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सुमित्रानंदन पंत कवि परिचय || Sumitranandan Pant

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:6th Apr, 2020| Comments: 8

दोस्तो आज की पोस्ट में आप छायावाद के प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत (Sumitranandan Pant) के जीवन परिचय से जुड़े महत्त्वपूर्ण तथ्य जानेंगे |

Sumitranandan Pant

सुमित्रानंदन पंत कवि परिचय(Introduction to Sumitranandan Pant)

Table of Contents

  • सुमित्रानंदन पंत कवि परिचय(Introduction to Sumitranandan Pant)
  • प्रगतिवादी रचना
  • अरविन्द दर्शन से प्रभावित रचनाएँ
    • मानवतावादी रचनाएँ
    • पन्तजी के प्रमुख नाटक
      • प्रमुख आलोचना ग्रन्थ
      • सुमित्रानंदन पन्त जी के बारे में यह भी पढ़ें ⇓⇓
      • सुमित्रानंदन पंत(Sumitranandan Pant)
      • सुमित्रानंदन पंत(Sumitranandan Pant)
      • सुमित्रानंदन पंत(Sumitranandan Pant)
      • सुमित्रानंदन पंत
      • काव्य पंक्तियाँ 

⇒सुमित्रानन्दन पन्त —【1900-1977 ई.】

  • मूलनाम – गोसाईदत्त

उपनाम –


  • शब्द शिल्पी
  • छायावाद का विष्णु
  • प्रकृति का सुकुमार कवि
  • नारी मुक्ति का प्रबल समर्थक कवि

 

  • नन्ददुलारे वाजपेयी पन्त को छायावाद का प्रवर्तक मानते है  ।
  • शुक्ल के अनुसार “छायावाद के प्रतिनिधि कवि”।
  • प्रथम रचना – गिरजे का घण्टा(1916)
  • अंतिम रचना -लोकायतन (1964)
  • प्रथम छायावादी रचना – उच्छवास
  • अंतिम छायावादी रचना -गुंजन
  • छायावाद का अंत और प्रगतिवाद के उदय वाली रचना – युगांत
  • गांधी और मार्क्स से प्रभावित रचना – युगवाणी
  • सौन्दर्य बोध की रचना – उतरा
  • पन्त एव बच्चन द्वारा मिलकर लिखी रचना – खादी के फूल
  • छायावाद का मेनिफेस्टो/घोषणापत्र – पल्लव
  • प्रकृति की चित्रशाला- पल्लव
  • चिदम्बरा काव्य पर -ज्ञानपीठ पुरस्कार 1968(हिंदी साहित्य का प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला)
  • कला और बूढ़ा चाँद –साहित्य अकादमी पुरस्कार (1960)
  • लोकायतन रचना पर – सोवियत लैंड पुरस्कार।

सुमित्रानंदन पंत


उच्छवास 1920
इनकी छायावादी रचनाएँ (tricks: उग्र वीणा पल भर गूंजती हैं)

  • ग्रन्थि 1920
  • वीणा 1927
  • पल्लव 1928
  • गुंजन 1932

प्रगतिवाद का प्रवर्तन पन्त ने किया था।

प्रगतिवादी रचना

  • युगवाणी
  • ग्राम्या
  • युगांत

पन्त जी अरविन्द दर्शन से प्रभावित है  ।

अरविन्द दर्शन से प्रभावित रचनाएँ

  • स्वर्ण किरण
  • स्वर्णधुलि
  • उतरा
  • वाणी

मानवतावादी रचनाएँ

  • लोकायतन ( महात्मा गाँधी पर)
  • चिदम्बरा
  • शशि की तरी

⇒ पन्त ने ” परिवर्तन” शीर्षक से लंबी कविता की रचना की थी।

⇔ अपनी रचनाओं में रोला छंद का सर्वाधिक प्रयोग लिया।

⇒ पन्त जी कोमल कल्पना के लिए भी जाने जाते है ।

⇔ इनकी “मौन निमंत्रण” कविता में रहस्यवादी प्रवृति है ।

पन्तजी के प्रमुख नाटक

  • रजत शिखर
  • शिल्पी
  • युगपुरुष
  • अंतिमा
  • ज्योत्स्ना
  • सत्यकाम

पन्त द्वारा लिखित कहानी – पानवाला

प्रमुख आलोचना ग्रन्थ

  • गद्य पद्य शिल्प और दर्शन
  • छायावाद- पुन:मूल्याकन
  • पल्लव की भूमिका

⇒ पन्त की आत्मकथा-” साठ वर्ष एक रेखांकन”(imp)

