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Braj Bhasha Ka Vikas – ब्रजभाषा का विकास || हिंदी साहित्य

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:6th May, 2022| Comments: 1

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आज के आर्टिकल में हम ’ब्रजभाषा’(Braj Bhasha Ka Vikas) के बारे में विस्तार से जानेंगे और परोक्षोपयोगी महत्त्वपूर्ण तथ्यों को भी पढ़ेंगे।

ब्रजभाषा का विकास(Braj Bhasha Ka Vikas)

Table of Contents

  • ब्रजभाषा का विकास(Braj Bhasha Ka Vikas)
    • ब्रजभाषा का क्षेत्र एवं सीमा विस्तार –
    • साहित्यिक महत्त्व –
    • व्याकरणिक विशेषताएँ –
    • व्याकरणिक विशेषताएँ –
    • ब्रजभाषा का उदाहरण –

पश्चिमी हिन्दी की सर्वाधिक प्रमुख बोली “ब्रजभाषा” है जो इसलिए इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई, क्योंकि इसका प्रयोग 600 वर्षों तक साहित्य में होता रहा। यही कारण है कि यह बोली के सीमित क्षेत्र को छोङकर भाषा कही जाने लगी।

पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियाँ हैं –

(1) ब्रजभाषा

(2) कन्नौजी

(3) बुन्देली

(4) खङी बोली

(5) बांगरू

इनमें से साहित्य में सर्वाधिक प्रयोग ब्रजभाषा का ही हुआ।

ब्रजभाषा
ब्रजभाषा

ब्रजभाषा का क्षेत्र एवं सीमा विस्तार –

ब्रजभाषा का क्षेत्र मूलतः ब्रज क्षेत्र है, जिसके अन्तर्गत आगरा, मथुरा, अलीगढ़, एटा, फिरोजाबाद, हाथरस जनपद आते हैं। इसके अतिरिक्त यह बोली उत्तर प्रदेश में बदायूं जिले में, हरियाणा के गुङगांव जिले में, मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में तथा राजस्थान के भरतपुर और धौलपुर जिलों में भी बोली जाती है। इसकी सीमावर्ती बोलियाँ हैं – कन्नौजी, बांगरू, बुन्देली, राजस्थानी।

साहित्यिक महत्त्व –

हिन्दी का पर्याप्त मध्यकालीन साहित्य ब्रजभाषा में लिखा गया है। सूरदास ब्रजभाषा के सर्वप्रथम कवि माने जाते हैं। उनकी रचनाएँ सुन्दर, प्रांजल ब्रजभाषा में लिखी गई हैं। उनके अतिरिक्त अष्टछाप के कृष्णभक्त कवियों – नन्ददास, परमानन्द दास, चतुर्भुजदास, कुंभनदास, आदि ने भी ब्रजभाषा में ही काव्य रचना की है।

ब्रजभाषा को इतना अधिक महत्त्व उस समय मिल गया था, कि अवधी के कवि गोस्वामी तुलसीदास ने भी विनय-पत्रिका, कवितावली, दोहावली आदि काव्य रचनाएँ ब्रजभाषा में ही लिखीं। केशव, मतिराम, चिन्तामणि, पद्माकर , ग्वाल, देव, बिहारी, घनानन्द, भूषण जैसे सैकङों कवियों ने इसी भाषा में काव्य रचना की।

ब्रजभाषा की व्यापकता के कारण ही ब्रजक्षेत्र के बाहर के कवि भी इसी भाषा में काव्य-रचना करते थे। आधुनिक काल के प्रथम चरण तक ब्रजभाषा काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित रही। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ दास रत्नाकर, सत्यनारायण कविरत्न ने ब्रजभाषा का प्रयोग काव्य-भाषा के रूप में किया।

इस प्रकार भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल के प्रथम चरण तक एक दीर्घ अवधि हेतु ब्रजभाषा काव्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित रही। आज भी ब्रजभाषा में काव्य-रचना हो रही है। विशेषतः ब्रज क्षेत्र के कवि कवित्त सवैया इसी भाषा में लिख रहे हैं।

व्याकरणिक विशेषताएँ –

(1) ब्रजभाषा की प्रधान प्रवृत्ति है शब्दों का औकारान्त होना। हिन्दी में जो शब्द आकारान्त हैं, वे ब्रजभाषा में औकारान्त हैं, कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं:
आया > आयौ
पीला > पीरौ
मेरा > मेरौ
अपना > अपनौ
पआ > पिऔ
काला > कारौ
खाया > खायौ
उनका > उनकौ, बिनकौ
तुम्हारा > तुम्हारौ

(2) ब्रजभाषा के पुल्लिंग एकवचन शब्दों के अन्त में ’उ’ तथा स्त्रीलिंग एकवचन शब्दों के अन्त में ’इ’ ध्वनि रहती है, यथा:-
माल > मालु
काम > कामु
रात > राति
दूर > दूरि
आज > आजु
नाज > नाजु
पीठ > पीठि

