हिन्दी उपन्यास – Hindi Upanyas – हिंदी साहित्य का गद्य

आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य की गद्य विधा में हिंदी उपन्यास (Hindi Upanyas) को पढेंगे ,पुरे आर्टिकल को ध्यान से पढ़ें ।

हिन्दी उपन्यास का विकास (Hindi Upanyas)

हिन्दी उपन्यास के इतिहास का सामान्यतः तीन चरणों में विभाजन किया जाता है-

  1. प्रेमचंद पूर्व उपन्यास
  2. प्रेमचंदयुगीन उपन्यास
  3. प्रेमचंदोत्तर उपन्यास।

प्रेमचंद पूर्व हिन्दी उपन्यास

1882 ई. से लगभग 1916 ई. तक के युग को हिन्दी उपन्यास में प्रेमचंद पूर्व युग के नाम से जाना जाता है। यह हिन्दी उपन्यास के विकास का आरंभिक काल है जहाँ मध्यकाल के आदर्शवाद तथा रोमानियत के तत्त्व धीरे-धीरे खत्म हो रहे थे और यथार्थवाद के तत्त्व बढ़ रहे थे। इस युग की वास्तविक भूमिका एक पृष्ठभूमि के रूप में है जिसने परिपक्व उपन्यास लेखन को आधार प्रदान किया।

इस समय तीन प्रकार के उपन्यास लिखे गए-

  1. सुधारवादी उपन्यास
  2. मनोरंजनपरक उपन्यास
  3. ऐतिहासिक उपन्यास।

(1) सुधारवादी या नैतिक उपदेशात्मक उपन्यास:-

ये उपन्यास मूलतः धर्म सुधार तथा नवजागरण आंदोलन की प्रेरणा से लिखे गए हैं। इन्हें लिखने वालों में मुख्यतः भारतेन्दु मण्डल के कुछ लेखक व श्रद्धाराम फिल्लौरी जैसे तत्कालीन लेखक शामिल हैं। इन्होंने सांस्कृतिक, सामाजिक पतन व उससे बचाव के उपायों पर काफी लिखा। इसके अतिरिक्त, भारतीय नारी व हिन्दू जीवन शैली जैसे विषय इन उपन्यासों में प्रमुख रहे। इन रचनाओं में यथार्थवाद का तत्त्व कम है और आदर्श व उपदेश के तत्त्व हावी हैं। औपन्यासिक संरचना की दृष्टि से इनका महत्त्व बहुत अधिक नहीं है।

इसके कुछ उदाहरण हैं-

  • लाला श्रीनिवास दास – परीक्षा गुरु
  • श्रद्धाराम फिल्लौरी – भाग्यवती
  • राधाकृष्ण दास – निस्सहाय हिन्दू
  • बालकृष्ण भट्ट – सौ अजान एक सुजान

(2) मनोरंजनपरक उपन्यास –

इस काल में दूसरे प्रकार के उपन्यास मनोरंजनपरक है जिनमें दो प्रवृत्तियाँ दिखाई पङती हैं-

  1. तिलस्मी-ऐयारी उपन्यास
  2. जासूसी उपन्यास।

’तिलस्म’ शब्द यूनानी शब्द ’टेलेस्मा’ से बना है जिसका अर्थ है जादू या इन्द्रजाल। ’ऐयारी’ अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है जादुई किस्म का व्यक्तित्व। तिलस्मी-ऐयारी उपन्यास जादुई किस्म के कथानक पर आधारित होते थे जिनमें घटनाओं में कारण-कार्य की संगति नहीं दिखती थी। नायक मनुष्य होकर भी अतिप्राकृतिक शक्तियों से युक्त होता था और वह अलौकिक या अतिप्राकृतिक शत्रुओं से टकराता था।

ये उपन्यास बेहद रोमांचकारी व कल्पनाप्रधान होते थे किन्तु इनमें यथार्थ की छाया नजर नहीं आती थी। जासूसी उपन्यास का कथानक जादुई तो नहीं होता था किन्तु बेहद रहस्यपूर्ण व रोमांच से भरा होता था। किसी हत्या या अपराध की तहकीकात करते हुए जासूस नायक बहुत से खतरों से खेलकर सच को ढूंढ निकालता था।

इस प्रकार के कुछ उपन्यास इस प्रकार हैं-

  • देवकीनन्दन खत्री – चन्द्रकांता, चन्द्रकांता संतति
  • किशोरीलाल गोस्वामी – तिलस्मी महल
  • गोपालराम गहमरी – सरकटी लाश, जासूस पर जासूसी

(3) ऐतिहासिक उपन्यास –

इस युग में तीसरे प्रकार के उपन्यास ऐतिहासिक विषयवस्तु पर केन्द्रित थे। यहां इतिहास का प्रयोग मुख्यतः दो कारणों से हुआ। कुछ लेखकों ने नवजागरण की चेतना से युक्त होकर इतिहास के गौरवशाली प्रसंगों का प्रस्तुतीकरण किया। कुछ अन्य लेखकों ने इतिहास का प्रयोग सिर्फ नारी व पुरुष के रोमांस को दिखाने के लिए आवरण की तरह किया। इन उपन्यासों का इतिहास-बोध काफी अपरिपक्व है।

इनमें ऐतिहासिक तथ्यों की संरचना काफी ढीली-ढाली है। इनका महत्त्व सिर्फ इसलिए है कि ये उपन्यास के इतिहास के प्रारंभिक काल में रचे गए, न कि इसलिए कि ये विशेष गुणवत्ता धारणा करते हैं।

ऐसे कुछ उपन्यास इस प्रकार हैं-

  • किशोरीलाल गोस्वामी – तारा, रजिया बेगम, आदर्श रमणी
  • मिश्र बन्धु – वीरमणि
  • बाबू बृजनन्दन सहाय – लालचीन

उपन्यास और यथार्थवाद में सम्बंध

उपन्यास का मूल संबंध यथार्थवाद से माना गया है और इसी अर्थ में यह पारम्परिक आख्यायिकाओं से अलग है। यूरोप में 14 वीं शताब्दी के आसपास साहित्यिक रचनाओं के दो प्रसिद्ध वर्ग थे- ’रोमांस’ तथा ’नोवास’। रोमांस का संबंध उन रचनाओं से था जिनमें भावुकता, काल्पनिकता व रोमानियत भरी होती थी। इसका विषय सामान्यतः प्रेम या कोई रोमांचकारी घटना होती थी।

