काव्य रीति – Kavya Riti || काव्यशास्त्र || Hindi sahitya

दोस्तो आज हम काव्य शास्त्र के महत्वपूर्ण विषयवस्तुकाव्य रीति(Kavya Riti) , काव्य रीति की परिभाषा और काव्य रीति के प्रकार विस्तार से पढेंगे को अच्छे से समझेंगे।

   काव्य रीति – Kavya Riti

‘रीति’ शब्द की व्युत्पत्ति- ‘रीति’ शब्द संस्कृत की ’रीङ्’ धातु में ’क्तिन्’ प्रत्यय के योग से बना है, जिसका मूल अर्थ होता हैं-‘मार्ग’
‘रीति’ शब्द का अर्थ- शब्दकोश के अनुसार ‘रीति’ शब्द के ’मार्ग’, ’पंथ’, ’वीथि’, ’पद्धति’, ’प्रणाली’, ’शैली’ इत्यादि अनेक अर्थ ग्रहण किये जाते है।

’काव्य रीति’ का अर्थ- किसी भी काव्य की रचना करते समय कवि के द्वारा काव्य लेखन के लिए जो शैली काम में ली जाती है, उसे काव्य रीति कहा जाता है।
‘रीति’ की परिभाषा- आचार्य वामन को रीति सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। इन्होंने स्वरचित ’काव्यालंकार सूत्रवृत्ति’ रचना में ‘रीति’ की परिभाषा देते हुए लिखा है-
‘‘विशिष्ट पर रचना रीतिः’’  ’’विशेषोगुणात्मा’’ अर्थात् कवि/लेखक के काव्य लेखन की अपनी विशिष्ट गुणशैली ही काव्य रीति कहलाती है। इसका संबंध ’गुण’ से माना जाता हैं।

काव्य की आत्मा ‘रीति’- रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन ने रीति को काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार किया है। यथा-
‘‘रीतिरात्मा काव्यस्य’’

‘रीति’ का नामकरण- अलग-अलग आचार्यों के द्वारा काव्य रीति को निम्नानुसार अलग-अलग नामों से पुकारा गया है। यथा-

आचार्य का नाम  नामकरण
आचार्य वामनरीति
आचार्य कुन्तकमार्ग
आचार्य मम्मटवृत्ति
आचार्य आनंदवर्धनपद संघटना
आचार्य विश्वनाथपद संघटना
आचार्य राजशेखरवचन विन्यास क्रम
आचार्य दण्डीमार्ग
आचार्य भरतमुनिवृत्ति (संकेत मात्र)

 

रीति के भेद – Riti Ke Bhed

💠 आचार्य वामन के रीति के निम्न तीन भेद स्वीकार किये है।

  • वैदर्भी
  • गौड़ी
  • पांचाली

💠 आचार्य कुंतक ने रीति को ’मार्ग’ कहकर उसके तीन भेद माने है।

  • सुकुमार मार्ग (वैदर्भी)
  • विचित्र मार्ग(गौड़ी)
  • मध्यम मार्ग(पांचाली)

सुकुमार मार्ग – इस मार्ग में प्रतिभा जनित सहज नैसर्गिक गुणों एवं विशेषताओं का समावेश रहता है । उक्ति वैचित्र्य या अलंकार अनायास और सहज रूप से आते हैं। इसमें रसप्रवणता होती है तथा प्रसाद एवं माधुर्यगुण का बाहुल्य होता है ।

विचित्र मार्ग – ये आलंकारिक मार्ग या कला-मार्ग हैं। इसमें वर्ण चमत्कार, शब्द- चमत्कार, पदावली लालित्य, अर्थ की वक्रता, उक्ति की विचित्रता आदि विशेषताएँ होती हैं।

मध्यम मार्ग – यह सन्तुलित मार्ग है। सुकुमारता और विचित्रता का सहज समन्वय इस मार्ग में होता है। इसमें भाव एवं कला की विशेषताएँ समान रूप से विद्यमान में रूप से रहती हैं।

कुंतक ने रीति के स्थान पर मार्ग शब्द का प्रयोग दंडी की भांति कर इसे कवि-कर्म से सम्बद्ध किया । कुंतक प्रथम आचार्य थे जिन्होंने रीति या शैली को कविगत माना, जबकि भामह व दण्डी ने रीति का देशों से संबंधित रूप में वर्णन किया है।

