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Ramdhari Singh Dinkar || रामधारी सिंह दिनकर || हिन्दी साहित्य

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:6th Jul, 2020| Comments: 0

दोस्तो आज की पोस्ट में हम रामधारी सिंह दिनकर जी (Ramdhari Singh Dinkar) के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे

रामधारी सिंह दिनकर(Ramdhari Singh Dinkar)

Table of Contents

  • रामधारी सिंह दिनकर(Ramdhari Singh Dinkar)
    • कविता संग्रह(Ramdhari Singh Dinkar)
    • खण्डकाव्य
    • निबंध
      • आलोचना
      • संस्मरण
      • यात्रा – वृतांत
        • गद्य गीत
        • डायरी
        • अनुवाद
        • पुरस्कार व सम्मान
      • अन्य  रचनाएं
      • अति महत्वपूर्ण कथन –
    • आधुनिक काव्य में दिनकर की राष्ट्रीय काव्यधारा
    • भारतेन्दु युग-
    • भारतेन्दु के मत
    • द्विवेदी युग-
    • द्विवेदी के मत 
    • 🔷 पंडित रामनरेश त्रिपाठी के अनुसार 
    • दिनकर का स्थान-
    • दिनकर के मत

जन्म: 23 सितंबर 1908, बेगूसराय, बिहार
मृत्यु: 24 अप्रैल 1974, बिहार

Ramdhari Singh Dinkar

कविता संग्रह(Ramdhari Singh Dinkar)

प्राणभंग 1929 ई.
रेणुका 1935 ई.
हुंकार 1939 ई.
रसवन्ती 1940 ई.
द्वन्द्वगीत 1940 ई.
कुरुक्षेत्र (प्रंबध काव्य) 1946 ई.
धूपछाँह 1946 ई.
सामधेनी 1947 ई.
बापू 1947 ई.
इतिहास के आंसू 1951 ई.
धूप और धुआं 1951 ई.
मिर्च का मजा  1951 ई.
रश्मिरथी  1952 ई.
नीम के पत्ते  1954 ई.
दिल्ली  1954 ई.
नील कुसुम  1954 ई.
सूरज का ब्याह  1955 ई.
चक्रवात  1956 ई.
नये सुभाषित  1957 ई.
सीपी और शंख  1957 ई.
कवि श्री  1857 ई.
उर्वशी  1961 ई.
परशुराम की प्रतिक्षा  1963 ई.
कोयला और कवित्त  1964 ई.
माटी तिलक  1964 ई.
भगवान के डाकिए  1964 ई.
आत्मा की आँखें  1964 ई.
हारे को हरिनाम  1970 ई.

 


खण्डकाव्य

कुरुक्षेत्र 1946 ई.
रश्मिरथी 1952 ई.
चक्रवात 1956 ई.
उर्वशी  1961 ई.
माटी तिलक 1964 ई.

 

निबंध

मिट्टी की ओर 1946 ई
अर्द्धनारीश्वर 1952 ई.
रेती के फूल 1954 ई.
भारत की सांस्कृतिक कहानी 1955 ई.
संस्कृति के चार अध्याय 1956 ई.
हमारी सांस्कृतिक एकता 1956 ई.
उजली आग 1956 ई.
राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता 1958 ई.
वेणु वन 1958 ई.
धर्म, नैतिकता और विज्ञान 1959 ई.
वट पीपल 1961 ई.
राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधीजी 1968 ई.
साहित्यमुखी 1968 ई.
हे राम 1969 ई.
भारतीय एकता 1971 ई.
विवाह की मुसीबतें 1973 ई.
चेतना की शिखा 1973 ई.
आधुनिकता बोध 1973 ई.

 

आलोचना

काव्य की भूमिका 1958 ई.
पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण 1958 ई.
शुद्ध कविता की खोज 1966 ई.(imp)
साहित्यमुखी 1968 ई.
आधुनिक बोध 1973 ई.

संस्मरण

वट पीपल 1961 ई.
लोकदेव नेहरू 1965 ई.
संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ 1969 ई.
शेष – निःशेष 1985 ई.

यात्रा – वृतांत

देश-विदेश 1957 ई.
मेरी यात्राएँ 1970 ई.

गद्य गीत

उजली आग 1956 ई.

डायरी

दिनकर की डायरी 1973 ई.

अनुवाद

आत्मा की आँखें/डी. एच. लारेंस 1964 ई.

