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चन्द्रगहना से लौटती बेर || केदारनाथ अग्रवाल || सम्पूर्ण व्याख्या

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:21st May, 2022| Comments: 0

आज की इस पोस्ट में हम केदारनाथ अग्रवाल द्वारा रचित ‘चन्द्रगहना से लौटती बेर‘(Chandragahana se lautate ber) की सम्पूर्ण व्याख्या विस्तार से पढ़ेंगे तथा इस कविता के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करेगें ।

चन्द्रगहना से लौटती बेर

Table of Contents

  • चन्द्रगहना से लौटती बेर
    • व्याख्या:
    • व्याख्या:
    • व्याख्या:
    • व्याख्या :(चन्द्रगहना से लौटती बेर)
    • व्याख्या :

रचना परिचय- प्रस्तुत कविता चन्द्रगहना नामक स्थान से लौटते समय कवि ने जिन खेत-खलियानों, किसानों तथा खेतिहर मजदूरो को देखा, उनका चित्रण करते हुए वहाँ के प्राकृतिक परिवेश को देखकर उनकी भाव-विह्वलता व्यक्त की है। कवि स्वयं खेत की मेङ पर बैठा, खेत में लहराती फसलों को तथा सुदूर तक फैली चित्रकूट की पहाङियों तथा उन पर उगे वृ़क्षों को निहारता रहा। इस प्रकार प्रस्तुत कविता में प्रकृति और संस्कृति का मनोरम चित्रण किया गया है।

देख आया चन्द्र गहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेङ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सजकर खङा है।
पास ही मिलकर उगी है।
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नीले फूले फल को सिर पर चढ़ाकर
कह रही है जो छुए यह,
दूँ हृदय का दान उसको।

व्याख्या:

हरे-भरे ग्रामीण परिवेश का चित्रण करते हुए कवि केदारनाथ कहते हैं कि मैं चन्द्रगहना नामक स्थान को देखकर लौट आया हूँ। अब मैं खेत की मेङ पर अकेला बैठकर यहाँ के प्राकृतिक दृश्य देखता हूँ। इसी प्रसंग में कवि कहता है कि यहाँ खेत पर एक बालिश्त के बराबर चने का हरा, ठिगना अर्थात् छोटे कद का पौधा है जिसने छोटे-से सिर पर गुलाबी रंग की पगङी बाँधे खङा है अर्थात् चने के पौधे के ऊपर छोटा सा गुलाबी रंग का फूल खिल रहा है और उस रूपी पगङी को पहनकर वह सजकर खङा है।

खेत में बीच में अलसी का पौधा है, वह हठीली नायिका की तरह है, उसका शरीर पतला और कमर लचकदार है अर्थात् अलसी का पौधा पतला एवं लोचदार है तथा उसके सिर पर नीला फूल खिला हुआ है, मानो वह उस नीले फूल को सिर पर चढ़ाकर कह रही जो इस फूल का स्पर्श करे, उसे मैं अपना हृदय दान कर दूँगी। आशय यह है कि अलसी का पौधा कृशगात्री नायिका के समान अलंकृत है तथा स्पर्श करने के लिए अपने प्रेमी को आकृष्ट कर रही है।

और सरसों की न पूछो-
हो गई सबसे सयानी,
हाथ पील कर लिये है
ब्याह-मण्डप में पधारी
फाग माता मास फागुन
आ गया है आज जैसे
देखता हूँ में स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है।
इस विजन में,
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है
और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रही इसमें लहरियाँ
नील तल में जो उगी है घाँस भूरी
ले रही है वह भी लहरियाँ।

व्याख्या:

कवि वर्णन करते हुए कहते है कि खेत में उगी हुई सरसों अब काफी बङी हो गयी है और उस पर पीले फूल आ गये है। सरसों पर युवती का आरोप करते हुए कवि कहता है कि सरसों अब समझदार युवती हो गयी है, अब उसने विवाह के लिए हाथ पीले कर लिए है और वह विवाह-मण्डप में आ गयी है। फाल्गुन का पास मानों फाग गाता हुआ आ गया है; उससे कवि को कुछ-कुछ आश्चर्य भी हो रहा है कि क्या खेत में कोई स्वयंवर हो रहा है ? सरसों के खेती की पीली आभा के रूप में प्रकृति का प्रेम से भरा हुआ आँचल हिल रहा है, पीली सरसों के खेत लहरा रहे है। इस तरह इस एकान्त स्थान का प्रेम का प्रसार हो रहा है।

कवि कहते है कि व्यापारिक नगर से दूर इस गाँव के खेतों में प्रेम-भाव की प्रिय भूमि अधिक उपजाऊ है, यहाँ प्रेम-भाव का व्यवहार अधिक दिखाई देता है। उस खेत या गाँव के पैरों तले अर्थात् नीचे एक पोखर है, उसमें जल की छोटी-छोटी लहरें उठ रही है। उस पोखर के नीचे तले में जो घास उगी हुई है, वह भूरी है तथा वह भी छोटी-छोटी लहरों के साथ हिल-डुल रही है अर्थात् ग्रामीण परिवेश का प्राकृतिक वातावरण अतीव मनोरम है।

एक चाँदी का बङा का गोल खम्भा
आँख को है चकमकाता।
है कई पत्थर किनारे
पी रहे चुपचाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!
चुप खङा बगुला डुबाए टाँग जल में
देखते ही मीन चंचल
ध्यान-निद्रा त्यागता है,
चट दबाकर चोंच में
नीचे गले में डालता है।
एक काले माथ वाली चतुर चिङिया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पङती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबाकर
दूर उङती है गगन में !

