हिंदी की बोलियाँ व उनका वर्गीकरण || Hindi Sahitya

आज की पोस्ट में हम हिंदी की बोलियाँ व उनका वर्गीकरण के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे ,आप इसे अच्छे से तैयार करें |

हिन्दी की बोलियाँ- वर्गीकरण तथा क्षेत्र

हिन्दी की पाँच उपभाषाएँ हैं-

  • पश्चिमी हिन्दी,
  • पूर्वी हिन्दी
  • राजस्थानी,
  • पहाङी
  • बिहारी

⇒ ’पश्चिमी हिन्दी’ उपभाषा का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है।
⇐ पश्चिमी हिन्दी उपभाषा के अन्तर्गत कौरवी, ब्रज, हरियाणी, बुन्देली और कन्नौजी बोलियों की गणना की जाती है।
⇒ ’दक्खिनी’ पश्चिमी हिन्दी उपभाषा की वह बोली है, जो पश्चिमी क्षेत्र से बाहर मुम्बई, चेन्नई और हैदराबाद के आसपास बोली जाती है।
⇐ हरियाणी, कौरवी और दक्खिनी बोलियाँ आकारबहुला है।
⇒ ब्रज, बुन्देली और कन्नौजी ओकारबहुला बोलियाँ है।

⇐ हरियाणी, कौरवी और दक्खिनी बोलियों पर ’पंजाबी’ का प्रभाव अधिक है।
⇒ भाषा विज्ञान की दृष्टि से बुन्देली और कन्नौजी ’ब्रजभाषा’ की ही उपबोलियाँ है।
⇐ ’पूर्वी हिन्दी’ उपभाषा के अन्तर्गत अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी बोलियाँ आती है।

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⇒ ’बिहारी हिन्दी’ के अन्तर्गत बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तरप्रदेश के भूभाग में बोली जाने वाली उपभाषाएँ आती है; जैसे- भोजपुरी, मगही और मैथिली

⇒ राजस्थानी हिन्दी के अन्तर्गत मारवाङी, मेवाती, मेवाङी हाङौती, जयपुर (शेखावटी) आदि बोलियों की गणना की जाती है।
⇐ हिन्दी साहित्य के आदिकाल का अधिकतम साहित्य राजस्थान से प्राप्त हुआ है।
⇒ डाॅ. सुनीतिकुमार चटर्जी ने ’भोली’ को राजस्थानी उपभाषा की बोली माना है।
⇐ वस्तुतः आदिभीली (अनार्य) राजस्थानी और गुजराती का मिश्रित रूप है।

⇒ राजस्थानी हिन्दी की बोलियों में सर्वाधिक साहित्य ’मारवाङी’ में लिखा गया है।
⇐ जयपुरी को ’ढूँढ़ाणी’ भी कहते है।
⇒ ’पहाङी हिन्दी’ के तीन उपरूप हैं- पश्चिमी, पूर्वी और मध्य।
⇐ पश्चिमी पहाङी के अन्तर्गत हिमाचल प्रदेश की अनेक बोलियों की गणना की जाती है।
⇒ पूर्वी पहाङी ही ’नेपाली’ है, जिसे भारतीय संविधान की अष्टम् सूची में स्थान प्राप्त है।
⇐ मध्य पहाङी की दो उपभाषाएँ हैं- ’कुमाउँनी’ और ’गढ़वाली’।

कौरवी

⇒ बीम्स, ग्रियर्सन, सुनीतिकुमार चटर्जी, धीरेन्द्र वर्मा आदि अधिकांश भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार खङी बोली (मानक हिन्दी) का आधार ’कौरवी’ है।
⇐ खङी बोली (मानक हिन्दी) का आधार कोलबुक ने ’कन्नौजी’, इस्टविक तथा मुहम्मद हुसेन ’आजाद’ ने ’ब्रजभाषा’ और मसऊद हसन खाँ ने ’हरियाणी’ को माना है।
⇒ ’कौरवी’ रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फर-नगर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी भाग, अम्बाला (पूर्वी भाग) और पटियाला के पूर्वी भाग में बोली जाती है।
⇐ ’कौरवी’ का क्षेत्र हरियाणी, ब्रज और पहाङी बोलियों के बीच में पङता है।