पुरस्कार व सम्मान

1952 ई. में राज्यसभा सदस्य चुने गये
1959 ई. में पद्य विभूषण

1959 ई. में ’संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए साहित्य अकादमी
1968 ई. में साहित्य चूङमणि, राजस्थान विद्यापीठ की ओर से
1972 ई. में ज्ञानपीठ पुरस्कार ’उर्वशी’ पर

द्वन्द्वगीत(1940 ई.) –

⇒यह 115 रूबाइयों का संकलन है जिसमें जीवन और जगत् सम्बंधी रहस्यमयी भावनाएँ व्यंजित हुई है।

सामधेनी(1947 ई.) –

⇒इस रचना में अशोक के संदर्भ में अहिंसा के महत्त्व का वर्णन किया गया है।

संस्कृति के चार अध्याय(1959 ई.) –

⇒इस रचना में मानव सभ्यता के इतिहास को चार मंजिलों में बाँटकर अध्ययन किया है।

⇒उर्वशी को स्वयं दिनकर ने ’कामाध्यात्म’ की उपाधि प्रदान की।
⇔’कुरूक्षेत्र’ को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान दिया गया था।
⇒आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार -’प्रणभंग’ प्रबंध काव्य है।
⇔जब आचार्य द्वारा ’हिन्दी साहित्य का इतिहास’ की रचना की गई तब ’दिनकर’ के दो काव्य संग्रह ही प्रकाशित हुए थे -1. रेणुका 2. हूंकार
⇒’लोक देव नेहरू’ व ’वट पीपल’ को संस्मरणात्मक विधा की रचना माना जाता है।

अन्य  रचनाएं

  • समरशेष है
  • विपथगा
  • बुद्धदेव
  • हिमालय का संदेश
  • आग की भीख
  • हारे को हरिनाम -(अन्तिम रचना)
  • हाहाकार
  • कलिंग विजय

अति महत्वपूर्ण कथन –

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार दिनकर की पहली रचना ’प्रणभंग’ है। एक प्रबंध काव्य है।

डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार –
’’दिनकर अपने आप को द्विवेदीयुगीन और छायावादी काव्य पद्धतियों का वारिस मानते थे।’’

डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार –
’’दिनकर की कविता प्रायः छायावाद की अपेक्षा द्विवेदीयुगीन कविता कि निकटतर जान पङती है।’’

डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार –
’’दिनकर मूलतः सामाजिक चेतना के चारण है।’’

डाॅ. गणपतिचन्द्र गुप्त के अनुसार –
’’काव्यत्व की दृष्टि से ’कुरूक्षेत्र’ शांतरस या बौद्धिक आकर्षण की व्यंजना का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसका मूल केन्द्र भाव नहीं अपितु विचार है, भावनाओं के माध्यम से विचार की अभिव्यक्ति की गई, अतः इसमें शांत रस को ही अंगीरस मानना होगा।’’

डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार-
’’दिनकर का काव्य छायावाद का प्रतिलोम है, पर इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी काव्य जगत पर छाये छायावादी कुहासे को काटने वाली शक्तियों में ’दिनकर’ की प्रवाहमयी ओजस्विनी कविता का स्थान, विशिष्ट महत्व का है।’’

डाॅ. बच्चन ने ’दिनकर’ की रचना ’हुकार’ (1939) को ’वैतालिका का जागरण गान’ कहा है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उर्वशी को प्रबंध काव्य न मानकर गीतिकाव्य माना है।

आधुनिक काव्य में दिनकर की राष्ट्रीय काव्यधारा

भारत में राष्ट्रीयता की भावना सदैव विकासशील रही है परन्तु जब से हिन्दी काव्य का प्रारम्भ हुआ, राष्ट्रीयता की धारा कभी विकसित हुई, तो कभी संकुचित हो गयी। रीतिकाल की सामन्तीय व्यवस्था में राष्ट्रीय एकता का ध्यान प्रायः नरेशों को ही नहीं था, किन्तु फिर भी शिवाजी और छत्रसाल जैसे वीर हिन्दू-गौरव और हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए लगे हुए थे। भूषण ने इन्हीं वीरों को अपना काव्य-नायक बनाकर अपनी राष्ट्रीय भावना का परिचय दिया है।

भारतेन्दु युग-

भारतेन्दु युग समाज-सुधार और राष्ट्रीय भावनाओं के शंखनाद का युग था। भारतेन्दु जी ही आधुनिक काव्यधारा के जनक है। सर्वप्रथम उन्हीं के काव्य में मातृभाषा-प्रेम, समाज-सुधार, देश-भक्ति और राष्ट्रीयता का प्रबल स्वर सुनाई पङा। भारतेन्दु जी का मातृभाषा-प्रेम उनके निम्न कथनों पर स्पष्ट है-

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि सब गुन होते प्रवीन।
पै निज भाषा ज्ञान बिन रहित हीन के हीन।

×  ×  ×  ×  ×  ×  ×  ×  ×  ×  ×  ×  ×  ×

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
पै निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिये को सूल।।