दूसरी ओर नोवास उन रचनाओं को कहा जाता था जो अपने समय की वास्तविकताओं का यथार्थपरक वर्णन करती थी। साहित्य का यही वर्गीकरण आधुनिक काल तक आगे बढ़ा और यही ’नोवास’ आगे चलकर ’नाॅवेल’ बन गया।

ऐसा नहीं है कि उपन्यास अपने जन्म के समय से ही शुद्धतः यथार्थवादी रहा है। कोई भी विधा जब जन्म लेती है तो उसे संक्रमण काल से गुजरना होता है और उस काल में पिछली अवस्था के लक्षण बचे रहते हैं। यही स्थिति उपन्यास के साथ रही है।

शुरूआती उपन्यास (पश्चिम में भी और भारत में भी) जासूसी और काल्पनिक किस्म के थे जिनमें रोमांच का तत्त्व केन्द्र में था। 1939 ई. में विश्व का पहला उपन्यास ’पामेला’ छपा, जिसके लेखक सैमुअल रिचर्डसन थे। रोमांच के चरक स्तर को छूने के कारण यह इतना अधिक बिका की आज तक कम ही पुस्तकें इसके कीर्तिमान को छू सकी है।

जन्म के कुछ ही समय बाद उपन्यास यथार्थवाद से संबंद्ध हो गया। 1850 के आसपास अंग्रेजी एवं रूसी साहित्य में ऐसे उपन्यास दिखाई देने लगे जो पूरी तरह यथार्थ को समेटते थे। इसका एक कारण मध्य वर्ग के विकास से संबंधित था। मध्य वर्ग के शिक्षित समाज को सिर्फ कल्पनाओं और रोमानियत से संतुष्ट करना संभव नहीं था।

वे पहली बार अपने मूल समाज से विच्छिन्न होकर नगरीय जीवन में अकेलेपन व कई ऐसी समस्याओं को झेल रहे थे कि वे साहित्य में भी उसी जीवन के चित्र खोजना चाहते थे। इन सब दबावों ने उपन्यास को यथार्थवाद से जोङा और देखते ही देखते वह जटिल समाज के सम्पूर्ण चित्र को पेश करने वाला ’गद्य महाकाव्य’ बन गया।

हिन्दी साहित्य में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति दिखाई दी। 1882 ई. में हिन्दी का प्रथम उपन्यास ’परीक्षागुरु’ प्रकाशित हुआ। यहाँ से प्रेमचंद के आगमन तक हिन्दी उपन्यास रोमांच, काल्पनिकता तथा नैतिक उपदेशों से भरा था। प्रेमचंद ने पहली बार उपन्यास परम्परा को सामाजिक यथार्थ से जोङा। यही कारण है कि कुछ आलोचक तो हिन्दी उपन्यास की शुरूआत प्रेमचंद से ही मानते हैं।

हिन्दी का पहला उपन्यास

हिन्दी उपन्यास की शुरूआत उसी युग में हुई जिसे गद्य के विस्फोट का ’आरंभिक युग’ या ’भारतेन्दु युग’ कहते हैं। इस युग के रचनाकारों ने कई विधाओं का प्रवर्तन किया जिनमें उपन्यास भी एक है।

हिन्दी के पहले उपन्यास के संबंध में विवाद है। एक मत के अनुसार 1882 ई. में लीला श्रीनिवास दास द्वारा रचित ’परीक्षागुरु’ हिन्दी का पहला उपन्यास है। इस उपन्यास में दिल्ली के एक सेठ मदनमोहन की कहानी बताई गई है जो कुसंगति के कारण अपना बहुत सा धन बर्बाद कर देता है और एक मित्र के प्रयासों से इस स्थिति से बाहर निकलता है।

इस रचना का मूल भाव लेखकानुसार यह है कि व्यक्ति को जितनी चादर हो, उतना ही खर्च करना चाहिए। कहीं-कहीं इसमें नई शिक्षा, आधुनिक कृषि, औद्योगीकरण तथा निज भाषा की उन्नति जैसे विचार भी दिखते हैं।

दूसरे मतानुसार, हिन्दी का पहला उपन्यास श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा रचित उपन्यास ’भाग्यवती’ को मानना चाहिए यह उपन्यास 1887 ई. में प्रकाशित हुआ हालांकि इसका लेखन संभवतः 1877 ई. में हो चुका था। इसमें भारतीय स्त्रियों को गृहस्थ धर्म की शिक्षा दी गई है। लेखक ने स्वयं इसके संबंध में लिखा है- ’’ऐसी पोथी कि जिसके पढ़ने से भारत खण्ड की स्त्रियों को गृहस्थ धर्म की शिक्षा प्राप्त होती है।’’

अब यह माना जाता है कि ’परीक्षागुरु’ ही हिन्दी का पहला उपन्यास है। इस निर्णय के पक्ष में दो तर्क दिए जाते हैं। पहले तर्कानुसार, किसी रचना का काल निर्धारण उसके प्रकाशन वर्ष से ही हो सकता है न कि लेखन वर्ष से, क्योंकि साहित्य वस्तुतः तभी साहित्य बनता है जब वह पाठक तक पहुंचता है।

इसलिए ’परीक्षा-गुरु’ काल की दृष्टि से ’भाग्यवती’ से पहले है। दूसरा तर्क यह है कि ’भाग्यवती’ में आदर्शात्मक और उपदेशात्मक मानसिकता अधिक है, यथार्थवादी मानसिकता नहीं के बराबर नजर आती है। दूसरी और ’परीक्षागुरु’ में भी सुधारवादी मानसिकता मिलती है पर इसके बावजूद इसमें आधुनिक मानसिकता के तत्त्व भी दिखाई पङते हैं।

अतः ’परीक्षागुरु’ ही हिन्दी का पहला उपन्यास माना जा सकता है।

प्रेमचंद पश्चात् युग

प्रेमचंद युग के बाद भारतीय समाज की प्रकृति में तीव्र व व्यापक परिवर्तन हुए जिसके कारण उपन्यासों की दुनिया भी तेजी से बदली। देश को स्वाधीनता मिली किन्तु स्वाधीनता के कुछ दिनों बाद उससे मोहभंग भी होने लगा। नागार्जुन ने तो इस तथाकथत आजादी पर चोट करते हुए यहाँ तक कहा कि – ’’कागज की आजादी मिलती, ले लो दो-दो आने में’। इसके साथ-साथ देश में तीव्र शहरीकरण हुआ और एक पूरी ग्रामीण पीढ़ी शहर पहुँच गई।

