Kahani Or Upnyas Me Anter – कहानी और उपन्यास में अंतर

आज के आर्टिकल में हम कहानी व उपन्यास में अंतर (Kahani Or Upnyas Me Anter) को पढेंगे ।

कहानी और उपन्यास में अंतर

संरचना की दृष्टि से उपन्यास और कहानी में यह अन्तर है कि उपन्यास घटना-प्रधान होता है और कहानी व्यंजना-प्रधानकहानी के तथ्यों का वर्णन उपन्यास की भांति विस्तृत नहीं होता, कथित नहीं होता अपितु व्यंग्य होता है।

कथा के द्वारा उपन्यास पाठक की जिज्ञासा और उत्सुकता को शान्त करता जाता है और न्याय-प्रधान होने के नाते अपनी प्रत्येक पंक्ति के द्वारा कहानी पाठक की जिज्ञासा तथा उत्सुकता को जगाती चली जाती है। वास्तव में इसका कारण उपन्यास कहानी का शिल्पगत भेद ही है। एक कथा-प्रधान तथा दूसरी सुझाव-प्रधान है।

उपन्यास और कहानी के एक-एक तत्त्व को लेकर इन दोनों में साम्य-वैषम्य का निर्धारण करके इस प्रकार अन्तर देखा जा सकता है-

1. उद्देश्य –

वास्तव में यह कहानी की सर्वप्रथम विशेषता है जो उसे उपन्यास से भिन्न साहित्यिक कोटि में रख देती है। कहानी किसी समस्या का हल नहीं करती, केवल मार्गदर्शन करती है। केवल उचित दिशा की ओर इंगित भर करती है। यह वास्तव में सुझाव प्रधान होती है।

श्री जैनेन्द्र कुमार जैन के विचार इस विषय में उद्धरणीय हैं – ’’हमारे अपने सवाल होते हैं और हम भी उनका उत्तर, उनका समाधान खोजने का सतत प्रयत्न करते हैं। कहानी एक खोज के प्रयत्न का उदाहरण है, उदाहरणों और मिसालों की खोज होती रहती है। वह एक उत्तर ही नहीं देती अपितु कहती है कि उत्तर शायद इस दिशा में मिले। यह सूचक होती है, कुछ सुझाव देती है।’’

उपन्यास का आकार बङा होता है, उपन्यासकार अपने उपन्यास में एक साथ कई उद्देश्यों को स्थान दे सकता है। कहानी में लेखक का एक निश्चित उद्देश्य होता है। अतः निष्कर्ष यही निकला कि उपन्यास कथा-प्रधान और कहानी उद्देश्य-प्रधान होती है।

2. कथावस्तु –

कथावस्तु के अभाव में उपन्यास की रचना सम्भव नहीं। यद्यपि पाश्चात्य देशों में ऐसे प्रयोग हुए हैं कि बिना कथा के भी उपन्यास लिखा जा सके, किन्तु वे असफल रहे हैं और आज तक विश्व के उपन्यास में कथा अपने पूर्व महत्त्व को ही धारण किये बैठी है, परन्तु कहानी बिना घटना के भी लिखी जा सकती है।

उपन्यास में कथावस्तु के विस्तार का बहुत अवकाश रहता है, उसमें प्रासंगिक कथाएँ जोङी जा सकती हैं, प्राकृतिक वर्णन किये जा सकते हैं और धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा साहित्यिक समस्याओं के विश्लेषण भी उपन्यास में विस्तार के साथ किये जा सकते हैं।
कहानी में इतना स्थान और अवकाश नहीं होता है। कहानी की कथा का प्रत्येक शब्द, प्रत्येक वाक्य बिना विराम किये, बिना शिथिलता दिखाये, अबाध लक्ष्य की ओर दौङता है।

उपन्यास में एक मुख्य कथा होती है तथा उससे सम्बद्ध अन्य प्रासंगिक कथाएँ भी रहती हैं, किन्तु कहानी में प्रासंगिक कथा नहीं होती है, क्योंकि यदि कहानी में प्रासंगिक कथा होगी तो वह मुख्य कथा को आक्रान्त कर कहानी के उद्देश्यों को ही समाप्त कर देगी।

⇒ उपन्यास की कथा के विकास की भांति कहानी में भी कथा का विकास दिखाया जा सकता है, उदाहरणार्थ – 1. प्रारम्भ, 2. संघर्ष 3. चरमसीमा तथा 4. उपसंहार।

कहानी और उपन्यास में अंतर

उपन्यास के प्रणयन के मूल में मुख्यतः निम्नांकित बातें रहती हैं-
1. घटना 2. समस्या तथा 3. चरित्र।

उपन्यास या तो किसी घटना को लेकर लिखा जायेगा, फिर उसका आधार कोई समस्या होगी या चरित्र

व्यक्तित्व के लिए लिखा जायेगा। उपर्युक्त तीनों बातें कहानी के मूल में भी हैं-
(1) या तो किसी कथानक को लेकर पात्रों की कल्पना की जाये।
(2) किसी समस्या को लेकर पात्र कल्पित किये जायें।
(3) या किसी व्यक्ति विशेष की घटना की कल्पना की जाये।
पहले प्रकार की कहानी घटना-प्रधान, दूसरे प्रकार की समस्या-प्रधान और तीसरे प्रकार की चरित्र-प्रधान कही जायेगी।

