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संध्या के बाद – Sandhya ke baad || कविता व्याख्या – सुमित्रानन्दन पंत

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:14th Aug, 2021| Comments: 0

आज की पोस्ट में हम सुमित्रानन्दन पंत की चर्चित कविता संध्या के बाद (Sandhya ke baad) की व्याख्या को समझेंगे।

संध्या के बाद

संध्या के बाद
 (सुमित्रानन्दन पंत)

’संध्या के बाद’ कविता में कवि ने संध्या के बाद ग्रामीण परिवेश में होने वाले परिवर्तनों के साथ रात्रिकालीन ग्रामीण परिवेश का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है तथा साथ-साथ में गाँव के लोगों की विपन्नता, गरीबी के दृश्य को भी सुन्दर शब्दावली में अंकित किया है।

सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी अब तरु शिखरों पर
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर!
ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,
बृहद् जिह्म विश्लथ केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल!

व्याख्या –

Table of Contents

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  •  व्याख्या –
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  • महत्त्वपूर्ण लिंक :

कवि संध्या को एक पक्षी के रूप में चित्रित करते हुए कहता है कि यह संध्या रूपी पक्षी अपने पंखों को समेटकर अपनी लाली के साथ पेङ की ऊपरी शाखाओं पर जा बैठता है अर्थात् संध्या की लाली अब पेङों की फुनगियों पर ही दिखाई दे रही है। ताँबे के रंग के पीपल के पत्तों के समान सैकङों मुख वाले झरने सुनहरी धाराओं में बह रहे हैं। झरनों के जल पर पीला प्रकाश पङ रहा है।

क्षितिज पर छिपता सूर्य नदी में प्रतिबिम्बित होता प्रकाश का खंभा-सा जान पङता है। कवि गंगा के जल को चितकबरा बताते हुए कहता है कि यह ऐसे लगता है कि मानों कोई बङा अजगर थका हुआ लेटा हो।

धूपछाँह के रंग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
नील लहरियों में लोङित
पीला जल रजत जलद से बिंबित!
सिकता, सलिल, समीर सदा से
स्नेह पाश में बँधे समुज्ज्वल,
अनिल पिघलकर सलिल, सलिल
ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल

व्याख्या –

कवि वर्णन करता है कि नदी-तट पर धूप-छाँही प्रकाश फैला हुआ है। वह हवा के चलने पर सर्प की-सी आकृति ले लेती है। नदी के नीले जल पर सूर्य का प्रतिबिंब पङकर उसे पीला बना देता है तथा उस पर बादलों की सफेदी पङ रही है। रेत, पानी अपनी गति खोकर छोटे-छोटे बर्फ के कण में परिवर्तित हो जाता है। इस तरह प्रकृति में तरह-तरह के परिवर्तन होते है।

शंख घंट बजते मंदिर में,
लहरों में होता लय कंपन,
दीपशिखा-सा ज्वलित कलश
नभ में उठकर करता नीराजन!
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अन्तर रोदन!

 व्याख्या –

कवि पंत कहते हैं कि संध्या के समय मंदिरों में आरती होने की तैयारी शुरू हो जाती है। वहाँ शंख और घंटे बजने लगते हैं, इससे नदी की लहरों में कंपन होेने लगता है। मंदिर का कलश भी सूर्य की लालिमा के प्रभाव से दीपक की लौं की भाँति आकाश में ऊपर उठकर आरती करता सा जान पङता है।

नदी के किनारे पर बूढ़ी-विधवा स्त्रियाँ बगुलों के समान प्रतीत होती हैं। वे जप-तप में मग्न रहती हैं। उनके दिल में तो दुःख है और उनका हृदय रोता रहता है। उनके मन की पीङा नदी की धीमी की धीमी धारा में बह जाती है। उनके हृदय का दुःख बाहर से दिखाई नहीं देता।

दूर तमस रेखाओं-सी,
उङती पंखों की गति-सी चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित!
स्वर्ण चूर्ण-सी उङती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन् तीर-सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कंठों का स्वर!

