समवाय शिक्षण विधि – Samvay Shikshan Vidhi || हिंदी शिक्षण विधि

आज की पोस्ट में हम हिंदी शिक्षण विधियों में समवाय शिक्षण विधि(Samvay Shikshan Vidhi) के बारे में चर्चा करेंगे ,आप इसे अच्छे से पढ़ें 

समवाय शिक्षण विधि – Samvay Shikshan Vidhi

समवाय का अर्थ है – दो विषयवस्तु को एक साथ लेकर चलना अर्थात सहयोग प्रणाली। इस विधि में  विषय के सभी अंगो का अध्ययन एक साथ कराया जाता है। इसलिए इसे समवाय विधि कहते है। यह विधि भाषा संसर्ग विधि का ही दूसरा रूप है।

समवाय प्रणाली में ज्ञान और कर्म के विभिन्न संबंध पर जोर दिया जाता है। इसमें रचना, कहानी पद्य आदि की शिक्षा देने के साथ-साथ ही प्रसंग और अवसरानुकूल व्याकरण की शिक्षा दी जाती है।

नोट : इसमें व्याकरण की शिक्षा लम्बीय सहसंबंध समवाय के द्वारा दी जाती है, यह संबंध – सहसंबंध की परिकल्पना सबसे पहले हरबर्ट महोदय ने की थी। यह विधि पूर्व ज्ञान का नवीन ज्ञान से सम्बन्ध स्थापित करती है।

हिन्दी शिक्षण की वह प्रणाली जिसके अंतर्गत अध्यापक पाठ्य पुस्तक के साथ-साथ व्याकरण एवं काव्यशास्त्र की जानकारी दे देता है, उसे समवाय शिक्षण विधि कहा जाता है।

समवाय विधि को समझें –

जैसे – अध्यापक गद्य का कोई पाठ पढ़ा रहा है और उसके बीच में व्याकरण का कोई बिन्दु आ गया तो अध्यापक वहीं पर उसे व्याकरण का ज्ञान सीखाएगा या अन्य इससे संबंधी कोई बात आ गई तो साथ ही चर्चा की जाती है।

इस विधि में तारतम्यता नहीं रहती क्योंकि अध्यापक पद्य पढ़ा रहा है और बीच में व्याकरण पढ़ाने चले तो बच्चों का ध्यान व्याकरण पर हो जाता है। तो बालक न तो पद्य पाठ पढ़ पाता है न व्याकरण। इससे विद्यार्थियों का ध्यान भंग हो जाता है और किसी भी विषय का अधिगम नहीं कर पाते हैं।

1. इसे सहयोग विधि के नाम से जाना जाता है। इसे पाठ्यपुस्तक विधि भी कहते है।
2. यह मनोवैज्ञानिक विधि है।
3. समवाय शिक्षण विधि में मौखिक या लिखित कार्य कराते समय गद्य शिक्षण कराते समय या रचना शिक्षण कराते समय प्रासंगिक रूप से व्याकरण के नियमों की जानकारी दी जाती है। हिंदी की पाठ्‌यपुस्तक में संकलित गद्य पाठों का शिक्षण करवाते समय काठिन्य निवारण सोपान के अन्तर्गत छात्रों को पाठ में आये कठिन व नवीन शब्दों के अर्थ व्याकरण की सहायता से बताए जाते है। इस प्रकार गद्य शिक्षण के साथ-साथ छात्रों को संधि, समास, उपसर्ग, प्रत्यय, संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि का भी ज्ञान दे दिया जाता है।
4. पढ़ाने  की तारतम्यता भंग हो जाती है।
5. व्याकरण की व्यावहारिक शिक्षा देने के लिए यह एक स्वाभाविक और रूचिकर विधि है।
6. समवाय शिक्षण विधि में गद्य , पद्य के अध्ययन के साथ-साथ व्याकरण का अध्ययन कराया जाता है।
7. इस विधि में व्याकरण का व्यवहारिक ज्ञान कराया जाता है।
8. समवाय शिक्षण विधि में अर्जित ज्ञात स्थायी होता है।
9. इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान का संबंध सामाजिक वातावरण से होता है।
6. इसमें व्याकरण की नियमित शिक्षा नहीं दी जाती है। विषयवस्तु पढ़ाते समय किसी शब्द में व्याकरण की जानकारी देने की जरूरत पड़े ,तभी व्याकरण का व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता है।