महिलाओं ने घर से बाहर समाज के प्रत्येक क्षेत्र में कदम रखा और अधिकारों की मांग की जिससे स्त्री-पुरुष संबंध तेजी से बदलने लगे। कुछ और आगे चलकर मध्यवर्ग की संख्या तेजी से बढ़ी और उपभोक्तावादी संस्कृति देखते ही देखते मीडिया पर सवार होकर देश भर में फैल गई। इन सारे परिवर्तनों से सामाजिक संरचना जटिल होती गई और उपन्यासों के समक्ष इस जटिल यथार्थ को प्रस्तुत करने की चुनौती खङी हो गई।

हिन्दी उपन्यास ने इन सभी परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में समाज के जीवत चित्र प्रस्तुत किए जिन्हें कई वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

(1) मनोवैज्ञानिक उपन्यास:-

मनोविज्ञान का प्रयोग यूँ तो प्रेमचंद ने भी किया था किन्तु उनके बाद मनोविज्ञान के तकनीकी पक्ष का महत्त्व बढ़ा और उसने साहित्य को प्रभावित किया। बीसवीं सदी की शुरूआत में सिग्मंड फ्राॅयड ने थाॅमस एडलर तथा कार्ल युंग के साथ मिलकर ’मनोविश्लेषणवाद’ प्रस्तुत किया। जिसने सारी दुनिया को वैचारिक तौर पर प्रभावित किया। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति के यथार्थ की पहचान उसके चेतन मन से नहीं बल्कि अचेतन व अवचेतन से होती है।

व्यक्ति की सबसे मूल प्रवृत्ति हैं ’लिविडो’ (Livido) अर्थात् ’कामचेतना’ जिससे व्यक्ति का मूल व्यक्तित्व निर्मित होता है। इसके अतिरिक्त, मनोविश्लेषणवाद के समर्थकों ने जीवनेच्छा, इडिपस ग्रंथि, इलेक्ट्रा ग्रंथ इत्यादि सिद्धांतों का भी प्रयोग किया।

मनोवैज्ञानिक उपन्यास मुख्यतः इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर रचे गए। वे व्यक्ति के मन की तहों में झाँककर प्रचलित नैतिक सिद्धांतों की समीक्षा करते हैं। इन उपन्यासों में जो विशेष तत्त्व देखने को मिलते हैं, वे इस प्रकार हैं-

  1. इनमें घटनाएँ बेहद विरल होती हैं क्योंकि इनमें घटनाओं से ज्यादा महत्त्व, चिंतन, मनन, मंथन और विश्लेषण का है। उदाहरण के लिए, ’शेखरः एक जीवनी’ में घटनाओं की संख्या बेहद कम है जबकि विश्लेषण कई-कई पृष्ठों तक फैला हुआ है।
  2. इनमें पात्रों की संख्या अत्यंत सीमित होती है किन्तु पात्र के आंतरिक व्यक्तित्व का उद्घाटन अत्यंत सूक्ष्म और बहुआयामी तरीके से होता है।
  3. इनमें बहिर्जगत के स्थान पर अंतर्जगत कथावस्तु के केन्द्र में स्थापित हो जाता है।
  4. इनमें भाषा अत्यंत प्रतीकात्मक हो जाती है क्योंकि सीधी-सपाट भाषा में मन की गहराइयों को व्यक्त करना संभव नहीं होता। उदाहरण के लिए, त्यागपत्र की मृणाल कहती हैं- ’देख, चिङिया कितनी ऊँची उङ जाती है। मैं चिङिया होना चाहती हूँ।’
  5. ये उपन्यास प्रचलित नैतिक व्यवस्था की विकृतियों को प्रदर्शित करते हैं और दावा करते हैं कि व्यक्ति के नैतिक होने का निर्णय उसके काम संबंधों के आधार पर नहीं होना चाहिए। ’शेखरः एक जीवनी में शेखर व शशि का प्रेम ऐसी ही नैतिक वर्जनाओं को तोङता है।
    मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में विभिन्न लेखक कुछ वैविध्य के साथ नजर आते हैं। जैनेन्द्र ने फ्राॅयड को गाँधी से मिला दिया है तो अज्ञेय ने फ्राॅयड के साथ टी.एस. इलियट, डी.एच. लाॅरिंस तथा सात्र्र को घुला-मिला दिया है। इलाचन्द जोशी और डाॅ. देवराज के यहाँ मनोविश्लेषणवाद अपने मूल रूप में दिखता है जोशी जी के उपन्यासों में सिद्धांत-पक्ष कुछ हावी हो गया है।

मनोवैज्ञानिक उपन्यासों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

  • जैनेन्द्र – त्यागपत्र, सुनीता, कल्याणी
  • अज्ञेय – शेखर एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी
  • इलाचन्द्र जोशी – जिप्सी, जहाज का पंछी, सन्यासी
  • डाॅ. देवराज – अजय की डायरी

(2) मार्क्सवादी, समाजवादी या प्रगतिवादी उपन्यास-

समाजवादी या प्रगतिवादी उपन्यास मार्क्सवादी विचारधारा को आधार बनाकर लिखे गए हैं। माक्र्स का मानना था कि किसी भी समाज का बुनियादी ढांचा उसकी अर्थव्यवस्था या उत्पादन प्रणाली में निहित होता है और उसी पर ऊपर ढाँचे जैसे राजनीति, कला, संस्कृति आदि टिके होते हैं। हर समाज दो वर्गों-शोषक व शोषित में बंटा होता है। शोषक वर्ग उत्पादन के साधनों पर कब्जा करके निम्न वर्ग पर शासन करता है।

इस अन्याय के विरूद्ध हिंसक क्रांति जरूरी है और साहित्य की भूमिका क्रांति को संभव बनाने में ही हो सकती है। इस दृष्टिकोण को ’समाजवादी यथार्थवाद’ कहा जाता है। सम्पूर्ण प्रगतिवादी साहित्य इसी दृष्टिकोण पर आधारित है।

प्रेमचंद पर अंतिम समय में मार्क्सवाद का थोङा बहुत प्रभाव दिखता है, पर वास्तविक अर्थों में समाजवादी उपन्यास प्रेमचन्दोत्तर युग में लिखे गए। यशपाल इस धारा के केन्द्रीय लेखक हैं व नागार्जुन, भैरव प्रसाद गुप्त तथा रांगेय राघव अन्य प्रमुख रचनाकार हैं। इनके उपन्यासों में

