रामभक्ति शाखा – भक्तिकाल – Hindi Sahitya ka Itihas

आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के इतिहास के अंतर्गत भक्तिकाल में रामभक्ति शाखा (Rambhakti Shakha)  को पढेंगे ,इससे जुड़े महत्त्वपूर्ण तथ्य समझेंगे ।

रामभक्ति शाखा

हिन्दी साहित्य का आदिकाल समसामयिक राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण की दृष्टि से रामकाव्य की रचना के लिए सर्वाधिक उपयुक्त काल था। इस युग में कविगण मर्यादापुरुषोत्तम राम की शौर्य शक्ति से समन्वित लीलाओं का गान करके बाह्य शक्तियों के आक्रमणों के विरुद्ध राष्ट्र की सोयी हुई ऊर्जा को उद्बुद्ध कर सकते थे, किंतु उन्हें अपने आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करने से इतना भी अवकाश नहीं था कि वे राम के लोकरक्षक पावन चरित्र की ओर आकर्षित हो पाते। इस युग की कृतियों में मंगलाचरण अथवा स्तुति के रूप में कहीं-कहीं रामकथा के कुछ प्रसंग दृष्टिगत हो जाते हैं।

’पृथ्वीराजरासो’ में दशावतार वर्णन वस्तुतः मंगलाचरण्रा के रूप में ही है। इस प्रसंग के अंतर्गत कवि ने मुक्ति प्रदान करने वाले परंब्रह्म के विविध अवतारों का वर्णन किया है। रामावतार से संबद्ध अङतालीस छंदों में परशुराम द्वारा क्षत्रियों के संहार, राजा दशरथ के घर राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के जन्म, राम-वनगमन, राम-रावण-युद्ध, सीता-उद्धार आदि रामकथा के प्रमुख प्रसंग वर्णित हैं। समसामयिक युग-प्रवृत्ति के अनुकूल इन प्रसंगों के अंतर्गत हनुमान, मेघनाद और लक्ष्मण की वीरता का वर्णन विस्तृत एवं सजीव है।

रामकथा के ओज एवं माधुर्य को जनमानस की भावभूमि पर अधिष्ठित करने का श्रेय भक्तिकालीन भक्तकवियों को ही प्राप्त है, रीतिकालीन रामकाव्य के प्रणेताओं की दृष्टि तो अपने समसामयिक कृष्णकाव्य-प्रणेताओं की भांति राजदरबारों के ऐश्वर्य से इतनी अधिक अभिभूत हो चुकी थी कि उन्हें राम के लोकरक्षक रूप की अपेक्षा उनके रसिक रूप में ही अधिक आकर्षण प्रतीत हुआ और अपने पूर्ववर्ती भक्तकवियों की मर्यादा को वे विस्मृत करते चले गये। भक्तिकाल का राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण भी राम के लोकरक्षक रूप की अभिव्यक्ति के सर्वाधिक अनुकूल था।

विदेशी शक्तियों से आक्रांत, सामाजिक दृष्टि से वैषम्य-पीङित, धार्मिक धरातल पर सिद्धों एवं तात्रिकों के विविध मत-मतांतरों से ग्रस्त नैराश्यमुक्त हिंदू जनता को राम के असुर-संहारक, शरणागत-प्रतिपालक अलौकिक रूप ने मधुमय संबल प्रदान किया। उत्तरी भारत में रामभक्ति के प्रवर्तन का प्रमुख श्रेय आचार्य रामानंद को प्राप्त है। रामकाव्य-परंपरा के अंतर्गत ’रामरक्षास्तोत्र’ उनकी प्रसिद्ध रचना है। उनके शिष्यों ने राम के निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार रूप की उपासना के आधार पर रामभक्ति को दो पृथक भावधाराओं के रूप में पल्लवित किया।

