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आत्मकथ्य कविता – Atmkathy Kavita || व्याख्या || जयशंकर प्रसाद

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:14th Aug, 2021| Comments: 0

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आज की पोस्ट में जयशंकर प्रसाद जी की चर्चित आत्मकथ्य कविता(Atmkathy Kavita) के सार व भावार्थ को दिया गया है ,ताकि आप इस कविता का भाव जान सको |

आत्मकथ्य कविता(Atmkathy Kavita)जयशंकर प्रसाद

Table of Contents

  • आत्मकथ्य कविता(Atmkathy Kavita)जयशंकर प्रसाद
    • Atmkathy vyakhya
    • भावार्थ-‘आत्मकथ्य’
    • आत्मकथ्य कविता
    • आत्मकथ्य कविता
    • आत्मकथ्य कविता

⇒आत्मकथ्य कविता सार-

’आत्मकथ्य’ कविता में प्रसाद जी ने आत्मकथा लेखन के विषय में अपनी मनोभावनाएँ व्यक्त की है। प्रसाद जी के मित्रों और प्रशंसकों ने उनसे आत्मकथा लिखने का अनुरोध किया था। इस अनुरोध के उत्तर में प्रसाद जी ने इस कविता की रचना की। यह रचना ’हंस’ पत्रिका के आत्मकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई थी।
कवि ने अनुसार आत्मकथा लिखने की कोई उपयोगिता नहीं है। जीवन केवल एक व्यथा-कथा है। फूल से फूल पर भटकते भौंरे की गुंजार क्या है ? कभी तृप्त न होने वाली प्यास की करुण कहानी है। डालों के मुरझाकर गिरने वाली पत्तियाँ जीवन की नश्वरता की कथा सुन रही है। एक अनंत आकाश के तले धरती पर असंख्य जीवन पल रहे है। इन सभी की अपनी-अपनी आत्मकथाएँ है।

इन आत्मकथाओं को सार्वजनिक करके क्या मिलता है ? इन कथाओं को सुनाकर ये अपने ही ऊपर व्यंग्य करते है। स्वयं को उपहास का पात्र बनाते है।

Atmkathy vyakhya

यह सब जानते हुए भी मैं अपनी आत्मकथा कैसे लिखूँ ? मेरा जीवन दुर्बलताओं की कहानी है। एक खाली गगरी के समान है। उसमें ऐसा कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है जिसे मैं मित्रों और प्रशंसकों से साझा कर सकूँ। कहीं ऐसा न हो कि मेरी आत्मकथा सामने आने पर मेरे मित्र मेरी दयनीय दशा के लिए स्वयं को दोषी समझने लगें। अपनी भूलों और अपने साथ हुए धोखों की कहानी सुनाकर मैं अपनी सरलता की हँसी करना नहीं चाहता।

कवि कहता है कि वह अपने जीवन के मधुर क्षणों की कहानी नहीं सुनना चाहता। उसके सुख के सपने कभी साकार नहीं हुए। सुख उसकी बाँहों में आते-आते दूर हो गया। आज वह उन मधुर स्मृतियों के सहारे ही अपने जीवन को बिता रहा है। मित्र लोग आत्मकथा लिखवाकर उसकी कटु स्मृतियों को क्यों उधेङना चाहते हैं ?
अपनी कथा सुनाने से तो यही अच्छा हैं कि वह औरों की कथाएँ मौन होकर सुनता रहे। उसकी भोली आत्मकथा सुनकर कोई क्या करेगा। वह नहीं चाहता है कि आत्मकथा लिखकर वह अपनी भूली हुई पीङाओं को जगाएँ।

भावार्थ-‘आत्मकथ्य’

मधुप गुनगुना कर कह जाता, कौन कहानी यह अपनी,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ, देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास,
यह लो, करते ही रहते हैं, अपना व्यंग्य मलिन उपहास।
तब भी कहते हो-कह डालूँ, दुर्बलता अपनी बीती,
तुम सुनकर सुख पाओगे, यह गागर रीति।