व्याख्या –

कवि पंत वर्णन करते हुए कहते हैं कि दूर आकाश में पक्षियों की उङती पंक्ति अंधकार की रेखाओं जैसी लगती है। पक्षियों की पंक्ति अपनी चहचाहट से शांत आकाश में गुंजार करती चली जाती है। संध्या के समय जब गायें घरों की ओर लौटती हैं तो उनके खुरों से जो धूल उङती है, वह सूर्य के प्रकाश से सुनहरी हो जाती है तो ऐसा लगता है कि बादल की ये किरणें जल गई है। जब आकाश में पक्षियों के कंठ का तेज स्वर गूँजता है तो वह आकाश में तीर के समान सनन-सनन करते हुए निकल जाता है।

लौटे खग, गायें घर लौटीं,
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर,
छिपे गृहों में म्लान चराचर
छाया भी हो गई अगोचर,
लौटे पैंठ से व्यापारी भी
जाते घर, उस, पार नाव पर,
ऊँटों, घोङों के संग बैठे
खाली बोरों पर, हुक्का भर!

व्याख्या –

कवि बता रहा है कि संध्या के समय पक्षी और गायें अपने घरों को लौट रही हैं, किसान भी सारा दिन परिश्रम करके हारे-थके कदमों से घर लौट रहे हैं। वे सभी अपने-अपने घरों में घुसकर छिप गए हैं और अंधकार के कारण अब तो उनकी छाया तक दिखाई नहीं देती। गाँव की पैंठ (बाजार) से व्यापारी भी अपने-अपने घर नावों पर बैठकर लौट रहे हैं। वे ऊँट, घोङों के साथ खाली बोरों पर बैठकर हुक्का पी रहे हैं।

जाङों की सूनी द्वाभा में
झूल रही निशि छाया गहरी,
डूब रहे निष्प्रभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरु, तट, लहरी!
बिरहा गाते गाङी वाले,
भूँक-भूँककर लङते कूकर,
हुआँ-हुआँ करते सियार
देते विषण्ण निशि बेला की स्वर!

व्याख्या –

कवि पन्त वर्णन करते हैं कि सर्दियों की रात है, चारों तरफ सन्नाटा पसरा पङा है। संध्या के धीमे प्रकाश में रात की छाया गहराती जा रही है। इस अंधकार में सभी कुछ डूबता जा रहा है। उनकी चमक फीकी पङती जा रही है। इसका प्रभाव खेत, घर, बाग-बगीचे, पेङ, किनारे तथा लहरों पर भी पङ रहा है। ये सभी अंधकार में डूबते जा रहे हैं।
कवि कहता है कि रात के इस वातावरण में गाङीवान विरह का गीत-गाते हुए चले जा रहे हैं। रास्ते में कुत्ते भी भौंक-भौंक कर लङते दिखाई देते हैं। रात की बेला में सियार हुआँ-हुआँ की आवाज निकाल रहे हैं। इनके स्वरों में दुःखी रात को भी मानों आवाज मिल रही है।

माली की मँङई से उठ,
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्ती जला दुकानों में
बैठे सब कस्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँघ रही लंबी अँधियारी!

व्याख्या –

कवि कहता है कि शाम होते ही गाँव के माली के कच्चे घर से आकाश के नीचे धुआँ-सा उठने लगता है। शायद घर में खाना पकाने के लिए आग जलायी जा रही है। यह धुएँ की लकीर हवा में ऐसे तैरती जान पङती है जैसे नीले रेशम की हल्की सी जाली हो।

इसी समय गाँव या कस्बे के दुकानदार रोशनी के लिए बत्ती जला देते हैं, यह बत्ती रोशनी बहुत कम देती है, इसकी आभा ऐसी मन्द पङ जाती है कि वह रात के अँधेरे मे मानो हिम का प्रसार ऊँघ रहा हो अर्थात् सदीं के प्रभाव से जाङे की अँधेरी रात लम्बी मालूम पङती है।

धुआँ अधिक देती है
टिन की ढबरी, कम करती उजियाला,
मन के कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला!
छोटी सी बस्ती के भीतर
लेन-देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख-दुःख अपने!

व्याख्या –

कवि पन्त वर्णन करते है कि गाँव में गरीब लोगों के द्वारा टिन की ढिबरी में बत्ती लगाकर जलाई जाती है जिससे रोशनी भी बहुत कम होती है और धुआँ काफी निकलता है। इस मंद रोशनी में मन का दुःख आँखों के सामन जाला-सा बुनता प्रतीत होता है अर्थात् गाँव का दुकानदार दुःखी रहता है, क्योंकि यह एक छोटी सी बस्ती है, इसमें लेन-देन की बातें करना व्यर्थ हैं। यहाँ ग्राहक न के बराबर हैं। दीपक की लौं के चारों ओर सुख-दुःख ही मँडराते हैं।

कँप-कँप उठते लौं के संग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
लीन हो गई क्षण में बस्ती,
मिट्टी खपरे के घर आँगन,
भूल गये लाला अपनी सुधि,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन!

