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कवि लेखक परिचय

कुंभनदास || जीवन परिचय || Hindi Sahitya ka Iitihas

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:13th Oct, 2019 | 779 View

कुंभनदास || जीवन परिचय || Hindi Sahitya ka Iitihas

आज की पोस्ट में हम भक्तिकाल में कृष्णकाव्य धारा के प्रमुख कवि कुंभनदास  (Kumbhandas) के जीवन परिचय के बारे में पढेंगे ,आप इसे अच्छे से पढ़ें |

कुंभनदास जीवन परिचय(Kumbhandas life introduction)

⇒ जन्मकाल – 1468 ई. (1525 वि.) मृत्युकाल – 1583 ई. (1640 वि.)
⇔ जन्मस्थान – ग्राम-जमुनावती (गोवर्धन क्षेत्र, मथुरा)
⇒ गुरु का नाम – वल्लभाचार्य
⇔ गुरुदीक्षा – 1492 ई. में
⇒ प्रमुख रचनाएँ – इनकी कोई स्वतंत्र रचना प्राप्त नहीं होती है। इनके रचित पदों के निम्न दो संग्रह प्राप्त होते हैं –

1. कांकरोली विद्या प्रभाग से ’पद संग्रह’ के नाम से संकलित हैं, जिसमें कुल 186 पद हैं।
2. नाथद्वारा, पुस्तकालय में संकलित हैं, जिसमें कुल 367 पद हैं।

⇒ विशेष तथ्य – 1. ये अष्टछाप के कवियों में सबसे वरिष्ठ कवि माने जाते हैं।

अष्टछाप में सबसे वरिष्ठ कवि –कुंभनदास
अष्टछाप में सबसे कनिष्ठ कवि –नन्ददास

ट्रिकः    कुन 

कुंभनदास

कुंभनदास
2. ये वल्लभाचार्यजी के अष्टछापी शिष्यों में सर्वप्रथम शिष्य (1492 ई. में दीक्षा) माने जाते हैं।
3. ये अष्टछाप के कवियों में सूरदास के बाद दूसरे प्रमुख कवि माने जाते हैं।

4. सम्राट् अकबर इनके पदों पर अत्यधिक मुग्ध थे। अकबर के बुलावे पर एक बार इनको फतेहपुर सीकरी भी जाना पङा था, जहाँ इन्होंने एक अनासक्त भाव का पद सुनाया था। यथा –

भक्तन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पन्हैया टूटी बिसरि गयो हरिनाम।।
जाको देखे दुःख लागै ताकौ करन परी परनाम।
कुम्भनदास लाल गिरिधन बिन यह सब झूठो धाम।।

  • अज्ञेय जीवन परिचय देखें 
  • विद्यापति जीवन परिचय  देखें 
  • अमृतलाल नागर जीवन परिचय देखें 
  • रामनरेश त्रिपाठी जीवन परिचय  देखें 
  • महावीर प्रसाद द्विवेदी  जीवन परिचय देखें 
  • डॉ. नगेन्द्र  जीवन परिचय देखें 
  • भारतेन्दु जीवन परिचय देखें 
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नंददास || कृष्णभक्त कवि || हिंदी साहित्य

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:2nd Apr, 2021 | 1108 View

नंददास || कृष्णभक्त कवि || हिंदी साहित्य

आज की पोस्ट में हम कृष्ण भक्त कवि नंददास (Nanddas) जी के जीवन परिचय के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त करेंगे ।

नंददास

नन्ददास जीवन परिचय (Nanddas biography)

  • जन्मकाल – 1533 ई. (1590 वि.) मृत्युकाल – 1583 ई. (1640 वि.)
  • जन्मस्थान – गाँव रामपुर, सोरों या सूकर क्षेत्र (उ.प्र., सनाढ्य ब्राह्मण)

प्रमुख रचनाएँ –

  • अनेकार्थ मंजरी
  • मान मंजरी

(ये दोनों रचनाएँ पर्याय कोश ग्रंथ हैं। ’मानमंजरी’ ग्रंथ नंददास के भाषा विषयक प्रौढ़ ज्ञान और पांडित्य का द्योतक माना जाता है।)