⇔ शान्ति जोशी ने इनकी जीवनी लिखी।” सुमित्रानन्दन पन्त : जीवनी और साहित्य “

 

सुमित्रानंदन पन्त जी के बारे में यह भी पढ़ें ⇓⇓

उनका पहला काव्य-संग्रह ’वीणा’ है जो छपा ’पल्लव’ के एक साल बाद (1927)। ग्रंथि का लेखन काल 20 है प्रकाशन 1929। ’पल्लव’ 1926, ’गुंजन’ 1932 और ’युगान्त’ 1936 में प्रकाशित हुए। ’युगान्त’ के साथ ही पंत के काव्य-विकास का एक काल-खंड समाप्त हो जाता है। पर इस काल खंड में भी ’पल्लव’ के समापन के साथ एक परिवर्तन आता है।

’वीणा’ की रचनाओं के तार पूरी तरह झंकृत नहीं हुए थे। ’ग्रंथि’ पुरानी परिपाटी की एक प्रेमकथा है, किन्तु ’पल्लव’ में उसका कवि मराल मुखर हो उठता है। ’पल्लव’ की आखिरी कविता ’छायाकाल’ है। इसमें स्वयं उन्होंने अपने तत्कालीन काव्य की समीक्षा कर दी है।

’छायाकाल’ में इस काल का स्वस्ति-पाठ है। उसे आशीष देकर कवि विदा होता है। उसके प्रति कल्याण कामना इसलिए भी व्यक्त करता है कि उससे उसे बहुत कुछ मिला है। ’छायाकाल’ में पल्लव की अनेक रचनाओं का स्मरण किया गया है- छाया, स्वप्न, उच्छ्वास, आँसू, मधुमास, बादल, नक्षत्र, बालापन, परिवर्तन और अनंग।

इन सारी कविताओं में अद्भूत ऐन्द्रजालिक आकर्षक है। वह बादलों के रथ पर चढ़कर कहीं विश्ववेणु सुनता है तो कहीं निर्झरगान, कहीं नक्षत्रलोक की सैर करता है तो कहीं वसंतश्री का दृश्य देखता है। प्रकृति के पहाङी प्रकृति के अशेष सौन्दर्य को कल्पना से सजाकर ऐश्वर्यपूर्ण बना दिया गया है।

सुमित्रानंदन पंत(Sumitranandan Pant)

इन्द्रजाल का सबसे कौतूहलपूर्ण नयनाभिराम चित्र -’पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश’ में है- ’उङ गया अचानक, लो भूधर/फङका अपार पारद के पर/रव शेष रहे गये हैं निर्झर/है टूट पङा भू पर अंबर/धँस गया धरा में सभय शाल/उङ रहा धुआँ,जल गया ताल! यों जलद यान में विचर-विचर/ था इन्द्र खेलता इन्द्रजाल’।

यह ऐन्द्रजालिक परिदृश्य वीणा में ही दिखाई पङने लगता है- निराकार तम मानो सहसा/ज्याति पुंज से हो साकार/बदल गया द्रुत जगत जाल में/धर कर नाम रूप नाना!’

प्रकृति के प्रति यह रागमयी प्रेरणा उसे अपनी जन्मभूमि कौसानी से मिली है। प्रकृति स्वयं काव्य है ओर कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है। प्रकृति के प्रति उसकी आसक्ति इस सीमा तक है कि वह कहता- ’छोङ दु्रमों की मृदु छाया/ तोङ प्रकृति से भी माया/बाले तेर बाल-जाल में/कैसे उलझा दूँ लोचन।’

इसका मतलब यह नहीं है कि नारी के बाल जाल में उनकी आँखें उलझी ही नहीं है। सच तो यह है कि आँखों का यह उलझना कभी बन्द नहीं हुआ। अरविन्द दर्शन से सम्बद्ध कविताओं में नारी-शरीर के प्रतीक भरे पङे है।

’अनंग’ कविता में काम के विस्तृत प्रभाव का सुन्दर चित्रण हुआ है। सारी सृष्टि-सौन्दर्य समुद्र में डूब जाती है- ’केसर शर’ चलने लगता है, वायु-गंध मुग्ध हो उठती है, विहग कंठ से संगीत फूट पङता है। बाल-युवतियों के नयन विस्फारित हो जाते हैं- ’बाल युवतियाँ तान कान तक/चल चितवन के बन्दनवार/देव! तुम्हारा स्वागत करतीं/ खोल सतत उत्सुक दृग द्वार।’

