Kabir ke Dohe in Hindi – कबीर के प्रचलित दोहे – व्याख्या सहित

आज के आर्टिकल में हम कबीर के प्रचलित दोहे व्याख्या सहित (Kabir ke dohe in hindi) पढेंगे ,इन्हें आप अच्छे से पढ़ें |

kabir ke dohe

kabir ke dohe
Kabir ke Dohe

सुनिए गुण की बारता, औगुन लीजै नाहिं।
हंस छीर को गहत है, नीर सो त्यागे जाहिं।।

व्याख्या –

कबीर कहते है कि बुद्धिमान पुरुष को गुणों अर्थात् अच्छे विचार, अच्छा आवरण और अच्छे व्यक्तियों की संगति का महत्व समझते हुए उनको ग्रहण करना चाहिए। जो निन्दनीय और अकल्याणकारी विचार है उनसे दूर रहना चाहिए। जैसे हसं दूध और जल के मिश्रण में से दूध को ग्रहण करके जल को त्याग देता है, उसी प्रकार मनुष्य को गुणों को ग्रहण करते हुए अवगुणों को त्याग देना चाहिए।

त्याग तो ऐसा कीजिए, सब कुछ एकहि बार।
सब प्रभु का मेरा नहीं, निहचे किया विचार।।

व्याख्या-

कबीर कहते है कि मनुष्य को एक बार दृढ़ निश्चय करके अपना सब कुछ त्याग देना चाहिए। उसकी यह भावना होनी चाहिए कि उसे प्राप्त सारी वस्तुएं और उसका शरीर भी उसका अपना नहीं है। यह सब कुछ ईश्वर है। ईश्वर को सर्वस्व समर्पण करके मोह और अहंकार से मुक्त हो जाना ही आदर्श त्याग है।

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पङा रहन दो म्यान।।

व्याख्या-

कबीर कहते है कि किसी साधु से उसकी जाति पूछकर उसका मूल्यांकन करना साधुता का अपमान है। साधु की श्रेष्ठता और उसका सम्मान उसके ज्ञान के आधार पर किया जाना चाहिए। ज्ञान की अपेक्षा जाति को महत्व देना ठीक वैसा ही है जैसे तलवार खरीदने वाला म्यान के रूप-रंग के आधार पर तलवार का मूल्य लगाए। ऐसा व्यक्ति मूर्ख ही माना जाएगा। काम तो तलवार की उत्तमता से चलता है। म्यान की सुन्दरता से नहीं।

छोङे जब अभिमान को, सुखी भया सब जीव।
भावै कोई कछु कहै, मेरे हिय निज पीव।।

व्याख्या-

जीव अर्थात् आत्मा को परमात्मा से दूर और विमुख करने वाला अहंकार अर्थात् ’मैं’ का भाव है। कबीर कहते है कि जब उन्होंने अहंकार को त्याग दिया तो उनकी आत्मा को परम सुख प्राप्त हुआ क्योंकि अहंकार दूर होते ही उनका अपने प्रिय परमात्मा से मिलन हो गया। कबीर कहते है कि कोई चाहे कुछ भी कहे परन्तु अब उनके हृदय में उनके प्रियतम परमात्मा निवास कर रहे है ओर वह सब प्रकार से सन्तुष्ट है।

संग कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय।।

व्याख्या-

कबीर कहते है कि मनुष्य को सदा अच्छे व्यक्तियों या महापुरुषों की संगति करनी चाहिए। साधु से संगति कभी व्यर्थ नही जाती। उसका सुपरिणाम व्यक्ति को अवश्य प्राप्त होता है। लोहा काला-कुरूप होता है, किन्तु पारस का स्पर्श होने पर वह भी अति सुन्दर सोना बन जाता है। यह सत्संग का ही प्रभाव है।

कागा काको धन हरै, कोयल काको देत।
मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनो करि लेत।।

व्याख्या-

कबीर कहते है कि लोग कोयल से बहुत प्यार करते है और कौए से दूर रहना चाहते है, इसका कारण क्या है ? क्या कौआ किसी का धन छीन लेता है। और कोयल किसी को धन दे दिया करती है ? ऐसा कुछ भी नहीं है। यह केवल वाणी का अन्तर है कौए की कर्कश काँव-काँव किसी को अच्छी नहीं लगती परन्तु कोयल अपनी मधुर वाणी से सारे जगत् की प्यारी बनी हुई है।