भारतेन्दु की देशभक्ति की भावना राज-भक्ति समन्वित थी। वे अंग्रेजी राज्य के सुख-साज से संतुष्ट थे, किन्तु भारत का धन विदेशों को जा रहा है, इसका उन्हें दुख था-

अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जाय यहै अति ख्वारी।।

’भारत दुर्दशा’, ’नीलदेवी’ आदि नाटकों में भारतेन्दु जी ने भारत की पराधीन दयनीय स्थिति का यथार्थ चित्र खींचा है। निम्न पंक्तियों में देखिए-

रोवहु सब मिलिके, आवहु भारत भाई।
हा! हा! भारत-दुर्दशा सही नहिं जाई।।

×  ×  ×  ×  ×  ×   ×  ×  ×  ×  ×  ×  ×
कहँ करुणानिधि केशव सोए।
जागत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए।

भारतेन्दु के मत

भारतेन्दु ने विधवा-विवाह, विदेश-यात्रा आदि का समर्थन करके अपने समाज-सुधार सम्बन्धी विचारों का अभिव्यक्त किया है-

विधवा विवाह नहिं कियो विभिचार प्रकास्यौ।
रोकि विलायत गमन कूप मण्डूक बनायौ।।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की यह राष्ट्रीय चेतना और समाज-सुधार की पावन भावना उनके समकालीन प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चैधरी प्रेमघन, पंडित श्रीधर पाठक, राय देवीप्रसाद पूर्ण आदि में मिलती है-

चाहहु जो सोचो निज कल्याण।
तो सब मिलि भारत-सन्तान।
जपो निरन्तर एक जबान।
हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान।। –प्रतापनारायण मिश्र

जय-जय भार हे।
जय भारत जय भारत जय जय भारत हे! – पंडित श्रीधर पाठक

गाढ़ा झीना जो उसकी हो पोषाक
कीजे अंगीकार तो रहे देश की लाज। -राय देवीप्रसाद पूर्ण

द्विवेदी युग-

देश-प्रेम और राष्ट्रीयता की जो भावना भारतेन्दु जी ने उद्भूत की थी, वही मैथिलीशरण गुप्त जी की कविता से होती हुई माखनलाल चतुर्वेदी ’एक भारतीय आत्मा’, पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्रागुमारी चैहान और गयाप्रसाद शुक्ल सनेही आदि की कविताओं में पल्लवित हुई है। मैथिलीशरण गुप्त ने भारत के गौरवमय अतीत के चित्र खींचकर वर्तमान की प्रेरणा दी। ’भारत भारती’ रचना राष्ट्रीयता का शंखनाद है-

हम कौन थे, क्या हो गये हैं,
और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर,
ये समस्याएँ सभी।

गुप्तजी की यही राष्ट्रीय विचारधारा ’साकेत’, ’पंचवटी’ और ’गुरुकुल’ में पल्लवित हुई। राम स्वदेश-प्रेम से परिपूर्ण होकर कहते हैं-

मैं हूँ तेरा सुमन चाहे रहूँ कहीं,
मैं ही तेरा जलद बरसूँ कहीं।

वे अछूतों के प्रति सहानुभूति दिखलाते हुए कहते हैं-

इन्हें समाज नीच कहता हे
पर हैं ये भी तो प्राणी।
इनमें भी मन और भाव हैं,
किन्तु नहीं वैसी वाणी।

द्विवेदी के मत 

’काबा और कर्बला’ में गुप्त जी हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए कहते हैं-

हिन्दू मुसलमान दोनों अब
छोङें यह विग्रह की नीति।

’एक भारतीय आत्मा’ माखनलाल चतुर्वेदी कविताएँ राष्ट्रीयता और देश-प्रेम से परिपूर्ण है। उनकी ’पुष्प की अभिलाषा’ कविता राष्ट्र-प्रेम की वेगवती धारा प्रवाहित करने वाली अमर कविता है-

⋅चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ।
चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ।
·चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ।
चाह नहीं मैं चढूँ देव सिर और भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोङ लेना बनमाली
उस पथ में तुमन देना फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ पर जावें वीर अनेक।।

🔷 पंडित रामनरेश त्रिपाठी के अनुसार 

पंडित रामनरेश त्रिपाठी और बालकृष्ण शर्मा आदि ने भी राष्ट्रीय भावों की कविताएँ लिखी है। त्रिपाठी जी ने ’मिलन’, ’पथिक’ और ’स्वप्न’ में स्वदेश-प्रेम के ऊँचे आदर्शों का निरूपण है। नवीन जी की ओजस्विनी कविता में आँधी तूफान और सागर की हलचल है। उनके साधारण शब्दों में जैसे ज्वालामुखी का अग्नि-प्रवाह और वेगवती देश-प्रेम की धारा प्रवाहित हो रही है। सुभद्राकुमारी चैहान की कविता में एक वीर क्षत्राणी की ललकार है। ’झाँसी कर रानी’, ’विजयादशमी’, ’वीरों का कैसा हो बसन्त’ आदि कविताएँ राष्ट्रीयता और देशप्रेम का अनूठा आदर्श प्रस्तुत करती है।