मुख्य रूप से निम्नलिखित विशेषताएँ दिखती हैं-

  1. इन उपन्यासों में आर्थिक समस्याओं विशेषतः गरीबी व शोषण को कथावस्तु का आधार बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त, धर्म व सांप्रदायिकता जैसी मिथ्या चेतनाओं पर भी चोट की जाती है।
  2. इन उपन्यासों में नायक मजदूर वर्ग या किसान वर्ग से होता है। यहाँ नायकोचित औदात्य व गरिमा जैसी पारंपरिक धारणाएँ खंडित हो जाती है।
  3. इनमें शोषणतंत्र की पहचान व इसके विरुद्ध वर्ग संघर्ष की प्रस्तावना की जाती है।
  4. इन उपन्यासों की भाषा-शैली सामान्यतः सरल होती है क्योंकि ये निम्नवर्ग को संघर्ष हेतु प्रेरित करने के उद्देश्य से रचे जाते हैं।

समाजवादी उपन्यासों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

  • यशपाल – पार्टी काॅमरेड, दादा काॅमरेड, झूठा सच, दिव्या।
  • नागार्जुन – बाबा बटेसरनाथ, वरण के बेटे।
  • भैरवप्रसाद गुप्त – मशाल, गंगा मैया।
  • रांगेय राघव – घरौंदा, विषाद-मठ।

समाजवादी उपन्यासों की सबसे बङी सीमा यह है कि इनमें कई बार सिद्धांत पक्ष हावी हो जाता है और पाठक कथानक से सहज संबंध बना नहीं पाता। जिन उपन्यासों में विचारधारा का यांत्रिक प्रयोग नहीं हुआ है, वे काफी बेहतर बन पङे हैं, जैसे यशपाल का ’दिव्या’।

(3) सामाजिक यथार्थ के उपन्यास –

जिस उपन्यास धारा को प्रेमचंद ने प्रवर्तित किया था, वही आगे चलकर नई-नई सामाजिक समस्याओं का वर्णन तथा विश्लेषण करती रही। इसी धारा को ’सामाजिक यथार्थवादी धारा’ कहा जाता है। इस धारा के लेखक किसी भी विचारधारा के मोह से बचते हुए अपने स्वतंत्र नजरिये से समाज की समस्याओं का सूक्ष्म अंकन करते हैं।

1947 ई. से आज तक का समाज जिस प्रकार तेजी से बदलता रहा है, वैसे ही इस धारा की प्रवृत्तियाँ भी बदली है। प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-

  1. 1947 ई. के तुरंत बाद राष्ट्रीय चेतना व आजादी का मोह इतना अधिक है कि लेखक देश का सुंदर भविष्य बनाने के लिए बेचैन हैं। यह प्रवृत्ति सबसे स्पष्ट रूप में भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ’भूले बिसरे चित्र’ में दिखती है। उन्हीं का उपन्यास ’टेढ़े-मेढे़ रास्ते’ भी कुछ-कुछ ऐसा ही है।
  2. 1955 ई. के बाद आजादी से मोहभंग की स्थिति पैदा हुई जो पूरे छठे दशक में मुखर रही। इस काल का प्रतिनिधि उपन्यास नरेश मेहता द्वारा रचित ’यह पथ बन्धु था’ है जिसमें आजादी के संघर्ष के निरर्थक चले जाने की पीङा दिखती है।
  3. 1970 ई. के आसपास मोह-भंग की पीङा भी समाप्त होने लगी और उदासीनता, निष्क्रियता, पैदा हुई। इस समय के लेखक क्रांति, विद्रोह और विचारधाराओं में आस्था खो चुके हैं। किन्तु उनके भीतर पीङा इतनी ज्यादा है कि बिखरते हुए समाज पर तीखा व्यंग्य किए बिना उन्हें संतोष नहीं मिलता है। इस प्रवृत्ति का सबसे प्रमुख उदाहरण है- श्रीलाल शुक्ल द्वारा रचित ’राग-दरबारी’।
  4. 1970 के दशक के बाद सांप्रदायिकता भारतीय समाज में एक बङी समस्या बनकर उभरी। इस प्रवृत्ति को सबसे बेहतर अभिव्यक्ति भीष्म साहनी ने ’तमस’ में दी।
  5. 60 के दशक में ही तीव्र नगरीकरण और मध्यवर्ग के उभार ने शहरों में ऐसे वर्ग को जन्म दिया जो सामाजिक जीवन से वंचित होकर अकेलेपन की पीङा झेल रहा था जहाँ प्रेम का स्थान उपयोगितवादी संबंधों ने ले लिया था और व्यर्थताबोध गहरा हो गया था। इस प्रवृत्ति पर मुख्यतः राजेन्द्र यादव जैसे लेखकों ने लिखा। उनका उपन्यास की धारा आज भी कई अन्य धाराओं में पर्यवसित होकर सक्रिय बनी हुई है जैसे महिला लेखन की धारा, महानगरीय उपन्यासों की धारा आदि। इस वर्ग के उपन्यासों की सबसे बङी विशेषता यह है कि ये न तो प्रगतिवादियों की तरह समाज को अधिक महत्त्व देती है और न ही मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों की तरह व्यक्ति को। ये व्यक्ति व समाज को जोङकर देखते हैं। ऐसा सूक्ष्म विश्लेषण मुख्य रूप से अमृतलाल नागर के उपन्यास ’बूंद व समुद्र’ में दिखता है जिसमें ’बूंद’ व्यक्ति को व ’समुद्र’ समाज को दर्शाता है।

(4) ऐतिहासिक पौराणिक उपन्यास –

ऐतिहासिक उपन्यास प्रेमचंद पूर्व युग में भी थे किन्तु उनमें इतिहास बोध कमजोर किस्म का था। आजादी के बाद कुछ उपन्यासकारों ने अंग्रेजों के साम्राज्यवादी इतिहास बोध को खारिज करते हुए नई इतिहास दृष्टि के साथ कुछ उपन्यास लिखे जो इस परम्परा में शामिल हैं। इनका एक उद्देश्य यह भी था कि इतिहास व पुराणों के कुछ प्रसंगों के माध्यम से वर्तमान समाज को प्रेरणा व ऊर्जा दे सकें।

