भूषण || रीतिकाल कवि || हिंदी साहित्य

आज के आर्टिकल में रीतिकाल के महत्त्वपूर्ण कवि ’भूषण’ से सम्बन्धित जानकारी दी गयी है। यह परीक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण साबित होगा।

भूषण (सं 1670-1772)⇒ ये कानपुर के समीपवर्ती तिकवांपुर(उत्तरप्रदेश) नामक स्थान पर रत्नाकर त्रिपाठी के घर संवत् 1670 (1613ई.) को जन्में। ये प्रसिद्ध कवि चिंतामणि और मतिराम के भाई कहे जाते हैं।

भूषण(Bhushan kavi)

जीवनकाल – संवत् 1670-1772

जन्मस्थल – तिकवापुर (कानपुर)

पिता – रत्नाकर त्रिपाठी

सहोदर – मतिराम, चिंतामणि, जटाशंकर

मूलनाम – गणपति चंद्र गुप्त के अनुसार पतिराम या मनीराम। विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार घनश्याम।

उपाधियाँ –

  • भूषण – रुद्रशाह सोलंकी चित्रकूट
  • हिन्दी का रीतिकाल का विलक्षण कवि – नगेन्द्र
  • शुक्ल जी – हिन्दी जाती के प्रतिनिधि कवि
  • हिन्दी का प्रथम राष्ट्रकवि

आश्रयदाता – छत्रपति शिवाजी, उनके पौत्र शाहूजी एवं छत्रसाल बुंदेला

रचनाएँ – शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक, अलंकार प्रकाश, छंदोहृदयप्रकाश, भूषण उल्लास, दूषण उल्लास, भूषण हजारा।

डाॅ. नगेन्द्र ने अलंकार प्रकाश एवं छंदोहृदयप्रकाश मुरलीधर भूषण की रचना मानी तथा अंतिम तीन अभी अप्राप्य है।

शिवराज भूषण – 1673 ई. में रचित शिवाजी की प्रशस्ति मय अलंकार ग्रंथ। अलंकारों के लक्षण जयदेव के चन्द्रालोक एवं मतिराम के ललितललाम के आधार पर एवं उदाहरण शिवाजी के प्रशस्ति में रचे गये। लक्षण दोहा छंद एवं उदाहरण सवैया छंद में रचित। उदाहरण रूप में 385 पद रचित। कुल 105 अलंकारों जिनमें 99 अर्थालंकार, 4 शब्दालंकार, 1 चित्रालंकार एवं 1 संकर अलंकार शामिल।

शिवाबावनी – 52 कवित्तों में शिवाजी की प्रशस्ति

छत्रसाल दशक – छत्रसाल बुंदेला की प्रशस्ति

⇒ कहा जाता है कि चित्रकूट के राजा रूद्रसाह सोलंकी ने इन्हें ’भूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया। इनका वास्तविक नाम शोध का विषय बन गया है। (घनश्याम माना जाता है।)

⇒ ’शिवराज भूषण’ (1673 ई.), ’शिवाबावनी’ शिवाजी के आश्रय में लिखे।

⇔ ’छत्रशालदशक’ की रचना ’छत्रशाल’ की प्रशस्ति में की।

⇒चित्रकूट नरेश रूद्रराम सोलंकी ने इन्हें भूषण की उपाधि दी थी

भूषण की प्रमुख काव्य पंक्तियाँ 

वेद राखे विदित पुरान परसिद्ध राखे
राम नाम राख्यो अति रसना सुधर में।
हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन की
कांधे में जनेऊ राख्यो माला राखी गर में।।

भूषण सिथिल अंग भूषण सिथिल अंग,
विजन डुलाती ते वै विजन डुलाती है।
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी,
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहती है।।

कंद मूल भोग करे, कंद मूल भोग करे,
तीन बैर खाती थी वे तीन बैर खाती हैं।
’भूषन’ भनत सिवराज वीर तेर त्रास,
नगन जङाती ते वै नगन जडाती है।।

सचि चतुरंग सेन अंग को उमंग भरि,
सरजा शिवाजी जंग जीतन चलत है।

आपस की फूट ही ते सारे हिन्दुआन टूटे।
कट गई नाक सिगरेई दिल्ली दल की-मुहावरा प्रयोग

तेज तम अंश पर, कान्ह जिमि कंस पर
त्यो मलेच्छा वंश पर सेर शिवराज है – मालोपमा

भूषण कवि के संदर्भ में प्रमुख कथन –

रामचंद्र शुक्ल ’’भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकार अव्यवस्थित है। व्याकरण का उल्लंघन प्रायः है और वाक्य रचना भी कहीं-कहीं गङबङ है।’’

रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ’’शिवाजी और छत्रशाल की वीरता के वर्णन को कोई कवि की झूठी खुशामद नहीं कर सकता। वे आश्रयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अनुसरण मात्र नहीं है। इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिन्दू जनता स्मरण करती है, उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिन्दू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।’’

हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार – ‘प्रेम विलासिता के साहित्य का ही उन दिनों प्राधान्य था ,उसमें वीर रस की रचना की ,यही उनकी विशेषता है ‘|

रामचंद्र शुक्ल – भूषण के वीर रस के उद्गार सारी जनता के हृदय की सम्पत्ति हुए।

नगेन्द्र – इनकी वाणी का ओज अपने आप में ऐसा है कि सहृदय आनंद विभोर होकर वीर रस जनित स्फूर्ति का अनुभव करता है।

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