लार्ड मैकाले के अनुसार 

बालक उस भाषा को शीघ्र सीखता है, जिसका व्याकरण वह नहीं जानता।

7. भाषा का उद्योग, भौतिक वातावरण या सामाजिक वातावरण के साथ समवाय ।

समवाय विधि के सिद्धान्त –

  • हरबर्ट का संप्रत्यात्मकता का सिद्धान्त(पूर्व ज्ञान को नवीन ज्ञान से जोड़ना)
  • हरबर्ट का सहसम्बन्ध का सिद्धान्त
  • जिल्लर का केन्द्रीकरण का सिद्धान्त(इतिहास को केंद्र बिंदु मानकर अन्य विषयों को पढाना)
  • फ्राॅबेल की जीवन केन्द्रित शिक्षा(विषय पाठ्यक्रम की जगह बालक पर फोकस यानि खेल -खेल में शिक्षा देना)
  • डीवी का सामंजस्यीकरण का सिद्धान्त(फ्रोबेल के जीवन केन्द्रित शिक्षा के बिंदु में सुधार किया यानि पाठ्यक्रम में ज्ञानात्मक होने के साथ – साथ क्रियात्मक और अनुभवात्मक हो,अर्थात बालक की शिक्षा को सामाजिक जीवन से जोड़ा जाए )
  • गांधी जी का समवाय का सिद्धान्त(बुनियादी शिक्षा में ज्ञान और कर्म पर बल) ।

हरबर्ट ने सहसम्बन्ध सिद्धान्त के दो प्रकार बताए है ।

समवाय के प्रकार

लम्बीय सहसम्बन्ध:

एक विषय का उसी विषय के साथ सम्बन्ध स्थापित करना, अर्थात जो विषय पढ़ा रहें है ,उसी विषय के साथ सहसंबंध ( कविता पढ़ाते समय व्याकरण का ज्ञान)

क्षैतिज सहसम्बन्ध:

एक विषय का अन्य विषय के साथ सम्बन्ध स्थापित करना।
गुण:
1. इस विधि में व्याकरण की कक्षा अलग से नहीं लगानी पङती।
2. एक अध्यापक से ही अध्यापन सम्भव हो जाता है व समय की बचत होती है।
3. यह विधि माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा के विद्यार्थीयों के लिए उपयोगी है।
दोष:

1.  छात्र को व्याकरण की विधिवत् व व्यवस्थित शिक्षा नहीं दी जा सकती ।
2. यह विधि किसी भी विषय का सटीक ज्ञान कराने में सक्षम नहीं।
3. विद्यार्थियों का ध्यान केन्द्रित नहीं रहता व विषय की तारतम्यता।
4. भाषा के कौशलों का पूर्ण विकास कराने में सक्षम नहीं और न ही भाषा की पूरी जानकारी करवाती है।
5. इसमें व्याकरण के नियमों का तार्किक एवं व्यवस्थित ज्ञान नहीं दिया जाता है।
6. मूल पाठ से भटक जाने का भय रहता है।

समवाय शिक्षण विधि की आवश्यकता –

  • परिष्कृत पाठ्‌यक्रम हेतु
  • समय सारिपी का न्यून बंधन हेतु।
  • विषय अध्यापक के बदले कक्षा – अध्यापक की व्यवस्था हेतु ।
  • उपकरण के उचित प्रयोग हेतु।
  • प्रशिक्षित अध्यापकों के शिक्षण हेतु।
  • परीक्षा या जाँच कार्य हेतु ।

समवाय प्रणाली के तत्व  –

  • औद्योगिक क्षेत्र
  • भौतिक वातावरण
  • सामाजिक वातावरण.

निष्कर्ष :

आज के आर्टिकल में हमनें हिंदी शिक्षण विधियों में समवाय शिक्षण विधि(Samvay Shikshan Vidhi) के बारे में विस्तार से चर्चा की,हम उम्मीद करतें है कि आप जरुर हमारे इस आर्टिकल को पढकर ख़ुशी महसूस कर रहें होंगे।

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