💠 आचार्य मम्मट ने रीति को ’वृत्ति’ कहकर उसके तीन भेद माने है।

  • उपनागरिका वृत्ति
  • परुषा वृत्ति
  • सुकोमला वृत्ति

🔷 सर्वप्रथम आचार्य रूद्रट ने समास के आधार पर ’लाटी’ नामकचौथी रीति की परिकल्पना प्रस्तुत की।

💠 आचार्य राजशेखर एवं आचार्य श्रीपद ने निम्न दो रीतियाँ अलग से स्वीकार की है।
(अ) मैथिली रीति (ब) मागधी रीति

🔷 आचार्य भोजराज ने भी ’अवंती’ नामक एक अन्य काव्य-रीति की परिकल्पना प्रस्तुत की है।
सारांश- वर्तमान में सभी आचार्याे के द्वारा सर्वमान्य रूप में काव्य रीति के मख्यतः निम्न तीन भेद ही स्वीकार किये जाते है।

  1. वैदर्भी रीति
  2. गौड़ी रीति
  3. पांचाली रीति

रीति संख्या (आचार्यों के अनुसार)

आचार्य रीतियाँ
भरतमुनिअवंती, दक्षिणात्या, पांचाली, मागधी
भामहवैदर्भी, गौङी
दण्डीवैदर्भी, गौङी
वामनवैदर्भी गौङी, पांचाली
रुद्रटवैदर्भी गौङी लाटी, पांचाली
आनंदवर्धनअसमासा, अल्पसमासा, दीर्घसमासा
राजशेखरलच्छोभि (वैदर्भी), मागधी, पांचालिका
कुंतकसुकुमार (वैदर्भी), विचित्र (गौङी), मध्यम (पांचाली)
भोजराजवैदर्भी, गौङी, पांचाली, लाटी अवंतिका, मागधी

1. वैदभी रीति –

💠 इस रीति में सुकोमल एवं सुकुमार (श्रुतिमधुर एवं संगीतात्मक) वर्णों का प्रयोग किया जाता है।
🔷 इस रीति में संयुक्ताक्षरों का अभाव पाया जाता है।
💠 इस रीति में ’ट’ वर्गीय वर्णों (विशेषतःमहाप्राण वर्णों ठ, ढ) का अभाव पाया जाता है।
🔷 इस रीति में सामासिक पदों का भी पूर्ण अभाव पाया जाता है।
💠 यह रीति शृंगार, हास्य, करुण इत्यादि रसों की रचना के लिए उपयुक्त मानी जाती है।

🔷 आचार्य दण्डी ने इस रीति में इस रीति में अपने द्वारा प्रतिपादित सभी दस गुणों का समावेश माना है, परन्तु आचार्य मम्मट इसमें केवल ’माधुर्य’ गुण ही स्वीकार करते है।
💠 प्रारम्भ में ’विदर्भ’ प्रदेश के कवियों के द्वारा अधिक प्रयुक्त किये जाने के कारण इसका नाम वैदर्भी रीति पङा है।
’’माधुर्यव्यंजकैर्वर्णै रचना ललितात्मिका।
अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यतै।।’’

उदाहरण
(अ) ’’राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परिछाँहि।
यातै सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारत नाँहि।।’’
प्रस्तुत पद में संयुक्ताक्षरों एवं सामासिक पदों का तो पूर्ण अभाव है। ’ट’ वर्गीय वर्णों के अन्तर्गत केवल दो जगह अल्पप्राण ’ट’ वर्ण का प्रयोग हुआ है। इसकी पदरचना सुकोमल है। अतएवं यहाँ वैदर्भी रीति है।

(ब) ’’देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करिकै करुणानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहीं नैननि के जल सों पग धोये।’’
(स) ’’रस सिंगार मज्जन किए कंजनु भंजनु दैन।
अंजनु रंजनु हँू बिना, खंजनु गंजनु नैन।।’’

