कामायनी में महाकाव्यात्मक लक्षण – जयशंकर प्रसाद

Read: कामायनी में महाकाव्यात्मक लक्षण, आज के आर्टिकल में हम जयशंकर प्रसाद की चर्चित रचना कामायनी पर चर्चा करेंगे ,हम यह जानेंगे कि इस रचना में महाकाव्य के कौन -कौन से लक्षण है

कामायनी में महाकाव्यात्मक लक्षण


मुख्यत:  कामायनी छायावाद की मूल कृति है। उसमें छायावादी काव्य-कृति के समस्त गुण अत्यन्त परिष्कृत रूप में मिलते हैं। ’कामायनी’ में परवर्ती साहित्य को गहनता से प्रभावित किया है। आधुनिक विद्वानों में ’कामायनी’ का काव्य-रूप चर्चा का विषय रहा है। कुछ विद्वान् इसे एक काव्य मानते हैं, तो कुछ इसे महाकाव्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

’कामायनी’ का महाकाव्यत्त्व –

भारतीय काव्यशास्त्र में वर्णित महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर ’कामायनी’ एक महाकाव्य प्रमाणित होता है। भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार महाकाव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण, ईश्वर-वंदना, आर्शीवचन और कथावस्तु के निर्देश के उपरान्त सज्जनों की प्रशंसा और दुर्जनों की निंदा होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त धीरोदात्तनायक, उदात्त कथानक, उदात्त चरित्र, उदात्त भाव, समकालीन जीवन का सांगोसांग चित्रण, उदात्त भाषा-शैली, छंद-योजना और सर्गबद्धता तथा नायिका के नाम के आधार पर महाकाव्य का नामकरण आदि विशेषताएँ भी महाकाव्य के लिए अनिवार्य मानी गई हैं।

उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त सभी लक्षण 15 वीं शताब्दी तक महाकाव्य की कसौटी माने जाते थे, परन्तु आज स्वच्छंदतावादी महाकाव्यों का युग है। अतः आधुनिक महाकाव्यों की परख उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर नहीं की जा सकती। विभिन्न विद्वानों, जिनमें प्रतिपाल सिंह, डाॅ. गोविन्दराम शर्मा तथा डाॅ. शम्भुनाथ सिंह के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, ने आधुनिक महाकाव्यों के कुछ लक्षण निर्धारित किए हैं, जिन्हें सभी ने एक मत से स्वीकार किया है। यह लक्षण निम्नलिखित हैं –

  • महान् उद्देश्य
  • गम्भीरता, गुरुत्व तथा महत्त्व
  • महत् कार्य और युग-जीवन का समग्र चित्रण
  • सुसंगठित और जीवन्त कथानक
  • महत्त्वपूर्ण नायक
  • गरिमामयी उदात्त शैली
  • तीव्र प्रभावान्विति और गम्भीर रस-योजना

डाॅ. नगेन्द्र ने ’कामायनी’ के महाकाव्यत्व का विश्लेषण उदात्त कथानक, उदात्त कार्य और उद्देश्य, उदात्त चरित्र, उदात्त भाव और उदात्त शैली के आधार पर किया है। पाश्चात्य विद्वान् लाॅन्जाइनस ने भी उपर्युक्त तत्वों को ही स्वीकार किया है। इसके विपरीत डब्ल्यू. पी. केर, डिक्सन, बावरा आदि विद्वानों ने अंतरंग वस्तु की उदात्तता, जीवन व्यापी विशदता पर अधिक बल दिया है और शिल्पपक्षीय तत्वों की उपेक्षा की है।

उदात्त विचार –

विद्वानों ने उदात्त विचार को महाकाव्य का प्रमुख लक्षण माना है। यहाँ उदात्त विचार से तात्पर्य गम्भीर और महान् विचारों से है। ’कामायनी’ में कवि ने श्रद्धा और मनु के माध्यम से मानवता के विकास की कथा को प्रस्तुत किया है। इसका चित्रण मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक धरातल पर किया गया है। इसके द्वारा कवि ने नए जीवन-मूल्यों की स्थापना करने में सफलता प्राप्त की है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि प्रत्येक युग में मनुष्य को जीवन की विषमताओं से जूझना पङता है और उनसे मुक्ति के लिए आनन्दवाद की खोज करनी पङती है।