⇒विरह मंजरी (यह बारहमासा शैली में रचित इनका भावात्मक काव्य माना जाता है।)

रामनरेश त्रिपाठी जीवन परिचय  देखें 

⇔रूप मंजरी -यह इनका लघु आख्यानकाव्य माना जाता है। इनकी एक प्रेयसी का नाम भी ’रूपमंजरी’ माना जाता है।(imp)

⇒ रसमंजरी

⇔ भंवरगीत

यह नंददास के परिपक्व दर्शन ज्ञान, विवेक बुद्धि, तार्किक शैली और कृष्ण भक्ति का परिचायक काव्य
है। इसके पूर्वार्द्ध भाग में गोपी-उद्धव संवाद तथा उत्तरार्द्ध भाग में कृष्ण-प्रेम में गोपियों की विरह दशा का वर्णन है।
इसके लेखन का मुख्य उद्देश्य निर्गुण-निराकार ब्रह्म की उपासना का खंडन करके सगुण साकार कृष्ण की भक्ति
की स्थापना करना है।
⇒ रास पंचाध्यायी

यह इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। इसमें वियुक्त आत्मा (गोपी) रासलीला के माध्यम से रस-रूप परमात्मा (कृष्ण) से मिलाने के लिए प्रयत्नशील हैं। यह ’रोला’ छंद में लिखित रचना है। इस रचना में उपयुक्त शब्द चयन एवं उनके सुष्ठु प्रयोग के कारण इनको ’जङिया-कवि’ की उपाधि प्रदान की जाती है।

⇔ सिद्धान्त पंचाध्यायी -यह कृष्ण की रासलीला से संबंधित रचना है। इसमें कृष्ण, वृदांवन, वेणु, गोपी, रास आदि शब्दों की आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत की गयी हैं।

डॉ. नगेन्द्र  जीवन परिचय देखें 

  • सुदामा चरित -इसका कथानक ’श्रीमद्भागवत’ से गृहीत किया गया है। काव्यदृष्टि से यह साधारण रचना है।
  • नन्ददास पदावली –इसमें नंददास द्वारा रचित पदों को बारह प्रकरणों में संकलित किया गया है। इसमें इनके काव्यसौष्ठव का उत्कर्ष देखा जा सकता है।
  • रुक्मिणी मंगल
  • प्रेम-बारहखङी
  • श्याम सगाई
  • दशमस्कन्ध भागवंत
  • गोवर्धनलीला
  • अनेकार्थमाला (पर्यायकोश)

नोट:- आचार्य शुक्ल ने इनके द्वारा रचित निम्न दो गद्य रचनाओं का भी उल्लेख किया हैं:-

  • हितोपदेश
  • नासिकेत पुराण भाषा

विशेष तथ्य –

  • ये अष्टछाप के कवियों में सबसे कनिष्ठ कवि माने जाते हैं।
  • जनश्रुतियों के अनुसार ये गोस्वामी तुलसीदास के चचेरे भाई माने जाते है। इनके पिता ’जीवनराम’ एवं तुलसीदास के पिता ’आत्माराम’ सगे भाई थे।
  • इन्होंने बचपन में तुलसीदास के साथ ही श्री नृसिंह पंडित से संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया था।
  • नृसिंह पंडित रामानंदीय सम्प्रदाय के रामोपासक थे, अतएव प्रारम्भ में नंददास जी ने भी रामभक्ति को ही स्वीकार किया था।
  • ये किसी रूपवती खत्रानी स्त्री पर आसक्त होकर उसके पीछे-पीछे गोकुल चले गये थे, जहाँ गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से इनका मोह भंग हुआ और ये कृष्ण के अनन्य भक्त हो गये।
  • इतिहासकारों के अनुसार नंददास के भंवरगीत में वर्णित गोपियाँ से भी अधिक मुखर एवं वाचाल मानी जाती है।

अमृतलाल नागर जीवन परिचय देखें 

इनके द्वारा रचित निम्न पद द्रष्टव्य हैं –

’’जो उनके गुन होय, वेद क्यों नेति बखानै।
निरगुन सगुन आत्मा रुचि ऊपर सुख सानै।।

वेद पुराननि खोजि कै पायो कतहुँ न एक।
गुन ही के गुन होहि तुम, कहो अकासहि टेक।।’’ (भंवरगीत से)