⇒ ’कौरवी’ के क्षेत्र को पहले कुरु जनपद कहते थे। इसी आधार पर राहुल सांकृत्यायन ने इस बोली को ’कौरवी’ नाम दिया था।
⇐ ’कौरवी’ में लोकगीत और लोकविताएँ मिलती हैं, परन्तु उच्च साहित्य मानक हिन्दी में ही मिलता है।
⇒ इस बोली के आदि अक्षरों में ’स्वरलोप’ होता है; जैसे गूंठा (अंगूठा), साढ़ (असाढ़), ठाना (उठाना), लाज (इलाज), कट्ठा (इकट्ठा), खसबू (खूश्बू), तम (तुम) इत्यादि।
⇐ इसमें दीर्घ स्वरों के बाद भी व्यंजन का द्वित्व रूप होता है; जैसे गाड्डी (गाङी), बेट्टा (बेटा), सज्जा (सजा) आदि।
⇒ ’कौरवी’ में मूर्धनय ध्वनियों की अधिकता है; जैसे- देणा, लेणा, चपङासी, कुङकी (कुर्की) आदि।

हरियाणी

⇒ हरियाणी या हरियाणवी का विकास उत्तरी शौरसेनी अपभ्रंश के पश्चिमी रूप से हुआ है।
⇐ ’हरियाणी’ खङी बोली, अहीरवाटी, मारवाङी से घिरी हुई बोली है। कुछ लोग इसे खङी बोली का पंजाबी से प्रभावित रूप मानते हैं।
⇒ हरियाणी का क्षेत्र सामान्यतः हिसार, रोहतक करनाल, पटियाला, नाभा, जींद और दिल्ली प्रदेश का सम्मिलित भूभाग है हरियाणा और वहाँ की बोली को हरियाणी कहते है।

⇐ ग्रियर्सन ने हरियाणी को ’बाँगरू’ नाम दिया। इस क्षेत्र में जाटों का बाहुल्य हैं, अतः इस बोली को ’जादू’ भी कहते हैं।
⇒ डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा ने हरियाणी को स्वतन्त्र बोली न मानकर खङी बोली का ही एक उपरूप माना है।
⇐ हरियाणी में लोकसाहित्य पर्याप्त है, परन्तु लिखित साहित्य का अभाव सा है।

बुन्देली

⇒ उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश की सीमा के झाँसी, जालौन, हमीरपुर, बाँदा, छतरपुर, सागर, ग्वालियर, भोपाल, ओरछा, नरसिंहपुर, सिवनी, होशंगाबाद तथा उसके निकटवर्ती भूभाग को बुन्देलखण्ड कहते हैं तथा इसकी बोली को बुन्देलखण्डी या बुन्देली कहते है।
⇐ बुन्देला राजपूतों के आधिपत्य के कारण इस क्षेत्र का नाम बुन्देलखण्ड पङा।
⇒ ’लालकवि’ ने छत्रसाल बुन्देला की आज्ञा से ’बुन्देली’ में ’छत्रप्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना की।
⇐ पद्माकर और केशवदास का सम्बन्ध बुन्देलखण्ड से रहा है, परन्तु उनके ग्रन्थों की भाषा बुन्देली प्रभावित ’ब्रज’ ही रही।

⇒ बुन्देली में लोकसाहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं, जिसमें ’ईशुरी के फाग’ बहुत प्रसिद्ध है।
⇐ हिन्दी प्रदेश की प्रसिद्ध लोकगाथा ’आल्हा’ मूलतः बुन्देली की एक उपबोली ’बनाफरी’ में लिखा गया था।
⇒ डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार ’बुन्देली’ कन्नौजी के समान ब्रज की एक उपबोली है।

⇐ बुन्देली में दस स्वरों (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ) के अनुनासिक रूप भी मिलते हैं; जैसे- ऊँठा (अगूँठा), न्यौ (नाखून) आदि।
⇒ व्यंजनों में महाप्राण से अल्पप्राण की प्रवृत्ति मिलती है; जैसे- जीब (जीभ), दूद (दूध), हाँत (हाथ) आदि।

