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Surdas ki Kavygat Vieshtayen || सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:28th May, 2022| Comments: 2

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दोस्तो आज के आर्टिकल में हम भक्तिकाल के अंतर्गत सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ व भ्रमरगीत प्रसंग (Surdas ki Kavygat Vieshtayen)को विस्तार से पढेंगे ।

सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ

Table of Contents

  • सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ
    • सूरदास के काव्य में भाव योजना –
    • सूरदास के काव्य में भाषा (Surdas ki Kavya Bhasha)
    • सूरदास के काव्य में  शैली (Surdas ki Bhasha Shaili)
    • अलंकार प्रयोग –
    • ’भ्रमरगीत प्रसंग’ का उद्देश्य
      • भ्रमरगीत शब्द का अर्थ –
      • भ्रमरगीत से तात्पर्य –
      • भ्रमरगीत का दार्शनिक प्रतिपाद्य –
      • ’भ्रमरगीत’ का उद्देश्य –
      • भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का स्थान –
      • भ्रमरगीत में विरह की स्थिति –
      • गोपियों की विरह वेदना –
      • विरह की व्यापकता –
      • वियोग वर्णन की विशेषताएँ

महाकवि सूरदास हिन्दी की कृष्ण भक्ति शाखा के सबसे पहले और सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। वे पहले भक्त हैं और बाद में कवि है। उन्होंने कृष्ण की भक्ति में डूबकर जो बातें कही हैं वे उच्च कोटि की कविता बन गयी है। सूरदास का काव्य अनेक भावात्मक और कलात्मक विशेषताओं से युक्त है।

सूरदास के काव्य में भाव योजना –

सूरदास की भाव योजना के अन्तर्गत उनका शृंगार वर्णन, बाल वर्णन, भक्ति भावना और प्रकृति सौन्दर्य से संबंधित पद आते हैं। भक्ति काल में सूरदास ने शृंगार को रस राजस्व की सीमा तक पहुँचा दिया है। वे ऐसे कवियों में से हैं जिनके हृदय को सम्पूर्ण सत्ता शृंगार की गलियों में घूमती दिखलाई देती हैं। उनके शृंगार वर्णन की भक्तिपरक व्याख्या भी की गई है।

संयोग और वियोग के जैसे आकर्षक चित्र सूरदास ने प्रस्तुत किये हैं वैसा अन्य कोई कवि नहीं कर सकता है। शृंगार के साथ ही उनका वात्सल्य वर्णन भी उच्च कोटि का है।

उनका वात्सलय वर्णन मनोवैज्ञानिक और मार्मिक है। अपने बाल वर्णन में उन्होंने कृष्ण जन्म से लेकर उनके किशोर होने तक की विभिन्न स्थितियों का वर्णन किया है। कृष्ण की बाल लीलाएँ और बाल क्रीङाएँ सूरदास के काव्य का महत्त्वपूर्ण अंश है।

सूरदास पुष्टि मार्ग के भक्त थे, उनकी भक्ति सखा भाव की है। सूरदास का काव्य ब्रज प्रदेश की सुन्दर प्रकृति के आकर्षक चित्रों से युक्त है। प्रकृति के आलम्बन, उद्दीपन रूपों की सुन्दर झाँकी सूरदास के काव्य में मिलती है। इस प्रकार भाव योजना की दृष्टि से सूरदास का काव्य पर्याप्त आकर्षक प्रभावशाली और उच्चकोटि का था।

सूरदास के काव्य में भाषा (Surdas ki Kavya Bhasha)

सूरदास के काव्य की भाषा ब्रज प्रदेश में बोली जाने वाली बोली है जिसे ब्रज भाषा कहते हैं। ब्रज प्रदेश के शब्दों के साथ उन्होंने अनेक प्रादेशिक संस्कृत के शब्दों का भी चयन किया है। यों भी ब्रजभाषा का सीधा सम्बन्ध संस्कृत से रहा है फिर सूरदास ने तो पाली, अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी और फारसी तुर्की को भी अपने साहित्य में स्थान दिया है। वैसे भी सूरदास अपने शब्द विधान में एक विस्तृत दायरे को समेटे हुए हैं,

किन्तु सुविधा की दृष्टि से उनके शब्द भण्डार को छः भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. संस्कृत शब्दावली

2. अर्द्ध तत्सम शब्दावली

3. तद्भव शब्दावली

4. गुजराती, पंजाबी शब्दावली

5. हिन्दी बोलियों के शब्द

6. विदेशी शब्दावली।

सूरदास के काव्य में  शैली (Surdas ki Bhasha Shaili)

भाषा की भाँति सूरदास की शैली भी अद्वितीय एवं अनुपम है। उन्होंने अपने काव्य में विविध शैलियों को अपनाया है। शैली कवि या लेखक की अनुभूति को अभिव्यक्त करने का एक ढंग है। कृष्ण के बाल-स्वरूप और बाल-चरित्र का वर्णन करते हुए सूरदास की वचन चातुरी तो देखिए ऐसा लगता है मानों वे बाल मनोविज्ञान के अध्येता हों।

वात्सल्य के तो वे सम्राट इसीलिए कहलाये कि उनका जैसा मातृ हृदय पारखी कवि कोई दूसरा नहीं था। उन्होंने जितने भी रसों का वर्णन किया है सब भिन्न शैलियों में हैं। सुविधा की दृष्टि से उनकी शैलियों को निम्नलिखित शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है – गीत शैली, चित्रात्मक शैली, भावात्मक शैली, व्यंग्य शैली, उपालम्भ शैली और दृष्टकूट शैली।

अलंकार प्रयोग –

सूरदास ने सूक्ष्म कथावस्तु को कल्पना और अलंकारों के सहारे ही विस्तार की चरम शिखर पर पहुँचाया है। उनकी अलंकार योजना ने काव्य में केवल सजावट का ही काम नहीं किया है अपितु भाव, गुण रूप और क्रिया का उत्कर्ष भी बढ़ाया है। सूरदास शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रयोग बङे कलात्मक ढंग से किया है।

