भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय | Bhartendu Harishchandra ka Jeevan Parichay

दोस्तों आज हम भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी(Bhartendu Harishchandra ka Jeevan Parichay) के जीवन परिचय व उनकी रचनाओं के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे ,यह जानकारी आपको जरुर अच्छी लगेगी।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र – Bhartendu Harishchandra ka Jeevan Parichay

नामभारतेन्दु हरिश्चंद्र
मूल नामहरिश्चन्द्र
उपाधिभारतेन्दु
जन्मतिथि9 सितम्बर 1850 ई. (1907 वि.)
जन्मस्थानकाशी (एक सम्पन्न वैश्य परिवार में )
पिता का नामबाबू गोपालचन्द्र गिरिधरदास
मुख्य व्यवसायपत्रकारिता
निधन6 जनवरी 1885 ई. (1942 वि.)

नोट:- मात्र 35 वर्ष की अल्पायु में इनका निधन हो गया था।

पिता का नाम – बाबू गोपालचन्द्र गिरिधरदास (ये इतिहास प्रसिद्ध सेठ अमीचंद की वंश परम्परा में उत्पन्न हुए माने जाते हैं।)

  • मूल नाम – हरिश्चन्द्र
  • उपाधि – भारतेन्दु

नोट:- डाॅ. नगेन्द्र के अनुसार उस समय के पत्रकारों एवं साहित्यकारों ने 1880 ई. में  इन्हें ’भारतेंदु’ की उपाधि से सम्मानित किया था।

⇒ मुख्य व्यवसाय – पत्रकारिता
⇒ सम्पादन कार्य – इनके द्वारा निम्नलिखित तीन पत्रिकाओं का सम्पादन कार्य किया गया था –

  1. कवि-वचन सुधा – 1868 ई. (मासिक, पाक्षिक, साप्ताहिक)
  2. हरिश्चन्द्र चन्द्रिका – 1873 ई. (मासिक)

नोट:- शुरुआती आठ अंकों तक यह पत्रिका ’हरिश्चन्द्र मैगजीन’ नाम से प्रकाशित हुई थी।

नवें अंक में इसका नाम ’हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ रखा गया था। हिन्दी गद्य का ठीक परिष्कृत रूप सर्वप्रथम इसी ’चन्द्रिका’ में  प्रकट हुआ।

3. बाल-बोधिनी – 1874 ई. (मासिक)

नोट:- ये तीनों पत्रिकाएँ ’काशी/बनारस’ से प्रकाशित होती थी।

प्रमुख रचनाएँ –

अपने पैंतीस वर्ष के अल्पकालिक जीवन में  भारतेन्दु हरिश्चंद्र(bhartendu harishchandra)जी के द्वारा हिन्दी साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा पर अपनी लेखनी चलायी गयी है, जिसके लिए हिन्दी साहित्य जगत् सदैव उनका ऋणी (आभारी) रहेगा।

यथा-इनकी समस्त रचनाओं की संख्या 175 के लगभग है।

1. नाट्य रचनाएँ – भारतेंदु जी के द्वारा अनूदित एवं मौलिक सब मिलाकर कुल 17 (सत्रह) नाटक लिखे गये थे। जिनमें से आठ अनूदित एवं नौ मौलिक नाटक माने जाते हैं।

Bhartendu Harishchandra ka Jeevan Parichay

अनूदित नाटकों की ट्रिक्स – Bhartendu Harishchandra Natak Tricks

विद्या रत्न है पाखण्ड धन
कपूर है, पर दुर्लभ है भारतजन में मुद्रा ।

(क) अनूदित नाटक – आठ

(।) विद्यासुंदर – 1868 ई. – यह संस्कृत नाटक ’’चौर पंचाशिका’’ के बंगला संस्करण का हिन्दी अनुवाद है।
(2) रत्नावली – 1868 ई. – यह संस्कृत नाटिका ’रत्नावली’ का हिन्दी अनुवाद है।
(3) पाखंड-विखंडन – 1872 ई.- यह संस्कृत में ’कृष्णमिश्र’ द्वारा रचित ’प्रबोधचन्द्रोदय’ नाटक के तीसरे अंक का अनुवाद है।
(4) धनंजय विजय – 1873 ई.- यह संस्कृत के ’कांचन’ कवि द्वारा रचित ’धनंजय विजय’ नाटक का हिन्दी अनुवाद है।
(5) कर्पूरमंजरी – 1875 ई. – यह ’सट्टक’ श्रेणी का नाटक संस्कृत के ’कांचन’ कवि द्वारा रचित नाटक का अनुवाद है।
(6) भारत जननी – 1877 ई. – यह इनका गीतिनाट्य है जो संस्कृत से हिन्दी में अनूदित है।
(7) मुद्राराक्षस – 1878 ई. – यह विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का हिन्दी अनुवाद है।
(8) दुर्लभबंधु – 1880 ई. – यह अंग्रेजी नाटककार ’शेक्सपियर’ के मर्चेंट ऑव वेनिस’ का हिन्दी अनुवाद है।

