गीत-फरोश || भवानीप्रसाद मिश्र || नयी कविता || आधुनिक काल

गीत-फरोश मिश्र जी का प्रथम काव्य संकलन है। इसकी अधिकांश कविताएँ प्रकृति के रूप वर्णन से सम्बन्धित हैं। इसके अतिरिक्त सामाजिकता और राष्ट्रीय भावना से युक्त कविताएँ भी हैं। ’गीतफरोश’ इस संकलन की प्रतिनिधि कविता है।

गीत-फरोश –  Geet Farosh (भवानीप्रसाद मिश्र)

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं है, काम बताऊँगा,
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने,
यह गीत, सख्त सरदर्द भुलाएगा,
यह गीत पिया को पास बुलाएगा!

जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको,
पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान,
जी, आप न हों सुन कर ज्यादा हैरान,
मैं सोच-समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ,
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

यह गीत सुबह का है, गाकर देखें,
⋅यह गीत गजब का है, ढाकर देखे,
यह गीत जरा सूने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाङी पर चढ़ जाता है,
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है!

⋅यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी, यह मसान में भूख जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर,
जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ,
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ!

⋅जी, छंद और बे-छंद पसंद करें,
जी, अमर गीत और ये जो तुरंत मरें!
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,
मैं पास रखे हूँ कलम और दावात
इनमें से भाएँ नहीं, नए लिख दूँ,
मैं नए पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ,
जी हाँ, हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ,
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का!
कुछ और डिजायन भी हैं, यह इल्मी,
यह लीजे चलती चीज नई, फिल्मी,
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत!
यह दुकान से घर जाने का गीत!
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी रूठ-रूठ कर मन जाते है गीत,
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ,
गाहक की मर्जी, अच्छा, जाता हूँ,
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ,
या भीतर जा कर पूछ आइए, आप,
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
गीत बेचता हूँ।
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

इस संकलन से पहले सन 1951 में ’प्रतीक नामक पत्रिका’ में प्रकाशित गीत-फरोश कविता नए भावबोध की आरंभिक हिंदी कविताओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।

गीत-फरोश कविता की पृष्ठभूमि के विषय में स्वयं कवि का कहना है। ’’गीतफरोश शीर्षक हँसाने वाली कविता मैंने बङी तकलीफ में लिखी थी। मैं पैसे को कोई महत्त्व नहीं देता लेकिन पैसा बीच-बीच में अपना महत्त्व स्वयं प्रतिष्ठित करा लेता है।

मुझे अपनी बहन की शादी करनी थी। पैसा मेरे पास था नहीं तो मैंने कलकत्ते में बन रही फिल्म के लिए  गीत लिखे। गीत अच्छे लिखे गए। लेकिन मुझे इस बात का दुख था कि मैंने पैसे लेकर गीत लिखे।

मैं कुछ लिखूं इसका पैसा मिल जाए, यह अलग बात है, लेकिन कोई मुझसे कहे कि इतने पैसे देता हूँ तुम गीत लिख दो। यह स्थिति मुझे बहुत नापसंद है।

क्योंकि मैं ऐसा मानता हूँ कि आदमी की जो साधना का विषय है वह उसकी जीविका का विषय नहीं होना चाहिए। फिर कविता तो अपनी इच्छा से लिखी जाने वाली चीज है।

इस तकलीफ देह पृष्ठभूमि में लिखी गई ’गीतफरोश’ कविता कविकर्म के प्रति समाज और स्वयं कवि के बदलते हुए दृष्टिकोण को उजागर करती है। व्यंग्य के साथ-साथ इसमें वस्तु स्थिति का मार्मिक निरूपण भी है।

ये भी अच्छे से जानें ⇓⇓

jee haan hujoor,

main geet bechata hoon,

⇒main tarah-tarah ke geet bechata hoon,

main kisim-kisim ke geet bechata hoon!

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top