उनके मुख्य अलंकार ये हैं – उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, रूपक, यों कही-कहीं विभावना और अन्योक्ति, रूपक, यों कहीं-कहीं विभावना और अन्योक्ति भी मिलते हैं। सूरदास के काव्य में आये हुए अलंकार उनकी उद्भावनाओं के उद्गार हैं ऊपर से थोपी हुई कोई वस्तु नहीं। जहाँ भी महाकवि सूरदास को उपमानों की आवश्यकता हुई हैं वहाँ उन्होंने अच्छे बुरे को परख नहीं की, अपितु ग्रामीण और साधारण बोलचाल के उपमान भी उनकी कविता के साँचे में ढलकर निखर उठे हैं।

’भ्रमरगीत प्रसंग’ का उद्देश्य

भ्रमरगीत शब्द का अर्थ –

भ्रमरगीत शब्द का अर्थ है भ्रमर को सम्बोधित कर लिखे गये गीत। भ्रमर रसपायी एवं मधुपायी जीव है। जब उद्धव गोपियों का योग की शिक्षा देते हैं तब गोपियाँ रुष्ट हो जाती हैं। स्पष्ट है कि यदि योग ही अध्यात्म का सार है तो कृष्ण ने उन्हें प्रेम रस का मधु क्यों चखाया, लेकिन हिन्दू धर्म एक महान धर्म है। इसमें सभी प्रकार की मनोवृत्तियों वाले लोगों के लिए अध्यात्म का पथ खुला है।

जो ललितमति एवं भावुक लोग हैं, उनके लिए मधुराभक्ति का पथ है। तभी एक भ्रमर मधु के लोभ से गोपियों के मुखकमल के चारों ओर चक्कर काटने लगता है और गोपियों को उद्धव को उपालम्भ देने का माध्यम प्राप्त हो जाता है। वे उस भ्रमर को कृष्ण का प्रतीक बना डालती हैं और भ्रमर के ब्याज से उद्धव को एवं उद्धव के छल से कृष्ण को उलाहने देती हैं।

भ्रमरगीत से तात्पर्य –

भ्रमरगीत से तात्पर्य कृष्णभक्त कवियों द्वारा लिखित एक विशिष्ट परंपरा के गीतों से है जो भ्रमर को सम्बोधित कर लिखे जाते रहे हैं। इन पदों में मधुपायी भ्रमर को कृष्ण का प्रतीक बनाया गया है। जहाँ तक भ्रमरगीत के प्रयोजन का प्रश्न है, वह निर्गुण ज्ञान पर सगुण भक्ति की विजय-पताका फहराना है। इसके साथ ही भ्रमरगीत का लक्ष्य नीरसता का निषेध करके सरसता का प्रतिपादन करना भी रहा है।

भ्रमरगीत में उद्धव निर्गुण ब्रह्म के उपासक बनकर आये हैं। वे ज्ञान तथा योग की प्रक्रिया के समर्थक हैं और कृष्ण का संदेश लेकर गोपियों के पास जाते हैं। उद्धव के ज्ञानयोग के तर्क गोपियों की भावानुभूति के समक्ष व्यर्थ प्रमाणित हो जाते हैं और अन्त में उद्धव गोपियों के भावावेश में बहकर स्वयं भक्तिमार्ग का चयन कर लेते हैं।

भ्रमरगीत का दार्शनिक प्रतिपाद्य –

भ्रमरगीत का दार्शनिक प्रतिपाद्य उपनिषदों एवं गीता में दिये गये रहस्यात्मक उपदेशों का प्रतिपादन करता है। गोपियाँ वास्तव में आत्माएँ हैं जो उन्मुक्त भाव से परमपुरुष परमात्मा कृष्ण में समाहित होना चाहती हैं। वह परम मिलन की स्थिति है, जिसकी उन्हें आकांक्षा है। वहाँ मिलन के बीच एक गलहार का व्यवधान भी सहन नहीं होता है, तो वस्त्रों की तो बात ही क्या है। उद्देश्य होता है, आत्मा एवं परमात्मा के मिलन से सम्भूत ब्रह्मानन्द जिससे साधक अपने सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा एवं परमात्मा की संयोग की अनुभूति में डूब जाता है और अमर हो जाता है। सांसारिक सुख उसके लिए तुच्छ हो जाते हैं।

’भ्रमरगीत’ का उद्देश्य –

उद्धव मथुरा में थे। उन्हें अपने ज्ञान का गर्व था। थोङे बहुत पहुँचे हुए थे। कृष्ण ने उनके ज्ञान के गर्व को खण्डित करने के लिए उन्हें कहा कि वे अपने महान ज्ञान का उपदेश गोपियों को दें। गोपियाँ यदि मधुर भक्ति को छोङकर योग एवं ज्ञान का पथ ग्रहण कर लें, तो उद्धव के पथ की सार्थकता सिद्ध हो जायेगी। उद्धव गोपियों के पास गये। उन्हें कृष्ण ने भेजा था।

गोपियों के लिए वे सम्मान के पात्र बन गये थे लेकिन उनके उपदेशों को सुनकर गोपियाँ को लताङने और चिढ़ाने की इच्छा हुई। तभी उन्होंने एक मधुलुब्ध भ्रमर को देखा। उन्हें अचानक क्या सूझी कि वे उस भ्रमर को सम्बोधित कर उद्धव को कोसने लगीं। अनेक प्रकारों से वे उद्धव के अहंकार का मर्दन करती हुई उसे रसमयी मधुर भक्ति की दिशा में प्रेरित करने लगीं। भ्रमरगीत का उद्देश्य गोपीभाव की भक्ति की सार्थकता को स्पष्ट करना है।