रामभक्ति शाखा के कवि और काव्य

संस्कृत, पालि, प्राकृत एवं अपभ्रंश में रामकाव्य-

  • वाल्मीकी रामायण (सातवीं सदी ईसा पूर्व) को रामकथा का आदिकाव्य माना जाता है। इसके तीन पाइ दक्षिणात्य, गौडीय, तथा पश्चिमोत्तरीय प्राप्त होते हैं।
  • इसके पश्चात् उपनिषदों एवं पुराणों में रामकथा का वर्णन है।
  • बौद्ध जातक कथाओं में राम ’दशरथजातक’, अनामर्तजातक’ तथा चीनी त्रिपिटिक के अन्तर्गत दशरथ कथानक में प्राप्त है।
  • जैन ग्रन्थों में अपेक्षाकृत विस्तारपूर्वक रामकथा वर्णित है-
    पउमचरिउ (विमलसूरि), सियाचरियम्, राम चरियम् (भुवनतुंगसूरि), पद्मचििरत (रविषेण), अत्तरपुराण (गुण भद्र), कथाकोष (हरिकोष), पदमचरिउ (स्वयंभू-अपभ्रंश), महापुराण (पुष्पदंत-अपभ्रंश)।
  • वासुदेव हिण्डी (संघदास गणिवाचय), में कृष्णकथा (विस्तार से) तथा राम कथा (संक्षिप्त), दोनों हैं। यह जैन (प्राकृत) ग्रन्थ है।
  • राम कथा पर आधारित संस्कृत नाटकों में कालक्रमानुसार प्रथम स्थान भास रचित ’प्रतिभा’ एवं ’अभिषेक’ नाटकों का है। ’प्रतिभा’ नाटक की रचना सात अंकों में हुई है। इसमें सीता को लक्ष्मी का अवतार माना गया है। ’अभिषेक’ में राम के विष्णुत्व की सांकेतिक अभिव्यक्ति हुई है।
  • कालिदास प्रणीत ’रघुवंशम’ में दसवें से पंद्रहवें सर्ग तक रामकथा वर्णित है।
  • प्रवरसेन रचित ’रावण-वध’ महाकाव्य (प्राकृत भाषा 15 सर्ग) राम-रावण युद्ध पर आधारित है।
  • छठी-सातवीं सदी के लगभग संस्कृत में ’महाकाव्य’ अथवा ’रावणवध’ शीर्षक से एक महाकाव्य (रचनाकार अज्ञात) मिलता हैं जिसमें कवि ने रामकथा के माध्यम से व्याकरण के नियम स्पष्ट किए हैं इसमें 22 सर्ग हैं।
  • भवभूति ने ’उत्तररामचरित’ में रामकथा का वर्णन किया है। इनकी एक अन्य रचना ’महावीरचरित’ (7 अंक) है।
  • अनंग हर्ष मातृराज रचित ’उत्तरराघव’ नाटक (8 वीं सदी) में छह अंकों में वनवास से अयोध्या वापस आने तक की कथा है।

 

  • रामभक्ति शाखा से संबंधित अन्य प्रमुख रचनाएं हैं-

महाकाव्य- जानकी हरण (कुमारदास), रामायणमंजरी (क्षेमेन्द्र), दशावतार-चरितम् (क्षेमेन्द्र), उदारराघव (साक्यमज), राघवोल्लास (अद्वैत)।
नाटक – कुन्दमाला (दिङनाग), प्रसन्नराघव (जयदेव), उल्लास राघव (सोमेश्वर)।

उपरोक्त समस्त साहित्य आठवीं सदी तक का है। इसमें मूलतः कवि की दृष्टि से रामचरित को प्रस्तुत किया गया है, भक्त की दृष्टि से नहीं। राम को अवतार मानकर उनकी उपासना का सूत्रपात कब से हुआ यह बताना कठिन है, परन्तु जहां तक रामभक्ति के साम्प्रदायिक स्वरूप का प्रश्न है, वह आठवीं शताब्दी के पश्चात् प्रारम्भ हुआ।

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में भागवत धर्म का ह्रास होने लगा। वैष्णव साधना का गढ़ उत्तर भारत में भागवत धर्म का ह्रास होने लगा। वैष्णव साधना का गढ़ उत्तर भारत से दक्षिण में चला गया। जहां आलवारों ने रामभक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा।