मारिये आसा सांपनी, जिन डसिया संसार।
ताकी औषध तोष है, ये गुरू मंत्र विचार।।

व्याख्या-

कबीर कहते है कि आशा या इच्छा रखना दुर्बल मानसिकता का लक्षण है। आशा एक सर्पिणी है जिसने सारे संसार को अपने मधुर विष से प्रभावित कर रखा है। यदि सांसारिक मोह से मुक्त होना है और ईश्वर की कृपा पानी है तो इस सांपिन को मार डालो अर्थात् किसी से कुछ भी आशा मत रखो। इस आशा सर्पिणी के विष से रक्षा करने का एक ही गुरू मंत्र है वह है, सन्तोषी स्वभाव का बनना। सन्तोषी व्यक्ति कभी आशाओं का दास नहीं रहता। क्योंकि वह स्थिति में सन्तुष्ट रहा करता है।

सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।
लोचन अनंत उगाङिया, अनंत दिखावणहार।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि सच्चे गुरू की महिमा का क्या उल्लेख किया जाए। उनकी महिमा अपार है। वे अपने शिष्यों पर अगणित उपकार कहते है और वह रात-दिन शिष्यों पर अहैतुकी कृपा करते रहते है। गुरू की महान कृपा तो इस बात में है कि वे ज्ञान-नेत्रों को अनन्त दिशाओं में खोल देते है जिससे शिष्य को अनन्त ज्ञान प्रकाश दिखाई देने लगता है। तत्त्वज्ञ शिष्य को फिर रोग-रोग से परम तत्व का साक्षात्कार होने लगता है। गुरू द्वारा प्रदत्त ज्ञान ही वास्तव में आंखें खोले देने वाला होता है।

चौसठि दीवा जोइ करि, चौदइ चंदा मांहि।
तिहिं धरि किसको चानिणौं, जिहि घरि गोविन्द नांहि।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि चौदह विद्याओं की चौंसठ कलाओं के ज्ञान रूपी आलोक होने पर भी उसके अन्तःकरण में किसका प्रकाश है, जिसमें गोविन्द का निवास नहीं है। अर्थात् जिसके हृदय में ज्ञान का प्रकाश एवं भक्ति नहीं है, उसमें ईश्वर नहीं है।

सतगुरू सांचा सूरिवां, सबद जु बाह्या एक।
लागत ही भैं मिली गया, पड्या कलेजै छेक।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि सतगुरू सच्चा शूरवीर है। जिस प्रकार सच्चा शूरवीर एक ही बाण में काम-तमाम कर देता है, उसी प्रकार गुरू के एक शब्द-ज्ञान रूपी तीर से शिष्य भूमि में मिल गया, अर्थात् उसके भीतर का अहम् समाप्त हो गया। गुरू के एक शब्द का इतना व्यापक प्रभाव है कि साधक के हृदय में इस शब्द रूपी बाण के लगते ही अहंकार तो विलीन हो जाता है और चित्त पर वह शब्द रूपी बाण अपना व्यापक प्रभाव छोङता है जिससे वह विषय-वासना से दूर हो जाता है।

थापणि पाई स्थिति भई, सतगुरू दीन्हीं धीर।
कबीर हीरा बणजिया, मानसरोवर तीर।।

व्याख्या-

कबीर कहते है कि गुरू से स्वरूप प्रतिष्ठा का उपदेश सुनने से साधक अपने स्वरूप में स्थित हो गया। सद्गुरू ने धैर्य बंधाया तो निष्ठा और अधिक परिपक्व हो गई। अब कबीरदास मानसरोवर के तट पर हीरे का व्यापार करने लगा है। आशय यह है कि हीरा परमानन्द का या परम ब्रह्म का ही प्रतीक है। मानसरोवर ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। हृदय में ज्ञान की स्थापना होने से कबीर ब्रह्मानन्द में लीन होकर प्रसन्नता की मुद्रा में अपने अन्तःकरण में आनन्द ले रहा है।

Kabir Das ke Dohe

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पंडत।
कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि माया रूपी दीपक के लिए नर पतंगा रूप है। मानव घूम-घूम कर अनेक योनियों में भटकता हुआ अर्थात् अज्ञान में भूला हुआ इसी आग में ऐसे ही जलता है। केवल गुरू के द्वारा प्रदत्त ज्ञान से कोई एक-आध ही इस आग से बच पाता है।