(3) ब्रजभाषा के कुछ ध्वनि-परिवर्तन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, यथा –
क > च क्यों > च्यों, चैं
ण > न वाण > बान, वकील – बकील
ल > र काला > कारौ, पीला – पीरौ
ङ > र साङी > सारी, नाङी – नारी
न > ल नम्बरदार > लम्बरदार, नम्बर > लम्बर
ल > न बाल्टी > बान्टी।

(4) ब्रजभाषा में स, श, ष के स्थान पर केवल ’स’ का उच्चारण होता है, यथा –
श्याम > स्यामु
ऋषि > रिसि
श्यामल > सांवरौ
ऋणी > रिनी

(5) ब्रजभाषा में ’व’ के स्थान पर ’म’ हो जाता है। यथा –
गांव > गाम
पांव > पाय खावेंगे
जावेंगे > जायेंगे
आवेंगे > आयेंगे
खावेंगे > खायेंगे

व्याकरणिक विशेषताएँ –

(6) ब्रजभाषा में उत्तम पुरुष एकवचन में ’हौं’ सर्वनाम का प्रयोग होता है, जो इसकी प्रमुख विशेषता है-
यथा – मैं नहीं जाता > हौं ना जातु, आजु हौं गाय चरावन जैहों।

(7) ब्रजभाषा के अन्य पुरुष के सर्वनाम रूप में विशिष्ट हैं, यथा:-
वह – बू, बु, बुअ, (पुल्लिंग) गु, बा, ग्वा (स्त्रीलिंग)
वे – वे, वै, ग्वे, बिन, ग्विन, उन।
पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग में अन्य पुरुष के सर्वनाम अलग-अलग हैं।

(8) ब्रजभाषा में भविष्यकाल की क्रियाएँ ’ग’ और ’ह’ प्रत्ययों के योग से बनती हैं, यथा –
बू खातु होगौ। (वह खाता होगा)
हौं खातु हुंग्गौ। (मैं खाता हूँगा)
आज हौं गाय चरावन जैहौं (आज मैं गाय चराने जाऊँगा।)
अन्य क्रिया रूप हैं:
आङ्गे, खाङ्गे, जाङ्गे।

(9) भूतकाल की सहायक क्रिया के लिए ब्रजभाषा में हो, हे, ही, भयौ, भयी का प्रयोग होता है।

(10) ब्रजभाषा की संज्ञार्थक क्रियाएँ ’न’ और ’ब’ के योग से बनती हैं-
यथा: देखन, चलन, कहन
देखिबो, चलिबो, कहिबो।
जैसे – हम कछू करिबौ चाहत। वे कहन लागे।

(11) संख्यावाचक विशेषणों में कुछ विशिष्ट हैं-
यथा: एकु, द्वै, तीनि, चारि, छै, ग्यारा, बारा, तेरा, पन्द्रा, सोर्हा, अठारा, किरोङ आदि।

(12) ब्रजभाषा के कुछ विशिष्ट अव्यय निम्नलिखित हैं:-
अजौं, अजहूँ, पुनि, सदाई, इत, इतै, जित, मनौ, किमि, कतहूँ।

(13) ब्रजभाषा में निम्नलिखित क्रिया विशेषणों का प्रयोग होता है:-
काल वाचक – अबै, तबै, जबै, कबै, आजु, कालि, परौं, नरौ।
स्थान वाचक – यां, हियां, ह्यां, हियन, न्यां, उतै, बितै, मां, म्हां, तां, हितै, कां, कितै।
दिशा वाचक – इत, उत, कित, तित।

ब्रजभाषा का उदाहरण –

’’त्याऔ गामु इतईं दूरि है, हमैं का पतौ। न्यां पौंचिये मैं पाम दुखन लागे। इत माऊँ न्यारु चंगौ है। अबकी पानी टैम तैं बस्सि गयौ। पैलैं तौ जे लगि रई कि जा साल सूका परि गयौ। पानी की बूंदऊ सामन में नांय बस्सी। किसानु मूंड पै हातु धरैं बैठो हतौ परि भगमान नैं सुनि लई। अर्राटे सूं पानी परिबै लगौ। बाजरन मैं जानि परि गई।’’

उपर्युक्त विशेषताएँ ब्रजभाषा की प्रकृति तथा उसके व्याकरण को स्पष्ट करती हैं। ब्रजभाषा के प्रधान उपरूप तीन हैं – पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी। पूर्वी ब्रजभाषा मैनपुरी, एटा, बदायूं में बोली जाती है, केन्द्रीय ब्रजभाषा का क्षेत्र आगरा, मथुरा, अलीगढ़ है तथा दक्षिणी ब्रजभाषा भरतपुर, धौलपुर, करौली में बोली जाती है। भले ही ब्रजभाषा अपने क्षेत्र में सीमित होकर पुनः बोली बन गई है, किन्तु इसका साहित्यिक महत्त्व बेजोङ है।

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  1. Mustapha nasir says

    24/12/2020 at 3:10 AM

    Thanks you for this

    Reply

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