’ताही छिन उडुराज उदित रस-रास-सहायक।
कुंकुम-मंडित-बदन प्रिया जनु नागरि नायक।।
कोमल किरन अरुन मानों वन व्यापि रही यों।
मनसिज खेल्यौ फाग घुमङि धुरि रह्यो गुलाल ज्यों।।’’

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भूषण || रीतिकाल कवि || हिंदी साहित्य

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:31st Jan, 2021 | 961 View

भूषण || रीतिकाल कवि || हिंदी साहित्य

आज के आर्टिकल में रीतिकाल के महत्त्वपूर्ण कवि ’भूषण’ से सम्बन्धित जानकारी दी गयी है। यह परीक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण साबित होगा।

भूषण (सं 1670-1772)⇒ ये कानपुर के समीपवर्ती तिकवांपुर(उत्तरप्रदेश) नामक स्थान पर रत्नाकर त्रिपाठी के घर संवत् 1670 (1613ई.) को जन्में। ये प्रसिद्ध कवि चिंतामणि और मतिराम के भाई कहे जाते हैं।

भूषण(Bhushan kavi)

जीवनकाल – संवत् 1670-1772

जन्मस्थल – तिकवापुर (कानपुर)

पिता – रत्नाकर त्रिपाठी

सहोदर – मतिराम, चिंतामणि, जटाशंकर

मूलनाम – गणपति चंद्र गुप्त के अनुसार पतिराम या मनीराम। विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार घनश्याम।

उपाधियाँ –

  • भूषण – रुद्रशाह सोलंकी चित्रकूट
  • हिन्दी का रीतिकाल का विलक्षण कवि – नगेन्द्र
  • शुक्ल जी – हिन्दी जाती के प्रतिनिधि कवि
  • हिन्दी का प्रथम राष्ट्रकवि

आश्रयदाता – छत्रपति शिवाजी, उनके पौत्र शाहूजी एवं छत्रसाल बुंदेला

रचनाएँ – शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक, अलंकार प्रकाश, छंदोहृदयप्रकाश, भूषण उल्लास, दूषण उल्लास, भूषण हजारा।

⇒ डाॅ. नगेन्द्र ने अलंकार प्रकाश एवं छंदोहृदयप्रकाश मुरलीधर भूषण की रचना मानी तथा अंतिम तीन अभी अप्राप्य है।

⇒ शिवराज भूषण – 1673 ई. में रचित शिवाजी की प्रशस्ति मय अलंकार ग्रंथ। अलंकारों के लक्षण जयदेव के चन्द्रालोक एवं मतिराम के ललितललाम के आधार पर एवं उदाहरण शिवाजी के प्रशस्ति में रचे गये। लक्षण दोहा छंद एवं उदाहरण सवैया छंद में रचित। उदाहरण रूप में 385 पद रचित। कुल 105 अलंकारों जिनमें 99 अर्थालंकार, 4 शब्दालंकार, 1 चित्रालंकार एवं 1 संकर अलंकार शामिल।

⇒ शिवाबावनी – 52 कवित्तों में शिवाजी की प्रशस्ति

⇒ छत्रसाल दशक – छत्रसाल बुंदेला की प्रशस्ति

⇒ कहा जाता है कि चित्रकूट के राजा रूद्रसाह सोलंकी ने इन्हें ’भूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया। इनका वास्तविक नाम शोध का विषय बन गया है। (घनश्याम माना जाता है।)

⇒ ’शिवराज भूषण’ (1673 ई.), ’शिवाबावनी’ शिवाजी के आश्रय में लिखे।

⇔ ’छत्रशालदशक’ की रचना ’छत्रशाल’ की प्रशस्ति में की।

⇒चित्रकूट नरेश रूद्रराम सोलंकी ने इन्हें भूषण की उपाधि दी थी

भूषण की प्रमुख काव्य पंक्तियाँ 

वेद राखे विदित पुरान परसिद्ध राखे
राम नाम राख्यो अति रसना सुधर में।
हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन की
कांधे में जनेऊ राख्यो माला राखी गर में।।