व्याख्या –

संध्या के समय गाँव के वातावरण का चित्रण करता हुआ कवि कहता है कि गाँव में गरीबी का साम्राज्य है। इसी कारण उनके हृदयों में क्रंदन होता रहता है। उनमें निराशा की भावना व्याप्त है, परन्तु इसे वे प्रकट न कर चुप ही रहते हैं। इस समय जो हल्का प्रकाश हो रहा है वही उसके मन में समायी गुप्त बातों को प्रकट करता सा प्रतीत होता है।

थोङी देर बाद ही सारा गाँव अंधकार में डूब जाता है। उनके कच्चे घर-आँगन सब अंधकार में विलीन हो जाते हैं। इस निराशा भरे वातावरण में गाँव का छोटा सा दुकानदार अपनी सुध तक भूल जाता है, वह मूलधन व ब्याज का हिसाब लगाना भी भूल जाता है।

सकूची-सी परचून किराने की ढेरी
लग रहीं तुच्छतर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमङ रहा अंतर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
औ, असफल जीव का उत्पीङन!

व्याख्या –

कवि वर्णन करता है कि गाँव के छोटे-छोटे व्यापारियों की परचून की दुकान सकुची-सी लगती हैं, क्योंकि उसमें सामान भी बहुत कम है। वह छोटी से छोटी होती चली जा रही है। संध्या के इस शांत वातावरण में दुकानदार का हृदय बेचैन है व अन्दर का दुःख उमङ कर बाहर निकल रहा है। अन्य सभी लोग भी दुःखी एवं परेशान हैं।

गाँव की दुकान के दुकानदार में मन में हीन-भावना पैदा हो रही है, क्योंकि उसमें भी मनुष्यता की भावना है व उसे अपना असफल प्रतीत हो रहा है। उनका जीवन दुःख की कहानी बन कर रहा गया है।

दैन्य दुःख अपमान ग्लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बन रही
उसके जीवन की परिभाषा!
जङ अनाज के ढेर सदृश ही
वह दिन-भर बैठा गद्दी पर
बात-बात पर झूठ बोलता
कौङी-की स्पर्धा में मर-मर!

व्याख्या –

गाँव के लोग घोर दरिद्रता में जीवन बिता रहे हैं। वे दीनता, दुःख, बेइज्जती और घृणा के भावों को झेलते हैं, वे भूखे-प्यासे रहते हैं। उनकी इच्छाएँ मर गई हैं, क्योंकि वे कभी पूरी नहीं हो पातीं। उनकी आमदनी बहुत कम है।

उनका जीवन दुःख की परिभाषा बन कर ही रह गया है। गाँव का दुकानदार निर्जीव अनाज की ढेरी के समान दिनभर दुकान की गद्दी पर बैठा रहता है, उसकी बिक्री बहुत कम है और इसी कारण वह पैसा कमाने की होङ में बात-बात पर झूठ बोलता रहता है।

फिर भी क्या कुटुंब पलता है?
रहत स्वच्छ सुघर सब परिजन?
बना पा रहा वह पक्का घर?
मन में सुख है? जुटता है धन?
खिसक गई कंधों से कथङी
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का निज कारण!

व्याख्या –

कवि वर्णन करता है कि ग्रामीण परिवेश में छोटी-सी दुकानदारी के लिए सारे प्रयास करने पर भी उसके परिवार का भरण-पोषण नहीं हो पाता है, न ही उनको पहनने के लिए साफ कपङे ही मिल पाते हैं और न वे तंदुरुस्त रह पाते हैं। वह अपने रहने के लिए पक्का घर भी नहीं बना पाता। उनके मन में न तो कोई सुख है और न ही वह धन कमा पाता है।

वह कंधों पर फटे कपङों की बनी गुदङी डाले हुए है और उसका शरीर सर्दी के कारण काँप रहा है, क्योंकि वह यह सोचता है कि उसका जीवन हर मोर्चे पर विफल ही रहा है, इसी सोच में उसके कंधे पर रखी गुदङी खिसक जाती है और वह यह सोचता है कि उसका जीवन इतनी विवशताओं से क्यों भरा है? जो उसे वे सभी वस्तुएँ नहीं मिल पातीं जो एक शहरी दुकानदार को प्राप्त होती हैं। गाँव का वह दुकानदार घोर विवशता का जीवन जीने को मजबूर है।

शहरी बनियों-सा वह भी उठ।
क्यों बन जाता नहीं महाजन?
रोक दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साधन?
यह क्या संभव नहीं
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय-व्यय का हो वितरण?

