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मेघ आए || सर्वेश्वर दयाल सक्सेना || सम्पूर्ण व्याख्या

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:18th Sep, 2021| Comments: 0

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आज की इस पोस्ट में हम सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा रचित ‘मेघ आए‘(megh aae) की सम्पूर्ण व्याख्या विस्तार से पढ़ेंगे तथा इस कविता के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करेगें ।

मेघ आए(सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)

Table of Contents

  • मेघ आए(सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)
    • व्याख्या
    • व्याख्या:(मेघ आए)

रचना-परिचय- यहाँ सर्वेश्वर जी की ’मेघ आए’ शीर्षक कविता संकलित है इसमें उन्होंने मेघों के आने की तुलना सजकर आये प्रवासी अतिथि (दामाद) से की है। ग्रामीण परिवेश में मेघों के आने से सर्वत्र उल्लास छा जाता है, इसी प्रकार वहाँ की संस्कृति में दामाद के आने से आनन्दमय अनुभूति होती है। कवि ने इसी भाव का सजीव एवं आकर्षक वर्णन किया है।

मेघ आए बङे बन-ठन के संवर के!
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाजे खिङकियाँ खुलने लगी गली-गली,
पाहनु ज्यों आए हों गाँव में शहर के।
मेघ आए बङे बन-ठन के संवर के।
पेङ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए,
बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी, घूँघट सरके।
मेघ आए, बङे बन-ठन संवर के।

व्याख्या

कवि सर्वेश्वर वर्णन करते हुए कहते है कि बादल रूपी प्रवासी मेहमान बङे सजधज कर आ गए है। उन बादलों की सूचना देने वाली हवा उनके नाचती-गाती चली आ रही है। उसके आने से मकानों के बन्द दरवाजे-खिङकियाँ खुलने लगी है। ऐसा लगता है कि शहर से आए मेहमान (दामाद) को देखने के लिए गली-गली में बन्द दरवाजे एवं खिङकियाँ खोली जा रही है, ताकि घरों के लोग इस शहरी मेहमान को देख सके। इस तरह मेघ गाँव में मेहमान की तरह सज-धनकर आ गया है।

कवि कहते है कि बादलों केे आने की सूचना हवा से मिल जाने पर पेङ भी खुशी से झूम रहे है और सिर झुकाकर देखते हुए फिर गर्दन ऊँची कर रहे है अर्थात् हवा के चलने से पेङ कुछ झुक रहे है, फिर सीधे हो रहे है। आँधी चलने से गलियों की धूल उठकर अन्यत्र जाने लगी, इससे ऐसा लग रहा है कि जैसे गाँव की कोई लङकी अपना घाघरा उठाए भागी जा रही है। नदी कुछ रूक कर बादलों को उसी प्रकार देखने लगी, जिस प्रकार गाँव की कोई स्त्री मेहमान को देखने के लिए अपने घूघँट को थोङा सा हटाकर और लज्जा सहित नेत्रों को कुछ तिरछा करके देखने लगी हो। इस प्रकार बादल मेहमान के रूप में सज-धजकर गाँव में आ गये है।

बूढे़ पीपल ने आगे बढ़कर जुहार की,
’बरस बाद सुधि लीन्हीं’-
बोली अकुलाई लता ओट को किवार की,
हरसाया ताल लाया पानी परात भर के,
मेघ आए बङे बन-ठन के सँवर के।
क्षितिज अटारी गहराई दामिनी दमकी,
’क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरत की’,
बाँध टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके।
मेघ आए बङे बन-ठन के सँवर के।

व्याख्या:(मेघ आए)

कवि कहते है कि सजे-धजे मेहमान के रूप में बादल की आया देखकर बूढ़े पीपल ने गाँव के बुजुर्ग सम्मानित व्यक्ति के रूप में इस मेहमान का अभिवादन या स्वागत किया। गर्मी से व्याकुल लता ने दरवाजे की ओट में होकर उलाहना देते हुए कहा कि तुम्हें पूरे एक साल बाद मेरी याद आयी। मेघ केा सज-धज कर आये मेहमान रूप में देखकर तालाब प्रसन्न हो उठा और वह परात में पानी भरकर (मेहमान के पैर धोने हेतु) लाया।

आकाश में उमङते हुए बादलों को देखकर कवि कहते है कि उसी समय क्षितिज रूपी अटारी पर मेघ छाने लगे और उन घने बादलों के मध्य में बिजली चमकने लगी। अब तक लोगों को भ्रम था कि पता नहीं बादल आएँगे या नहीं, अबकी बार बरसेंगे या नहीं; परन्तु बिजली चमकने से अब वह भ्रम दूर हो गया। साथ ही प्रवासी मेहमान (दामाद) के अटारी पर पहुँरते ही उसकी नायिका भी भ्रम समाप्त हो गया। तब उसने मेहमान से कहा कि ’आपके आगमन को लेकर मेरे मन में जो भ्रम था, अब वह मिट गया है। आप मुझे माफ कर दें। यह सुनते ही मेहमान (बादल) के सब्र का बाँध टूट गया और उस मिलन-बेला में प्रिया-प्रिय के नेत्रों से अश्रुपात होने लगा अर्थात् मूसलाधार वर्षा होने लगी। इस प्रकार मेघ बन-ठनकर मेहमान की तरह गाँव में आये।

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