आलवारों का समय 800 ई.-1100 ई. के आसपास तक है। रंगनाथ मुनि (824-924 ई.) ने इनके पदों का ’प्रबन्धम्’ शीर्षक से संग्रह किया। 1100-1400 ई. में रंगनाथ मुनि (श्री सम्प्रदाय) के परवर्ती आचार्यों पुण्डरीकाक्ष, रामानुज तथा राघवानन्द आदि का युग आता है, जिन्होंने रामभक्ति के दार्शनिक आधार को प्रतिष्ठित किया। चैदहवीं सदी के आरम्भ में रामानन्द ने भक्ति का पुनः उत्तर में प्रचार किया। इस संदर्भ के कबीर का कथन है- ’भक्ति द्राविङी उपजी लाए रामानन्द।’

अन्य भारतीय भाषाओं में प्रमुख रामकाव्य-रचनाएं-

रचना रचनाकार भाषा 
’कृत्तिवासी’कृत्तिवासबंगला
’कम्ब रामायण’कम्बतमिल
’भावार्थ रामायण’संत एकनाथमराठी
’ओवीबद्ध’समर्थ गुरू रामदासमराठी
’रामायण’वेणाबाई देशपाण्डेमराठी
’रामचरित’राजाश्रीराममलयालम
’रामायण’नामचन्द्रकन्नङ

हिन्दी रामकाव्य परम्परा: हिन्दी रामकाव्य परम्परा में कुछ जैन कवियों की रचनाएं प्रारम्भ में आती हैं। रावण-मन्दोदरी संवाद (मुनि लावण्य), रामचरित या रामरास (ब्रह्मनिदास), हनुमन्तरास (ब्रह्मजिनदास), हनुमन्तगामी कथा (ग्रह्मराममल्ल), हनुमान चरित (सुन्दरदास)।

स्वामी रामानन्द:

’श्री सम्प्रदाय’ के आचार्य राघवानन्द के शिष्य, स्वामी रामानन्द रामानुज के शिष्य परम्परा में आते हैं। भक्तमाल के अनुसार वह रामानुज के शिष्य परम्परा में चतुर्थ शिष्य थे जबकि श्री रामाचर्नपद्धति के अनुसार चैदहवें। भक्तमाल में रामानन्द के बारह शिष्यों का उल्लेख है। स्वामी जी ने ’रामावत सम्प्रदाय’ का गठन किया।

इस सम्प्रदाय का मूलमंत्र ’राम’ या ’सीताराम’ हैं। इन्होंने ’रामतारक’ मंत्र देकर मुसलमानों को भी हिन्दू बनाया। स्वामी जी ने काशी में वैरागी दल का भी गठन किया था। जो आज भी ’वैरागी’ नाम से ही प्रसिद्ध है। इसी वैरागी परम्परा में एक शाखा में योगसाधना का समावेश हुआ जो ’तपसी शाखा’ कहलायी। ’कील्हदास’ तथा उनके शिष्य ’द्वारकादास’ इसी शाखा के साधक थे। इनके अन्य ग्रन्थ रामरक्षा स्तोत्र को आचार्य शुक्ल इनके द्वारा रचित नहीं मानते।

रामकथा के हिन्दी कवि

1. ईश्वरदास – रामचरित से संबंधित हिन्दी का प्रथम प्रबंधकाव्य संभवतः ईश्वरदास ’भारतविलाप’ (16 वीं सदी का आरम्भिक काल) है। ’अंगदपैज’ भी रामकथा से संबंधित रचना है। इनकी एक अन्य प्रेमाख्यान रचना ’सत्यवती कथा (1501 ई.)’ है। स्वर्गराहिणी कथा तथा रामजन्म भी इनकी ही रचनाएं है।

2. अग्रदास – रामानन्द जी के शिष्य अनन्तानन्द और अनंतानंद के शिष्य कृष्णदास पयहारी थे। इन्हीं कृष्णदास पयहारी के शिष्य अग्रदास जी थे। इन्हीं पयहारी जी ने जयपुर के समीप गलता नामक स्थान में अपनी गद्दी स्थापित की। रामभक्ति परम्परा में रसिक भावना के समावेश का श्रेय इन्हीं के शिष्य अग्रदास को है। अग्रदास ने रामभक्ति काव्य में रसिक सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया, जिसका आधारभूत ग्रन्थ है – अग्रदास कृत ’ध्यानमंजरी’।