कन्नौजी

⇒ कन्नौजी शब्द संस्कृत ’कान्यकुब्ज’ से विकसित है; कान्यकुब्ज- कण्णउज्ज- कन्नौज।
⇐ कन्नौजी जनपद का पुराना नाम पांचाल था। कन्नौज ही ’कन्नौजी’ बोली का केन्द्र है।
⇒ ’कन्नौजी’ ब्रजभाषा के इतनी अधिक समान है कि इसे ब्रजभाषा की ही एक उपबोली माना जाता है।
⇐ उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर, हरदोई, कन्नौज, फर्रुखाबाद, कानपुर, इटावा और पीलीभीत में कन्नौजी बोली जाती है।
⇒ कन्नौजी का शुद्ध रूप कन्नौज, फर्रुखाबाद, इटावा औरैया में व्यवहृत होता है। अन्य क्षेत्रों की कन्नौजी अवधी, ब्रज, बुंदेली आदि से प्रभावित है।

⇐ डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा ने कन्नौजी को ब्रजभाषा का ही एक उपरूप माना है।
⇒ कन्नौजी में स्वयमध्य ’ह’ के लोप की प्रवृत्ति पाई जाती है, जैसे- करहु- करउ, कहिहौं-कहृîौं आदि।
⇐ ब्रज के अन्तिम ’यो’ तथा ’वो’ के स्थान पर कन्नौजी में अधिकांश स्थलों पर ’ओ’ मिलता है; जैसे- गयो-गओ, भयो-भओ, खायो-खाओ आदि।
⇒ कन्नौजी में ’वा’ तथा ’इया’ प्रत्ययों का प्रयोग बहुत होता है- बच्चा-बच्चवा या बचवा, लङका-लरिकवा, बाप-बपुआ, छोकरी-छोकरिया आदि।

बघेली

⇒ डाॅ. बाबूराम सक्सेना ने ’बघेली’ को ’अवधी’ की ही उपबोली माना है।
⇐ ’बघेली’ का उद्भव अर्धमागधी अपभ्रंश के ही एक क्षेत्रीय रूप से हुआ है।
⇒ रीवा तथा आसपास का क्षेत्र बघेल राजपूतों के वर्चस्व के कारण बघेलीखण्ड कहलाया और वहाँ की बोली ’बघेलखंडी’ या ’बघेली’ कहलाई।

⇐ बघेली को ’दक्षिणी अवधी’ भी कहते हैं। इस बोली का क्षेत्र रीवा है। अतः इसे ’रीवाई’ भी कहा जाता है।
⇒ यह बोली मध्य प्रदेश के दमोह, जबलपुर, माॅडला, बालाघाट, उत्तर प्रदेश के बाँदा, फतेहपुर, हमीरपुर इत्यादि जिलों के कुछ भागों में प्रचलित है।

⇒ बघेली क्षेत्र के उत्तर में अवधी तथा भोजपुरी, पुरब में छत्तीसगढ़ी, दक्षिण में मराठी तथा दक्षिणी-पश्चिम में बुन्देली क्षेत्र पङते हैं।
⇐ बघेली बोली लोकसाहित्य सम्पन्न है, परन्तु साहित्य का अभाव है।
⇒ ’तिरहारी’, ’जुङार’, ’गहोरा’, ’बघेली’, की मुख्य बोलियाँ हैं।
⇐ बघेली के अन्तर्गत सर्वनामों में ’मुझे’ के स्थान पर म्वाँ, मौहीं; ’तुझे’ के स्थान पर त्वाँ, तौही; विशेषण में ’हा’ प्रत्यय लगता है; जैसे- मरकहा, गंजहा, नीकहा, कटहा आदि।
⇒ बघेली में मोर का म्वार, तोर का त्वार, पेट का प्याट, देता का द्यात रूप होता है।

छत्तीसगढ़ी

⇒ छत्तीसगढ़ की बोली ’छत्तीसगढ़ी’ कहलाती है। इसे ’लरिया’ या ’खल्टाही’ भी कहते है।
⇐ ’छत्तीसगढ़ी’ बोली का विकास अर्धमागधी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप में हुआ है।
⇒ छत्तीसगढ़ी की मुख्य उपबोलियाँ-सरगुजिया, सदरी, बैगानी, बिंझवाली आदि है।