(ख) मौलिक नाटक – (नौ)

(1) वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति – 1873 ई. – प्रहसन
– इसमें पशुबलि प्रथा का विरोध किया गया है।
(2 ) सत्य हरिश्चन्द्र – 1875 ई. – इसमें असत्य पर सत्य की विजय का वर्णन किया गया है।
(3 ) श्री चन्द्रावली नाटिका – 1876 ई. – इसमें प्रेम भक्ति का आदर्श प्रस्तुत किया गया है।
(4) विषस्य विषमौषधर्म – 1876 ई. –भाण

– यह देशी राजाओं की कुचक्रपूर्ण परिस्थिति दिखाने के लिए रचा गया था।

(5) भारतदुर्दशा – 1880 ई. –नाट्यरासक
– इसमें अंग्रेजी राज्य  में भारत की दशा का चित्रण किया गया है। यह नाटक ’प्रबोध-चन्द्रोदय’ की प्रतीकात्मक शैली से प्रभावित है।
(6) नीलदेवी – 1881 ई. – गीतिरूपक
– यह पंजाब के एक हिन्दू राजा पर मुसलमानों की चढ़ाई का ऐतिहासिक वृत्त लेकर लिखा गया है। इसमें भारतीय नारी के आदर्शों की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है।
(7) अंधेर नगरी – 1881 ई. – प्रहसन (छह दृश्य) इसमें भ्रष्ट शासन तंत्र पर व्यंग्य किया गया है।
(8) प्रेम जोगिनी – 1875 ई. – नाटिका
– इसमें तीर्थस्थानों पर होने वाले कुकृत्यों का चित्रण किया गया है।
(9) सती प्रताप – 1883 ई. – गीतिरूपक
– यह इनका ’अधूरा नाटक’ माना जाता है। इस नाटक को बाद में ’राधाकृष्णदास’ द्वारा पूरा किया गया था।

काव्यात्मक रचनाएँ(Bhartendu Harishchandra ka Jeevan Parichay)

इनके द्वारा रचित काव्य रचनाओं की कुल संख्या 70 मानी जाती हैं, जिनमें से कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ निम्नानुसार हैं –

प्रेम प्रलाप
बकरी विलाप
प्रबोधिनी
दैन्य प्रलाप
विजय-वल्लरी-1881
विजयिनी विजय वैजयंती-1882
दशरथ विलाप
प्रातःसमीरन
वैशाख माहात्म्य
रिपनाष्टक
वर्षा-विनोद-1880
फूलों का गुच्छा-1882
भक्त सर्वस्व
उर्दू का स्यापा
बन्दरसभा

नोट:- 1. इनकी ’प्रबोधिनी’ रचना विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की प्रत्यक्ष प्रेरणा देने वाली रचना है।
2. ’दशरथ विलाप’ एवं ’फूलों का गुच्छा’ रचनाओं में ’ब्रज’ के स्थान पर ’खङी बोली हिन्दी’ का प्रयोग हुआ है।

3. इनकी सभी काव्य रचनाओं को ’भारतेंदु ग्रंथावली’ के प्रथम भाग में संकलित किया गया है।
4. ’भक्त सर्वस्व’, ’कार्तिक-स्नान’, ’वैशाख माहात्म्य’ एवं ’उत्तरार्द्ध भक्तमाल’ आदिग्रंथ इनके विशुद्ध भक्ति भाव से ओत प्रोत ग्रंथ माने जाते हैं।

5. ’देवी छद्म लीला’, ’तन्मय लीला’ आदि में कृष्ण के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत किया गया है।

 उपन्यास –

  • हमीर हठ
  • सुलोचना
  • रामलीला
  • सीलवती
  • सावित्री चरित्र
 निबन्ध –

1. कुछ आप बीती कुछ जग बीती 2. सबै जाति गोपाल की 3. मित्रता

4. सूर्याेदय 5. जयदेव 6. बंग भाषा की कविता

इतिहास ग्रन्थ –

1. कश्मीर कुसुम 2. बादशाह

भारतेंदु के बारे में विशेष तथ्य – Bhartendu Harishchandra ka Jivan Parichay

 

