वक्रोक्ति अलंकार – Vakrokti Alankar

आज के आर्टिकल में हम काव्यशास्त्र के अंतर्गत वक्रोक्ति अलंकार(Vakrokti Alankar) को विस्तार से पढेंगे ,इससे जुड़ें महत्त्वपूर्ण उदाहरणों को भी पढेंगे। इससे आप आने वाली परीक्षा में इस विषयवस्तु पर बनें प्रश्न को सही कर सकतें है।

Vakrokti Alankar – वक्रोक्ति अलंकार

vakrokti ALANKAR

वक्रोक्ति अलंकार परिभाषा – Vakrokti Alankar ki Paribhasha

वक्रोक्ति शब्द ’वक्र+उक्ति’ के योग से बना है, जिसका अर्थ है टेढ़ा कथन अर्थात् जब वक्ता के द्वारा कहे गये किसी वाक्य या कथन का श्रोता द्वारा अन्य अर्थ ग्रहण कर लिया जाता है तो वहाँ वक्रोक्ति अलंकार(Vakrokti Alankar) माना जाता है।
अर्थात् जब किसी व्यक्ति के एक अर्थ में कहे गये शब्द या वाक्य का कोई दूसरा व्यक्ति जानबूझकर दूसरा अर्थ कल्पित करे।

वक्रोक्ति अलंकार के प्रकार

वक्रोक्ति अलंकार के दो प्रकार के होते है –

(1) श्लेष वक्रोक्ति अलंकार – जहाँ एक शब्द का दो अर्थ होने के कारण श्रोता, वक्ता की बात का गलत अर्थ निकाल लेता है, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है।

जैसे –

’’कौन द्वार पर, राधे मैं हरि।
क्या कहा यहाँ ? जाओ वन में।’’

’’कौन तुम ? मैं घनश्याम।
तो बरसो कित जाय।।’’

(2) काकु वक्रोक्ति अलंकार – जहाँ पर उच्चारण के कारण श्रोता वक्ता की बात का गलत अर्थ निकाल लेता है, वहाँ काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है।

जैसे –

’’उसने कहा जाओ मत, बैठो यहाँ।
मैंने सुना जाओ, मत बैठो यहाँ।’’

⇒ वक्रोक्ति अलंकार उदाहरण – Vakrokti Alankar ke Udaharan

कौ तुम? घनश्याम मैं, तो जाय काहूँ वर्षा करो।
चित्तचोर तेरा राधिके, धन कहाँ चोरी करो।।

एक कबूतर देख हाथ में, पूछा अपर कहा है।
उसने कहा अपर कैसा? उङ गया यह सपर है।

मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुमहिं उचित तप मोकहँ भोगू।

एक कह्यो वर देत सिव, भाव चाहिए मीत।
सुनि कह कोउ, भोले भवहिं भाव चाहिए मीत।।

स्पष्टीकरण – एक ने कहा कि शिव वर देते हैं पर मन में भाव होना चाहिए। सुनकर दूसरे ने कहा-भोले शिव को भी क्या भाव चाहिए? अर्थात् नहीं चाहिए क्योंकि वे इतने भोले हैं कि बिना भाव के ही वर दे डालते हैं। यहाँ ’भाव चाहिए’ वाक्य का ’भाव नहीं चाहिए’ यह दूसरा अर्थ कल्पित किया गया है।

भिक्षुक गो कित को गिरिजे।
सो तो माँगन को बलिद्वार गयो री।।

स्पष्टीकरण – लक्ष्मी पार्वती से मजाक में पूछती है-हे गिरिजा! तुम्हारा वह भिखारी (शिव) कहाँ गया? पार्वती लक्ष्मी के अर्थ को समझ लेती है पर विनोद का उत्तर मजाक में देने के लिए जानबूझकर भिखारी का दूसरा अर्थ (= विष्णु) कल्पित करती है (लगाती है) और उत्तर देती है-भिखारी कहाँ जायेगा? माँगने को गया है (राजा बलि के द्वार पर माँगने को विष्णु गये थे।)
यहाँ लक्ष्मी द्वारा एक अर्थ में कहे गये भिक्षुक (शिव) शब्द का पार्वती ने दूसरा अर्थ (विष्णु) कल्पित किया।

राम साधु तुम साधु सुजाना।
राम मातु भलि मैं पहिचाना।।

है पशुपाल कहाँ सजनी! जमुना-तट धेनु चराय रहो री।

स्पष्टीकरण – लक्ष्मी कहती है-वह पशुपाल ( पशुपति = शिव का नाम) कहाँ है? पार्वती पशुपाल का दूसरा अर्थ पशुओं का पालक कल्पित करके उत्तर देती है-यमुना-तट के किनारे गायें चरा रहा होगा (विष्णु कृष्णावतार में यमुना-तट पर गायें चराते थे।)

खरी होहु नेकु बारी। कहा हमें खोटी देखी?
सुनो बैन नेकु, सो तो आन ठाँ बजाइये।
दीजै हमें दान सो तो आज न परब कछू,
गो-रस दे, सो रस हमारे कहाँ पाइये?
मही देहु हमें, सो तो मही-पति दैहै कोऊ,
दही देहु, दही है तो सीरो कछु खाइये।
’सूरत’ कहत ऐसे सुनि-सुनि रीझे लाल,
दीन्हीं उर-माल, सोभा कहाँ लगि गाइये।

खरी (1) खङी, (2) खरी, सच्ची, जो खोटी न हो। बैनु – (1) वचन (2) वेणु, वंशी। दान (1) राज्य-कर, (2) दान। गो-रस (1) दूध, (2) गया हुआ रस। मही (1) छाछ, (2) पृथ्वी। दही देहु (1) दही दो, (2) देह जल गयी है।
बारी हे बाला। नैकु = जरा। आन ठाँ = अन्य स्थान पर। परब = पुण्य-दिन। सीरो = ठंडा।

कौन द्वार पर? हरि मैं राधे!
क्या वानर का काम यहाँ?

राधा भीतर से पूछती है-बाहर तुम कौन हो? कृष्ण उत्तर देते हैं-राधे मैं हरि हूँ। राधा हरि का अर्थ कृष्ण न लगाकर वानर लगाती है और कहती है कि इस नगर में वानर का क्या काम?
कृष्ण द्वारा एक अर्थ में कहे गये ’हरि’ शब्द का राधा दूसरा अर्थ वानर कल्पित करती है।

हरि! अम्बर देहु हमें कर में,
गहिये किन जो कर में नभ आवै।

अम्बर-(1) गोपी का अर्थ = वस्त्र, (2) कृष्ण द्वारा कल्पित अर्थ = आकाश नभ।

आज के आर्टिकल में हमनें  काव्यशास्त्र के अंतर्गत वक्रोक्ति अलंकार(Vakrokti Alankar) का अध्ययन किया ,हम आशा करतें है कि आप इसे अच्छे से समझ गए होंगे ।

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