पुरुष अहं प्रधान जीव है। अहं से सम्पूर्णतया नग्न पुरुष स्त्री का भोग नहीं कर सकता। दूसरी ओर संसार की सारी यातनाओं का मूल कारण पुरुष या स्त्री का अहं बोध है। अध्यात्म के पथ पर रंच मात्र भी साफल्य की प्राप्ति के लिए अहं का त्याग पहली शर्त है। इसलिए स्त्री भाव से साधना करने का प्रचलन है, क्योंकि समर्पण स्त्री के जीवन का मूल मंत्र है। परम पुरुष कृष्ण के प्रति अपने देह के साथ अपने अहंकार को भी समर्पित करने वाली गोपियाँ परम सिद्ध ऋषियों के सदृश हैं, कारण वे अपने अहंकार से छुटकारा पाकर कृष्णमय हो चुकी हैं।

भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का स्थान –

भ्रमरगीत विषयक एक लम्बी परम्परा का अनुशीलन करने पर यह तथ्य स्पष्ट होता है कि सूरदास का भ्रमरगीत इस परम्परा का प्रथम रत्न होते हुए भी सबसे मार्मिक, भव्य और मूल्यवान है। यह कई दृष्टियों से कालजयी रचना है। एक तो इसमें पाठकों की संवेदना को समृद्ध करने की अद्भुत क्षमता है। गोपियाँ केवल अपनी वाक्चातुरी या व्यंग्य-कथन के लिए विशिष्ट नहीं हैं, उनका अनन्य समर्पण मर्मस्पर्शी है। प्रो. विश्वम्भर मानव ने सही लिखा है कि ’’गोपियाँ प्रेम करने के लिए विवश हैं।

प्रेम के अतिरिक्त वे और कुछ कर ही नहीं सकतीं। उनके एक-एक शब्द से उनके हृदय की गम्भीर आस्था का पता चलता है। यह विवशता और यह आस्था जैसे हमारे हृदयों को छू लेती है।’’ लेकिन सूरदास का भ्रमरगीत केवल आर्द्र नहीं करता। उसका सबल और तार्किक वैचारिक पक्ष और अपने समय-समाज की चुनौतियों को स्वीकारने का साहस भी ध्यान आकर्षित करता है। इस भ्रमरगीत के अनेक निहितार्थ हैं।

एक ओर यह कृष्ण के बहाने सत्ता के चरित्र का उद्घाटन करता है, वहीं उद्धव को निमित्त बनाकर कथित संस्कृति के सौंदर्य और मूल्यधर्मिता को महत्त्वपूर्ण बताना भी इसका एक लक्ष्य है। निवृत्ति मार्ग से असहमति के साथ-साथ भ्रमरगीत का एक स्त्री-पाठ भी है।

गोपियों का स्वच्छंद प्रेम उनके चुनाव की स्वतन्त्रता का प्रमाण है और उद्धव से तर्क-वितर्क भी उनके चेतन, तार्किक और जागरूक होने को सिद्ध करता है। यह सब काव्य में सतह पर नहीं है, भली-भाँति संश्लिष्ट है। सूरदास की काव्य-प्रतिभा इसमें पूरे उत्कर्ष पर है और उन्होंने सशक्त भाषा और प्रभावपूर्ण शैली में अपने प्रतिपाद्य को सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है।

भ्रमरगीत परम्परा में अन्य भ्रमरगीतों की तुलना में सूरदास का भ्रमरगीत न केवल व्यवस्थित है, अपितु शृंखलाबद्ध भी है। इसका एकमात्र कारण यही है कि इसके अन्तर्गत पहले कृष्ण को गोकुल की चिन्ता में आकण्ठ डूबा हुआ दिखाया गया है, उसके बाद उद्धव के ज्ञान-गर्व की सूचना दी गयी है। कृष्ण भली-भाँति जान जाते हैं कि उद्धव ज्ञानोन्मत्त हैं और प्रेम के मार्ग में बिल्कुल अनाङी हैं। ऐसी स्थिति में कृष्ण उन्हें ही अपना संदेश देकर गोपियों के मनस्तोष के लिए ब्रज भेजते हैं।

नन्द-यशोदा और गोप-गोपिकाओं के निमित्त पत्र, उद्धव की ब्रज-यात्रा, उनका ब्रज-आगमन और ब्रज-युवतियों का उन्हें कृष्ण समझना और भ्रम दूर होने पर उद्धव का उपदेश देना व अन्ततः गोपियों का व्यंग्य एवं उपालम्भ एक क्रम से प्रस्तुत किया गया है।

इसमें स्पष्ट ही प्राथमिकता है, व्यवस्था है और जिस उद्देश्य से भ्रमरगीत का प्रणयन हुआ है, वह उद्देश्य भी इससे स्पष्ट हो जाता है। यही कुछ कारण हैं जिनसे सूरदास का भ्रमरगीत अन्य भ्रमरगीतों की तुलना में विशिष्ट और अत्यधिक आकर्षक बन गया है।

भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास के भ्रमरगीत की चर्चा करते हुए एक अन्य विद्वान का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि ’’सूरदास का भ्रमरगीत वास्तव में विरह एवं प्रेम का एक अगाध पयोधि है, जिसमें व्यंग्य एवं उपालम्भ की लघु लहरें हैं, उद्धव-संदेश के झंझावात से आलोङित वेदना एवं व्यथा की तरंगें हैं और विरह की बङवाग्नि है। इसी से सूरदास के भ्रमरगीत का प्रत्येक पद मार्मिकता और सजीवता में अन्य सभी कवियों से अधिक उत्कृष्ट है और परवर्ती सभी कवि सूरदास की जूठन से जान पङते हैं।