ऐसे मुख्य उपन्यास हैं-

  • भगवतीचरण वर्मा – चित्रलेखा
  • चतुरसेन शास्त्री – वैशाली की नगरवधू
  • वृन्दावनलाल वर्मा – झाँसी की रानी
  • रांगेय राघव – मुर्दों का टीला
  • यशपाल – दिव्या

(5) नया उपन्यास –

नया उपन्यास कोई सैद्धांतिक नामकरण नहीं है, हालांकि व्यवहार में यह काफी प्रचलित हो गया है। जिस तर्ज पर नई कविता, नई कहानी और नई समीक्षा आंदोलन हिन्दी साहित्य में दिखते हैं, उसी तर्ज पर कुछ समीक्षक नव-लेखन के दौर में उपन्यासों को नया उपन्यास कहते हैं। नव-लेखन का दौर मुख्यतः छठे दशक से संबंधित है जो उपन्यास व कहानी में छठे दशक के बाद भी लंबे समय तक चलता रहा।

नव-लेखन के पूरे दौर में एक विशेष दृष्टिकोण दिखाई देता है जिसने अन्य विधाओं की तरह उपन्यास को भी प्रभावित किया इस समय तक आजादी से मोहभंग हो चुका था। तीव्र शहरीकरण के कारण शहरों के जीवन में जो अकेलेपन, अलगाव तथा आत्मनिर्वासन जैसी समस्याएँ पैदा हुई, उन्होंने संवेदनशील व्यक्तियों को भीतर तक हिला दिया।

इस समय मध्यवर्ग का तीव्र विकास हुआ। यह शिक्षित मध्यवर्ग अपने ग्रामीण समाज से कटा हुआ था और शहर में इसे वांछित सामाजिक परिवेश मिल नहीं सका। इस वर्ग में व्यक्तिवादी मानसिकता का तीव्र विकास हुआ। ये लोग मार्क्सवादी विचारधारा को बेहद यांत्रिक व निर्जीव मानते थे क्योंकि उसमें आर्थिक समस्याओं के अतिरिक्त अन्य समस्याएँ बेहद गौण दिखती थी। इन पर अस्तित्ववाद का अच्छा खासा असर था जो कि कुछ समय पूर्व ही पूरे यूरोप की जनता को अपने आकर्षण में बांध चुका था।

व्यक्ति को महत्त्व देते हुए उन्होंने शहरी जीवन के अलगांव, प्रेम संबंधों के उपयोगितावादी संबंधों में बदलने की त्रासदी, सशक्त होती हुई नारी के सामने उभरने वाली समस्याओं, शहरी जीवन में व्याप्त नैतिक भ्रष्टाचार तथा यौन चेतना जैसे विषयों को उपन्यासों का केन्द्रीय विषय बनाया। वर्तमान मीडिया क्रांति और उपभोक्तावाद के दौर में उपन्यास की यह परंपरा लगातार विकसित हो रही है।

नए उपन्यास को कुछ वर्गोंं में बाँटकर विश्लेषण किया जा सकता है जो इस प्रकार है-

(क) आधुनिक भावबोध की धारा/महानगरीय उपन्यास की धारा –

छठे दशक में कुछ उपन्यासकारों ने नगरीय जीवन को केन्द्र बनाते हुए उपन्यास लिखे। शहरों का वर्णन पहले के उपन्यासों में भी था किन्तु इस प्रकार का नहीं। गोदान में लखनऊ का वर्णन प्रेमचंद ने किया है किन्तु वह बेहद चलताऊ किस्म का वर्णन है। जो गहराई गोदान में ग्रामीण जीवन के वर्णन में दिखती है, उसका लेशमात्र भी शहरी वर्णन में नहीं है।

लगभग ऐसी ही स्थिति मैला आँचल भी है। महानगरीय उपन्यासों के लेखक वे व्यक्ति हैं जो महानगरीय जीवन शैली में रच बस गए हैं और महानगरीय तनावों (जैसे अकेलेपन) इत्यादि से निरंतर जूझ रहे हैं।

मोहन राकेश का प्रसिद्ध उपन्यास ’अंधेरे बंद कमरे’ इसी प्रवृत्ति का उदाहरण है। जिसमें आस्थाविहीन समाज और अनिश्चय की स्थिति में लटके हुए एक व्यक्ति का वर्णन है। उन्हीं का दूसरा उपन्यास ’न आने वाला कल’ भी महानगरीय निरर्थकता बोध पर लिखा गया है। निर्मल वर्मा महानगरीय बोध के महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार हैं। उनका उपन्यास ’वे दिन’ चैकोस्लोवाकिया के शहरी परिवेश में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद मनुष्य की नियति को दिखता है। दिल्ली पर आधारित उनका उपन्यास ’एक चीथङा सुख’ शहरी जीवन में व्याप्त विवाहेतर संबंधों की सूक्ष्म पङताल करता है।

(ख) यौन चेतना के उपन्यास –

शहरों में प्रेम व भावनात्मक संबंधों के अभाव के कारण यौन चेतना का महत्त्व आक्रामक रूप में बढ़ जाता है क्योंकि भावनात्मक संबंधों के अभाव को यौन संबंधों से भरने का प्रयास किया जाता है।

इसलिए महानगरीय उपन्यासों में एक ऐसी धारा विकसित हुई जिसमें यौन जीवन के पक्षों को मनोवैज्ञानिक आयाम से जोङकर प्रस्तुत किया गया। यौन चेतना के प्रसंग जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी और अज्ञेय के मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में भी थे किन्तु वहाँ उनका मानसिक पक्ष व विश्लेषण पक्ष महत्त्वपूर्ण था जबकि यौन चेतना के उपन्यासों में यौनिक क्रियाओं का वर्णन अधिक है, विश्लेषण कम। इस प्रवृत्ति की शुरूआत वस्तुतः कुछ पहले ही हो चुकी थी।

पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र का प्रसिद्ध उपन्यास ’चन्द हसीनों के खतूत’ इस प्रवृत्ति का आरंभिक उपन्यास था जिसे कुछ आलोचकों ने ’घासलेटी साहित्य’ भी कहा। छठे दशक के बाद यह प्रवृत्ति और उग्र होकर उभरी। इसका मानसिक पक्ष कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा उस समय के अकविता आंदोलन में दिखता है।

यौन चेतना के प्रसिद्ध उपन्यास इस प्रकार हैं-

  • राजकमल चौधरी – मछली मरी हुई
  • महेन्द्र भल्ला – एक पति के नोट्स
  • मणि मधुकर – सफेद मेमने
  • कृष्णा सोबती – सूरजमुखी अंधेरे के
  • मृदुला गर्ग – चितकोबरा