यही प्रत्येक युग की समस्या है, जिसे ’कामायनी’ में प्रतिपादित किया है। प्रसाद ने यह प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है कि विज्ञान और बुद्धिवाद के माध्यम से आनन्दवाद की तलाश करना अत्यन्त कठिन है परन्तु श्रद्धा का अनुकरण करके इसे सहज ही प्राप्त किया जा सकता है।

इस विचारधारा में इस काव्य को एक उदात्त काव्य बना दिया है। ’कामायनी’ में धर्म,दर्शन, राजनीति, मानवीय मनोभावों, विज्ञान आदि का सुन्दर चित्रण किया गया है और उनके मध्य सामंजस्य स्थापित करने का सफल प्रयास किया गया है।

उदात्त कथानक –

विद्वानों की मान्यता है कि उदात्त विचारों की अभिव्यक्ति के लिए किसी भी महाकाव्य के कथानक का उदात्त होना भी अनिवार्य है। लाॅन्जाइनस ने लिखा है कि महाकाव्य के विषय में ज्वालामुखी के समान असाधारण शक्ति तथा वेग और ईश्वर के समान वैभव और ऐश्वर्य होना चाहिए। महाकाव्य का कथानक इस प्रकार का होना चाहिए कि पाठकों की स्मृति पर गहरी छाप छोङे। ’कामायनी’ की कथावस्तु इस आधार पर पूर्णतः खरी उतरती है।

यह एक ऐतिहासिक और पौराणिक कथानक है। इसका सम्बन्ध मनु (आदि पुरुष) और श्रद्धा (आदि नारी) के जीवन से सम्बन्धित है। इसकी कथा मानवीय भावनाओं के साथ-साथ मानव-चेतना का सच्चा इतिहास भी प्रस्तुत करती है। इस महाकाव्य में मनु को महाप्रलय के बाद चिंतित, उद्विग्न और निराश चित्रित किया गया है। श्रद्धा उनमें आत्मविश्वास जगाती है और संसार के प्रति आकर्षित करती है परन्तु वे अधिक समय तक उसके साथ नहीं रह पाते और उसे गर्भावस्था में अकेला छोङकर चले जाते हैं। भटकते हुए वे सारस्वत प्रदेश पहुँचते हैं। वहाँ उनका परिचय इङा से होता है।

इङा यहाँ बुद्धि की प्रतीक है। वह उसके सहयोग से सारस्वत प्रदेश का शासन-भार अपने हाथ में ले लेते हैं परन्तु उन्हें शान्ति नहीं मिलती। अंततः विभिन्न आन्तरिक संघर्षों और मनोव्यथाओं से जूझते हुए वे पुनः श्रद्धा से मिलते हैं। इस प्रकार उनके जीवन में समरसता आती है और काव्य में आनन्दवाद की सृष्टि होती है। महाकाव्य का कथानक जीवन्त और सुगठित है। इसमें भावनाओं की सफल अभिव्यक्ति की गई है और श्रद्धा, मनु तथा इङा के अन्तद्र्वन्द्व भी सजीव और मर्मस्पर्शी रूप में चित्रित किए गए हैं। इस प्रकार यह एक सफल महाकाव्य है।

उदात्त चरित्र –

’कामायनी’ में प्रसाद ने उदात्त चरित्रों की योजना की है। श्रद्धा, मनु और इङा इस महाकाव्य के प्रमुख पात्र हैं। कवि ने मनु को आदि पुरुष और श्रद्धा को आदि नारी के रूप में चित्रित किया है। यद्यपि मनु में कवि ने धीरोदात्तनायक के गुणों का समावेश नहीं किया है, क्योंकि इस महाकाव्य में उनका उद्देश्य मानवता के विकास को चित्रित करना तथा मनुष्य के आन्तरिक संघर्ष से गुजरते हुए उसे आनन्दवाद तक पहुँचाना रहा है।

यदि वे मनु के रूप में एक धीरोदात्तनायक की कल्पना करते, तो सम्भवतः महाकाव्य का उद्देश्य ही नष्ट हो जाता। इसलिए कवि ने मनु को एक सामान्य मानव के रूप में चित्रित किया है। ’कामायनी’ की चरित्र-योजना का सम्पूर्ण विकास हमें श्रद्धा के व्यक्तित्व में देखने को मिलता है। उसका चरित्र पूर्णतः महिमा-निष्कामता आदि गुण विद्यमान है। यही कारण है कि वह मनु को समरसता के मार्ग पर आगे बढ़ाती है।

