की जा सकती है।

आचार्य दण्डी ने तो अभ्यास को ही काव्य का प्रमुख हेतु माना है। वे तो यहां तक कहते हैं कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति के अभाव में केवल अभ्यास से ही काव्य रचना में कोई कुशल हो सकता है। सरस्वती की साधना से और शास्त्रों के श्रवण से कोई भी व्यक्ति सफल कवि बन सकता है। दण्डी की यह धारणा अन्य आचार्यों ने स्वीकार नहीं की।

प्रतिभा के अभाव में काव्य रचना सम्भव ही नहीं है। फिर कोरा अभ्यास व्यक्ति को कैसे कवि बना सकता है, किन्तु अभ्यास के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। प्रारम्भ में प्रतिभा सम्पन्न कवि भी अच्छी कविता नहीं लिख पाते। निरन्तर अभ्यास से ही उनकी कविता निखरती है।

काव्य लक्षण क्या होते है

जो कवि कीर्ति चाहते हैं उन्हें आलस्य को त्यागकर सरस्वती की उपासना करनी चाहिए और निरन्तर कवि कर्म का अभ्यास करते रहना चाहिए। अभ्यास के महत्त्व को निम्न शब्दों में स्वीकार किया गया हैः


करत-करत अभ्यास के जङमति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें सिंल पर परत निसान।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि प्रतिभा व्युत्पत्ति और अभ्यास ही प्रमुख काव्य हेतु हैं, किन्तु प्रतिभा सर्वप्रमुख है जिसे व्युत्पत्ति और अभ्यास से निरन्तर निखारा जा सकता है। वस्तुतः ये तीनों समन्वित रूप में ही काव्य के हेतु हैं जिन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता।

जिस प्रकार पानी को बार-बार छानने से वह निर्दोष हो जाता है और बर्तन को बार-बार मांजने से वह चमक उठता है उसी प्रकार व्युत्पत्ति और अभ्यास से प्रतिभा को निर्दोष और आकर्षक बनाया जा सकता है।

राजशेखर ने इसे स्पष्टतः पारिभाषित किया है कि निरंतर प्रयास करते रहना ही अभ्यास है।

काव्य हेतु काव्यशास्त्र

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