व्याख्या:

कवि गाँव के पास पोखर आदि प्राकृतिक दृश्यों एवं बगुला आदि पक्षियों को देखकर कहता है गाँव के नीचे एक बङा पोखर है। उसके किनारे पर चाँदी का सा एक बङा गोल खम्भा है जो कि देखने पर आँखों में चकाचैंध उत्पन्न करता है। उस पोखर के किनारे कई पत्थर दीवार की तरह रखे हुए है जो पोखर का पानी चुपचाप पी रहे है। वे लगातार पानी पी रहे है, न जाने उनकी प्यास कब शान्त होगी ? आशय यह है कि पोखर पर पत्थर की दीवार जल में डूबी हुई है, निरन्तर जलमग्न रहने से वे पत्थर मानों लगातार पानी पी रहे है। फिर भी उनकी प्यास नहीं बुझ रही है, यह आश्चर्य की बात है। उस पोखर में एक बगुला अपनी टाँग पानी में डुबाए चुपचाप खङा है।

जब वह चंचल मछली को देखता है तो अपनी ध्यान-निद्रा को त्याग कर तुरन्त उस मछली को चोंच में दबाकर अपने गले में डालता है अर्थात् उसका आहार करता है। वहीं पर एक काले माथे वाली चालाक चिङिया अपने सफेद पंखों के झपाटे मारकर जल से भरे पोखर के मध्य भाग पर टूट पङती है अर्थात् शीघ्रता से झपट्टा मारकर आक्रमण करती है और यह चंचल सफेद छोटी मछली को अपनी चोंच में दबाकर दूर आकाश में उङ जाती है। आशय यह है कि गाँव के पोखर पर शिकारी पक्षी अपने आहार के रूप में मछलियों को पकङ लेते है।

औ’ यहीं से
भूमि ऊँची है जहाँ से-
रेल की पटरी गई है।
ट्रेन का टाईम नहीं है।
मैं यहाँ स्वछन्द हूँ,
जाना नहीं है।
चित्रकूट की अनगढ़ चैङी
कम ऊँची-ऊँची पहाङियाँ
दूर दिशाओं तक फैली है।
बाँझ भूमि पर
इधर-उधर रींवा के पेङ
काँटेदार कुरूप खङे है।

व्याख्या :(चन्द्रगहना से लौटती बेर)

कवि वर्णन करते है कि गाँव के उस पोखर के पास से ही भूमि कुछ ऊँची है, उस भूमि पर से रेल की पटरी गई है अर्थात् रेल-लाइन बिछी हुई है। रेलगाङी के आने-जाने का समय निश्चित नहीं है और मुझे भी कहीं नहीं जाना है, मैं स्वतंत्र होकर यहाँ प्राकृतिक सुषमा देख रहा हूँ। इस स्थान के पास में चित्रकूट की अनगढ़, चैङी व कुछ कम ऊँची पहाङियाँ दूर तक फैली हुई है। आशय यह है कि पास का क्षेत्र छोटी-छोटी पहाङियों से घिरा हुआ है और उसकी बंजर भूमि पर जो काँटेदार एवं कुरुप पेङ है, वहाँ पर रींवा नामक काँटेदार पेङ सर्वत्र दिखाई देते है। कवि बताना चाहता है कि चित्रकूट के आस-पास की पहाङियों पर काँटेदार झाङियाँ एवं पेङ है तथा वह क्षेत्र उपजाऊ है।

सुन पङता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टें टें;
सुन पङता है
वनस्थली का हृदय चीरता
उठता-गिरता,
सारस का स्वर
टिरटों, टिरटों;
मन होता है-
उङ जाऊँ मैं
पर फैलाए सारस के संग
जहाँ जुगुल जोङी रहती है
हरे खेत में,
सच्ची प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे-चुप्पे।

व्याख्या :

कवि कहता है कि चित्रकूट के समीप की पहाङियों पर जब तोते का मीठा-मीठा रस टपकाता हुआ, टें टें टें टें का स्वर सुनाई देता है तो अतीव आनन्द मिलता है। इसी प्रकार जब वन-भाग की हरियाली को चीरता हुआ सारस का टिरटों-टिरटों स्वर उठता-गिरता अर्थात् कभी मन्द और कभी प्रखर सुनाई देता है तो मन होता है कि उस सारस के साथ मैं भी कभी मुक्त गगन में उङ जाऊँ और प्रत्येक पानी लगते खेत में सारस की जुगल-जोङी रहती है उस सारस की जोङी की सच्ची प्रेम भरी बातें चुपचात सुनता रहूँ।

चन्द्रगहना से लौटती बेर

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