’परिवर्तन’ इस संग्रह की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण रचना है। काव्यवस्तु तथा संरचना में शायद यह पंत की सबसे अधिक जटिल और गं्रथिल रचना है। प्रसाद और निराला में जो अन्तःसंघर्ष दिखाई पङता है वह पंत की ’परिवर्तन’ कविता में भी है। पंत जटिल संरचना के कवि नहीं है, किन्तु जीवन की संकुलता और परिवर्तन की द्वन्द्वात्मकता ने इसके रूप-विधान को जटिल और प्रभावशाली बना दिया है। इसमें छन्दों का ही परिवर्तन नहीं है, लयें भी बदलती गयी है , भाषा में जगह-जगह बदलाव है। ’परिवर्तन’ कवि की मानसिकता का भी परिवर्तन है।

इसमें कहीं सरल गीतात्मक पंक्तियाँ है जिनमें बचपन-जरा, संयोग-वियोग, जन्म-मरण, उपवन-विजन आदि विरोधी स्थितियों द्वारा परिवर्तन की प्रक्रिया वर्णित है।

सुमित्रानंदन पंत(Sumitranandan Pant)

कहीं संस्कृत ही तत्सम शब्दावली के परिवर्तन का भयंकर रूपाकार चित्रित है- ’शत शत फेनाच्छ्वसित, स्फीत फूत्कार भयंकर’, ’अये, एक रोमांच तुम्हारा दिग्भू कंपन’, ’दिक् पंजर में बद्ध, गजाधिप-सा विनतानन्/वाताहत हो गगन/आर्त करता गुरु गर्जन।’ अपने सारे आतंक के बावजूद कवि परिवर्तन का स्वगात करता है क्योंकि इससे नये जीवन का उन्मीलन होता है, बंजर धरती उर्वर हो उठती है।

यों पल्लव का मूल स्वर है- ’मेरा मधुकर सा जीवन/कठिन कर्म है कोमल है मन’। किन्तु परिवर्तन एक बदलाव की सूचना देता है।
’गुंजन’ और ’युगांत’ दोनों संग्रहों के बारे में पंत की यह उक्ति लागू होती है- ’मनन कर मनन शकुनि नादान/ न कर पिक प्रतिभा का अभिमान।’

’गुंजन’ में वह संसार के सुख दुख में चिन्ता के स्वर में प्रवेश करता है- ’मानव जीवन में बँट जाये सुख दुख सेदुख सुख से।’ यह सामंजस्य उनकी कला में भी दिखाई देता है। ’गुंजन’ में पल्लव की आवेगमयता नहीं है, कल्पना सुनहले पंखों पर ऊँची उङान नहीं भरती। वह सारस की तरह अपने डैनों को तोलकर उङती है।

’पल्लव’ से ’गुंजन’ एक दूसरे स्तर पर भी अलग होता है। ’पल्लव’ में प्रेम का वियोग-पक्ष वर्णित है तो गुंजन में संयोग पक्ष। ’भावी पत्नी के प्रति’, मधुवन, ’आज रहने दो गृह काज’ ऐसी ही रचनाएँ है। प्रकृति के ऐन्द्रजालिक चित्रण के स्थान पर उसकी रेखाओं में स्पष्टता, रंगों में वैविध्य और समापन में दार्शनिकता का पुट आ गया है। ’चाँदनी’, ’अप्सरा’ को एक हद तक पल्लव-परंपरा में रखा जा सकता है।

पर उनमें पल्लव की दृश्यमानता नहीं है। ’संध्या तारा’ और ’नौका विहार’ में अनुभूति, कल्पना और शिल्प की तराश का अद्भुत सम्मिश्रण है।
’भावी पत्नी के प्रति’, ’संध्या तारा’ और ’नौका विहार’ इस संग्रह की श्रेष्ठ रचनाएँ हैं। ’भावी पत्नी के प्रति’ पालग्रेव की ’गोल्डेन ट्रेजरी’ में क्रैशा की संगृहीत रचना ’फार सपोज्ड मिस्ट्रेस’ से अनुप्रेरित मालूम पङती है।

पर पंत की रचना वस्तु और विन्यास में क्रैशा को बहुत पीछे छोङ देती है। लगता है, ’भावी पत्नी के प्रति’ में ’ग्रंथि’ का, काल्पनिक स्तर पर, नया जन्म हुआ है। ’पल्लविनी’ में इस कविता को ’ग्रंथि’ के ठीक बाद रखा गया है।

मिलन का बिंब द्रष्टव्य है- ’अरे! वह प्रथम मिलन अज्ञात! विंकपित उर, पुलकित गात/सशंकित ज्योत्स्ना-सी चुपचाप/ जङित पद, नमित पल दृग पात।’ कंपन, पुलक, शंका, जङता आदि अनुभावों को बहुत ही स्वाभाविक ढंग से एक स्थान पर एकत्र कर मिलन को वास्तविक और चामत्कारिक बना दिया गया है। गतिशील और स्थिर बिंबों का कलात्म्क संश्लेष!