2. गौड़ी रीति-

🔷 इस रीति में कठोर वर्णों का अधिक प्रयोग किया जाता है।
💠 इस रीति में सामासिक पदों एव संयुक्त वर्णों का अधिक प्रयोग किया जाता है।
🔷 इस रीति में ’ट’ वर्गीय महाप्राण ध्वनियों का अधिक प्रयोग किया जाता है।
💠 यह रीति वीर, रोद्र, भयानक, वीभत्स आदि रसों की रचना के लिए अधिक उपयुक्त मानी जाती है।
🔷 आचार्य दण्डी ने इस रीति में ’ओज’ व ’कांति’ गुणों की प्रधानता मानी जाती है जबकि आचार्य मम्मट इसमें ओज गुण की प्रधानता मानते है।

💠 प्रारम्भ में ’गौड’ प्रदेश के कवियों के द्वारा अधिक प्रयुक्त किये जाने के कारण इसका नाग गौड़ी रीति पङ है।
’’ ओजः प्रकाशकैर्वर्णैर्बन्ध आडम्बर पुनः।
समासबहुला गौड़ी वर्णैः शेषैः पुनद्र्वयोः।।’’

उदाहरण-
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
अमत्र्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढै चलो बढै चलो।।

प्रस्तुत पद में अनेक संयुक्ताक्षरों का प्रयोग हुआ है। ’हिमाद्रि’, ’स्वयंप्रभा’, ’समुज्ज्वला’, ’आमत्र्य’ जैसे अनेक सामासिक पदों का प्रयोग हुआ है। ’दृढ’, ’बढै’ जैसे पदों में ’ट’ वर्गीय महाप्राण ध्वनियों का प्रयोग हुआ है। अतएव यहाँ गौड़ी रीति मानी जाती हैै।

बोल्लहिं जो जय-जय मुण्ड-रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावही।
खप्परन्हि खग अलुज्झि जुज्झहिं भटन्ह दहावहीं।

हय रुण्ड गिरे गज झुण्ड गिरे, कट कट अवनि पर मुण्ड गिरे।
भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे, लङते-लङते अरि झुण्ड गिरे।।

सृष्टि दृष्टि के अंजन रंजन ताप विभंजन बरसो।
व्यग्र उदग्र जगज्जननी के अये अग्रस्तन बरसो।।

3. पांचाली रीति

यह रीति वैदर्भी एवं गौड़ी दोनों के बीच की रीति मानी जाती है।
💠 इसमें संयुक्ताक्षरों, सामासिक पदों एवं ’ट’ वर्गीय वर्णों का भी कुछ मात्रा में प्रयोग किया जा सकता हैं।
🔷 यह रीति भी वैदर्भी की तरह शंगार, हास्य, करुण आदि रसों की रचना के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
💠 आचार्य दण्डी इस रीति में प्रसाद व माधुर्य गुणों की प्रधानता मानते है, जबकि आचार्य मम्मट इसमें केवल प्रसाद गुण की प्रधानता मानते है।
🔷 प्रारम्भ में पंचाल प्रदेश के कवियों के द्वारा अधिक प्रयोग में लिये जाने के कारण इसका नाम पंाचाली रीति पङा है।
’’समस्त पञ्चषपदो बन्धः पाञ्चालिका मता’’(विश्वनाथ)

उदाहरण-
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौं निधि को सुख नंद की गाय चराय बिसारौं।
खानि कबौं इन आँखिन ते ब्रज के बन बाग तङाग निहारौं।
कौटिक ह्वै कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं।

प्रस्तुत पद में सामासिक पदों का तो पूर्ण अभाव है परन्तु कुछ स्थानों पर ’ट’ वर्गीय वर्णों एवं सयुक्तक्षरों का प्रयोग हो गया है, अतएव यहाँ पांचाली रीति मानी जाती है।

राति न सुहात, न सूहात परभात आली।
जब मन लागि जात काहू निरमोही सौ।।

मैंने विदग्ध हो जान लिया अन्तिम रहस्य पहचान लिया।
मैंने आहुति बनकर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।।

युग-युग चलती रहे कठोर कहानी, रघुकुल में थी एक अभागिन रानी।
निज जन्म-जन्म में सुने जीव यह मेरा, धिक्कार उसे था महा स्वार्थ ने घेरा।।

निष्कर्ष :

दोस्तो आज हमनें काव्य शास्त्र के महत्वपूर्ण विषयवस्तु काव्य रीति(Kavya Riti) , काव्य रीति की परिभाषा और काव्य रीति के प्रकार विस्तार से पढेंगे को अच्छे से समझा। हम उम्मीद करतें है कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी से आप सहमत होंगे।

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