(ग) महिला लेखन के उपन्यास –

महिला लेखन की धारा का संबंध आधुनिक काल की स्थितियों और नारीवादी विचारधारा से हैं। स्थियों की आत्मनिर्भरता जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे विवाह व परिवार के सामाजिक नियंत्रण कमजोर होते गए। उन्होंने इन संरचनाओं के भीतर अपने स्वत्व की मांग उठाई किन्तु यह उपलब्धि इतनी सरल नहीं थी। सामान्य पुरुष इस बदलते हुए शक्ति संतुलन को स्वीकार नहीं कर पा रहा था, जिसका परिणाम था- नारी-पुरुष संबंधों में तनाव। इसके अतिरिक्त कामकाजी महिलाओं ने देखा कि हर स्तर पर पुरुष वर्ग उनके शोषण का प्रयास करता है।

इसलिए कार्यालय में होने वाला यौन शोषण व मानसिक तनाव भी इन उपन्यासों का हिस्सा बन गया। नारीवादी विचारधारा के इस विचार के प्रति इस धारा में सहमति दिखती है कि नारी की समस्याओं को प्रामाणिक रूप से नारी ही समझ सकती है क्योंकि प्रामाणिक साहित्य ’संवेदना’ से नहीं, ’स्वयंवेदना से लिखा जाता है।

इस धारा के प्रमुख उपन्यास इस प्रकार हैं-

  • प्रभा खेतान – छिन्नमस्ता
  • शिवानी – कृष्णकली
  • कृष्णा सोबती – मित्रो मरजानी, डार से बिछुङी
  • मन्नू भण्डारी – आपका बन्टी

(6) समकालीन उपन्यास –

1980 ई. के बाद के उपन्यासों को समकालीन उपन्यास कहा जाता है। इस काल में भारतीय समाज में बहुत तीव्र परिवर्तन हुए हैं और इसी के अनुसार उपन्यासों में वैविध्य दिखाई देता है-

(क) 1980 के बाद तेजी से मीडिया क्रांति हुई जिसने न सिर्फ पूरे विश्व को गाँव बना दिया अपितु ग्लैमर की चमक-दमक भी पैदा कर दी। परिणाम यह हुआ कि युवा पीढ़ी टी.वी. व फिल्मों में काम करने के लिए बेचैन हो गई। परदे के पीछे की सच्चाई, जिसमें यौन शोषण से लेकर हर तरह का दमन शामिल है, आम आदमी की निगाह से छिपा रहा। कुछ उपन्यास मीडिया के इसी आंतरिक जीवन को दिखाते हैं,

जैसे-

  • निर्मल वर्मा – रात का रिपोर्टर
  • पंकज बिष्ट – लेकिन दरवाजा
  • सुरेन्द्र वर्मा – मुझे चांद चाहिए
  • चित्रा मुद्गल – एक जमीन अपनी

(ख) इस दौर में उत्तर-आधुनिक विचारधारा बहुत तेजी से साहित्य जगत में प्रसारित हुई जिसका प्रभाव उपन्यासों पर पङना स्वाभाविक ही था। उत्तर-आधुनिक चिंतकों जैसे ल्योतार, फूको, देरिदा और डेनियल बेल ने जो विचार दिए थे, उनका प्रभाव भिन्न-भिन्न प्रकार से कुछ उपन्यासों पर दिखता है। ऐसे सबसे प्रमुख उपन्यासकार है ’मनोहर श्याम जोशी’ जिन्होंने उत्तर-आधुनिक शिल्प का भी पर्याप्त प्रयोग किया।

इनके उपन्यासों में प्रमुख हैं- हरिया हरक्यूलिस की हैरानी, हमजाद।

(ग) समकालीन उपन्यास में कुछ अन्य उपलब्धियाँ भी दिखती हैं।

प्रमुख उदाहरण इस प्रकार हैं-

  • तरसेम गुजराल – जलता हुआ गुलाब (आतंकवाद की समस्या)
  • गिरिराज किशोर – ढाई घर (समाज में मूल्यों के परिवर्तन के साथ पीढ़ी संघर्ष)
  • वीरेन्द्र जैन – डूब, पार (बांध के कारण विस्थापन की समस्या)
  • कमलेश्वर – कितने पाकिस्तान (साम्प्रदायिकता की समस्या)

कुल मिलाकर हिन्दी उपन्यास समाज के यथार्थ चित्रण का अपना दायित्व बखूबी निभाता आया है और भी निभा रहा है।

प्रमुख उपन्यासकार

(क) यशपाल

यशपाल समाजवादी यथार्थवादी के लेखक हैं। उनके उपन्यासों पर मार्क्सवादी विचारधारा का गहरा प्रभाव है। ये स्वाधीनता संग्राम के दौरान क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहे थे एवं 1938 ई. में मुक्त हुए। उसके पश्चात् उन्होंने ’दादा काॅमरेड (1941)’, ’देशद्रोही’, ’दिव्या’, ’पार्टी काॅमरेड’, ’अमिता’, ’मनुष्य के रूप’, ’झूठा सच’, ’बारह घंटे’, ’अप्सरा का श्राप’, ’क्यों फंसे’, ’मेरी तेरी उसकी बात’ (1973) आदि उपन्यास लिखे। मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित होने के कारण यशपाल अपने उपन्यासों में प्रत्यक्षतः या परोक्षतः वर्ग संघर्ष, क्रांति चेतना जैसे तत्त्व प्रस्तुत करते हैं।

’झूठा सच’ यशपाल का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है जो आजादी के आसपास के भारतीय समाज के यथार्थ का महाकाव्यात्मक चित्र है। इसके दो खंड हैं- ’वतन और देश’ तथा ’देश का भविष्य। पहला खंड हिंदू-मुस्लिम सामाजिक संस्कृति को सम्पूर्ण जीवन्तता से व्यक्त करता है। दूसरे भाग में कांग्रेस की राजनीति की आलोचना की गई है और देश का भविष्य जनता में निहित होने की बात कही गई है।