पंडित रामचरित उपाध्याय के ’रामचरित चिन्तामणि’ काव्य में राष्ट्रीयता का निखरा हुआ रूप मिलता है। पंडित रूपनारायण पाण्डेय की देशभक्ति, स्वदेशी वस्तु व्यवहार और अछूतोद्धार का स्वर ऊँचा है। कविरत्न सत्यनारायण के काव्य में राष्ट्रीयता कूट-कूटकर भरी हुई है। उनका ’भ्रमरदूत’ काव्य स्वदेश-प्रेम से परिपूर्ण हैं-

कोमल जो नव फूल खिले
हिय बेधि के दुख के तार पिरोये।
देश दरिद्र देखी फिर है
तुम ताहू पै कौन सी नींद में सोये।
विप्र सुदामा को हरि दशा
अपने जन जानि दयानिधि रोये
भारत अरत हेरि कितै
करुना तजि के करुनानिधि रोये।।

प्रसाद जी के नाटकों में प्रयुक्त गीतों में देश-प्रेम और राष्ट्रीयता की वेगवती धारा प्रवाहित हुई है। सोहनलाल द्विवेदी की ’भारतवर्ष’ कविता में भारत-महिमा का निम्न कथन द्रष्टव्य है-

वह महिमामय अपना भारत
वह महिमामय सुन्दर स्वदेश
युग-युग जिसका उन्नत शिर
है किये खङा हिमगिरि नगेश।

दिनकर का स्थान-

दिनकर जी का समस्त काव्य राष्ट्रीय उत्थान और जागरण की प्रेरणा है। ’कुरुक्षेत्र’, ’हंुकार’, ’रेणुका’ आदि में दिनकर जी की राष्ट्रीय विचारधारा बङे वेग से प्रवाहित हुई है। दिनकर जी सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय कवि है। वे मूलतः जन-चेतना के गायक रहे है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पहले अपने एक वीर योद्धा की भाँति पूरी-पूरी शक्ति से ब्रिटिश साम्राज्यशाही का विरोध किया। आपकी रचनाओं में अतीत का गौरव-गान और देश की वर्तमान दुर्दशा का चित्रण है। स्वराज्य-प्राप्ति के पश्चात् आशा के अनुरूप देश की प्रगति न देखकर आपके हृदय की आग रह-रहकर भभक उठती थी।

आप अनुभव करते है कि जनता पिस रही है, अभी उसको सच्चा स्वराज्य नहीं मिला, इसलिए संघर्ष की आवश्यकता है। दिनकर जी इन्क्लाब के कवि रहे है। वे जन-भावनाओं के गायक है। देश की प्रत्येक परिवर्तित परिस्थिति में उन्होंने यह ध्यान रखा है कि इसका प्रभाव साधारण जनता पर क्या पङेगा ? वे राष्ट्रीयता और जनता दोनों ही के सजग प्रहरी रहे है।

दिनकर के मत

दिनकर का ’कुरुक्षेत्र’ आधुनिक युग की गीता और राष्ट्रीयता का शखंनाद है। युधिष्ठिर के समय समस्या वही थी जो आज के भारत की समस्या है। युधिष्ठिर उसी युद्ध को रोकने का उपाय पूछने पितामह के पास जाते हैं, जिसे रोकने के लिए ’लीग ऑफ नेशन्स’ बनाई गयी थी तथा जिसे रोकने को आज संयुक्त राष्ट्र संघ प्रयत्नशील है। ’कुरुक्षेत्र’ की रचना के समय भारत की जो दयनीय दशा थी, वह इनमें ध्वनित हो उठती है। पितामह धर्मराज को समझाते हैं- तुम्हें संन्यास नहीं लेना चाहिए। सारा भारतवर्ष दुखी है, व्याकुल है, इसकी सेवा करनी चाहिए तथा भारतवासियों को सहारा देना चाहिए-

पोंछो अश्रु उठो, द्रुत जाओ,
वन में नहीं भुवन में।
होओ खङे असंख्य नरों के,
आशा बन जीवन में।

’कुरुक्षेत्र’ में भीष्म ने जो राजतन्त्र की बुराई की है, उसे पढ़कर अंग्रेजी शासन के अत्याचार और दमन-नीतियों का स्मरण हो आता है।

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