भूषण सिथिल अंग भूषण सिथिल अंग,
विजन डुलाती ते वै विजन डुलाती है।
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी,
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहती है।।

कंद मूल भोग करे, कंद मूल भोग करे,
तीन बैर खाती थी वे तीन बैर खाती हैं।
’भूषन’ भनत सिवराज वीर तेर त्रास,
नगन जङाती ते वै नगन जडाती है।।

सचि चतुरंग सेन अंग को उमंग भरि,
सरजा शिवाजी जंग जीतन चलत है।

आपस की फूट ही ते सारे हिन्दुआन टूटे।
कट गई नाक सिगरेई दिल्ली दल की-मुहावरा प्रयोग

तेज तम अंश पर, कान्ह जिमि कंस पर
त्यो मलेच्छा वंश पर सेर शिवराज है – मालोपमा

भूषण कवि के संदर्भ में प्रमुख कथन –

रामचंद्र शुक्ल – ’’भूषण की भाषा में ओज की मात्रा तो पूरी है पर वह अधिकार अव्यवस्थित है। व्याकरण का उल्लंघन प्रायः है और वाक्य रचना भी कहीं-कहीं गङबङ है।’’

रामचंद्र शुक्ल के अनुसार – ’’शिवाजी और छत्रशाल की वीरता के वर्णन को कोई कवि की झूठी खुशामद नहीं कर सकता। वे आश्रयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अनुसरण मात्र नहीं है। इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिन्दू जनता स्मरण करती है, उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिन्दू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।’’

हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार – ‘प्रेम विलासिता के साहित्य का ही उन दिनों प्राधान्य था ,उसमें वीर रस की रचना की ,यही उनकी विशेषता है ‘|

रामचंद्र शुक्ल – भूषण के वीर रस के उद्गार सारी जनता के हृदय की सम्पत्ति हुए।

नगेन्द्र – इनकी वाणी का ओज अपने आप में ऐसा है कि सहृदय आनंद विभोर होकर वीर रस जनित स्फूर्ति का अनुभव करता है।

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वीर रस के कवित्त,कवि,कविता,कविराज ,रीतिकाल,वीर रस के कवि

केशवदास || जीवन परिचय || रीतिकाल कवि

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:29th Jan, 2021 | 2519 View

केशवदास || जीवन परिचय || रीतिकाल कवि

आज की पोस्ट में हम रीतिबद्ध कवि केशवदास जी के जीवन परिचय के बारे में जानेंगे और ऑडियो क्लिप से भी इनके बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे |

केशवदास
केशवदास

⇒केशवदास जीवन परिचय 

केशवदास (1555-1617 ई. संवत् 1612-1674)

⇒ आचार्य केशव ’रीतिकाल का प्रवर्तक’ कहलाने के अधिकारी है।
⇔ ये राजा रूद्रप्रताप के आश्रित सनाढ्य ब्राह्मण पं. कृष्णदत्त के पौत्र और राजा मधुकर शाह से सम्मानित पं. काशीनाथ के पुत्र थे तथा ओरछा नरेश इन्द्रजीत सिंह इन्हें गुरु मानते थे।
⇒ शुक्ल ने इनका समयकाल संवत् 1612-1674 वि.सं. के आसपास माना है।
इनके द्वारा रचित ग्रन्थ हैं –

रचनाएं 

  • रसिकप्रिया (1591)
  • रामचन्द्रिका (1601)
  • कविप्रिया (1601)
  • रतनबावनी (1607 ई. के लगभग)
  • वीरसिंहदेवचरित (1607)
  • विज्ञानगीता (1610)
  • जहाँगीर जसचन्द्रिका (1612)
  • नखशिख और छन्दमाला।

⇒ केशव अलंकारवादी आचार्य थे। इन्हें शुक्ल ने ’कठिन काव्य का प्रेत’ कहा। इन्होंने ब्रज भाषा में रचना की। यद्यपि ये संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे तथापि उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है जिसमें बुन्देली, अवधी और अरबी-फारसी शब्दों का समावेश है।
⇒ अधिक छन्द प्रयोग के लिए ’रामचन्द्रिका’ को छन्दों का अजायबघर कहा जाता है।

जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरस सरस सुवृत्त।
भूषण बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्त।।
(कविप्रिया)

 

कवि कौ देन न चहै विदाई। पूछे केशव की कविताई।।

केशवदास के बारे में महत्त्वपूर्ण  कथन

आचार्य शुक्ल – ’’केशव को कवि हृदय नहीं मिला था, उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी, जो एक कवि में होनी चाहिए।’ यथा –
कै स्रोनित कलित कपाल यह किल कपालिक काल को (उपमा का नीरस क्लिष्ट प्रयोग)।

शुक्ल के अनुसार – ’केशव केवल उक्ति वैचित्र्य और शब्द क्रीङा के प्रेमी थे। जीवन के नाना गम्भीर और मार्मिक पक्षों पर उनकी दृष्टि नहीं थी। प्रबन्ध पटुता उनमें कुछ भी न थी।’

डाॅ. शम्भूनाथ सिंह – ’रामचन्द्रिका में न तो किसी महान् आदर्श की स्थापना हो सकी है और न ही उसमें ऐसी महत् प्रेरणा ही दिखाई देती है, जिससे अभिभूत होकर कवि ने उसकी रचना की हो।’

⇔ केशव को ’रामचन्द्रिका’ में सर्वाधिक सफलता संवाद-योजना में मिली है।

रामचंद्र शुक्ल –’इन संवादों में पात्रों के अनुकूल क्रोध, उत्साह आदि की व्यंजना भी सुन्दर है तथा वाक्पटुता और राजनीति के दावपेंच का आभास भी प्रभावपूर्ण है।’

रामचंद्र शुक्ल – प्रबंधकाव्य रचना के योग्य न तो केशव में अनुभूति ही थी, न शक्ति।

रामचंद्र शुक्ल – रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता हुई है संवादों में इन संवादों में पात्रों के अनुकूल क्रोध, उत्साह आदि की व्यंजना भी सुंदर है।

रामचंद्र शुक्ल – केशव की रचना में सूर, तुलसी आदि की सी सरसता और तन्मयता चाहे न हो पर काव्यांगों का विस्तृत परिचय कराकर उन्होंने आगे के लिये मार्ग खोला।

डाॅ. नगेन्द्र – केशवदास का रस और अलंकार विवेचन न तो तर्क संगत है, न ही मौलिक।

डाॅ. नगेन्द्र – ’रामचंद्रिका’ केशव का असाधारण महाकाव्य है, जिसमें परपंरा पालन के स्थान पर वैशिष्ट्य सन्निवेश का ध्यान अधिक रखा गया।

पीताम्बरदत्त बङथ्वाल – उनकी भाषा काव्योपयोगी नहीं है। माधुर्य और प्रसाद गुण से तो जैसे वे खार खाए बैठे थे। उनकी ब्रजभाषा बहुत ऊबङ-खाबङ है। उसमें स्थान-स्थान पर बुन्देलखण्डों का पुट मिला हुआ है।

अज्ञेय – बिहारी को एक ट्रेडिशन बना बनाया मिला, केशव ने स्वयं ’ट्रेडिशन’ बजाया। अगर बिहारी की फलों की दुकान है जहाँ आप को मेवा तुरंत मिलता है, तो केशव वह माली है जिसने पौधे बोये थे।

केशवदास की संवाद योजना के चयनित उदाहरण 

कैसे बंधायो ?
जो सुन्दरि तेरी छुई दृग सोबत पातक लेख्यो
कौन को सुत? बालि के! वह कौन बालि! न जानिए!
कांख चापि तुम्हें जो सागर सात न्हात बखानिए।।
(व्यंजना सौन्दर्य)

देहि अंगदराज तो को मारि वानरराज को (राजनीति)

यह कौन को दल देखिए, यह राम को प्रभु पेखिए।
यह कौन राम न जानिए, यह ताङका जिन मारिए।।
(नाटकीयता)

मातु कहाँ नृप तात? गए सुरलोकहि
क्यों? सुत शोक लिए। (स्वाभाविकता)