यह स्वयं को जानकी जी की सखी मानकर ’अग्रअली’ लिखते थे। अग्रदासी ’गोस्वामी जी’ के लगभग समकालीन (जन्म कुछ पूर्व) थे। अतः गोस्वामी जी के मर्यादावाद के सामने यह रसिकभावना दबी रही परन्तु 100 वर्ष बाद यह अपने पूरे वेग से बही। कृपा निवास ने ’रामायत सखी सम्प्रदाय’ की स्थापना की। ’रामस्नेही पंथ’ के संस्थापक महंत रामचरण दास ने ’स्वसुखी शाखा’ (पति-पत्नी भाव) का तथा जीवाराम ने ’तत्सुखी शाखा’ (सखी भाव) का प्रवर्तन किया।

अग्रदास के ग्रन्थ ब्रजभाषा में है। प्रमुख रचनाएं हैं- अष्टयाम (या रामाष्टयाम), ध्यानमंजरी, रामभजनमंजरी, उपासना वाबली तथा पदावली।

तुलसीदास की प्रमुख कृतियाँ, काव्य रूप और उनका महत्त्व –

गोस्वामी तुलसीदास के जन्म के विषय में एकाधिक मत हैं। बेनीमाधव दास द्वारा रचित गोसाई चरित और महात्मा रघुबरदास द्वारा रचित तुलसी चरित, दोनों के अनुसार तुलसीदास का जन्म 1497 में हुआ था। शिवसिंह ’सरोज’ के अनुसार सं. 1583 (1526) के लगभग हुआ था। पं. रामगुलाम द्विवेदी इनका जन्म सं. 1589 (1532) मानते थे। यह निश्चित है कि ये महाकवि सोलहवीं शताब्दी में विद्यमान थे।

तुलसीदास मध्यकाल के उन कवियों में से हैं, जिन्होंने अपने बारे में जो थोङा-बहुत लिखा है, वह बहुत काम का है।
तुलसी का बचपन घोर दरिद्रता एवं असहायावस्था में बीता था। उन्होंने लिखा है, ’’माता-पिता ने दुनिया में पैदा करके मुझे त्याग दिया। विधाता ने भी मेरे भाल (भाग्य) में कोई भलाई नहीं लिखी’’-

मातु पिता जग जाइ तज्यो, विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई।

’’जैसे कुटिल कीट को पैदा करके छोङ देते हैं, वैसे ही मेरे माँ-बाप ने मुझे त्याग दिया’’-

तनु जन्यों कुटिल कीट ज्यों तज्यो माता पिता हूँ।

हनुमानबाहुक से भी स्पष्ट है कि अंतिम समय में वे भयंकर बाहु-पीङा से ग्रस्त थे- पाँव, पेट, सकल शरीर में पीङा होती थी, पूरी देह में फोङे हो गए थे।

यह मान्य है कि तुलसी की मृत्यु सं. 1680 अर्थात् 1623 में हुई। उनकी मृत्यु के विषय में यह दोहा प्रसिद्ध है-

संवत सोरह सौ असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो सरीर।।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 12 ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं- दोहावली, कवित्त रामायण (कवितावली), गीतावली, रामचरितमानस, रामाज्ञाप्रश्न, विनयपत्रिका, रामललानहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपिनी एवं श्रीकृष्णगीतावली। रामचरितमानस की रचना गोसाईं जी ने सं. 1631 अर्थात् 1574 में प्रारंभ की, जैसा कि उनकी इस अर्धाली से प्रकट है-

