चर्यापद क्या है || हिंदी साहित्य का आदिकाल

चर्यापद क्या है ?

दोस्तो हिंदी साहित्य के इतिहास में अगर हम आदिकाल पढ़ते है तो हमें चर्यापद शब्द पढने को मिलता है आज हम इसके बारे में ही चर्चा करेंगे
दोहाकोशों के साथ-साथ बौद्धसिद्धों ने चर्यापदों की भी रचना की है। ये एक प्रकार के गीत होते हैं तो सामान्यतः अनुष्ठानों के समय गाये जाते हैं। इन गीतों के लेखक सिद्धाचार्य कहलाते थे। कुछ चर्याकार योगीश्वर और कुछ अवधूत (जिसके अज्ञान का प्रक्षालन हो चुका हो) कहे जाते थे। दोहों में मतों का खंडन-मंडन होता है तो चर्यापदों में सिद्धों की अनुभूति और रहस्यभावना। ये चर्याएँ संधा भाषा के दृष्ट-कूटों में लिखी गई हैं जिनके दुहरे अर्थ होते हैं। ठेंठण के एक गीत का छायानुवाद है-

’’मेरी कुटिया सघन बस्ती के बीच है, पर पङोसी नहीं है। पतीली में चावल का एक कन भी नहीं बचा है, पर प्रेमी हमेशा दरवाजे पर दस्तक देते रहते हैं। जीवन का प्रवाह तेजी से बहता जाता है। पर क्या एक बार दुह लिया गया दूध वापस थनों में लौट सकता है ? गाय बाँझ खङी है, पर एक बैल ब्याया है और वह दिन में तीन बार बाल्टी भर दूध देता है। हर रोज एक गीदङ शेर से लङता है।’’

ठेंठण  के इस गीत को विरले ही समझते हैं।

चर्यापद समझें 

दोहाकोशों और चर्यागीतों की भाषा में अन्तर है। दोहों की रचना परिनिष्ठित अपभ्रंश में हुई है तो चर्यापदों की अवहट्ठ में। दूसरे शब्दों में चर्यापदों में देशभाषा का मिश्रण है। शुक्लजी का कहना है– ’’यही भेद हम आगे चलकर कबीर की ’साखी’ और ’रमैनी’ की भाषा में पाते है। साखी की भाषा तो खङी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य ‘सधूक्कड़ी’ है, पर रमैनी के पदों की भाषा में काव्य की भाषा ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली है।’’

बौद्ध सिद्धों की साहित्यिकता संदिग्ध है। उन्होंने अनेक धर्मों के कर्मकांडों का उचित विरोध किया किन्तु स्वयं ऐसे कर्मकांडों की सृष्टि की जो और भी गर्हित थे। संतों ने उनके विरोध पक्ष को तो अपनाया किन्तु बौद्धों के गर्हित कर्मकांडों का परित्याग कर दिया। पर गुरु के प्रति श्रद्धा और विनय, धर्माडंबर के प्रति उपहास, ऊँच-नीच तथा जाति-पाँति के भेदभ्ज्ञाव पर की जानेवाली चोटें आदि स्वस्थ परंपराओं को निर्गुण कवियों ने उत्साहपूर्वक अपनाया।

सिद्धों के काव्य-रूप दोहा और चर्यापद ’साखी’ और ’सबदी’ में किंचित् रूपान्तरित हो गये। यही नहीं, उनकी बहुत-सी शब्दावली ज्यों की त्यों ग्रहण कर ली गई जैसे शरीर के भीतर के षटचक्र, नाङी-विधान, शून्य, गगन, सुरति-निरति, रहस्यवादी प्रतीक सहज आदि। किन्तु आगे चलकर तांत्रिक साधना का लोप हो गया।

तांत्रिक साधना के प्रयोग में आनेवाले कुछ अवांछित बिंब-जुआखोरी, शतरंज, जल-डकैती, शराब-अब नहीं रह गये। इसके विरोध में नाथपंथी योगी पहले ही खङे हो चुके थे। उनके अद्भूत संयम और योग ने तंत्रवाद की रीढ तोङ दी। निर्गुण भक्तों ने नाथों की इस परंपरा को अपनाया। पर सिद्धों की मारक शक्ति ने अनगढ़ भाषा में मन को छूनेवाली संप्रेषणीयता को भी स्वीकार किया।

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