आज की पोस्ट में हम जयशंकर प्रसाद की चर्चित रचना देवसेना का गीत(Devsena ka geet) की व्याख्या सहित अर्थ को समझेंगे |
’देवसेना का गीत’ प्रसाद कृत स्कंदगुप्त नाटक से उद्धृत है। हूणों के आक्रमण से आर्यावर्त संकट में है। मालव नरेश बंधुवर्मा सहित परिवार के सभी लोग राष्ट्र रक्षार्थ वीरगति पा चुके है। बंधुवर्मा की बहन देवसेना स्कन्दगुप्त से प्रेम करती थी लेकिन स्कन्दगुप्त का रूझान विजया के प्रति था।
नाटक में कथानक मोङ पर स्कन्दगुप्त स्वयं देवसेना से प्रणय निवेदन करता है किंतु तब देवसेना कहती है- इस जन्म के देवता और उस जन्म के प्राप्य क्षमा! और वह वृद्ध पर्णदत्त के साथ आश्रम में गाना गाकर भिक्षावृत्ति से जीवन-निर्वाह करती है। उधर स्कन्दगुप्त आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतधारण कर लेता है।
आह! वेदना मिली विदाई!
मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई।
छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थीं-
नीरवता अनंत अँगङाई।
श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु-छाया में,
पथिक उनींदी श्रुति में किसने-
यह विहाग की तान उठाई।
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कबकी।
मेरी आशा आह! बावली,
तूने खो दी सकल कमाई।
चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर,
उससे हारी-होङ लगाई।
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इससे मन की लाज गँवाई।
गीत की व्याख्याः-
देवसेना इस गीत में कह रही है कि आज मैं वेदना से भरे इस हृदय से सुखद जीवन की कल्पनाओं से विदाई ले रही हूँ। स्कन्दगुप्त के प्रेम में मेरी अभिलाषा रूपी प्राप्त भिक्षा को वापस भिक्षा के रूप में ही लौटा रही हूँ। जीवन के अंतिम पङाव पर पहुँचते-पहुँचते देवसेना थक चुकी है। थकान में पसीने की बूँदों के साथ ही निराश जीवन गाथा के कारण आँखों से आँसू भी गिर रहे हैं। देवसेना कहती है कि मेरे इस जीवन रूपी यात्रा में सदैव नीरवता ही रही, जीवन में हमेशा तनहाइयाँ आलस करती रहती थी।
जिस प्रकार कोई यात्री दिनभर की यात्रा से थक कर साँझ को जंगल के किसी पेङ तले सुखद सपनों को देखता हुआ विश्राम करता है उसी प्रकार मेरे जीवन रूपी यात्रा का अंतिम पङाव घटित हो रहा था, ऐसे समय में अर्द्धरात्रि को गाया जाने वाला विहाग राग गाने लगे तो यात्री को अच्छा नहीं लगेगा, देवसेना को भी इस समय स्कन्दगुप्त का प्रणय निवेदन अच्छा नहीं लगा।
देवसेना कहती हैं मेरी यौवनावस्था में सभी लोगों की प्यासी नजर मेरे तन को पाने मुझ पर गङी रहती थी और मैं हमेशा स्वयं को बचाए रखती थी क्योंकि आशा अमर धन होती है और स्कन्दगुप्त की आशा लगाए पूरी जिंदगी बीत गई वह यौवन रूपी कमाई अब मैं खो चुकी हूँ।
मेरा जीवन रूपी रथ तो अब प्रलय की राह पर चल रहा है। मैं अपने कमजोर कदमों से व्यर्थ की इस प्रलय से आगे निकलने की स्पर्धा कर रही हूँ। वस्तुतः अब भी मेरी ही हार है। अन्त में वह वेदना और निराशा से भरे वचनों में विश्व से कहती है कि इस प्रेम रूपी धरोहर को लौटा लो। मुझमें थति को सँभालने का साहस नहीं है। स्कन्दगुप्त के निष्फल प्रणय-व्यापार में मैंने लाज भी गँवा दी है।
काव्यगत सौन्दर्यः
✔️ ’आह! वेदना मिली विदाई’- भावातिरेक में विस्मयादि बोधक चिह्न के प्रयोग से वीप्सा नामक शब्दालंकार है।
✅ मधुकरियों की भीख- रूपक अलंकार।
✔️ छल-छल- पुरुक्तिप्रकाश अलंकार।
✅ लेती थी नीरवता अनंत अंगङाई- मानवीकरण अलंकार
✔️ ’जीवन रथ’ में रूपक अलंकार है।
✅ श्रमित स्वप्न-तत्सम शब्दों में अनुप्रास अलंकार।
✔️ प्रलय चल रहा अपने पथ पर- मानवीकरण अलंकार।
✅ हारी होङ- छेकानुप्रास अलंकार।
✔️ गीत में देवसेना की निराशा व वेदना का भावमय चित्रण किया गया है।
✅ भाषा तत्सम शब्दावली युक्त सुसंस्कृत एवं परिष्कृत रूप में है। जिसमें लाक्षणिकता अन्यतमा विशेषता है।
✔️ पंक्तियों में संगीतात्मकता अर्थात् लयता है।
✅ भाषा में प्रसाद गुण एवं शैली मं पाँचाली रीति है।
✔️ रस के रूप में वियोग शृंगार का आधिपत्य है।
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Apki posts bhot achi hoti h or is se bhot help bhi hoti h thaxx for my help
जी धन्यवाद
Thank you for giving best explanation
धन्यवाद
बहुत बहुत धन्यवाद… आप जैसे हिन्दी सेवक के कारण ही आज मातृभाषा की उन्नति संभव है।
अपार स्नेह..
Thanks sir
Very nice. G
Very very nice sir
Thanks
बेस्ट व्याख्या
बहुत ही लाभदायक है