अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त || kavya shastra || काव्य शास्त्र

दोस्तो आज की पोस्ट में हम काव्यशास्त्र विषय के अंतर्गत अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त अच्छे से समझेंगे ।

अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त(Arstu ka Anukaran Sidhant)

अरस्तू महान् यूनानी दार्शनिक प्लेटो (427 ई.पू. से 347 ई.पू.) का शिष्य माना जाता है। इनका स्थितिकाल (384 ई.पू. से 322 ई.पू.) निर्धारित किया जाता है। सिकन्दर महान् ने भी अरस्तू से ही शिक्षा ग्रहण की थी। (348 ई.पू.में) इनका यूनानी नाम ’अरिस्तोतेलेस’ माना जाता है। प्लेटो ने एथेन्स में ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा के लिए अकादमी की स्थापना की थी।

368 ई.पू. अरस्तू इसी अकादमी में उच्चस्तरीय शिक्षा प्राप्ति के लिए प्रविष्ट हुए थे। इनके पिता मकदूनिया के राजदरबार में चिकित्सक थे। 335 ई.पू. अरस्तू ने एथेन्स के समीप ’अपोलो’ नामक स्थान पर ’लीसियस’ नाम से अपना एक निजी विद्यापीठ स्थापित किया था।

अपने 62 वर्ष के जीवनकाल में अरस्तू ने तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान, तत्त्वमीमांसा, भौतिकशास्त्र, ज्योतिर्विज्ञान, राजनीतिशास्त्र, आचार-शास्त्र तथा साहित्य शास्त्र जैसे विषयों पर लगभग 400 ग्रन्थों की रचना की थी।

⇒ ’’अरस्तू मेरी विद्यापीठ का मस्तिष्क है और शेष विद्यार्थी उसके शरीर है।’’ – प्लेटो

⇒ अरस्तू के साहित्य चिंतन में उनके तीन सिद्धांत महत्त्वपूर्ण है –

  1. अनुकरण का सिद्धान्त।
  2. त्रासदी या ट्रेजेडी का सिद्धान्त।
  3. विवेचन का सिद्धान्त।

इनके द्वारा रचित निम्न दो रचनाएँ प्राप्त होती हैं –

  1. पोएटिक्स या पेरिपोइएतिकेस (काव्यशास्त्र)
  2. हेटेरिअस – (भाषण शास्त्र)

नोट:- ’पोएटिक्स’ अरस्तू द्वारा रचित एक छोटी सी पुस्तक है। उसमें कुल 26 अध्याय हैं।

यह पुस्तक अरस्तू ने अपने छात्रों को अध्यापन के लिए नोट्स रूप में तैयार की थी। इसमें काव्य की उत्पत्ति,काव्य की प्रकृति, काव्य के भेद, काव्य का प्रयोजन इत्यादि विषयों पर अरस्तु ने अपने विचार प्रकट किये हैं।

इसी रचना में इन्होंने ट्रेजेडी (दुःखात काव्य), एपिक (महाकाव्य) एवं काॅमेडी (सुखान्त नाटक) की चर्चा अनुकरणात्मक काव्य के रूप में की है। इन सभी रूपों में ट्रेजेडी को सर्वाधिक महत्त्व देते हुए इन्होंने ’पोएटिक्स’

रचना के चौदह  अध्यायों में (छठे से उन्नीसवें तक) इसका विस्तार से विवेचन किया है।

1. अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त –

’अनुकरण’ शब्द यूनानी भाषा के ’मीमेसिस’ एवं अंग्रेजी भाषा के ’इमिटेशन’ शब्द से रूपान्तरित होकर हिन्दी में आया है।

⇒ ’अरस्तू’ ने काव्य को सौन्दर्यवादी दृष्टि से देखकर इसे राजनीतिक, दार्शनिक एवं नीतिशास्त्र के बंधन से मुक्त किया।

अरस्तू के अनुसार – कला प्रकृति की अनुकृति है। यहाँ प्रकृति से उसका अभिप्राय जगत के बाह्य गोचर रूप के साथ-साथ उसके आन्तरिक रूप यथा काम, क्रोध आदि मनोविकारों से ग्रहण किया जाता है।

⇔अरस्तू से पहले उनके गुरु ’प्लेटो’ के द्वारा भी ’अनुकरण सिद्धान्त’ का विवेचन किया गया था।

प्लेटो के अनुसार काव्य त्याज्य (छोङने योग्य) माना गया है, क्योंकि ईश्वर ही सत्य है। इसकी अनुकृति संसार है और संसार की अनुकृति काव्य है। इस प्रकार काव्य अनुकरण का अनुकरण है। अनुकरण सदैव अधूरा होता है, अतः संसार अर्द्धसत्य है और काव्य चौथाई सत्य है अर्थात् तीन-चौथाई झूठ है, इसलिए त्याज्य है।