⇒ केशव की संवाद योजना में पात्रानुकूलता, व्यंजना, संक्षिप्तता, राजनीति, सरल भाषा, नाटकीयता, स्वाभाविकता थी।

⇔ कहा जाता है कि केशवदास ने अपनी शिष्या ’रायप्रवीन’ को काव्यशास्त्र का ज्ञान कराने के लिए कविप्रिया, रसिकप्रिया और छन्दमाला तीनों रीतिग्रन्थों का प्रणयन किया।

⇒ रसिकप्रिया में सोलह प्रकाश (अध्याय) हैं जिसमें शृंगार रस के भेद, नायक-नायिका भेद, दर्शन प्रकार, मिलन स्थान, वियोग शृंगार, कामदशा, मान, मानमोचन उपाय, सखी भेद आदि हैं।

⇔ कविप्रिया में सोलह ’प्रभाव’ (अध्याय) हैं जिसमें गणेश वंदना, नृपवंश, स्वयं का वंश, काव्य दोष, अलंकार भेद, नखशिख वर्णन, चित्रकाव्य आदि वर्णित हैं।

⇒ छन्दमाला के प्रथम भाग में 77 वर्णवृत्तों (छंदों) तथा द्वितीय भाग में 26 मात्रावृत्त के लक्षण उदाहरण सहित प्रस्तुत हैं।
⇔ ’कविप्रिया’ में कवि के आश्रयदाता इन्द्रजीतसिंह की प्रशस्ति सम्बन्धी अनेक छंद समाविष्ट है।

डाॅ. नगेन्द्र –’भक्तिकाव्य की वेगवती धारा को रीतिपथ पर मोङने के लिए एक प्रभावशाली व्यक्तित्व की आवश्यकता थी, प्रतिभा से पुष्ट यह व्यक्तित्व केशव का था।’

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Dushyant Kumar || दुष्यंत कुमार || लेखक परिचय || हिंदी साहित्य

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:27th May, 2020 | 803 View

Dushyant Kumar || दुष्यंत कुमार || लेखक परिचय || हिंदी साहित्य

आज की पोस्ट में हम हिंदी के चर्चित कवि दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar)जो कि ‘परदेशी ‘ उपनाम से कविताएँ लिखते थे ,इनके लेखन परिचय के बारे में जानेंगे 

Dushyant Kumar

दुष्यंत कुमार(dushyant kumar) लेखक परिचय 

  • जन्म – सन् 1933 ई.
  • मृत्यु – सन् 1975 ई. (भोपाल)
  • जन्म स्थान – बिजनौर जिले के राजपुर नवाङा गाँव, उत्तरप्रदेश में
  • वास्तविक नाम – दुष्यन्त नारायण त्यागी

उपनाम – 1. परदेशी उपनाम से कविता लेखन 2. अनुरागी

रचनाएँ –

काव्य संग्रह –

  • सुर्य का स्वागत(1957 ई.)
  • आवाजों के घेरे (1963 ई)
  • जलते हुए वन का बसंत(1975 ई.)
  • साये में धूप (गजल संग्रह) 1975 ई.

काव्य नाटक – एक कण्ठ विषपायी (1963 ई.)

एकांकी (नाटक)

  • मसीहा मर गया
  • मन के कोण

उपन्यास –

  • छोटे – छोटे सवाल (1964 ई.)
  • आँगन में एक वृद्धा (1969 ई. )
  • दुहरी जिन्दगी

प्रसिद्ध गजलें –

  • आदमी की पीर
  • आग जलनी चाहिए

 

  • हालाँकि/इसी तरह काव्य की रचना के प्रारम्भ में इन्होने अपना नाम दुष्यन्त कुमार परदेशी रखा। इसके बाद में केवल दुष्यंत कुमार रह गया है।

⇒ ’परिमल’ व ’नये पत्ते’ से जुङकर इन्होने /हालाँकि साहित्यिक जीवन प्रारम्भ किया।

⇔ 1958 ई. आकाशवाणी में काम किया।

⇒ 1960 ई. आकाशवाणी भोपाल केन्द्र पर रहे।

⇔ 1961 ई. मध्यप्रदेश के भाषा विभाग में सहायक संचालक नियुक्त रहे।

प्रसिद्ध पंक्तियाँ-

’’हो गई है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई, गंगा निकालनी चाहिए’’
’’कहाँ तो तय तय था चिराग हरेक घर के लिए
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए’’
’’सिर्फ हंगामा खङा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए’’