⇐ इस बोली का क्षेत्र सरगुजा, कोरिया, विलासपुर, रायगढ, खैरागढ़, रायपुर, दुर्ग, नन्दगाँव, काँकेर आदि है।
⇒ छत्तीसगढ़ी के कुछ शब्दों में महाप्राणीकरण की प्रवृत्ति है, जैसे- इलाका-इलाखा।
⇐ इसमें अघोषीकरण पाया जाता है; जैसे- शराब-शराप, बंदगी-बंदगी, खराब-खराप आदि।
⇒ छत्तीसगढ़ी में ’स’ के स्थान पर ’छ’ तथा ’छ’ के स्थान पर ’स’ बोलने की प्रवृत्ति है; जैसे- सीतापुर-छीतापुर, छेना-सेना आदि।

बिहारी हिन्दी

⇒ जाॅर्ज ग्रियर्सन ने भोजपुरी, मगही और मैथिली बोलियों को ’बिहारी’ हिन्दी उपभाषा कहा है।
⇐ बिहारी हिन्दी को दो भागों में ’पूर्वी बिहारी’ और ’पश्चिमी बिहारी’ में विभाजित किया जा सकता है।
⇒ पूर्वी बिहारी के अन्तर्गत ’मैथिली’ और ’मगही’ दो बोलियाँ है।

⇐ पश्चिमी बिहारी में मात्र ’भोजपुरी’ बोली है।
⇒ बिहारी हिन्दी का उद्भव मागधी अपभ्रंश से हुआ है।

भोजपुरी

⇒ बोली के अर्थ में ’भोजपुरी’ का सर्वप्रथम प्रयोग 1789 ई. में हुआ यह शब्द काशी के राजा चेतसिंह के सिपाहियों की बोली के लिए प्रयुक्त हुआ है।
बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी की बोलियों में ’भोजपुरी’ का प्रथम स्थान है।
⇒ बिहार राज्य का ’भोजपुर’ जनपद इस बोली का केन्द्र है।
⇐ भोजपुरी का अधिकांश भूभाग उत्तर प्रदेश में और कुछ भाग बिहार प्रांत में है।

⇒ उत्तरप्रदेश के वाराणसी, गाजीपुर, देवरिया, बलिया, आजमगढ़, महाराजगंज, मऊ, चंदौली, संत कबीरनगर, सोनभद्र, कुशीनगर के सम्पूर्ण जिले, जौनपुर, मिर्जापुर एवं बस्ती जिलों के पूर्वी भाग में भोजपुरी बोली जाती है।

⇐ बिहार प्रान्त के छपरा, सीवान, गोपालगंज, भोजपुर, भभुआ, रोहतास, सासाराम, मोतिहारी, पूर्वी चम्पारण, पश्चिमी चम्पारण इत्यादि जिलों तथा उनके आसपास के क्षेत्र में भोजपुरी बोली जाती है।
⇒ झारखण्ड राज्य के राँची और पलामू के कुछ भागों में भोजपुरी व्यवहृत होती है।
⇐ भोजपुरी में लोकगीतों की समृद्ध मौखिक परम्परा रही है।
⇒ लोककवि और नाटककार ’भिखारी ठाकुर’ ने ’बिदेसिया’ सहित बारह नाटकों की रचना की। इन्हें भोजपुरी व ’शेक्सपियर’ कहा जाता है।
⇐ महेन्द्र मिसिर के पूरबी लोकगीत, मुजरे और विवाह के विदाई गीत अत्यन्त लोकप्रिय हैं। ’’नदी नारे न जाओ श्याम पइंया परूँ’’ सदृश उनके कई गीत हिन्दी और भोजपुरी फिल्मों में व्यवहृत हुए है।