’दादा काॅमरेड’ में यशपाल ’दादा’ के रूप में चंद्रशेखर आजाद को प्रस्तुत करते हैं एवं काॅमरेड के रूप में स्वयं को। पार्टी काॅमरेड में भी मार्क्सवादी विचार-धारा के आधार पर समाजवादी यथार्थ व्यक्त हुआ है। इसमें गीता नामक एक युवती की कम्युनिष्ट पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता की कहानी है। इन दोनों उपन्यासों में मार्क्सवाद का प्रभाव कुछ अधिक हावी हो गया है।

यशपाल की दृष्टि नारी समस्या पर भी रही है। ’मनुष्य के रूप’, ’दिव्या’, ’अमिता’, ’अप्सरा का श्राप’ आदि इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उपन्यास है।

’मनुष्य के रूप’ में वे दिखाते हैं कि चाहें कांगङा का अभाव भरा जीवन हो या फिर फिल्मी दुनिया की असाधारण सम्पन्नता, हर कहीं पुरुष महिला की लाचारी का फायदा उठाना चाहता है। नारी मुक्ति के संदर्भ में यह उपन्यास कहता है- ’’मुक्ति के लिए कुसंस्कारों से भी मुक्ति आवश्यक है।’’

’अप्सरा का श्राप’ में भी मुख्य चिंता पुरुष वर्ग द्वारा नारी के निरंकुश दमन की है।

’दिव्या’ में भी नारी स्वातंत्र्य का प्रश्न उठाया गया है। इसमें वे दिखते हैं कि उच्च कुल व उच्च वर्ग की नारियाँ भी वस्तुतः अपने पुरुषों की दासियों के समान हैं। दिव्या अंततः यह समझती है तथा धन-संपत्ति व आध्यात्मिक आनंद के विपरीत जीवन के साधारण सुख-दुख का चयन करती है।

’मेरी तेरी उसकी बात’ पीढ़ी अन्तराल की समस्या को प्रमुखता से व्यक्त करता है

’अमिता’ में विश्व शांति के मुद्दों पर बारीक चिंतन किया गया है।

शिल्प की दृष्टि से यशपाल सहजता के रचनाकार हैं। वे घटनाओं व पात्रों की भीङ नहीं लगाते। हर घटना व पात्र को कथानक योजना के अनुसार महत्त्व देते हैं। चरित्रों को उन्होंने अपने उद्देश्यवाद के कारण कमजोर नहीं होने दिया है। यह जरूर है कि कहीं-कहीं उद्देश्यपरकता के कारण उनकी वैचारिक टिप्पणियाँ बीच में आने लगती हैं जो उपन्यास के स्वतंत्र प्रवाह को बोधित करती हैं।

(ख) जैनेन्द्र कुमार

जैनेन्द्र मनोवैज्ञानिक यथार्थ के उपन्यासकार हैं। वे प्रेमचंद की तरह समाज या व्यक्ति को बदलने का प्रयास नहीं करते बल्कि व्यक्ति के अन्तर्मन तथा उसे प्रभावित करने वाला घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं। उनके पात्र समाज से कम, अपने आप से अधिक लङते हैं। उनमें स्थूल, सामाजिक, नैतिक संघर्ष के स्थान पर आत्मसंघर्ष और जटिल मानसिकता मिलती है। जैनेन्द्र के उपन्यासों में घटनाएँ विरल हैं, इसलिए चिंतन और विश्लेषण गहरा हो जाता है। मन की भीतरी संरचनाओं में छिपे सत्यों को व्यक्त करने के प्रयास में उनकी भाषा भी बेहद प्रतीकात्मक हो जाती है।

उन पर फ्राॅयड और गाँधी दोनों का प्रभाव है। वे माक्र्स व फ्रायड को मिलाने की बात भी कहते हैं पर उनके चिंतन में माक्र्स के प्रति प्रायः उपेक्षा ही है।

चार दशकों तक फैले हुए लम्बे लेखन-काल में जैनेंद्र ने पहले दौर (1929-1939) में ’परख’, ’सुनीता’, ’त्यागपत्र’ व ’कल्याणी’ उपन्यास लिखे।

दूसरे दौर (1952-1985) में उन्होंने ’सुखदा’, ’विवर्त’, ’व्यतीत’, ’जयवर्धन’, ’मुक्तिबोध’, ’अनन्तर’, ’अनामस्वामी’ व ’दशार्क’ उपन्यास लिखे।

’परख’ उपन्यास में विधवा नारी की मानसिक स्थिति का चित्रण है। इसमें जैनेन्द्र प्रेम और विवाह को दो भिन्न स्थितियों के रूप में स्वीकार करते हैं। प्रेम में निजता होती है, जबकि विवाह एक सामाजिक कर्म है। ’सुनीता’ में जैनेंद्र में यह प्रश्न उठाया कि सतीत्व और स्त्रीत्व में से क्या अधिक महत्त्वपूर्ण है? इसमें वे समाज में प्रचलित नैतिक धारणाओं पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं और पाप-पुण्य की गहरी मीमांसा करते हैं।

’कल्याणी’ में जैनेंद्र ने कदाचित् पहली बार भारतीय कामकाजी स्त्री को अंकित किया। कल्याणी ने विदेश से डाॅक्टरी की डिग्री ली है परन्तु फिर भी पति के शोषण के प्रति उसमें कोई चेतना नहीं है।

’जयवर्धन’ एक अमेरिकी पत्रकार बिल्बर शोल्डन हूस्टन की डायरी के रूप में लिखित हैं। फैंटेसी के रूप में परिकल्पित इस उपन्यास में जैनेंद्र कल्पना करते हैं कि 2007 ई. तक भारत में समाजवादी व साम्यवादी विचारधारा का अंत हो चुका होगा।

शिल्प गठन की दृष्टि से जैनेंद्र ने इन उपन्यासों में भिन्न-भिन्न शैलियाँ अपनाई हैं। ’त्यागपत्र’ में एक पात्र ही कथा का लेखक है। ’परख’, ’सुनीता’ व ’विवर्त’ में कथा को दर्शक की दृष्टि से लिखा गया है। ’सुखदा’ और ’व्यतीत’ को आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है जबकि जयवर्द्धन डायरी शैली में है। उनके परवर्ती उपन्यासों ’अनन्तर’, ’अनाम स्वामी’, ’दशार्क’ में संरचनात्मक बिखराव दिखाई देता है।

जैनेंद्र समस्याओं के क्रांतिकारी समाधान नहीं देते। समस्याओं के प्रति उनमें निष्क्रिय प्रतिरोध जरूर दिखाई देता है किंतु उनके निर्णय प्रायः यथास्थितिवादी हैं।

