कबीर के काव्य में भावपक्ष – Hindi Sahitya

आज की पोस्ट में हम हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में कबीर के काव्य में भावपक्ष(Kabir ke kavy me bhavpaksh) की चर्चा करेंगे ,ताकि आप इसे अच्छे से समझ सकें |

कबीर के काव्य में भावपक्ष

कबीर निरक्षर थे वे शास्त्रज्ञ विद्वान् नहीं थे, तथापि कविता रचना के लिए बङी-बङी उपाधियों की आवश्यकता न पहले होती थी और न अब होती है। कविता करने की शक्ति तो ईश्वर प्रदत्त होती है। काव्य निर्माण के लिए जिस प्रतिभा की आवश्यकता होती है कबीर में यह प्रभूत मात्रा में विद्यमान थी। काव्य-कला के दृष्टिकोण से कबीर-काव्य में निम्न विशेषताएँ, दृष्टिगोचर होती हैं

भावपक्षीय विशेषताएँ

निर्गुणोपासना:

कबीर निर्गुण एवं निराकर परमात्मा के उपासक थे। यद्यपि परमात्मा के लिए उन्होंने ’राम’ शब्द का प्रयोग किया है तथापि उनके राम दशरथ के पुत्र न होकर निराकार ब्रह्म है; जैसे-
दशरत सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम है आना।
निरगुन राम, निरगुन राम जपहु रे भाई।

ज्ञान का उपदेश:

कबीर ज्ञानमार्गी शाखा के कवि थे। उन्होंने ज्ञान का उपदेश देकर जनता को जागृत किया। उनके अनुसार ज्ञान और योग की साधना से ही उस महान् ब्रह्म का साक्षात्कार सम्भव है। अतः उन्होंने बाह्य आडम्बरों का विरोध करते हुए मन से परमात्मा का ध्यान करने का उपदेश दिया।

नाम की महत्ता:

कबीर ने प्रभु के स्मरण को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। उसी के स्मरण में वे अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देना चाहते है, उनका विचार है कि मनुष्य को केवल प्रभु नाम की ही चिन्ता होनी चाहिए, अन्य चिन्ताएँ तो व्यर्थ हैं क्योंकि राम के बिना जो कुछ भी दिखाई देता है, वह तो मृत्यु के फन्दे के समान ही है
चिन्ता तो हरि नाँव की, और न चिन्ता दास।
जे कुद चितवै राम बिन, सोइ काल की पास।।

प्रेम की महत्ता:

ज्ञान और नाम स्मरण को प्रधानता देते हुए कबीर ने प्रभु-प्रेम की महत्ता को प्रतिपादित की है। कबीर का विचार है कि परमात्मा की भक्ति में प्रेम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्यांेकि प्रभु के प्रति जितना गहन एवं अनन्य प्रेम होगा उनका मिलन उतना ही शीघ्र होगा। कबीर की दृष्टि में तो वही पण्डित है, जिसे प्रेम के ढाई अक्षर का ज्ञान हो गया है।
ढाई आखर प्रेम का, पढै सो पण्डित होय।

भक्ति एवं नीति:

कबीर ने प्रभु-भक्ति का सन्देश देने के साथ-साथ नीतिगत तत्वों का भी उद्घाटन किया है। उन्होंने सत्य और अहिंसा को जीवन का आधार तत्त्व मानते हुए सत्य को सबसे बङा तप माना।
साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।
इसके अतिरिक्त कबीर ने अपने उपदेशों में करुणा, दया, सन्तोष आदि विविध मानवीय भावों को महत्वपूर्ण स्थान दिया है।

समाज सुधार की भावना:

कबीर महान् समाज-सुधारक थे। उनके समकालीन समाज में अनेक अन्धविश्वासों, आडम्बरों, कुरीतियों एवं विविध धर्मों का बोलबाला था। कबीर ने इन सबका विरोध करते हुए समाज को एक नवीन दिशा देने का पूर्ण प्रयास किया। उन्होंने जाति-पाँति के भेदभाव को दूर करते हुए शोषित जनों के उद्धार का प्रयत्न किया तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। उनका मत था-
जाति पाँति पूछै नहीं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।।

रहस्य भावना:

कबीर का रहस्यवाद साधनात्मक एवं भावात्मक दोनांे कोटियों का है। साधनात्मक रहस्यवाद में वे हठयोगियों से प्रभावित है। हठयोगी साधन का उल्लेख उन्होंने इस प्रकार किया है
सायर नाही सीप बिन, स्वांति बूँद भी नाहिं।
कबीर मोती नीपजै, सुन्नि सिषर गढ़ माँहि।।
भावात्मक रहस्यवाद पर आधारित रचनाओं में कबीर ने आत्मा-परमात्मा के विविध प्रेम सम्बन्धों का चित्रण किया है तथा विरह अथवा मिलन के अनेक चित्र अंकित किए है। ऐसे स्थलों पर उन्होंने स्वयं को आत्मा और परमपुरुष-परमात्मा को पति-रूप में चित्रित किया है यथा
राम मोरे पिउ, मैं राम की बहुरिया।

विविध रस:

कबीर का काव्य ज्ञान और भक्ति से ओत-प्रोत है, इसीलिए उनके काव्य में शान्त रस की प्रधानता है। आत्मा और परमात्मा के विरह अथवा मिलन के चित्रण के शृंगार के दोनों पक्ष उपलब्ध हैं, किन्तु कबीरदास प्रयुक्त शृंगार रस, शान्त रस का सहयोगी बनकर ही उपस्थित हुआ है।

समन्वय की भावना:

कबीर-काव्य की सबसे बङी विशेषता समन्वय की साधना में है। कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम समन्वय पर बल दिया है। इन दोनांे वर्गों के आडम्बरों का विरोध करते हुए उन्होंने दोनों को मिलकर रहने का उपदेश दिया। कबीर ने शंकर के अद्वैतवाद (उपनिषद् एवं आचार्य शंकर के दर्शन में परमात्मा को ही एकमात्र सत्य माना गया है, उसे ही अद्वैतवाद कहते हैं) इस्लाम के एकेश्वरवाद, बौद्धों के अहिंसावाद, वैष्णवों के अवतारवाद और सूफियों के प्रेमभाव में समन्वय स्थापित किया।

गुरु की महिमा:

कबीर ने गुरु को सर्वोपरि माना। उनके अनुसार सदगुरु के महान् उपदेश ही भक्त को परमात्मा के द्वार तक पहुँचा सकते हैं। इसलिए उन्होंने गुरु को परमात्मा से बढ़कर माना है।
उदाहरणार्थ-
बलिहारी गुरु आपणैं, द्यौहाङी के बार।
जिन मानिष तै देवता, करत न लागी बार।।

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