’एक कण्ठ विषपायी’ –

काव्य नाटक में शिव के विषपान की पौराणिक कथा के माध्यम से व्यापक हित के निमित्त एक व्यक्ति के द्वारा समस्त पीङाओं के हलाहल को पी लेने का संदेश दिया गया है।’’

अपनी कविताओं के सम्बन्ध में इनका कथन है –

’’मेरे पास कविताओं के मुखौटे नहीं है, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राएँ नहीं है और अजनबी शब्दों का लिबास नहीं है। मैं कविता को चौंकाने या आतंकित करने के लिए इस्तेमाल नहीं करता। समाज और व्यक्ति के संदर्भ में उसका दायित्व इससे बहुत बङा है। वह (कविता) राजनीति, सामाजिक और वैयक्तिक स्तर पर, हर लङाई मेरे लिए भरोसे का हथियार है।’’

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Hazari Prasad Dwivedi || हजारी प्रसाद जीवन परिचय || हिंदी साहित्य

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:11th Feb, 2021 | 1270 View

Hazari Prasad Dwivedi || हजारी प्रसाद जीवन परिचय || हिंदी साहित्य

आज हम हिंदी साहित्य के चर्चित शख्सियत हजारी प्रसाद द्विवेदी जी(Hazari Prasad Dwivedi) के बारें में जानेंगे | आप इस टॉपिक को अच्छे से तैयार करें ताकि exam में आपको फायदा हो |

Hazari prasad Dwivedi


जन्म- 19 अगस्त, 1907 ई.

  • जन्म भूमि- गाँव ‘दुबे का छपरा’, बालिया ज़िला (उत्तर प्रदेश)imp
  • निधन -19 मई, 1979
  • कर्मभूमि- वाराणसी
  • कर्मक्षेत्र – निबन्धकार, उपन्यासकार,आलोचक,सम्पादक,अध्यापक

पुरस्कार /उपाधि (Hazari prasad Dwivedi)

  • पद्म भूषण,(1957)
  • टैगोर सम्मान,(1962) बंग साहित्य अकादमी द्वारा
  • डी.लिट की उपाधि,(1949) (लखनऊ विश्वविद्यालय ने दी )
  • साहित्य आकादमी पुरस्कार,(1973)आलोक पर्व(निबंध)

आलोचना /साहित्येतिहास(Hazari prasad Dwivedi)

  • सूर साहित्य (1936)imp
  • हिन्दी साहित्य की भूमिका (1940)imp
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  • चारु चंद्रलेख(1962)
  • पुनर्नवा(1973)
  • अनामदास का पोथा(1976)

विशेष तथ्य:-

  • इनका मूल नाम  बैजनाथ द्विवेदी था
  •  द्विवेदी ने बिहारी सतसई को ‘रसिकों के हृदय का घर’ कहा|
  • हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शुक्ल के वीरगाथा काल को ‘आदिकाल’ नाम से पुकारा|
  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आचार्य शुक्ल के सबसे बड़े आलोचक माने जाते हैं डॉक्टर गणपति चंद्र गुप्त के शब्दों में ” संभवत द्विवेदी जी सबसे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने आचार्य शुक्ल की अनेक धारणाएं और स्थापना को चुनौती देते हुए उन्हें सबल प्रमाणों के आधार पर खंडित किया है|
  • इनके लिए प्रसिद्ध कथन ” भारत का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय करें |”शुक्ल ने कहा 
  • इन्होंने आदिकाल को ‘अत्यधिक विरोध एवं व्याघातों का युग’ कहा|
  • यह आचार्य शुक्ल के बाद दूसरे श्रेष्ठ निबंधकार माने जाते हैं|
  • इन्होंने कबीर को ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा|
  • इन्होंने रामानंद को ‘आकाश धर्मा गुरु कहा है|
  • इन्होनें निर्गुण ज्ञानमार्गी शाखा को ‘निर्गुण भक्ति साहित्य’ नाम दिया|

 

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