संवत सोरह सौ इकतीसा। करउँ कथा हरिपद धरि सीसा।।

नीचे संक्षेप मे उनकी मुख्य रचनाओं का परिचय दिया जा रहा है-

रामचरित मानस:-  तुलसीदास की कीर्ति का आधार स्तंभ यह महाकाव्य हिन्दी साहित्य की अमर रचना है जो युग-युग तक साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी। इस विचित्र महाकाव्य में तुलसी ने अपने इष्ट भगवान राम की जीवन गाथा को सात काण्डों में चित्रित किया है। इसकी रचना लोकभाषा अवधी में की गई। यह सरस रचना दोहा-चैपाई पद्धति में की गई। कवि ने इस महाकाव्य की रचना स्वान्तः सुखाय की परन्तु वास्तव में कवि का स्वान्तः सुखाय लोक मात्र के लिए अर्थात सर्वान्तः सुखाय है। भाषा, भाव, अलंकार विधान एवं अन्य काव्यांगों की कसौटी पर मानस पूर्ण रूप से एक सफल महाकाव्य है। इस महाकाव्य में शांत रस प्रधान है।

गीतावली (रचना काल 1627 वि.):-  कवि ने ब्रजभाषा में रामकथा को गीतिशैली में प्रस्तुत कर सात कांडों में गीतावली की रचना की है। इसमें 330 छंद गेय शैली में लिखे गए हैं। इस रचना में शृंगार, वात्सल्य तथा करुण रस से संबंधित स्थलों को चुनकर लिया गया है। गीतावली कवि की आरंभिक काल की महत्त्वपूर्ण रचना है।

दोहावली (रचनाकाल 1640 विक्रमी):- जैसा कि नाम से ही प्रकट होता है यह रचना दोहा नामक विषम मात्रिक छंद में लिखी गई है। इसमें 573 दोहे हैं। इनमें राम-राम की महिमा, भक्ति नीति तथा सदाचार संबंधी विषयों को दर्शाया गया है। अधिकतर दोहे नीति विषयक और उपदेशपरक हैं।

विनयपत्रिका (रचनाकाल सं. 1636-1640):-  राग-रागनियों की शास्त्रीय शैली में रचा हुआ यह ग्रंथ तुलसीदास की महत्वपूर्ण शास्त्रीय कृति है। कलियुग से दुखित होकर महात्मा तुलसीदास ने अपने आराध्य राम की सेवा में अपनी पत्रिका प्रेषित की है। इसके द्वारा उन्होंने अपने आराध्य से अपनी रक्षा करने की विनती की है। इस कृति में राज दरबारी शिष्टाचार का निर्वाह किया गया है। साहित्यिक दृष्टि से विनयपत्रिका एक उत्कृष्ट रचना है। ब्रज भाषा में लिखी हुई तीन सौ पदों की यह रचना ’भक्ति रस’ का अद्वितीय काव्य है।

पार्वती मंगल (रचना काल सं. 1643):- शृंगार रस प्रधान इस रचना में महादेव और पार्वती के विवाह का वर्णन 164 पदों में किया गया है। शृंगार के साथ हास्य रस का भी चित्रण हुआ है।

जानकी मंगल (रचनाकाल सं. 1643):- नाम के अनुरूप तुलसीदास ने 216 छंदों की इस लघु रचना में जानकी की कथा का वर्णन किया है। इस पर वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।

कवितावली (कवित्त रामायण, रचना काल सं.1665) – रामचरित मानस के अतिरिक्त रामकथा को ही कवि ने ब्रजभाषा कवित्त, सवैया, घनाक्षरी, छप्पय आदि में लिखा है। यह काव्य कवि की प्रौढ़ता का परिचायक है। इसमें 325 छंद हैं।

इनके अतिरिक्त रामलला नहछू, बरवै रामायण, कृष्ण गीतावली, रामाज्ञा प्रश्न और वैराग्य संदीपनी नाम की लघु रचनाएँ तुलसीदास ने लिखी हैं। तुलसीदास की सभी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं। तुलसीदास अपने समय के महान विचारक, समाज सुधारक, उच्चकोटि के साहित्यकार और कुशल समन्वयवादी थे। हिन्दी साहित्य में राम को परमब्रह्म के पूर्णावतार के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय तुलसीदास को है।

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