सुमित्रानंदन पंत(Sumitranandan Pant)

पंत को शब्द-शिल्पी कहा जाता है। उपयुक्त शब्दांे का चुनाव, उनकी तराश, सटीक अर्थवत्ता, मितकथन और स्थापत्य की अविच्छेद्यता का उत्कृष्ट उदाहरण है ’नौका विहार’। यह कविता भी वर्णनात्मक है। किन्तु ’नौका विहार’ में जिन प्रसंगों को चुना गया है, वे कवि के सूक्ष्म अन्वेक्षण और विन्यासात्मकता के सूचक है।

अर्थपूर्ण विशेषणों का चुनाव तो कोई पंत से सीखे- शांत, स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्जवल’, ’तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म विरल।’ गंगा की धारा में चन्द्रमा, नक्षत्रदल, शुक्र, कोक आदि के रंगीन प्रतिबिंबों या छायाओं से गंगा-जल अनेक रूप-रंगों में बदल जाता है।

जिस प्रकार गंगा की धारा में प्रतिबिंबित कगार दुहरे लगते हैं उसी प्रकार इसकी अर्थच्छवियाँ भी दुहरी हैं। जिस तरह गंगा की धारा निरंतर प्रवहमान है उसी तरह जीवन और जगत भी प्रवहमान है। शाश्वतता प्रवाह की ही है-

’इस धारा सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जग का उद्गम’
बीच-बीच में यह दर्शन प्रतिध्वनित होता चलता है-
विस्फारित नयनों से निश्चल कुछ खोज रहे चल तारक दल
ज्योतित कर जल का अन्तस्तल
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किए अविरल
फिरती लहरें लुक-छिप पल-पल!
’संध्यातारा’ आधी कविता है, आधा दर्शन-
पत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल वन का मर्मर
ज्यों वीणा के तारों में स्वर
ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ
अविरत इच्छा में ही नर्तन करते अबाध रवि, शशि, उङगन।

’युगान्त’ छायावाद युग के अंत का घोषणा-पत्र है- ’दु्रत झरो जगत के जीर्ण पत्र/हे स्रस्त ध्वस्त! हे शुष्क शीर्ण! हिम पात पीत, मधुपात भीत/तुम वीतराग, जङ पुराचीन! झरे जाति कुल वर्ण पर्ण धन। अंध नीङ के रूढ़ रीति छन।’

इसी प्रकार वे ’गा कोकिल’, बरसा, पावक कण/नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन।’ लेकिन अल्मोङे का वसंत आया नहीं कि कवि ऐन्द्रजालिक हो उठा- ’लो चित्र शलभ सी पंख खोल/उङने को है कुसुमित घाटी यह है अल्मोङे का वंसत/खिल पङी निखिल पवर्त पाटी।’

सुमित्रानंदन पंत

बदली हुई मनोवृत्तियों के फलस्वरूप उसकी जिन दो कविताओं का उल्लेख किया जाता है, वे हैं ’ताज’ और ’बापू के प्रति।’ ’ताज’ को वे मृत्यु का अपार्थिव पूजन, आत्मा का अपमान और मरण का वरण कहते है। ऐसा कुछ प्रतिक्रिया में कहा जा सकता है। अन्यथा ताज का अपनाएक सौन्दर्यमूलक पक्ष है।

आश्चर्य है कि सौन्दर्य के कवि पंत को ताज में यही दिखाई पङा। ’बापू के प्रति’ में गाँधीजी के प्रतिकवि ने गद्यात्मक श्रद्धा निवेदित की है। ’युगान्त’ में सब मिलाकर एक शुभेच्छा है- ’जो सोए स्वप्नों के तम में/ वे जागेंगे- यह सत्य बात/ जो देख चुके जीवन निशीथ/ वे देखेंगे जीवन-प्रभात।’