⇒ भारत के बाहर माॅरिशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, गुआना, फिजी आदि में भोजपुरी बोलने वालों की संख्या अच्छी खासी है।
मगही
⇐ ’मगही’ शब्द ’मागधी’ का विकसित रूप है। मगही या मागधी का अर्थ है- ’मगध की भाषा’, परन्तु आधुनिक मगही प्राचीन मगध तक ही सीमित नहीं है।
⇒ यह बोली बिहार राज्य के पटना, गया, मुंगेर, जहानाबाद, नालंदा, नवादा, जमुई, शेखपुरा, औरंगाबाद, लक्खीसराय, भागलपुर तथा झारखण्ड राज्य के पलामू, हजारीबाग तथा उसके निकटर्ती भूभाग में बोली जाती है।

⇐ मगही का परिनिष्ठित रूप ’गया’ जिले में व्यवहृत होता है।
⇒ पटना की मगही पर मैथिली, भोजपुरी तथा उर्दू का प्रभाव है।
⇐ दक्षिणी सीमा की मगही ओडिया से पश्चिमी सीमा की मगही ’भोजपुरी’ से और पूर्वी सीमा की ’बंगाली’ से प्रभावित है।
⇒ मगही में लोक साहित्य पर्याप्त है जिसमें ’गोपीचंद’ और ’लोरिक’ के लोकगीत प्रसिद्ध है।

मैथिली

⇒ मिथिला की बोली को ’मैथिली’ कहा जाता है। इसका उद्भव मागधी अपभ्रंश के मध्यवर्ती रूप से हुआ है।
⇐ भोजपुरी क्षेत्र के पूर्व में तथा मगध के उत्तर में ’मिथिला’ है और वहाँ की बोली ’मैथिली’ है।
⇒ मैथिली का क्षेत्र बिहार के उत्तरी भाग में पूर्वी चम्पारन, मुजफ्फरपुर, मुंगेर, भागलपुर, दरभंगा, पूर्णिया तथा उत्तरी संथाल परगना है। इसके अतिरिक्त यह माल्दह, दिनाजपुर, भागलपुर, तिरहुत सबडिवीजन की सीमा के पास नेपाल की तराई में भी बोली जाती है।

⇐ मैथिली की छह बोलियाँ हैं- उत्तरी मैथिली, दक्षिणी मैथिली, पूर्वी मैथिली, पश्चिमी मैथिली, छिकाछिकी तथा जोलहा बोली।
⇒ बिहारी हिन्दी की बोलियों में केवल ’मैथिली’ ही साहित्यिक दृष्टि से सम्पन्न है।
⇐ विद्यापति की पदावली की भाषा मैथिली है।

⇒ मैथिली साहित्य के प्राचीनकाल के गीतकारों में विद्यापति और गोविन्ददास मध्यकाल के नाटककारों में रणजीतलाल और जगत प्रकाश मल्ल, कीर्तनिया नाटक लिखने वालों में उमापति उपाध्याय, एकांकीकारों में शंकरदेव, संत कवियों में साहेब रामदास, कृष्णभक्त कवियों में मनबोध झा और आधुनिक काल के साहित्यकारांे में चंदा झा, तंत्रनाथ झा, हरिमोहन झा प्रसिद्ध है।

राजस्थानी हिन्दी

⇒ सर जाॅर्ज ग्रियर्सन ने राजस्थान की विभिन्न बोलियों को सामूहिक रूप से ’राजस्थानी हिन्दी’ कहा।
⇐ डाॅ. ग्रियर्सन ने राजस्थानी बोलियों को पाँच वर्गों में विभाजित किया- (1) पश्चिमी राजस्थानी
(2) उत्तरी पूर्वी राजस्थानी (3) मध्यूपर्वी राजस्थानी (4) दक्षिणपूर्वी राजस्थानी (5) दक्षिणी राजस्थानी।

मारवाङी

⇒ पश्चिमी राजस्थानी (मारवाङी) बोली का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के नागर रूप से हुआ है।
⇐ ’मारवाङी’ राजस्थान के जोधपुर, अजमेर, मेवाङ, सिरोही, बीकानेर, जैसलमेर, उदयपुर, चुरू, नागौर, पाली, जालौरा, बाङमेर जिलों में तथा पाकिस्तान के सिंध प्रान्त के पूर्वी भाग में बोली जाती है।
⇒ लोक साहित्य की दृष्टि से ’मारवाङी’ सम्पन्न उपभाषा है।

