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कार्नेलिया का गीत-चन्द्रगुप्त नाटक गीत -जयशंकर प्रसाद

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:23rd Mar, 2020| Comments: 0

आज की पोस्ट में जयशंकर प्रसाद के नाटक में लिखा गए गीत कार्नेलिया का गीत (Karneliya ka geet) की व्याख्या समझाई गयी है |

कार्नेलिया का गीत

’कार्नेलिया का गीत’ प्रसाद के प्रसिद्ध नाटक ’चंद्रगुप्त’ का एक प्रसिद्ध गीत है। सिकन्दर के सेनापति सिल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया सिंधू नदी के किनारे ग्रीक शिविर के पास एक वृक्ष के नीचे बैठी है। वहाँ कार्नेलिया के मुख से जयशंकर प्रसाद ने प्रकृति चित्रण के बहाने भारतवर्ष का यशोगान करवाया है तथा भारत देश की गौरवमयी पहचान निर्धारित की है।

अरुण यह मधुमय देश हमारा!
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुंकुम सारा!
लघु सुरधनुसे पंख पसारे-शीतल मलय समीर सहारे।
उङते खग जिस ओर मुँह किए-समझ नीङ निज प्यारा।
बरसाती आँखों के बादल-बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकराती अनंत की पाकर जहाँ किनारा।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।

गीत की व्याख्याः-

Table of Contents

  • गीत की व्याख्याः-
  • काव्यगत सौन्दर्यः
  • महत्त्वपूर्ण लिंक :

कार्नेलिया भारत भूमि की महिमा का बखान कर रही है। प्रातःकालीन लालिमा से युक्त हमारा यह भारत देश बहुत ही आनंददायी है। विश्व के कोने-कोने से आए ज्ञानियों, जिज्ञासुओं एवं सुख कामनाओं वाले मनुष्यों को यहाँ आकर तृप्ति एवं संतुष्टि का अहसास मिलता है। प्रातःकाल में वृक्ष की फुनगियों पर लालिमा का सौन्दर्य ऐसा लग रहा है मानों किसी ने जीवन रूपी हरियाली पर कुंकुप रूपी लालिमा बिखेर दी हो। छोटे-छोटे इंद्रधनुष के समान रंग-बिरंगे पँखों वाले पक्षी चंदन वाली शीतल बयार के साथ जिस तरफ अपने प्यारे घोंसलों में जाने हेतु उत्साहित हो उङे आते हैं, ऐसा मेरा मनोहर भारत देश है।

भारत के लोगों की विशेषता इस गीत के माध्यम से स्पष्ट करती हुई कार्नेलिया कहती है। यहाँ के निवासी करुणा एवं दया से परिपूरित है। दूसरे के दुखों से द्रवित हो उनकी आँखों से निकलने वाले आँसू ही बादल बन करुणा की वर्षा करते है। सागर की लहरें किसी अनन्त से आकर अनन्तः भारतवर्ष को अपना आश्रय स्थल बनाती है।

वस्तुतः यहाँ की प्रातःकालीन शोभा अवर्णनीय है। रातभर चमकने वाले तारे भौर के समय मदमस्त हो ऊँघने लगते हैं तब उषा रूपी सुंदरी सूर्य रूपी घङे को आकाश रूपी कुएँ में डुबा कर लाती है और भारतवर्ष पर आनंद और सुख का प्रकाश बिखेरती है।

काव्यगत सौन्दर्यः

✔️ इस गीत में भारत की गौरव-गाथा एवं प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन है।
✅ छायावाद के आधार स्तंभ प्रसाद की उक्त कृति में छायावादी शिल्प शैली दृष्टिगोचर होती है।
✔️ तत्सम शब्दावली में खङी बोली की साहित्यिकता का निर्धारण उक्त गीत से हो जाता है।
✅ छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुंकुम सारा-रूपक अलंकार है।
✔️ लघु सुरधनु से पंख पसारे- उपमा अलंकार है।

✅ ’समीर सहारे’, ’बादल बनते’, ’जब जगकर’ में छेकानुप्रास अलंकार है।
✔️ बरसाती आँखों के बादल बनते जहाँ भरे करुणा जल- में रूपक अलंकार है।
✅ ’’हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे, मदिर ऊघते रहते जब-जगकर रजनीभर तारा।’’ में रूपक एवं मानवीकरण अलंकार के साथ बिम्ब निर्माण से काव्य में अनुपम सौंदर्य की आभा आ गई है।

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