’युगान्त’ के बाद पंत का काव्य विकास दो सोपानों पर होता है- मार्क्सवाद-गाँधीवाद और अरविन्द दर्शन। पहले सोपान-युगवाणी, ग्राम्या पर ही उसके कलात्मक हास के लक्षण दिखाई पङते लगते हैं, विचारों का प्राधान्य हो उठता है।

उन्होंने स्वयं कहा है- ’’मेरी दृष्टि में ’युगवाणी’ से लेकर ’वाणी’ तक मेरी काव्य-चेतना का एक ही संचरण है, जिसके भौतिक और आध्यात्मिक चरणों की सार्थकता, द्विपद मानव की प्रगतिके लिए सदैव ही, अनिवार्य रूप से रहेगी।’’ भौतिकता और आध्यात्मिकता का समन्वय उसे साम्यवाद और गाँधीवाद के समन्वय में मिलता है-

मनुष्य का तत्व सिखाता निश्चय हमको गाँधीवाद
सामूहिक जीवन विकास की साम्य योजना है अविवाद!

उनका कहना है कि आज राजनीति उतनी महत्वपूर्ण नहीं जितनी सांस्कृतिक समस्या। इस सांस्कृतिक समस्या का हल खोजने की दिशा में ही उन्होंने परवर्ती काव्यों की रचना की है। समय आ गया है कि पंत के सुझावों के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार करते हुए गाँधीवाद पर भी विचार किया जाय, दोनों के अन्तर्विरोधों का समाधान ढूँढा जाय।

काव्य पंक्तियाँ 

” खुल गए छंद के बंध, प्रास के रजत पाश।

“”वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा ज्ञान।निकल कर आँखों से चुपचाप,भी होगी कविता अनजान।।

छोड़ द्रुमो की मधु छाया ,तोड़ प्रकृति से भी माया।
सुन्दर ह विहग सुमन सुन्दर ,मानव तुम सबसे सुंदरतम ।

बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
*************************************
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल तरंगों को,
इन्द्रधनुष के रंगों को,
तेरे भ्रू भ्रंगों से कैसे बिधवा दूँ निज मृग सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ, सजनि, श्रवण?
भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा-रश्मि से उतरा जल,
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया 

सुमित्रानंदन पंत

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केवल कृष्ण घोड़ेला

Published By: केवल कृष्ण घोड़ेला

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Comments

  1. Avatarप्रेमा says

    18/03/2018 at 6:01 PM

    काफी अच्‍छा संकलन ि‍किया है आपने
    आप अभी ि‍किस पद है और आपकी कॉचिंग ि‍किस शहर मे चलती है
    क्‍या आप हमे ऑनलाईन टेस्‍ट करवा सकते है ि‍हिन्‍दी व्‍याख्‍याता के ि‍लिए
    आपके उतर की प्रतिक्षा में

    Reply
    • केवल कृष्ण घोड़ेलाकेवल कृष्ण घोड़ेला says

      19/03/2018 at 10:30 PM

      जी धन्यवाद ,कॉन्टेक्ट व्हाटसअप नम्बर 9929735474

      Reply
      • AvatarHarikrishan Lodhi pichhor shivpuri mp says

        04/02/2019 at 8:07 PM

        गागर मे सागर

        Reply
  2. AvatarJitendra kumar mishra says

    23/10/2018 at 12:26 PM

    आप द्वारा उपलब्ध हिंदी साहित्य से सम्बंधित सामग्री का अध्ययन किया जो अपने आप में बहुत उत्कृष्ट कार्य है, इससे साहित्य का बहुत कुछ सहज तरीके से जाना जा सकता है।

    Reply
    • केवल कृष्ण घोड़ेलाकेवल कृष्ण घोड़ेला says

      05/12/2018 at 10:21 AM

      बहुत बहुत आभार आपका

      Reply
  3. AvatarHarikrishan Lodhi pichhor shivpuri mp says

    04/02/2019 at 8:09 PM

    गागर मे सागर

    Reply
  4. AvatarPooja singh says

    06/07/2020 at 1:41 PM

    बहुत ही शानदार संग्रह हे। साधुवाद गुरुजी जुग जुग जियो। जब भी किताबों मे मन नही लगता तो ये वेबसाइट on करके पढ़ने लग जाती हु।। कोटि कोटि साधुवाद सा
    Pooja singh (MES airforce bkn)

    Reply
    • केवल कृष्ण घोड़ेलाकेवल कृष्ण घोड़ेला says

      07/07/2020 at 7:21 PM

      जी धन्यवाद

      Reply

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