पासा पकङा प्रेम का, सारी किया सरीर।
सतगुरू दावा बताइया, खेले दास कबीर।।

व्याख्या-

कबीर दास कहते है कि मैंने प्रेम के पासे बना लिये है और इस शरीर की गोटी बना ली है। मुझे मेरे सद्गुरू इस खेल की चाल बता रहे है और मैं भक्ति का खेल खेल रहा हूँ। अर्थात् परमात्मा की भक्ति में जीवन रूपी खेल को खेल रहा हूँ।

 कोटि कर्म पल मैं करैं, यहु मन विषिया स्वादि।
सतगुरू सबद न मानई, जनम गवायो बादि।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि यह मन विषय-वासना का स्वाद चख लेने से भ्रमित हो जाता है और पल भर में अनेक ऐसे काम कर लेता है। उस दशा में यह गुरू के शब्दों को नहीं मानता है अर्थात् उनके ज्ञानापदेश नहीं सुनता है और अपना जन्म या जीवन व्यर्थ ही गवा देता है।

गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन सब निष्फल गया, जा पूछो वेद पुरान।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि जो लोग गुरू से ज्ञान प्राप्त किये बिना माला जपते है और गुरू के निर्देश के बिना दान देते है, उनका सब कुछ निष्फल चला जाता है। यह बात वेद-पुराणों में भी कही गयी है।

गुरू गुरू में भेद है, गुरू गुरू में भाव।
सोई गुरू नित बन्दिये, जो शब्द बतावें दाव।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि सामान्य गुरू एवं ज्ञानी गुरू में अन्तर है। ज्ञानी गुरू में ज्ञान-साधना एवं परम-तत्त्व की साधना भाव अधिक रहता है। इसलिए जो गुरू सांसारिक जीवन में परमात्मा-प्राप्ति का दाँव बतावे, जीवन रूपी खेल की बाजी का ज्ञान दे, उसी गुरू की वन्दना करनी चाहिए।

कोटिन चन्दा ऊगवें, सूरज कोटि हजार।
सतगुरू मिलिया बाहरा, दीसे घोर अंधार।।

व्याख्या-

कबीर कहते है कि चाहे करोङों चन्द्रमा उदित हो जावे और करोङों सूर्य प्रकाशित होवें, परन्तु जब तक सद्गुय नहीं मिल पाता है, तब तक सब ओर घोर अंधकार दिखाई देता है। अर्थात् सद्गुरू द्वारा ज्ञान-चक्षु खोले जाते है, ज्ञान-चक्षु के बिना सर्वत्र अंधेरा दिखाई देता है।

यह तिन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरू मिलें, तो भी सस्ता जान।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि यह शरीर माया-मोह से ग्रस्त रहने से विष की बेल जैसा है और गुरू अमृत की खान के समान कल्याणकारी है। इसलिए सर्वस्व अर्पण करके भी यदि ऐसे सद्गुरू मिल जावें, तो भी इसे सस्ता सौदा समझना चाहिए।

ऐसे तो सतगुरू मिले, जिनसे रहिये लाग।
सबही जग शीतल भया, जब मिटी आपनी आग।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि उन्हें ऐेसे सद्गुरू मिले, जिनसे उनका अपनत्व या पूरी तरह लगाव बना रहा। इससे सांसारिक ताप अर्थात् दैहिक, दैविक व भौतिक सन्ताप मिलने से अपने लिए सारा संसार शीतल अर्थात् सुखद बन गया।

गुरू से ज्ञान तो लीजिए, सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदू बह गये, राख जीव अभिमान।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि आपना सिर देकर भी, अर्थात् सर्वस्व समर्पण करके भी गुरू से ज्ञान प्राप्त कर लो। गुरू से ज्ञान प्राप्त करने से बहुत सारे मूर्ख तर गये और जीव की चैतन्यता की रक्षा कर सके।

सतनाम के पटतरें, देवे को कछु नाहिं।
क्या ले गुरू संतोषिये, हौंस रही मन माहिं।।

व्याख्या-

शिष्य को गुरू के द्वारा सत्य नाम या परम तत्व रूपी बहुमूल्य वस्तु दी गई है। इससे शिष्य गुरू के प्रति बहुत ही कृतज्ञता अनुभव करता है। वह इसके बदले कोई समतुल्य वस्तु भेंट देना चाहता है, परन्तु उसके मन में यह संकोच रहता है कि गुरू ने तो सत्य-नाम या राम-नाम का ऐसा मंत्र दिया है कि जिससे मोक्ष तक प्राप्त हो सकता है, किन्तु मैं जो भी वस्तु गुरू-दक्षिणा के रूप में दूँगा, वह उसकी तलना में नगण्य ही रहेगा।