सूरदास के भ्रमरगीत में निस्सन्देह वियोग-शृंगार का उत्कृष्ट रूप विद्यमान है, उसमें निर्गुण-साधना पर सगुण-साधना की विजय दिखाई गयी है और गोपियों के उत्कट प्रेम, दृढ़ विश्वास एवं उत्कृष्ट भक्ति-भाव की सुन्दर एवं सजीव झाँकी प्रस्तुत की गयी है, जिसे देखकर ज्ञान के प्रकाण्ड आगार उद्धव भी अपना सम्पूर्ण ज्ञान भूल जाते हैं और निर्गुण ब्रह्म का उपदेश छोङकर सगुण ब्रह्म के उपासक हो जाते हैं। यही कारण है कि भ्रमरगीत की इस सुदीर्घ परम्परा में सूरदास का भ्रमरगीत हिन्दी की आरम्भिक रचना होकर भी सर्वश्रेष्ठ है।’’

आज भी ब्रजभाषा में कविता लिखने का क्रम जारी है। ब्रजभाषा के कवि को भ्रमरगीत-प्रसंग विशेष रूप से आकर्षित करता है। कुछ कवि यथासम्भव नयी-नयी उद्भावनाएँ भी कर रहे हैं। मेघश्याम कृत ’श्याम-भ्रमर’ भ्रमरगीत-प्रसंग पर पूरी तरह आधृत है, लेकिन इसमें उद्धव ज्ञानमार्ग के प्रतिनिधि न होकर एक भक्त के रूप में दर्शाए गए हैं।

इस परम्परा में फुटकल छंद लिखने वालों में दीनानाथ चतुर्वेदी ’सुमनेश’, गोविन्द चतुर्वेदी, कैलाशचन्द्र ’कृष्ण’ के नाम भी स्मरणीय हैं। वर्तमान रचनाकारों में डाॅ. विष्णु विराट अपने छंदों के माध्यम से भ्रमरगीत परम्परा को न केवल जीवित रखे हुए हैं, अपितु उनमें कुछ नाविन्य का समावेश भी करते रहे हैं।

उनके एक छंद में उद्धव मथुरा लौटकर बेहाल ब्रज का हाल बयान करते हैं तो कृष्ण की जो मनस्थिति बनती है, उसका बहुत मार्मिक और हृदय-बेधक वर्णन हुआ है-
मनमोहन कौ मन मोम भयौ, जबै उद्धव बात कही कर जोरें।
झार करीरन में अटक्यौ मन, मौन कदंब की डार टटोरैं।
खोलि कै पंख भयौ मन हंस, उड्यौ चलौ जात सनेह की डोरैं।
आनन पे, ब्रज के बन छायगे, नैननि मैं यमुना की हिलोरैं।

सूरदास ने जिस परम्परा का सूत्रपात किया था, वह आज तक सदानीरा के रूप में प्रवाहमान है। आज के ब्रजभाषा कवियों के प्रेरणा-स्रोतों में सूरदास सर्वप्रमुख हैं। इसलिए परवर्ती कवियों की रचनाओं पर सूरदास की छाप सबसे अधिक स्पष्ट है। मजे की बात यह है कि आज भी पूरी भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास सबसे अधिक मार्मिक, सरस और पठनीय लगते हैं।

अन्ततः डाॅ. हरिचरण शर्मा के शब्दों में कहा जा सकता है कि ’’भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का भ्रमरगीत मानव-हृदय का एक ऐसा चित्रपट है जिस पर अनगिनत भाव परिस्थिति और प्रसंग के संदर्भ से आते-जाते रहे हैं। भ्रमरगीत के पदों में एक गति है, जीवन है, सरसता है, सौंदर्य है और सबसे बङी बात यह है कि विरह-सागर में निमज्जित नारी की मौन वेदना को मुखरित करने में वह अद्वितीय है। इस भ्रमरगीत परम्परा में प्रयत्न भले ही कितने हुए हों, किन्तु सूरदास की रचना के समक्ष वे कहीं टिकते नहीं हैं।

सूरदास के भ्रमरगीत में भक्ति और दर्शन का मणिकांचन योग है और यह भक्ति गोपियों के विरह का संस्पर्श पाकर और भी अधिक आकर्षक रूप लेकर सामने आयी है। प्रेम में त्याग-निष्ठा और आत्मोत्सर्ग की वृत्ति को जो महत्त्व दिया गया है, उसका उद्घाटन सूरदास इस कृति के माध्यम से भली-भाँति कर सके हैं। फिर इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, क्योंकि सूरदास जितने सहृदय और भावुक थे, उतने ही वे वाणी की भंगिमा, व्यंग्योक्ति, और वक्रोक्ति-विधान में भी निपुण थे।

सूरदास की भाव-प्रेरित वक्रता और व्यंजना-क्षमता न केवल गोपियों द्वारा उद्धव को दी गयी फटकार में ही व्यक्त हुई है, अपितु वह तो कृष्ण और कुब्जा के संदर्भ से भी पूरी मार्मिकता के साथ अभिव्यक्ति पा सकी है।’’

भ्रमरगीत में विरह की स्थिति –

सूरदास का भ्रमरगीत हिन्दी साहित्य में अनूठा काव्य है। भ्रमरगीत का आधार ’श्रीमद्भागवत’ का उद्धव-गोपी संवाद है। इसका उद्देश्य गोपियों को ज्ञानोपदेश कराना न होकर उल्टे उद्धव को प्रेम-भक्ति का पाठ पढ़ाना है। डाॅ. शिवकुमार शर्मा ने अक्षरक्षः सत्य कहा है कि ’’सूरदाससागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है जहाँ कवित्त और शास्त्र एकाकार हो गये हैं।

भ्रमरगीत में सगुण ने निर्गुण पर, सरसता से शुष्कता पर, प्रेम ने दर्शन पर, भक्ति ने ज्ञान पर, राग ने वैराग्य पर, आसक्ति ने अनासक्ति पर और संयोग ने वियोग पर विजय पाई है।’’ भ्रमरगीत उपालम्भ काव्य है। इसमें गोपियों ने कृष्ण को बहुत से उलाहने दिये हैं और उद्धव को भी अनेक प्रकार से बुरा-भला कहा है। यहाँ गोपियों की वियोग दशा दर्शनीय है। कृष्ण विरह से व्यथित गोपियाँ कृष्ण के मिलन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहतीं। सूरदास ने गोपियों की विरह-व्यथा का अत्यन्त कारुणिक, मर्मस्पर्शी एवं सरस चित्रण किया है।