1. ये हिन्दी गद्य साहित्य के जन्मदाता माने जाते हैं।

2. इनके द्वारा हिन्दी लेखकों की समस्याओं का समाधान करने के लिए (समस्या पूर्ति के लिए) ’कविता वर्धिनी सभा’ की स्थापना की गई थी।

3. इनके द्वारा 1873 ई. में ’तदीय समाज’ की स्थापना भी की गयी थी।

4. इन्होने हिन्दी  साहित्य के सर्वप्रथम अभिनीत नाटक ’जानकी मंगल’ (लेखक-शीतला प्रसाद त्रिपाठी) में ’लक्ष्मण’ पात्र की भूमिका निभायी थी।

5. ये ’रसा’ उपनाम से भी लेखनकार्य करते थे।

6  वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित ’पुष्टिमार्ग’ में दीक्षा ग्रहण की थी।

7. इन्होंने मातृभाषा (राष्ट्रभाषा) की प्रशंसा करते हुए लिखा है –

’’निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।’’

8. ये ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही कविताएँ लिखने लग गये थे।

9. पन्द्रह वर्ष की अवस्था में वे अपने परिवार के साथ जगन्नाथजी गये थे, उसी यात्रा में उनका परिचय बंगला साहित्य की नवीन प्रवृत्तियों से हुआ।

10. अपनी अति उदारता के कारण ही वे अपने पूर्वजों की संपत्ति लुटाकर दरिद्र हो गये। जीवन के अन्तिम दिनों तक वे साहित्यकारों, कवियों व दीन-दुःखियों की सहायता करते रहे।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रमुख कथन – Bhartendu Harishchandra ka Jeevan Parichay

🔸 आचार्य रामचंद्र शुक्ल – ये केवल नर प्रकृति के कवि माने गये हैं। इनमें बाह्य प्रकृति की अनेक रुपता के साथ उनके हृदय का सामंजस्य नहीं पाया जाता।

🔹 आचार्य रामचंद्र शुक्ल – हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद बढ़ रहा था, उसे उन्होंने दूर किया। हमारे साहित्य को नए-नए विषयों की ओर प्रवृत्त करने वाले हरिश्चन्द्र ही हुए।

🔸 आचार्य रामचंद्र शुक्ल – प्राचीन और नवीन का ही सुंदर सामंजस्य भारतेंदु की कला का विशेष माधुर्य है।

🔹 आचार्य रामचंद्र शुक्ल – वे सिद्ध वाणी के अत्यंत सरल हृदय कवि थे। इससे एक ओर तो उनकी लेखनी से शृंगार रस के ऐसे रसपूर्ण और मार्मिक कवित्त सवैये निकले कि उनके जीवनकाल में ही चारों ओर लोगों के मुँह से सुनाई पङने लगे और दूसरी ओर स्वदेश प्रेम से भरी हुई उनकी कविताएँ चारों ओर देश के मंगल का मंत्र सा फूँकने लगी।

🔸 डाॅ. नगेन्द्र – अपनी अनेक रचनाओं में जहाँ वे प्राचीन काव्य प्रवृत्तियों के अनुवर्ती रहे, वहीं नवीन काव्यधारा के प्रवर्तन का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है।

🔹 आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी – भारतेंदु का पूर्ववर्ती काव्य साहित्य संतों की कुटिया से निकलकर राजाओं और रईसों के दरबार में पहुँच गया था। उन्होंने एक तरफ तो काव्य को फिर से भक्ति की पवित्र मंदाकिनी में स्नान कराया और दूसरी ओर उसे दरबारीपन से निकालकर लोक जीवन के आमने-सामने खङा कर दिया।

🔸 रामविलास शर्मा – भारतेंदु युग का साहित्य जनवादी इस अर्थ में है कि वह भारतीय समाज के पुराने ढाँचे से संतुष्ट न रहकर उसमें सुधार भी चाहता है। वह केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य न होकर मनुष्य की एकता, समानता और भाईचारे का भी साहित्य है। भारतेंदु स्वदेशी आंदोलन के ही अग्रदूत न थे, वे समाज सुधारकों में भी प्रमुख थे। स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह, विदेश यात्रा आदि के वे समर्थक थे।

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