वैसे भी गुरू तो सन्तोषी-स्वभाव के है, फिर इस मंत्र के बदले क्या दिया जाए ? शिष्य के मन में यह प्रबल इच्छा बनी रहती है और इससे यह व्यथित हो जाता है।

गुरू समान दाता नहीं, जाचक शिष्य समान।
चार लोक की संपदा, सो गुरू दीन्हीं दान।।

व्याख्या-

कबीर कहते है कि गुरू के समान कोई दाता नहीं है तथा शिष्य के समान कोई याचक नहीं है। शिष्य को योग्य समझकर गुरू ने उसे चारों लोकों की सम्पदा उदारता से दे दी है। अर्थात् योग्य शिष्य को गुय सब कुछ दे देता है।

मन मथुरा दिल द्वारिका काया कासी जांणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा तामैं जोति पिछांणि।।

व्याख्या-

कबीर कहते है कि प्रत्येक व्यक्ति का मन मथुरा, हृदय द्वारिका और शरीर काशी है। दस द्वारों वाला देवालय रूपी शरीर मनुष्य के पास रहता है। इसके अन्दर जो परमात्मा की ज्योति है, उसे पहचानना चाहिए और उसी परमात्मा स्वरूप ज्योति की उपासना करनी चाहिए। अतः भगवान् के दर्शनों के लिए तीर्थों एवं देवालयों में भटकना व्यर्थ है।

सातों सबद जु बाजते घरि घरि होते राग।
ते मन्दिर खाली पङे, बेसण लागे काग।।

व्याख्या-

कबीर कहते है कि जिन भवनों एवं महलों में निरन्तर सप्त स्वर में बाजे बजते रहते थे और तरह-तरह के राग हर समय गाये जाते थे, वे भवन एवं महल अब खाली पङे है और अब वहां पर कौए बैठे हुए दिखाई देते है। आशय यह है कि समय सदा एक-सा नहीं रहता है। इसलिए प्रभु भक्ति में निमगन रहकर जीवन संवारना चाहिए, नश्वर संसार से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए।

जब मैं था तब हरि नहि अब हि है मैं नांहि।
सब अंधियारा मिटि गया जब दीपक देख्या मांहि।।

व्याख्या-

कबीर स्पष्ट करते है कि जब तक व्यक्ति के मन में अहंकार रहता है और अहंकारवश अपने आप को ही सब कुछ मानता हुआ आचरण करता है, तब ईश्वर की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसके विपरीत जब ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है, तब जीव का अहंकार स्वयं की मिट जाता है। यह स्थिति ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार दीपक के प्रकाशित होते ही घर के भीतर का सब अन्धकार मिट जाता है।

पाँणी ही तैं हिम भया, हिम ह्नै गया बिलाइ।
जा कुछ था सोई भया, अब कछु कह्या न जाइ।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि पानी से ही बर्फ बनता है और बर्फ पिघलकर फिर पानी के रूप मे विलीन हो जाती है। इस प्रकार के तत्व अर्थात् पानी पहले था, वहीं बर्फ बनने के बाद फिर उसी मूल रूप में विलीन हो गया है। इस सृष्टि में अलग तत्व कुछ नहीं कहा जा सकता है।
आशय यह है कि परमात्मा से ही जीवात्मा की उत्पति होती हैं। इस उत्पति में माया का सहयोग बना रहता है।

अतः विशुद्ध चैतन्य जीव माया के कारण बद्ध जीव हो जाता है। जीव जब माया से मुक्ति का प्रयास करता है, तो आत्मबोध के कारण वह परमात्मा को अर्थात् अपनी विशुद्ध पूर्व स्थिति को प्राप्त हो जाता है। इस तरह परमात्मा-जीवात्मा में अद्धैतता के अलावा और कुछ नहीं है।

आषङियां झाई पङी पंथ निहारि निहारि।
जीभङिया छाला पड्या राम पुकारि पुकारि।।

व्याख्या-

कबीरदास कहते है कि अपने प्रियतम परमात्मा की प्रतीक्षा करते-करते, उनके आन का मार्ग देखते-देखते आंखों में धुँधलापन छाने लगा है, अर्थात् दृष्टि एकदम मन्द पङ गई है। मेरी जिह्वा पर भी राम को पुकारते-पुकारते छाले पङ गये है। अर्थात् विहर-दशा दयनीय हो गई है, किन्तु अभी तक प्रियतम परमात्मा से मिलन नहीं हो पाया है।

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