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पथिक कविता – रामनरेश त्रिपाठी – सारांश || हिंदी साहित्य

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:1st Jun, 2022| Comments: 0

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आज एक आर्टिकल में रामनरेश त्रिपाठी की चर्चित कविता पथिक (Pathik kavita) का महत्त्वपूर्ण सारांश दिया गया है ,जो आपकी परीक्षा के लिए उपयोगी है ।

रामनरेश त्रिपाठी

Table of Contents

  • रामनरेश त्रिपाठी
  • (पथिक)
    • भावार्थ(पथिक कविता) –
    • भावार्थ(पथिक कविता) –
    • भावार्थ (पथिक कविता)-
    • भावार्थ(पथिक कविता) –

(पथिक)

प्रतिक्षण नूतन वेश बनाकर रंग-बिरंग निराला।
रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिद-माला।
नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है।
घन पर बैठ, बीच में बिचरूँ यही चाहता मन है।।
रत्नाकर गर्जन करता है, मलयानिल बहता है।
हरदम यह हौसला हृदय में प्रिये! भरा रहता है।
इस विशाल, विस्तृत, महिमामय रत्नाकर के घर के –
कोने-कोने में लहरों पर बैठ फिरूँ जी भर के।।

भावार्थ(पथिक कविता) –

पथिक कह रहा है कि आकाश में बादलों के समूह को देखकर ऐसा लगता है कि मानो बादलों का समूह प्रति क्षण नया वेश बनाकर रंग-बिरंगे और निराले रूप में सूर्य के समाने नाच रहा हो। नीचे मनोहर नीला सागर लहरा रहा है और ऊपर नीला आकाश है। ऐसे मनमोहक दृश्य के बीच मेरा मन चाहता है कि मैं भी बादलों के बीच बैठकर आनन्द विहार करूँ। कवि कहता है कि पथिक सागर की गर्जन और बहती हुई मलयानिल को लक्ष्य कर कहता है कि मेरे सामने खङा सागर गर्जन कर रहा है और मलय पर्वत से निकलकर बहने वाली मन्द-सुगन्ध हवा बह रही है।

पथिक कहता है कि हे प्रिय इन्हें देखकर मेरे हृदय में यह उत्साह हमेशा भरा रहता है कि मैं इस विशाल विस्तृत और महान सागर रूपी घर के कोने-कोने में जाऊँ और इसकी लहरों में बैठकर जी भर कर इसमें घूमूँ।

निकल रहा है जलनिधि-तल पर दिनकर-बिंब अधूरा।
कमला के कंचन-मंदिर का मानो कांत कँगूरा।
लाने को निज पुण्य-भूमि पर लक्ष्मी की असवारी।
रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सङक अति प्यारी।।
निर्भय, दृढ़, गंभीर भाव से गरज रहा सागर है।
लहरों पर लहरों का आना सुन्दर, अति सुन्दर है।
कहो यहाँ से बढ़कर सुख क्या पा सकता है प्राणी ?
अनुभव करो हृदय से, हे अनुराग-भरी कल्याणी।।

भावार्थ(पथिक कविता) –

पथिक कहने लगता है कि देखो सामने सागर तल पर निकलते हुए सूर्य की अधूरी प्रतिच्छाया उभर रही है अर्थात् आधा सूर्य सागर के तल पर है और आधा सूर्य सागर की ओअ में है। इसके इस रूप को देखकर ऐसा लग रहा है कि मानो यह लक्ष्मी के सुनहरे मन्दिर का चमकता हुआ सुन्दर कँगूरा है। अर्थात् समुद्र लक्ष्मी का सुन्दर महल है और चमकता हुआ सूर्य उसका उज्ज्वल कँगूरा है। इसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो लक्ष्मी की सवारी को इस पुण्य-भूमि पर लाने के लिए स्वयं सागर रूपी देवता ने बहुत ही सुन्दर सोने के मार्ग का निर्माण कर दि या हो।

आगे पथिक कहता है कि देखो! सामने सागर निडर, स्थिर और गंभीर भाव से पूरित होकर गर्जना कर रहा है। वायु के प्रवाह से एक लहर के पीछे दूसरी लहर के आने के क्रम का दृश्य अतिमनोरम दिखाई पङ रहा है। पथिक अपनी प्रिया को सम्बोधित करता है कि हे प्रेम रूपी कल्याणी! अब तुम संसार के सौन्दर्य को अपने हृदय में अनुभव करके बताओ कि इस संसार में इससे बढ़कर भी कहीं क्या कोई प्राणी सुख पा सकता है? अर्थात् नहीं! क्योंकि इस संसार में प्राकृतिक सुख से बढ़कर और दूसरा बङा सुख नहीं है।