(ग) भीष्म साहनी

भीष्म साहनी सामाजिक यथार्थवाद के रचनाकार हैं।

उनके छह उपन्यास हैं- ’झरोखे’, ’कङियाँ’, ’तमस’, ’बसंती’, ’मय्यादास की माङी’ और ’कुंतो’।

’झरोखे’ में एक बच्चे के माध्यम से आर्य समाजी परिवार की संस्कारगत जङता का विश्लेषण एवं उसके प्रति विद्रोह की प्रेरणा है। ’कङियाँ’ में वे स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता के अभाव में पुरुष की बढ़ती हुई निरंकुशता और उसके परिणाम स्वरूप पारिवारिक विघटन की अनिवार्यता को रेखांकित करते हैं।

’तमस’ उनका सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें देश विभाजन के ऐतिहासिक दौर में साम्प्रदायिकता की समस्या का गहन विश्लेषण किया गया है। लेखक ने एक ओर अंधेरे में छिपे चेहरों को बेनकाब किया है तो दूसरी ओर इन असामाजिक तत्वों के पारस्परिक क्रिया-कलाप द्वारा अंधेरे के घने स्वरूप को भी स्पष्ट किया है।

’बसंती’ में राजस्थान के आप्रवासियों की झुग्गी बस्ती में रहने वाली एक भावुक लङकी की कहानी है। इसमें दिखाया गया है कि उपभोक्ता संस्कृति कैसे व्यक्ति को सुविधाओं के लालच में कृत्रिम बना देती है।

’मय्यादास की माङी’ एक ऐतिहासिक किस्म का उपन्यास है। इसमें पजांब के एक कस्बे की कथा है। इसमें 19 वीं सदी के आरंभ के परिवेश में तीन पीढ़ियों की बदलती हुई प्रतिबद्धताओं का मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है।

’कुंतो’ वस्तुतः सम्पूर्ण नारी जाति की नियति की कथा है। इसमें विभिन्न स्त्री पात्रों के पतियों की परस्त्रीगामिता की समस्या को उठाया गया है। संरचना के स्तर पर इस उपन्यास के सूत्र इतने अस्पष्ट और बिखरे हुए हैं कि उन्हें उपन्यास के केन्द्र बिन्दु से जोङा पाना कठिन है।

कुल मिलाकर, ’तमस’ ही भीष्म साहनी की औपन्यासिक प्रतिभा का सर्वोच्च स्तर है। इसमें कलापक्ष के सभी तत्त्वों का सुंदर सामंजस्य हुआ है। अन्य सभी उपन्यास पठनीय तो हैं पर संरचना में बिखराव महसूस होता है। कहीं-कहीं यह बिखराव चिंतन से पैदा हुआ है जैसे ’कुंतों’ में, तो कहीं-कहीं शिल्प से जैसे ’झरोखे’ में।

(घ) फणीश्वरनाथ रेणु

रेणु की पहचान हिन्दी के प्रतिनिधि आंचलिक उपन्यासकार के रूप में है यद्यपि वे सिर्फ आंचलिक रचनाकार नहीं है। सच तो यह है कि ’मैला आँचल’ के लेखन के बाद उनकी आंचलित प्रवृत्ति लगातार कम हुई है।

उनके प्रमुख उपन्यास हैं- ’मैला आंचल’ ’परती परिकथा’, ’दीर्घतया’, ’जुलूस’, ’कितने चौराहे’, ’पल्ट्र बाबू रोङ’।

’मैला आंचल’

रेणु का सर्वाधिक प्रसिद्ध व महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें पूर्णिया जिले के ’मेरीगंज’ गाँव की विस्तृत तथा समग्र कथा इस प्रकार कही गई है कि अंचल ही नायक बन गया है। इसमें उद्देश्य अंचल की समस्याओं को प्रकाशित करने का ही रहा है, हालांकि उद्देश्य की समस्याओं को प्रकाशित करने का ही रहा है, हालांकि उद्देश्य रचना प्रक्रिया में घुला हुआ है, ऊपर से चिपका हुआ नहीं दिखता। इसमें अंचल की सुंदरता और कुरूपता दोनों का गहरा चित्रण किया गया है। जातिवाद, अफसरशाही, अवसरवादी राजनीति, मठों और आश्रमों का पाखंड भी इसमें दिखाया गया है।

‘परती-परिकथा’

में पूर्णिया जिले के ही दूसरे गाँव ’परानपुर’ की कथा है। इसमें यथार्थ तो है पर मूल्यों के खत्म होने पर पैदा होने वाला अवसाद और करुणा नदारद है। अतः उपन्यास बहुत कुछ कह कर भी कुछ खास नहीं कह पाता। इस उपन्यास के बाद रेणु में आंचलिकता के प्रति उत्साह कम हो गया।

इसके बाद के उपन्यास ग्रामीण अंचलों के नहीं, प्रायः कस्बों व नगरों के है। नारी का मुद्दा भी कई जगह महत्त्वपूर्ण हो गया है।

’दीर्घतपा’ की नायिका बेलागुप्त कामकाजी महिलाओं के हाॅस्टल की सेक्रेटरी है जो अपने चारों ओर तेजी से परसती सामाजिक विकृतियों को बहुत निकट से देखती है, लेकिन चाहते हुए भी वह उनके विरूद्ध कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है।

’जुलूस’

उपन्यास में बंगाल की एक विस्थापित युवती पवित्रा की कथा है। रेणु यहाँ भी विभिन्न प्रवृत्तियों वाले व्यक्तियों का विश्लेषण करते हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु के परवर्ती उपन्यासों की प्रकृति चाहे अलग होती गई। लेकिन शिल्प के स्तर पर कुछ सामान्य विशेषताएँ लगातार दिखाई देती है, जैसे- भाषा और बोली के देशज प्रयोगों पर बल, लोक संस्कृति के प्रतीकों, बिंलों का उपयोग आदि। वे अपनी ओर से वर्णन करने के स्थान के स्थान पर दृश्यात्मक विधि (सीनिक मैथड) का प्रयोग करने में सिद्धहस्त हैं।

तो दोस्तो आज के आर्टिकल में हमने हिंदी उपन्यास (Hindi Upanyas) के टॉपिक को अच्छे से पढ़ा ,हम आशा करतें है कि आपको ये आर्टिकल अच्छा लगा होगा ।

1 thought on “हिन्दी उपन्यास – Hindi Upanyas – हिंदी साहित्य का गद्य”

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