बाजार दर्शन || निबन्ध || जैनेन्द्र कुमार || Hindi sahitya

दोस्तो आज की पोस्ट में आप जैनेन्द्र द्वारा चर्चित व्यंग्यात्मक निबंध  बाजार दर्शन का सार पढेंगे ,जो किसी भी एग्जाम के लिए उपयोगी साबित होगा       

बाजार दर्शन (जैनेन्द्र कुमार)

बाजार दर्शन जैनेन्द्र कुमार का विचार प्रधान निबंध है । इसमें लेखक ने बाजार की आवश्कता और उप-योगिता पर विचार किया है । बाजार एक ऐसी संस्था है जिसका उद्देश्य उपभोक्ता की आवश्यकता की पूर्ति करना है, उसका शोषण करना नहीं । बाजार वस्तुओं का प्रदर्शन स्थल नहीं है

अनावश्यक क्रय-

लेखक के मित्र एक मामूली चीज खरीदने बाजार गए थे। लौटे तो उनके साथ अनेक बण्डल थे। इस फिजूलखर्ची के लिए उन्होंने अपनी पत्नी को जिम्मेदार बताया। स्त्रियाँ अधिक सामान बाजार से खरीदती हैं। यह ठीक है किन्तु पुरुष अपना दोष पत्नी पर डालकर बचना चाहते हैं। खरीदारी में एक अन्य चीज का भी महत्व है। वह है मनीबैग अर्थात् पैसे की शक्ति।

पैसे की पाॅवर –

पैसा पाॅवर है। इसका प्रमाण लोग अपने आस-पास माल-असबाब, कोठी-मकान आदि इकट्ठा करके देते हैं। कुछ संयमी लोग इस पाॅवर को समझते हैं, किन्तु वे प्रदर्शन में विश्वास नहीं करते। वे संयमी होते हैं। वे पैसा जोङते जाते हैं तथा इस संग्रह को देखकर गर्व का अनुभव करते हैं। मित्र का मनी बैग खाली हो गया था। लेखक ने समझा कि जो सामान उन्होंने खरीदा था वह उनकी आवश्यकता के अनुरूप था। उन्होंने अपनी ’पर्चेजिंग पावर’ अर्थात् क्रय के अनुसार ही सामान खरीदा था।

बाजार का जादू –

बाजार में आकर्षण होते है। उसमें प्रदर्शित वस्तुएँ ग्राहक को आकर्षित करती हैं कि वह उनको खरीदे। इस आकर्षण से बहुत कम लोग बच पाते हैं। संयमहीन व्यक्ति को बाजार कामना से व्याकुल ही नहीं पागल बना देता है, उसमें असन्तोष ईर्ष्या और तृष्णा उत्पन्न करके उसको बेकार कर देता है।

जादू से रक्षा –

लेखक के एक अन्य मित्र भी बाजार गए थे। वहाँ अनेक चीजें थीं। वह बाजार में रुके भी बहुत देर तक। उनका सभी चीजें खरीदने का मन हो रहा था। सोचते रहे क्या लूँ क्या न लूँ? उन्होंने कुछ नहीं खरीदा, खाली हाथ लौटे। बाजार का जादू उसी पर चलता है जिसकी जेब भरी हो मन खाली हो मन खाली होने का मतलब यह पता न होना है उसकी आवश्यकता की वस्तु क्या है। वह सभी चीजों को खरीद लेना चाहता है जब यह जादू उतरता है तो पता चलता है कि अनावश्यक चीजें खरीदने से आराम नहीं कष्ट ही होता है। बाजार जाना हो तो खाली मन जाना ठीक नहीं। बाजार जाते समय अपनी आवश्यकता ठीक से पता होनी चाहिए।

खाली और बन्द मन –

मन खाली न रहे इसका मतलब मन का बन्द होना नहीं है। मन के बन्द होने का अर्थ है-शून्य हो जाना। शून्य होने का अधिकार परमात्मा को है। वह पूर्ण है, मनुष्य अपूर्ण है। उसके मन में इच्छा उत्पन्न होना स्वाभाविक है। मन को बलात् बन्द करना केवल हठ है। सच्चा ज्ञान अपूर्णता के बोध को गहरा करता है। सच्चा कर्म इस अपूर्णता को स्वीकार करके ही होता है। अतः मन को बलात् बन्द नहीं करना है। किन्तु मन को चाहे सो करने की छूट नहीं देनी है।

चूरनवाले भगत जी –

लेखक के पङोसी चूरनवाले भगत जी हैं। वे चूरन बेचते हैं। उनका चूरन प्रसिद्ध है। वह नियत समय पर चूरन की पेटी लेकर निकलते हैं। लोग उनसे सद्भाव रखते हैं। उनका चूरन तुरन्त बिक जाता है। छः आने की कमाई होते ही वह शेष चूरन बच्चों में बाँट देते हैं। बाजार का जादू उन पर प्रभाव नहीं डालता। पैसा उनसे प्रार्थना करता है कि मुझे अपनी जेब में आने दीजिए। किन्तु वह निर्दयतापूर्वक उसका निवेदन ठुकरा देते हैं। वे नियम से चूरन बनाते हैं, बेचते हैं और उतना ही कमाते हैं, जितने की उनको जरूरत होती है।
भगत जी बाजार से नित्य सामान खरीदते हैं। वह बाजार में सबसे हँसते-बोलते हैं। वह वहाँ आँखें खोलकर चलते हैं। बाजार में फँसी स्टोर हैं। बाजार माल से भरा पङा है, वह सबको देखते आगे बढ जाते हैं और पंसारी की दुकान पर रुकते हैं, काला नमक तथा जीरा खरीदते हैं। इसके बाद चाँदनी चैक (बाजार)का आकर्षण उनकेे लिए शून्य हो जाता है।

पैसे की व्यंग्य शक्ति –

पैसे की व्यंग्य शक्ति चुभने वाली होती है। पैदल चलने वाले के पास से गुजरती धूल उङाती मोटर उस पर व्यंग्य करती है कि तेरे पास मोटर नहीं है। वह सोचता है- मैं अभागा हूँ, नहीं तो किसी मोटरवाले के घर जन्म क्यों न लेता। पैसे की व्यंग्य शक्ति का प्रभाव चूरनवाले भगतजी पर नहीं होता उनमें इससे बचने का बल है। यह बल उसी को प्राप्त होता है, जिसमें तृष्णा तथा संचय की प्रवृति नहीं है। इस बल को आत्मिक, नैतिक, धार्मिक कोई भी बल कह सकते हैं। जिसमें यह बल होता है, वह बाजार के व्यंग्य से प्रभावित नहीं होता निर्बल ही धन की ओर झुकता है।

बाजार की सार्थकता –

जो मनुष्य जानता है कि उसको क्या चाहिए। उसी से बाजार को सार्थकता प्राप्त होती है। अनावश्यक चीजें खरीदने वाले बाजार की शैतानी और व्यंग्य शक्ति ही बढाते हैं। ऐसे लोगों के कारण बाजार का सामाजिक सद्भाव नष्ट होता है। और कपट बढता है। ऐसा बाजार मानवता के लिए विडम्बना है। ऐसे बाजार का पोषण करने वाला अर्थशास्त्र पूर्णतः उल्टा है। वह मायावी शास्त्र है। ऐसा अर्थशास्त्र अनीति शास्त्र है।
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