श्रद्धा के माध्यम से ही मनु को अखण्ड आनन्द प्राप्त होता है। इङा यहाँ बुद्धि की प्रतीक है, जो मानवीय अन्तद्र्वन्द्व की जनक है। कवि ने इस प्रकार के पात्रों की सृष्टि कर यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि आत्मविश्वास और भावनाएँ जीवन में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है। यदि हृदय और बुद्धि में सामंजस्य स्थापित हो जाए, तो जीवन की सभी विषमताएँ समाप्त हो जाती है और समरसता की स्थापना हो जाती है। अन्य पात्रों में मानव, आकुलि, किलात, देवगण आदि उल्लेखनीय हैं।

उदात्त भाव –

प्राचीन भारतीय आचार्य में कहा है कि किसी भी श्रेष्ठ महाकाव्य में शृंगार, वीर अथवा शांतरस में से किसी भी एक रस की प्रधानता होनी चाहिए। इस कसौटी पर भी ’कामायनी’ खरी उतरती है, क्योंकि उसमें शांतरस की प्रधानता है और शृंगार, वीर, वात्सल्य, भयानक, वीभत्स आदि अंगीरस हैं। यहाँ शांतरस निर्वेद या सममूलक नहीं है बल्कि हृदय की आनन्दावस्था या उदात्त अवस्था का द्योतक है। इसलिए इसे आनन्दरस भी कहा गया है।

प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अनुसार ’कामायनी’ में इस रस का स्वरूप निर्धारित किया गया है। यदि प्रसाद जी के शब्दों में काव्य को आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति माना जाये, तो यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि ’कामायनी’ में संकल्पनात्मक शांतरस की सहज स्थिति की अभिव्यक्ति हुई है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ’कामायनी’ उदात्त भाव-योजना और रस-प्रयोग की दृष्टि से एक श्रेष्ठ महाकाव्य है।

युग जीवन एवं प्रकृति के विविध पक्षों का चित्रण –

’कामायनी’ में आधुनिक मानव-जीवन की गम्भीरतम समस्याओं को उठाया गया है और उनके समाधान आनन्दवाद के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। ’कामायनी’ में कवि ने यह चित्रित किया है कि आज सम्पूर्ण विश्व में मानव-जीवन आत्मवाद, अनात्मवाद, बुद्धिवाद, भौतिकवाद तथा संघात्मक विचाराधाराओं से त्रस्त है। यह महाकाव्य अपने समकालीन जन-जीवन का अच्छा चित्र प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि इसे आधुनिक युग की प्रतिनिधि कृति के साथ-साथ एक क्रांतिदर्शी ग्रंथ के रूप में भी पहचान मिल गई है।

प्रकृति चित्रण की दृष्टि से भी यह एक उल्लेखनीय ग्रंथ है। इसमें स्थान-स्थान पर कवि ने आलम्बन, उद्दीपन, भावावृत्त, रहस्य, दर्शन, उपदेश, सूचिका, प्रतीक, अलंकार, अन्योक्ति, समासोक्ति तथा मानवीकरण आदि सभी रूपों में प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन किया है। कहा जा सकता है कि ’कामायनी’ में प्रकृति कथावस्तु का एक अभिन्न अंग बनकर उपस्थित हुई है। एक उदाहरण दृष्टव्य है –

नवकोमल आलोक बिखरता, हिम-संसृति पर भर अनुराग,
सित सरोज पर क्रीङा करता, जैसे मधुमय पिंग पराग।
धीरे-धीरे हिम-आच्छादन, हटने लगा धरातल से,
जगीं वनस्पतियाँ अलसाई, मुख धोती शीतल जल से।