भावार्थ- कवि कहता है कि गुंजन करते भँवरे और डालों से मुरझाकर गिरती पत्तियाँ जीवन की करुण कहानी सुना रहे हैं। उसका अपना जीवन भी व्यथाओं की कथा है। इस अनंत नीले आकाश के तले नित्य प्रति असंख्य जीवन-इतिहास (आत्मकथाएँ) लिखे जा रहे है। इन्हें लिखने वालों ने अपने आपको ही व्यंग्य तथा उपहास का पात्र बनाया है।
कवि मित्रों से पूछता हैं कि क्या यह सब देखकर भी वे चाहते हैं कि वह अपनी दुर्बलताओं से युक्त आत्मकथा लिखे। इस खाली गगरी जैसी महत्वहीन आत्मकथा को पढ़कर उन्हें क्या सुख मिलेगा।

आत्मकथ्य कविता

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उङाऊँ मैं।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्जवल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।
अरे खिल-खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की।

भावार्थ- कवि अपने मित्रों से कहता है- कहीं ऐसा न हो कि मेरे रस शून्य, खाली गागर जैसे जीवन के बारे में पढ़कर तुम स्वयं को ही अपराधी समझने लगे। तुम्हें ऐसा लगे कि तुमने ही मेरे जीवन से रस चुराकर अपनी सुख की गगरी को भरा है।
कवि कहता है कि वह अपनी भूलों और ठगे जाने के विषय में बताकर अपनी सरलता की हँसी उङाना नहीं चाहता। मैं अपने प्रिय के साथ बिताए जीवन के मधुर क्षणों की कहानी किस बल पर सुनाऊँ। वे खिल-खिलाकर हँसते हुए की गई बातें अब एक असफल प्रेमकथा बन चुकी है। उन भूली हुई मधुर-स्मृतियों को जगाकर मैं अपने मन को व्यथित करना नहीं चाहता।

आत्मकथ्य कविता

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।

आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।
जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है, थके पथिक की पंथा की।
सीवन को उधेङ कर देखोगे क्यों मेरी कथा की ?

भावार्थ- कवि कहता है- मैंने जीवन में जो सुख के सपने देखे वे कभी साकार नहीं हुए। सुख मेरी बाँहों में आते-आते मुझे तरसाकर भागर गए। मेरा अपने प्रिय को पाने का सपना अधूरा ही रह गया।
मेरी प्रिया के गालों पर छाई लालिमा इतनी सुंदर और मस्ती भरी थी कि लगता था प्रेममयी उषा भी अपनी माँग में सौभाग्य सिंदूर भरने के लिए उसी से लालिमा लिया करती थी।
आज मैं एक थके हुए यात्री के समान हूँ। प्रिय की स्मृतियाँ मेरी इस जीवन यात्रा में पथ-भोजन के समान है। उन्हीं के सहारे मैं जीवन बिताने का बल जुटा पा रहा हूँ। मैं नही चाहता कि कोई मेरी इन यादों की गुदङी को उधेङकर मेरे व्यथित हृदय में झाँके। मित्रों! आत्मकथा लिखकर मेरी वेदनामय स्मृतियों को क्यों जगाना चाहते हो ?

आत्मकथ्य कविता

छोेटे से जीवन की कैसे बङी कथाएँ आज कहूँ ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा ?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।

भावार्थ- कवि का कहना है कि उनका जीवन एक साधारण सीधे-सादे व्यक्ति की कहानी है। इस छोटे से जीवन को बढ़ा-चढ़ाकर लिखना उसके लिए संभव नहीं है। इस पाखण्ड के बजाय तो उसका मौन रहना और दूसरों की यश-गाथाएँ सुनते रहना कहीं अच्छा है।

वह अपने मित्रों से कहता है कि वे उस जैसे भोले-भोले निष्कपट, दुर्बल हृदय, सदा छले जाते रहे व्यक्ति की आत्मकथा सुनकर क्या करेंगे ? उनको इसमें कोई उल्लेखनीय विशेषता या प्रेरणापद बात नहीं मिलेगी। इसके अतिरिक्त यह आत्मकथा लिखने का उचित समय भी नहीं है। मुझे निरंतर पीङित करने वाली व्यथाएँ थककर शांत हो चुकी है। मैं नहीं चाहता कि आत्मकथा लिखकर मैं उन कटु व्यथित करने वाली स्मृतियों को फिर से जगा दूँ।

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