⇒ प्लेटो के अनुसार – कविता अनुकरण का अनुकरण है। अतः सत्य से दुगुना दूर है। अरस्तू ने प्लेटो से भिन्न विचार प्रस्तुत करते हुए अनुकरण शब्द का प्रयोग किया है।

काव्यवस्तु के तीन रूपों का अनुकरण होता है –

  1. प्रतीयमान रूप का अर्थात् जैसा अनुकर्ता को प्रतीत होता है।
  2. संभाव्य रूप का अर्थात् जैसा वह हो सकता है।
  3. आदर्श रूप का अर्थात् जैसा वह होना चाहिए।

अरस्तू के ’अनुकरण’ शब्द की अलग-अलग विद्वानों के द्वारा अलग- अलग व्याख्या प्रस्तुत की गई है।

यथा –

1. प्रो. मरे के अनुसार – अनुकरण का अर्थ सर्जना का अभाव नहीं अपितु पुनर्सर्जना है।

2. प्रो. ब्रूचर – सादृश्य वस्तु के द्वारा मूल वस्तु का पुनराख्यान

अरस्तू ने अनुकरण को हूबहू नकल नहीं माना है। उनके अनुसार कवि वस्तुओं को उनके यथास्थिति (जैसी थीं वैसी) रूप में वर्णित नहीं करता है अपितु उनके तर्कपूर्ण सम्भाव्य रूप में वर्णित करता है। वस्तुतः कवि या कलाकार अपनी संवेदना और अनुभूति से अपूर्णता को पूर्णता प्रदान करता है और उसे आदर्श रूप देता है।

अतः अनुकरण को मात्र नकल नहीं कहा जा सकता है। अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त से इतिहासकार एवं कवि का भेद भी समाप्त हो जाता है। इसके अनुसार इतिहासकार तो केवल घटित हो चुकी घटनाओं का वर्णन करता है जबकि कवि उसका वर्णन करता है जो घटित हो सकता है।

अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त

⇒ अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त के महत्त्वपूर्ण तथ्य – इस सिद्धान्त में प्रमुखतः निम्न बिन्दुओं का समावेश किया जा सकता है –

1. प्लेटो ने काव्य-शास्त्र को दर्शनशास्त्र व राजनीतिशास्त्र के साथ जोङकर वर्णित किया है, जबकि अरस्तू ने काव्य शास्त्र की स्वतंत्र रूप से समीक्षा की है।

2. इनके अनुसार कविता जगत की अनुकृति है व अनुकरण मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है।

3. अनुकरण की प्रक्रिया आनन्ददायक होती है। हम अनुकृत वस्तु में मूल का सादृश्य देखकर आनन्द प्राप्त करते हैं।

4. अनुकरण के द्वारा भयोत्पादक वस्तुओं को भी इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है कि आनन्ददायक प्रतीत होने लगती है।

5. काव्य कला सर्वोत्तम अनुकरणात्मक कला है तथा अन्य सभी ललित कलाओं एवं उपयोगी कलाओं से अधिक महत्त्वपूर्ण है। नाटक काव्यकला का सर्वाधिक उत्कृष्ट रूप है।

6. काव्य प्रकृति का अनुकरण है।

7. अरस्तू ने काव्य को संगीतकला के समतुल्य माना है।

8. कवि अपनी रचना में दृश्य जगत् की वस्तुओं को जैसी वे हैं, वैसी ही प्रस्तुत नहीं करता है अर्थात् या तो वह उन्हें बेहतर रूप में प्रस्तुत करता है या हीनतर रूप में प्रस्तुत करता है।

9. इनके अनुसार ’अनुकरण’ केवल आकृति और स्वर का ही नहीं किया जाता अपितु आन्तरिक भावों व वृतियों का भी किया जाता है।

10. अरस्तू ने चित्रकार अथवा किसी अन्य कलाकार की तरह कवि को भी अनुकर्ता माना है। अन्तर इतना है कि चित्रकार रूप और रंग के माध्यम से अनुकरण करता है जबकि कवि भाषा, लय और सामंजस्य के माध्यम से अनुकरण करता है।

अरस्तू के काव्य की आलोचनाएँ –

1. अरस्तू ने कवि की निर्माण क्षमता पर तो बल दिया है पर जीवन के विभिन्न अनुभवों से निर्मित कवि की अन्तश्चेतना को महत्त्व नहीं दिया है।

2. अरस्तू ने आन्तरिक अनुभूतियों के भी अनुकरण की बात की है, जबकि इनका अनुकरण किया जाना असम्भव है।

3. डाॅ. नगेन्द्र के अनुसार – ’’अरस्तू का दृष्टिकोण अभावात्मक रहा है तथा त्रास और करुणा का विवेचन उसकी चरम सिद्धि रही है।’’

गोदान उपन्यास सारांश 

 

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