ये पंक्तियाँ देखिए-

निरखत अंक स्याम सुन्दर के बार-बार लावति हैं छाती।
लोचन जल कागद मसि मिलकै ह्वै कई श्याम श्याम की पाती।

गोपियों के विरह-वर्णन में सूरदास अत्यधिक सफल रहे हैं। इस विरह का प्रारम्भ कृष्ण के मथुरा-गमन से होता है। कृष्ण के मथुरा जाते ही समस्त ब्रज का सुख, उल्लास, आनन्द और हर्ष हवा हो जाता है। माता यशोदा, नन्द बाबा, गोपियाँ, राधा, गायें, बछङे और सभी पशु-पक्षी कृष्णा के विरह में डूबे हुए हैं। कृष्ण के सखाओं का तो कहना ही क्या? सोते-जागते उन्हीं के ध्यान में लीन रहते हैं। ब्रज के सभी लोग कृष्ण का स्मरण कर आँसू बहाते हैं।

इस विषय में सूरदास साहित्य के मर्मज्ञ डाॅ. शिवकुमार ने समीचीन ही कहा है कि ’’सूरदास का वियोग-वर्णन अत्यन्त संयत एवं मनोवैज्ञानिक है। इन्होंने जायसी की भाँति प्रत्येक वस्तु में विरह की झलक नहीं दिखाई है और न ही गेहूँ का हृदय विरह से विदीर्ण बतलाया है। इन्होंने विरह -वर्णन में उन वस्तुओं को लिया है जो कृष्ण से सम्बद्ध हैं। तुलसी की कौशल्या और सूरदास की यशोदा का विरह एक जैसा है, किन्तु सूरदास में जो अनोखी व्यंजना है, वह तुलसी में नहीं है।’

सूरदास के विरह-वर्णन का प्रारम्भिक रूप वात्सल्य-वियोग में मिलता है। कृष्ण-गमन के विरह से पीङित माता यशोदा नन्दबाबा पर खीझती हैं और नन्दबाबा यशोदा को कुछ का कुछ कहते हैं।

उद्धव के आने पर माता यशोदा ये संदेश देती हैं-
संदेशो देवकी सों कहियो।
हों तो धाय तिहारे सुत की, मया करति ही रहियो।।

गोपियों की विरह वेदना –

भ्रमरगीत की रसात्मकता और उत्कृष्टता का रहस्य विरह वर्णन में ही निहित है। सूरदास के इस अनूठे विरह वर्णन में हृदय के गहन से गहन कोने तक का चित्रण किया गया है। डाॅ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ’’उस विरह का कोई कूल किनारा नहीं है, कोई हद्दो हिसाब नहीं है।’’ आचार्य शुक्ल ने ठीक ही लिखा है कि ’’वियोग की जितनी अन्तर्दशाएँ हो सकती हैं, जितने ढंग से साहित्य में उनका वर्णन होता है, उन सबको हम सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग में पाते हैं।’’

यहाँ तक कि नन्द और यशोदा भी कृष्ण के विरह से व्यथित है-
छाँडि सनेह चले मथुरा, कत दौरि न चीर गह्यौ।
फाटि न गई वज्र की छाती, कत यह सूल सह्यौ।।

यशोदा कृष्ण के विरह में कितनी दीन-हीन हो गयी हैं, देखिए तो सही-
संदेसो देवकी सों कहियो।
मैं तो धाय तिहारे सुत की, मया करत ही रहियो।।

ग्वाल-बाल भी कृष्ण के विरह में व्यथित हैं और गोपियाँ भी। गोपियों को कृष्ण और उनकी समस्त बातें आज भी याद आती हैं-
एहि बिरिया बन ते ब्रज आवते।
दूरहि ते वह बेनु अधर धरि बारम्बार बजावते।

संयोगकालीन सुखद वस्तुएँ इस वियोग काल में सभी दुखद बन गयी हैं और काटने को दौङती हैं। वस्तुतः इसमें एक मनोवैज्ञानिक सत्य है और वह यह है कि प्रिय के संसर्ग में सौंदर्य उपादान जो आनन्द दे सकते हैं, वे विरह में नहीं दे सकते हैं। अतः गोपियों को भी विरह में संयोग की अपनी सभी बातें बङी दुखद प्रतीत होती हैं। चन्द्रमा, मेघ, रात्रि, मधुवन आदि सभी उनको अरुचिकर और दुखदायी प्रतीत होते हैं।

मधुवन की आनन्ददायिनी कुंजें भी अब विषप्रदायिनी अथवा दाहक बन गयी हैं-
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भईं विषम ज्वाल की पुंजैं।।
वृथा बहति जमुना, खग बोलत, वृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।
पवन पानि घनसार संजीवनि, दधिसुत किरन भानु भई भुंजैं।।

विरहिणी गोपियों को लताएँ, पुष्पों का खिलना, कमलों का फूलना तो दुखदायी है ही, चन्द्रोदय भी अब उनको नहीं सुहाता। वे चन्द्रमा को भी कोसती हैं-
या बिन होत कहा अब सूनो।
लै किन प्रकट कियो प्राची दिसि? विरहिन को दुख दूनो।।

कृष्ण की अनुपस्थिति में गोपियों को मधुवन का हरा-भरा रहना भी अच्छा नहीं लगता है। वे उसे भी कोसती हैं-
मधुवन तुम कत रहत हरे?
विरह-वियोग स्यामसुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरे?