⇐ मेवाङी, सिरोही, बागङी, थली, शेखावटी आदि ’मारवाङी’ की प्रमुख उपबोलियाँ है।
⇒ मीराबाई के पद कहीं ’मारवाङी’ और कहीं ’ब्रजभाषा’ में है।
⇐ हिन्दी साहित्य के आदिकालीन ’वीरगाथा काव्य’ इसी उपभाषा में लिखे गए।
⇒ पुरानी मारवाङी को ही ’डिंगल’ कहा गया है।

जयपुरी

⇒ यह राजस्थान के पूर्वी भाग की बोली है। इसका केन्द्र जयपुर है और जयपुर का पुराना नाम ’ढूँढ़ाण’ है, इसलिए इस बोली को ’ढूँढ़ाणी’ भी कहते हैं।
⇐ ’जयुपरी’ बोली का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के उपनागर रूप से हुआ है।
⇒ जयपुरी की मुख्य उपबोलियाँ हैं- तोरावटी, काठँङा, चैरासी, अजमेरी और हाङौती।
⇐ ’हाङौती’ कोटा, बूँदी, बारन और झालावाङ में बोली जाती है।

मेवाती

⇒ मेवाती राजस्थानी के उत्तर-पूर्व की बोली है। इस पर ब्रजभाषा का प्रभाव है।
⇐ ’मेवाती’ नाम ’मेव’ जाति के इलाका ’मेवात’ के नाम पर पङा है।
⇒ मेवाती का क्षेत्र अलवर, गुङगाँव, भरतपुर तथा आस-पास है।
⇐ इसकी एक मिश्रित उपबोली ’अहीरवाटी’ है, जो गुङगाँव, दिल्ली, करनाल के पश्चिमी क्षेत्रों में बोली जाती है। इस पर हरियाणी का प्रभाव है।
⇒ मेवाती की अन्य उपबोलियाँ राठी, नहेर, कठर, गुजरी आदि है।

मालवी

⇒ दक्षिणी राजस्थानी की प्रतिनिधि बोली ’मालवी’ है।
⇐ उज्जैन के आसपास का क्षेत्र ’मालव’ या ’मालवा’ नाम से कई शताब्दियों से प्रसिद्ध रहा है। यहाँ की बोली की ’मालवी’ कहते है।
⇒ यह उज्जैन, इन्दौर, देवास, रतलाम, भोपाल, होशंगाबाद, परताबगढ़, गुना, नीमच, टांेक तथा आस-पास के क्षेत्र में व्यवहृत होती है।
⇐ ’मालवी’ बुन्देली और मारवाङी के बीच की स्थिति में है।
⇒ मालवी की मुख्य उपबोलियाँ-सोंडवाङी, राँगङी, पाटबी, रतलामी, आदि है।

कुमाउँनी

⇒ नैंनीताल, अल्मोङा एवं पिथौरागढ़ क्षेत्र का परम्परागत नाम कूर्मांचल है, जिसे अब ’कुमाऊँ’ कहते हैं तथा यहाँ की बोली को ’कुमाउँनी’।
⇐ कुमाँउनी पर दरद, खस, राजस्थानी, खङी बोली हिन्दी आदि के अतिरिक्त ’किरात’ ’भोट’ आदि तिब्बत-चीनी परिवार की भाषाओं का प्रभाव रहा है।
⇒ कुमाउँनी में प्राचीन साहित्य तो नहीं परन्तु आधुनिक काल में साहित्य सर्जन हो रहा है। लोक साहित्य की दृष्टि से कुमाउँनी सम्पन्न बोली है।

⇐ कुमाउँनी की दस से अधिक उपबोलियाँ हैं; जैसे- खसपरजिया, कुमैयाँ, फल्दकोटिया, पछाईं, चैगरखिया, गंगोला, दानपुरिया, सीराली, सोरियाली, अस्कोटी, जोहारी, रउचोभैंसी तथा भोटिया।