कथावस्तु स्थूल रूप से दो प्रकार की हो सकती है-

(1) ऐतिहासिक और

(2) काल्पनिक।

दोनों प्रकार की कथावस्तु का उपन्यास और कहानी में उपयोग समान रूप से किया जा सकता है।

3. पात्र –

उपन्यासों में पात्रों की संख्या चाहे जितनी रखी जा सकती है, क्योंकि उसमें सभी के चरित्र पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त स्थान रहता है। कहानी में पात्रों की संख्या सीमित होती है। कभी-कभी तो कहानी में दो या तीन पात्र ही होते हैं। उपन्यास में मुख्य कथा का एक नायक होता है और प्रासंगिक कथाओं के कई नायक हो सकते हैं। कहानी में प्रासंगिक कथा का प्रश्न ही नहीं उठता। उपन्यास में पात्र स्वतन्त्र भी हो सकते हैं। कहानी के पात्रों पर कहानीकार का अंकुश रहता है और वे लक्ष्य की ओर सदैव उन्मुख रहते हैं। उपन्यास में किसी भी श्रेणी के पात्र लिये जा सकते हैं।

4. चरित्र-चित्रण –

चरित्र-चित्रण प्रधान उपन्यास भी हो सकते हैं और कहानी भी, किन्तु विविध घटनाओं के द्वारा पात्र के चरित्र-चित्रण का जितना अवकाश उपन्यास में रहता है उतना कहानी में नहीं।

पात्रों का चरित्र-चित्रण उपन्यास और कहानी दोनों में प्रायः दो रूपों में किया जाता है-(1) परोक्ष रूप से, (2) प्रत्यक्ष रूप से।
जहाँ कथोपकथन के द्वारा पात्रों के चरित्र पर प्रकाश पङ रहा हो, वह चरित्र-चित्रण की परोक्ष या अभिनयात्मक प्रणाली है और जहाँ स्वयं लेखक ही पात्र के चरित्र के विषय में निर्णयात्मक भाषा का प्रयोग कर रहा हो, वहाँ प्रत्यक्ष प्रणाली द्वारा चरित्र-चित्रण माना जाता है।
चूँकि कहानी में घटनाओं का अधिक आयोजन नहीं किया जा सकता, इसलिए प्रायः प्रत्यक्ष प्रणाली से ही चरित्र-चित्रण किया जाता है।

5. कथोपकथन –

कहानी और उपन्यास दोनों में जिस तत्त्व के कारण नाटकीयता का आनन्द आने लगता है, वह कथोपकथन का ही तत्त्व है। यों कहानी केवल वर्णनात्मक भी हो सकती है जिसमें कथोपकथन ही न हो, किन्तु कथोपकथन के अभाव में कहानी का आकर्षण, सौन्दर्य, स्वाभाविकता मारी जाती है। कथोपकथन के द्वारा अधिक बातें संक्षेप मेें कही जा सकती हैं।

उपन्यास में लेखक स्वयं बहुत-कुछ विश्लेषण कर सकता है और कह सकता है। चरित्र-चित्रण के लिए तो कथोपकथन सबसे अधिक सुन्दर साधन है। कहानी में यदि कथोपकथन संक्षिप्त, व्यंजनापूर्ण, सार्थक और मार्मिक न होंगे तो लेखक अपनी कहानी में सफल नहीं हो सकता। उपन्यासकार के लिए तो पर्याप्त स्थान रहता है, इसलिए उनके कथोपकथन पात्रों की प्रवृत्ति एवं संख्या के अनुसार काफी विस्तृत भी हो सकते हैं।

6. देशकाल –

देशकाल से परे न तो उपन्यास हो सकता है और न कहानी। साहित्य युग से तटस्थ नहीं रह सकता। साहित्य तो युग की पुकार को और भी स्पष्ट रूप में व्यक्त करता है। इसलिए उपन्यास और कहानी दोनों अपने युग में प्रभावित रहते हैं और उसे अपना आधार बनाते हैं। अतीत पर कहानी और उपन्यास दोनों लिखे जा सकते हैं, लेकिन यह बङा कठिनक काम है। जिस युग को कहानीकार या उपन्यासकार अपने वर्णन का विषय बनाता है उसका उसे गम्भीर अध्ययन होना चाहिए।

उदाहरण के लिए, बंकिमचन्द्र के ऐतिहासिक उसका उसे गम्भीर अध्ययन होना चाहिए। उदाहरण के लिए, बंकिमचन्द्र के ऐतिहासिक उपन्यास, द्विजेन्द्रलाल राय के ऐतिहासिक नाटक, वृन्दावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास और प्रसादजी की ऐतिहासिक कहानियाँ ली जाती हैं। ये लेखक प्राचीन वातावरण को अपने साहित्य में यथावत् उपस्थित करने में सफल रहे हैं।
अन्तर केवल इतना ही है कि उपन्यास तो किसी युग का विस्तृत चित्र उपस्थित कर सकता है, किन्तु कहानी झांकी मात्र दिखा सकती है।

7. शैली –

जब कहानी और उपन्यास के वर्ण्य-विषय एक हो सकते हैं तो उन विषयों की अभिव्यक्ति प्रणालियों में भी दोनों में समानता स्वाभाविक है। वर्ण्य-विषय को सामान्यतया वर्णन करने के लिए लेखक अपनी इच्छानुसार किसी भी शैली का अनुसरण कर सकता है। शैली का निर्धारण विषय के अनुसार तथा लेखक की रुचि के अनुसार होता है।

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