गोपियों को मोर और कोयल भी उनके पीछे पङे हुए प्रतीत होते हैं, उनको ’हरि को तिलक हरि चित को दहत’ चन्द्रमा भी दाहक लगता है। बरसात की अँधेरी रात में कभी बादलों के हट जाने पर फैलने वाली चाँदनी के लिए सूरदास की मौलिक सूझ-बुझ देखिए, रात सर्पिणी-सी लगती है। सर्पिणी काटने के बाद उलट जाती है और उसका सफेद भाग ऊपर आ जाता है।

उदाहरण प्रस्तुत है-
पिया बिन साँपिन कारी रात।
कबहूँ जामिनि होत जुन्हैया, डसि उलटी ह्वै जाति।

गोपियों की विरह-वेदना प्रकृति के उद्दीपन रूप से और भी अधिकाधिक बढ़ती जाती है। वर्षा ऋतु के बादल उनको कामदेव के मस्त हाथी प्रतीत होते हैं, जो बन्धन तोङ कर चिंघाङते हुए आ रहे हैं। देखिए –
देखियत चहुँ दिसि तें घन घोरे।
मानो मत्त मदन के हथियन बल करि बंधन तोरे।।

गोपियों का असाधारण विरह उनको प्रियतम कृष्ण का संदेश भी नहीं पढ़ने देता-
निरखत अंक स्यामसुन्दर के बार बार लावति छाती।
लोचन जल कागद मसि मिलकें ह्वै गई स्याम स्याम की पाती।।

विरह की व्यापकता –

महाकवि सूरदास ने भ्रमरगीत में गोपियों के विरह का बङा ही विशद एवं व्यापक वर्णन किया है। गोपियों के विरह में भावों की गम्भीरता है। उनके विरह को जङ और चेतन सभी अनुभव करते हैं और उससे प्रभावित होते हैं।

यमुना उनके विहर-ज्वर में काली पङ गयी है-
देखियत कालिन्दी अति कारी।
कहियो पथिक जाय हरि सों, ज्यों भई विरह जुर जारी।।

आचार्य शुक्ल ने इस क्रम में लिखा है कि- ’’सूरदास के विरह में व्यापकता है। विहार-स्थल जिस प्रकार घर की चहारदीवारी के भीतर तक ही न रहकर यमुना के हरे-भरे कछारों करील के कुंजों और वनस्थलियों तक फैला है, उसी प्रकार उनका विरह-वर्णन भी ’बैरिन भई रतियाँ’ और ’साँपिन भई सेजिया’ तक ही न रहकर प्रकृति के खुले क्षेत्र में दूर-दूर तक पहुँचता है।

मनुष्य के आदिम वन्य जीवन के परम्परागत मधुर संस्कार को उद्दीप्त करने वाले इन शब्दों में कितना माधुर्य है- ’एक वन ढूँढ़ि सकल वन ढूँढ़ौ, कतहु न स्याम लहौ’ ऋतुओं का आना-जाना उसी प्रकार लगा है। प्रकृति पर उनका रंग वैसा ही चढ़ता-उतरता दिखाई पङता है। भिन्न ऋतुओं की वस्तुएँ देखकर जैसी उत्कण्ठा गोपियों के मन में कृष्ण से मिलने की होती है, वैसी ही कृष्ण के हृदय में क्यों नहीं होता है? जान पङता है कि ये सब उधर जाती ही नहीं, जिधर कृष्ण बसते हैं। सब वृन्दावन में ही आकर अपना अड्डा जमाती हैं।’’

गोपियों के नेत्रों ने बरसने में बादलों को भी मात कर दिया है। विरह की ऐसी चरमावस्था अन्यत्र दुर्लभ है। एक-दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं –
निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति पावस ऋतुस हम पै, जब ते स्याम सिधारे।
सखी इन नयनन ते घन हारे।
बिनु ही रितु बरसत निसिबासर, सदा मलिन दोउ तारे।

इससे प्रकट होता है कि भ्रमरगीत में विरह का अथाह सागर लहराता है। प्रत्येक पद प्रेमजन्य वेदना का अटूट भण्डार है। विशेषता यह है कि इस अगाध विरह की अनुभूति, व्यंग्य, विनोद और उपालम्भ के मधुर वातावरण में हुई है। अश्रु और मुस्कान का यह विषम संयोग अन्यत्र दुर्लभ है। गोपियों के विरह-वचनों में सौंदर्य की ऐसी अनुभूति होती है जैसे देखकर आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि ’’वचन की भावप्रेरित वक्रता द्वारा प्रेमप्रसूत न जाने कितनी अन्तर्वृत्तियों का उद्घाटन परम मनोहर है।’’

गोपियों की विरह व्यथा कहीं-कहीं तो इतनी तीव्र और प्रचण्ड है कि चाँदनी भी आग बन गयी है-
ऊधो! तुम कहियो जाय हरि सों, हमारे जिय को दरद।
दिन नहीं चैन, रैन नहिं सोवत, पावक भई जुन्हैया सरद।।

गोपियाँ विरह-व्यथित होते हुए भी व्यंग्य करते हुए नहीं चूकतीं। उनके व्यंग्यपूर्ण कथनों में भाव विदग्धता, सहृदयता और विरह के साथ दर्शन होते हैं। वे कहती हैं –
ऊधो! राखति हौ पति तेरी।
ह्याँ ते जाहु, दूरहु आगे के, देखति आँख बरति है मेरी।

वे उद्धव को फटकारते हुए कहती हैं-
रहुरे मधुकर, मधु मतवारे।
कहा करौं निर्गुन लैकै हौं जीवहु कान्ह हमारे।।

गोपियों के विरह का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष और भी है और वह है प्रेमी की वह चिन्तनपूर्ण स्थिति, जब वह यह सोचता है कि प्रिय नहीं आया तो कोई बात नहीं, हमें तो दुख उठाना ही पङ रहा है पर हमारा प्रियतम जहाँ भी कहीं रहे, सुखी रहे, गोपियाँ भी कृष्ण को निष्ठुर और छलिया कहती हुई उनके सुखी जीवन की हार्दिक कामना करती हैं-
जहँ जहँ रहौ, राज करो तहँ तहँ, लेहु कोटि सिर भार।
यह असीस हम देति सूरदास सुनु न्हात खसै जनि बार।।