जब गंभीर तम अर्द्ध-निशा में जग को ढक लेता है।
अंतरिक्ष की छत पर तारों को छिटका देता है।
सस्मित-वदन जगत का स्वामी मृदु गति से आता है।
तट पर खङा गगन-गंगा के मधुर गीत गाता है।।
उससे भी विमुग्ध हो नभ में चंद्र विहँस देता है।
वृक्ष विविध पत्तों-पुष्पों से तन को सज लेता है।
पक्षी हर्ष सँभाल न सकते मुग्ध चहक उठते हैं।
फूल साँस लेकर सुख की सानंद महक उठते हैं।।

भावार्थ (पथिक कविता)-

जब अर्द्ध रात्रि में अँधेरा चारों ओर से घनघोर रूप में छा जाता है और संसार को पूरी तरह से ढक लेता है। ऐसी स्थिति में सूर्य आकाश की छत पर जगमग करते हुए तारों को छिटका देता है और तब इस संसार का स्वामी सूर्य मुस्कराते हुए मुख से धीरे-धीरे आता है और आकाश गंगा के किनारे पर खङा होकर अर्थात् आकाश गंगा के सौन्दर्य को देखकर मनभावन गीत गाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि रात्रि काल में सूर्य छिप-छिपकर कर आकाश-गंगा के सौन्दर्य का पान करता है।

इसी सूर्य के आगमन से आकाश में चन्द्रमा भी विमुग्ध होकर हँसने लगता है। वृक्ष भी तरह-तरह के पत्तों और फूलों से अपने शरीर को सजा कर खङे हो जाते हैं। अर्थात् सूर्योदय पर वृक्ष भी सज्जित से हो जाते हैं। इस काल में अपनी खुशी को संभाल नहीं पाते हैं और प्रसन्न होकर चहकने लगते हैं। फूल भी सूर्याेदय से सुख की सांस का अनुभव करके आनन्दित होकर महकने लगते हैं। कहने का भाव यह है कि सूर्याेदय काल में प्रकृति में भी परिवर्तन आते हैं इसलिए सभी प्रसन्नता से पूरित हो उठते हैं।

वन, उपवन, गिरि, सानु, कुंज में मेघ बरस पङते हैं।
मेरा आत्म-प्रलय होता है, नयन नीर झङते हैं।
पढ़ो लहर, तट, तृण, तरु, गिरि, नभ, किरन, जलद पर प्यारी।
लिखी हुई यह मधुर कहानी विश्व-विमोहनहारी।।
कैसी मधुर मनोहर उज्ज्वल है यह प्रेम-कहानी।
जी में है अक्षर बन इसके बनूँ विश्व की बानी।
स्थिर, पवित्र, आनंद-प्रवाहित, सदा शांति सुखकर है।
अहा! प्रेम का राज्य परम सुंदर, अतिशय सुन्दर है।।

भावार्थ(पथिक कविता) –

पथिक कहता है कि प्रकृति में चल रही प्रेम लीला को देखकर मेघ भी प्रेम से उन्मादित हो जाते हैं और उनसे रहा नहीं जाता है। वे अपने प्रेमोन्माद को प्रकट करने के लिए वनों, उपवनों, पहाङों, समतल भू, कुंजों पर बरस पङते हैं। इस प्रेम लीला के दृश्य को देखकर स्वयं पथिक भी भाव-विभोर हो जाता है और उसकी आँखों से अश्रु धारा प्रवाहित होने लगती है।

पथिक कहता है कि हे प्रिय! प्रकृति के इस मधुर वातावरण में चारों ओर एक प्रेम-कहानी चल रही है। इसे तुम सागर की लहरों में, सागर के तट पर, तिनको में, पेङों में, पहाङों में, तारे से सजे आकाश में, सूर्य की किरणों में और बरसते हुए बादलों में पढ़ो। यह प्रेम-कहानी सारे संसार को मोहित करने वाली के रूप में छायी हुई है। इसे तुम अनुभव करो।

पथिक आगे कहता है कि सूरज और सागर की यह प्रेम कहानी कितनी मधुर, मनोरम और उज्ज्वल है? इसे देखकर मेरा मन करता है कि इसे अपने शब्दों में व्यक्त करूँ और उस प्रेमपूर्ण वाणी को सारा संसार सुने। प्रकृति में हमेशा स्थिर, पावन और आनन्द को प्रवाहित करने वाली सुखकारी शान्ति छायी रहती है। अहा! प्रकृति प्रेम का वह राज्य कितना सुन्दर है?

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