गढ़वाली

⇒ कुमाऊँ के पश्चिमी छोर से यमुना तक का भूभाग ’केदारखण्ड’ कहलाता है। मध्यकाल में यहाँ पवार राजपूतों और पाल वंश के राजाओं का शासन था। बावन गढ़ियों में बँटे होने के कारण इस क्षेत्र को ’गढ़वाल’ कहा गया।

⇐ गढ़वाल की बोली ’गढ़वाली’ है। उत्तराखण्ड राज्य के टिहरी गढ़वाल की बोली गढ़वाली का आदर्श रूप मानी जाती है।
⇒ गढ़वाली में भोटिया, शक किरात, नागा और खस जातियों की भाषाओं के अनेक तत्व मिश्रित है।
⇐ गढ़वाली लोकगीतों के अनेक संग्रह प्रकाशित है। वर्तमान में गद्य और पद्य में विभिन्न विधाओं में साहित्य लिखा जा रहा है।

दक्खिनी

⇒ दक्खिनी का मूल आधार दिल्ली के आसपास की 14 वीं-15वीं सदी की खङी बोली है।
⇐ दक्षिण में प्रयुक्त होने के कारण इसे ’दक्खिनी’ बोली कहा जाता है।
⇒ मुस्लिम शासन के विस्तार के साथ हिन्दुस्तानी बोलने वाले प्रशासक, सिपाही, व्यापारी, कलाकार, फकीर, दरवेश इत्यादि भारत के पश्चिमी और दक्षिणी भाग में नए, उनके साथ यह भाषा भी पहुँची। उत्तर भारत से जाने वाले मुसलमानों और हिन्दुओं द्वारा प्रयुक्त होने लगी।

 

⇐ दक्खिनी में कुछ तत्व पंजाबी, हरियाणी, ब्रज तथा अवधी के भी हैं, क्योंकि इन क्षेत्रों से भी लोग दक्षिण में गए जिससे यह भाषा मिश्रित हो गई।
⇒ दक्खिनी का मुख्य क्षेत्र बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर तथा गौणतः बरार, मुम्बई तथा मध्य प्रदेश है।
⇐ ’दक्खिनी’ पर बाद में उर्दू का भी प्रभाव पङा। साथ ही तमिल, तेलुगू तथा कन्नङ का भी प्रभाव लक्षित होता है।
⇒ ’दक्खिनी’ की मुख्य उपबोलियाँ- गुलबर्गी, बीदरी, बीजपुरी और हैदराबादी है।
⇐ प्राचीनकाल से ही दक्खिनी में साहित्य सर्जन होता रहा है।

⇒ दक्खिनी के शरफुद्दीन-बू-अली कलन्दर ने लिखा है-

’’सजन सकारे जाएँगे, नैंन मरेंगे रोय।
विधना ऐसी रैन का, भोर कबौं न होय।।’’

⇒ ख्वाजा बन्दा नेवाज गेसूरदराज कृत ’मेराजुल आशकीन’ दक्खिनी गद्य की पहली पुस्तक मानी जाती है। ’शिकारनामा’ और ’तिलावतुल- वजूद’ दो अन्य रचनाएँ है।
⇐ मुहम्मद कुली कुतुबशाह एक श्रेष्ठ कवि है।

⇒ मुल्लाबजही दक्खिनी के विशेष उल्लेखनीय साहित्यकार है, ये मुहम्मद कुली कुतुबशाह के समकालीन थे, क्योंकि इनके द्वारा लिखी गई प्रेमकथा ’कुतुबमुश्तरी’ के नायक मुहम्मद कुली कुतुबशाह स्वयं है।
⇐ मुल्लावजही कृत ’सबरस’ को उर्दू साहित्य की प्रथम गद्य रचना माना जाता है।

⇒ हैदराबाद निवासी सैयद हुसेन अली खाँ ने 1838 ई. में ’चादरवेश’ का फारसी से दक्खिनी में अनुवाद किया था।
⇐ ’दक्खिनी’ में ’महाप्राण’ व्यंजनों के स्थान पर ’अल्पप्राण’ व्यंजनों के प्रयोग की प्रवृत्ति है; जैसे- देक (देख), गुला (घुला), कुच (कुछ), समज (समझ), अदिक (अधिक) इत्यादि।

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