व्याख्या –

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि वर्णन कर रहे हैं कि गाँव का छोटा दुकानदार यह सोचता है कि वह शहरी बनियों अर्थात् व्यापारियों के समान बङा क्यों नहीं बन पाता। उसे भी महाजन बनने का अधिकार है, पर वह बङा नहीं बन पा रहा है, ऐसा क्यों है? उसे यह बात समझ में नहीं आती कि उसकी तरक्की किसने रोक रखी है।

उसके जीवन में उन्नति क्यों नहीं हो पाती? क्या आज संसार की जो व्यवस्था चल रही है, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता अर्थात् इस व्यवस्था में परिवर्तन होना ही चाहिए। इसमें परिवर्तन से ही हमारे जीवन में सुधार आ सकता है। कर्म और गुण के आधार पर सभी की आमदनी और खर्चे का वितरण होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।

घुसे घरौदों में मिट्टी के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सब में सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करे जग,
मिलकर भोज करें जीवन का,
जन विमुक्त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का ?

व्याख्या –

कवि पन्त ग्रामीण परिवेश का वर्णन करते हुए बताते हैं कि गाँव के लोग अपने-अपने घरों में घुसकर सभी अपने बारे में सोच रहे हैं कि किस प्रकार लोगों में सामूहिक जीवन आए अर्थात् सभी लोग एक समान सभी सुविधाओं का भोग करें। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सभी लोग मिलकर एक नए संसार का निर्माण करें तथा जीवन के सभी सुखों का उपभोग भी सब मिलकर ही कर सकें।

लोगों को शोषण से मुक्ति दिलाना बहुत आवश्यक है। धन पर भी सारे समाज का समान अधिकार है। यदि संसार की इस व्यवस्था में परिवर्तन होता है तो ही सभी लोगों का जीवन सुखी और समृद्ध बन सकेगा।

दरिद्रता पापों की जननी।
मिटें जनों के पाप, ताप, भय,
सुन्दर हों अधिवास, वसन, तन,
पशु पर फिर मानव की हो जाय?
व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दुःख क्लेश की,
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की!

व्याख्या –

कवि कहता है कि गरीबी की सब पापों की जङ है अर्थात् गरीबी ही सभी प्रकार के पाप कराती है। कवि चाहता है कि लोगों के जीवन से पाप, दुःख व भय आदि मिटने चाहिए। लोगों को रहने के लिए सुन्दर मकान, कपङे और स्वस्थ शरीर मिलना चाहिए, इससे पशुता की भावना पर, मानवता की भावना विजयी हो सकेगी।

इस स्थिति के लिए कोई एक व्यक्ति दोषी नहीं है वरन् संसार की पूरी परिपाटी अर्थात् परम्परा ही इसके लिए जिम्मेदार है। लोग दुःखी हैं व मन में पीङा है। यदि लोगों में उनकी मेहनत का फल आपस में बँट जाए तो सारे देश की जनता सुखी हो जाएगी।

टूट गया वह स्वप्न वणिक् का,
आई जब बुढ़िया बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
चीख उठा घूघ्घू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को धीरे,
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!

व्याख्या –

कवि वर्णन करता है कि गाँव का छोटा दुकानदार अकेला बैठा हुआ संसार के सभी लोगों को सुख प्राप्त हो-यही सपना देखता रहता है, परन्तु वह अपने सपने को व्यवहार में नहीं उतार पाता है। तभी जब गाँव की एक बूढ़ी स्त्री उससे आधा पाव अर्थात् थोङा सा आटा खरीदने आती है तो वही दुकानदार कम तोलकर आटा देता है अर्थात् इस असमान अर्थव्यवस्था के लिए वह स्वयं भी दोषी है।

इस स्थिति का प्रतीक घुग्घू जब चीखता है तो लोग अपने घर के दरवाजे बंद कर लेते हैं अर्थात् शोषक वर्ग की एक घुङकी उन्हें चुप करा देती है। धीरे-धीरे सारा गाँव नींद में डूब जाता है, ऐसा लगता है कि नींद का अजगर उन्हें निगल रहा है।

महत्त्वपूर्ण लिंक :

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