यह आत्मोत्सर्ग की चरम सीमा है। एक ओर प्रेमी निराश और दुखी होकर प्रिय दर्शनों की लालसा को त्याग देता है, दूसरी ओर वह अपने प्रिय की सुख कामना भी करता है। गोपियों में भी यह आत्मतोष और आत्म समाधान मिलता है-
हम तो दुहूँ भाँति फल पायो।
जो ब्रजनाथ मिलें तो नीकौ, नातरऊ जस जग गायो।

सूरदास के विरह-वर्णन के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आपत्ति भी विचारणीय है – ’’परिस्थिति की गम्भीरता के अभाव में गोपियों के वियोग में भी वह गम्भीरता नहीं दिखाई देती है जो सीता के वियोग में हैै।

उनका वियोग खाली बैठे का वियोग है………सूरदास का वियोग वर्णन के लिए है, परिस्थिति के अनुरोध से नहीं। कृष्ण गोपियों के साथ क्रीङा करते किसी कुंज या झाङी में छिपते हैं, या यों कहिए कि थोङी देर के लिए अन्तध्र्यान हो जाते हैं। बस, गोपियाँ मूर्छित होकर गिर पङती हैं। उनकी आँखों से आँसुओं की धारा उमङ चलती है और पूर्ण वियोग दशा उन्हें आकर घेर लेती है। यदि परिस्थिति का विचार करें तो ऐसा विरह असंगत प्रतीत होगा।’’

शुक्लजी के उपर्युक्त आक्षेप का कारण तो यह हो सकता है कि वे तुलसी के विशेष समर्थक हैं। दूसरे वे उनकी आलोचना लोकमंगल तथा सत्यं शिवम् सुन्दरम् के मानदण्डों पर विशेष रूप से करते हैं। इस क्रम में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी का मत द्रष्टव्य है जो उन्होंने महाकवि सूरदास’ में व्यक्त किया है- ’’केवल शक्ति, सौंदर्य अथवा शील की पराकाष्ठा दिखाना किसी काव्य का लक्ष्य नहीं हो सकता।

उसका लक्ष्य तो रस विशेष की अनुभूति उत्पन्न करना है।’’ वास्तव में विरह का सम्बन्ध भाववृत्ति से है, दूरी से नहीं। कम दूरी होने पर कम विरह हो और अधिक दूरी होने पर अधिक विरह हो, यह कोई संगत तर्क नहीं है।

भारतीय नारी तो पति का आँखों से ओझल हो जाना ही कष्टदायक समझती है। पुष्टि सम्प्रदाय में तो पलकान्तर वियोग माना जाता है। आचार्य गुलाबराय जी ने भी शुक्लजी के आक्षेप को एकांगी बतलाया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि गोपियों के रोने का कारण कृष्ण का उनसे पृथक होना नहीं, अपितु कृष्ण का दृष्टिकोण बदल जाना है।

सूरदास ने लिखा है – ’हरि अब राजनीति पढ़ि आये।’ आचार्य वल्लभ ने भी भगवद् अनुग्रह की सिद्धि के लिए भक्त के हृदय में उत्कट प्रेम की सत्ता नितान्त आवश्यक मानी है। भगवान से मिलने के लिए आतुरता तथा वियोग में नितान्त व्याकुलता का होना परम आवश्यक है।

वियोग वर्णन की विशेषताएँ

सूरदास का वियोग वर्णन कृष्ण-भक्ति से अनुप्राणित है। गोपियों का उक्ति-वैचित्र्य, व्यंग्य और वाग्वैदग्ध्य प्रशंसनीय है। इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

प्रेम का सहज रूप- गोपियों के विरह में प्रेम का सहज, स्वाभाविक रूप मिलता है। कृष्ण के प्रति गोपियों का प्रेम बचपन का प्रेम है। इसलिए उसे छोङना या भुलाना उसके लिए असम्भव है। वे उद्धव से स्पष्ट कह देती हैं –
’लरिकाई कौ प्रेम कहौ अलि, कैसे छूटत?’

विरह का मार्मिक वर्णन – सूरदास ने बन्द आँखों से गोपियों के विरह का जैसा मर्मस्पर्शी और मनोहारी वर्णन किया है, अन्यत्र दुर्लभ है। कृष्ण के विरह में गोपियों का दुख पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। वे अपनी ही भत्र्सना करती हुई कहती हैं कि कृष्ण के बिछुङते ही उनके प्राण क्यों नहीं निकल गये, उनका हृदय टुकङे-टुकङे क्यों नहीं हो गया? कृष्ण के बिना उन्हें कुंज, लता, पवन, कपूर और संजीवनी बूटी आदि सभी कष्टप्रद प्रतीत होती हैं –
बिनु गुपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब वै लता लगति तन सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं।

अन्तर्दशाओं का सुन्दर चित्रण – विद्वानों ने विरह की दस दशाओं का उल्लेख किया है। ये हैं – ’’अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुण-कथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जङता और मूर्छा।’’ सूरदास ने इन सभी दशाओं का सुन्दर चित्रण किया है। कृष्ण से बिछुङकर गोपियाँ पहले उनसे मिलने की अभिलाषा करती हैं, ना मिलने पर चिन्ता में समा जाती हैं। अनेक प्रकार से वे कृष्ण की स्मृति और गुणकथन करती हैं। वियोग में सुखद वस्तुएँ भी दुखदायी हो जाती हैं, उद्वेग की स्थिति है। यथा –
पिय बिन नागिन कारी रात।
वचन न लागत मंत्र न फूरत प्रतीति सिरानी गात।’
सूरदास स्याम बिनु बिकल विरहनि मुरि-मुरि लहरे खात।