उदात्त भाषा-शैली –

किसी भी श्रेष्ठ महाकाव्य के लिए उदात्त भाषा-शैली का प्रयोग अनिवार्य माना गया है। ’कामायनी’ में एक श्रेष्ठ महाकाव्य का यह गुण भी उत्कृष्ट रूप में देखने को मिलता है। ’कामायनी’ की भाषा लालित्यपूर्ण, उपयुक्त, प्रभावी पद-विन्यास से युक्त, भव्य, गरिमापूर्ण, ओजपूर्ण एवं सौन्दर्यशाली है। इस प्रकार की भाषा के प्रयोग से मृतप्रायः वस्तुएँ भी जीवित हो उठती हैं, कवि के भावों का तो कहना ही क्या। प्रसाद जी ने ’कामायनी’ में सम्यक् छंद-योजना का प्रयोग किया है।

उन्होंने लक्षणा एवं व्यंजना शब्द-शक्तियों का सुन्दर प्रयोग किया है। यही कारण है कि कुछ विद्वान् ’कामायनी’ की गिनती ध्वनि-काव्य के रूप में करते हैं। इस गुण के आधार पर भारतीय आचार्यों ने ’कामायनी’ को एक श्रेष्ठ काव्य के रूप में एक स्वर से स्वीकार किया है। इतना ही नहीं इस ग्रंथ में कवि ने अप्रस्तुत योजनाओं का रूप, गुण, धर्म, प्रकृति, रंग और प्रभाव आदि की दृष्टि से भी समीचिन प्रयोग किया है।

’कामायनी’ का यह गुण उसकी महाकाव्यगत गरिमा को बढ़ा देता है। इस काव्य में छायावादी कविता की कलागत विशेषताएँ अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती हैं। इसकी भाषा में लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता, ध्वन्यर्थता, उपचारवक्रता, प्रतीकात्मकता आदि गुण भी देखने को मिलते हैं। इस काव्य की वस्तु-योजना युग प्रभाव के अनुकूल भाव प्रधान ही है। इस काव्य में वर्णनात्मक तथा इतिवृत्तात्मक अंशों का अभाव है।

सम्पूर्ण कथा का विकास कवि ने आत्मचिंतन, संवाद, स्वगत-कथन, स्वप्न या प्राकृतिक दृश्य-विधानों के माध्यम से किया है, जिनके कारण यह एक कलात्मक कृति बन गई है। ’कामायनी’ में सूक्ष्म, व्यापक, मूर्त और अमूर्त, मानसिक और भौतिक सभी प्रकार के सजीव चित्र देखने को मिलते हैं। प्रवाहशीलता ’कामायनी’ की शैली की एक उल्लेखनीय विशेषता है। उसमें सर्वत्र तीव्रता, उत्कटता, भव्यावेग और संवेदनशीलता देखने को मिलती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि ’कामायनी’ उदात्त भाषा-शैली की दृष्टि से भी एक सफल महाकाव्य है।

छंद-योजना और सर्गबद्धता –

भारतीय महाकाव्य के निर्धारित लक्षणों के अनुसार ’कामायनी’ के प्रत्येक सर्ग में आद्यंत एक ही छन्द का समस्त प्रयोग भी किया गया है। छन्द-योजना पूर्णतः वस्तु अनुरूपिणी है। ’नातिस्वल्पा नातिदीर्घा’ के ही हिसाब से ’कामायनी’ में कुल 15 सर्गों का विधान किया गया है।

सर्गों का नामकरण उनमें निहित मूल भावना, व्यापारों के आधार पर ही किया गया है। कुछ सर्गों के अन्त में अगले सर्ग की कथा का पूर्वाभास भी व्यंजनात्मक रूप से प्रस्तुत कर दिया गया है, यथा-चिन्ता, काम, स्वप्न आदि सर्गों में। इस प्रकार छंद-विधान एवं सर्गबद्धता की दृष्टि से भी ’कामायनी’ महाकाव्य की गरिमा से रहित नहीं है।

निष्कर्ष –

उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ’कामायनी’ में मंगलाचरण, आर्शीवचन, गुरु-वंदना, सुसंगठित कथानक, धीरोदात्तनायक जैसे महाकाव्य के गुण भले ही न मिलते हों, परन्तु उसमें महाकाव्य के अन्य तत्व पूर्ण गरिमा और वैभव के साथ अभिव्यक्त हुए हैं। ऐसी स्थिति में ’कामायनी’ के महाकाव्यत्व पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता।

2 thoughts on “कामायनी में महाकाव्यात्मक लक्षण – जयशंकर प्रसाद”

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top