विरह-व्यथा से व्याकुल हो कुछ-कुछ कहना प्रलाप है, अपना विवेक खो देना उन्मादों है, शारीरिक रोग से उत्पन्न सन्ताप व्याधि है, विरही का किंकत्र्तव्यविमूढ़ होना जङता है और संज्ञा-शून्य होना मूर्छा है। ये सभी चित्रण भ्रमरगीत में उपलब्ध हैं। राधा के वियोग-वर्णन में सूरदास ने अत्यधिक सफलता प्राप्त की है। वियोग के समय राधा का शांत, मौन और गम्भीर रूप सभी को आकर्षित कर लेता है। उद्धव के आने पर वह उनसे कुछ कहती नहीं है, न उसके पास जाती है। उसकी स्थिति सर्वथा इस प्रकार है –
बिनु माधौ राधा-तन सजनी, सब विपरीत भई।
गई छपाई छपाकर की छवि, रही कलंक मई।।

उद्धव को लांछित भी करती है और कहती है-
ऊधौ! जाओ तुम्हें हम जाने।
स्याम तुम्हें यहाँ को नहिं पठयो तुम्हीं बीच भुलाने।
ब्रज गोपिन से जोग कहत हो बात कहत न लजाने।
बङे लोग न विवेक तिहारे ऐसे भये अयाने।
कहाँ अबला कहा दसा दिगम्बर, मष्ट करहौ पहचाने।।

नवीन मनोदशाओं का संकेत – सूरदास ने खीझ और झल्लाहट जैसी नवीन मनोदशाओं का भी उल्लेख किया है। गोपियाँ कृष्ण के विचित्र व्यवहार पर खीझ उठती हैं और झल्लाहट भरे शब्दों में कह उठती हैं – इतने पथिक संदेशा देकर भेजे कोई लौटा नहीं, जाने कहाँ मर गये?
व्यंग्य-विनोद – गोपियों के विरह का चित्रण करते समय सूरदास ने व्यंग्य-विनोद के भी बहुत उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। गोपियाँ उद्धव पर अनेक व्यंग्य-बाण छोङती हैं और यत्र-तत्र अनेक प्रकार से उनके ज्ञान का खण्डन करती हैं। यथा-
ऊधौ! भली भई ब्रज आए।
विधि-कुलाल कीन्हैं काँचे घट ते तुम आनि पकाए।

व्यंग्य के साथ-साथ कवि ने विनोद का भी आश्रय लिया है। ऐसे स्थलों पर वातावरण सजीव और सुखद बन गया है, यथा-
ज्ञान ठगौरी ब्रज न बिकैहै।

इसी प्रकार यह उदाहरण भी देखिए-
आयौ घोष बङौ व्यौपारी।
लाद खेप गुन ज्ञान जोग की ब्रज में आय उतारी।।

उद्दीपन विभाव के विविध रूप – शृंगार के उद्दीपन विभाव हैं – सखा, सखी, दूती, ऋतु, वन, उपवन, केलि-कुंज, तङाग, पवन, चन्द्रमा, कोकिल, भ्रमर और पपीहा आदि। सूरदास ने विरह को व्यापकता और गहनता प्रदान करने के लिए इन सभी का वर्णन किया है।

चन्द्रमा की निन्दा करते हुए गोपी कहती है-
कोऊ माई बरजौ री या चंदहि।
अति ही क्रोध करत है हम पर कुमुदिनि कुल आनंदहि।।

इसी प्रकार बादलों को देखकर गोपियाँ कहती हैं –
बरु ए बादल बरसन आए।
अपनी अवधि जानि नंदनंदन, गरजि गगन घन छाए।।

उभयपक्षी प्रेम – सूरदास ने गोपियों और राधा के विरह के साथ-साथ कृष्ण के विरह, दुख और कष्ट का भी उल्लेख किया है। अतः सूरदास का प्रेम और विरह उभयपक्षी है। कृष्ण उद्धव से कहते हैं –
ऊधौ! मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।
हंस-सुता की सुन्दर नगरी अरु कुंजनि की छाँही।।
जब ही सुध आवत वा सुख की, तन उमगत जिय नाहीं।।

निष्कर्ष – उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कह सकते हैं कि सूरदास का भ्रमरगीत प्रसंग विरह-वर्णन की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट और प्रभावी बन पङा है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि भ्रमरगीत में प्रेम और विरह की व्यापकता अनेक रूपों में साकार हो उठी है। गोपियों के प्रेमजनित एकनिष्ठ भावों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उनकी विरह-वेदना की सूक्ष्मता पूरे वाक्कौशल और सूरदास के अभिव्यक्ति-कौशल के साथ व्यक्त हुई है।

ध्यान देने की बात यह भी है कि इसमें विरह का स्वरूप सहज और स्वाभाविक है, उसमें आरोपण नहीं है। न मालूम कैसे आचार्य शुक्ल ने इसे विरह-वर्णन के लिए विरह वर्णन की संज्ञा दे डाली। वे सम्भवतः इस बात को भुला बैठे कि विरह की अनुभूति तो दो पात्रों के पास-पास होने पर भी संवादहीनता की स्थिति में हो सकती है। इस दृष्टि से यदि भ्रमरगीत की विरह-वेदना पर विचार किया जाये तो वह सूक्ष्म, सटीक, प्रभावी, व्यापक और मनोवैज्ञानिक रंग लिए हुए है।

तो दोस्तो आज के आर्टिकल में हमनें सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ और भ्रमरगीत प्रसंग के बारे में भी चर्चा की ,आपको ये आर्टिकल अच्छा लगा होगा ।

  • कृष्ण काव्य की प्रवृत्तियाँ
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Comments

  1. Vikas Singh says

    06/01/2022 at 8:13 AM

    यह मेरे लिए बहुत मददगार रहा है

    Reply
    • केवल कृष्ण घोड़ेला says

      06/01/2022 at 2:52 PM

      हमें ख़ुशी हुई …धन्यवाद

      Reply

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