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भारतेन्दु युग की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ || Bhartendu Yug || हिंदी साहित्य

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:14th Oct, 2021| Comments: 0

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दोस्तो आज की पोस्ट में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अंतर्गत भारतेन्दु युग की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ  को पढेंगे ,आप इसे अच्छे से कवर करें |

भारतेन्दु युग की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ/विशेषताएँ

Table of Contents

  • भारतेन्दु युग की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ/विशेषताएँ
  • भावगत विशेषताएँ
    • (3) शृंगारिकता की चेतना –
    • शिल्पगत विशेषताएँ

भावगत विशेषताएँ

(1) अन्तर्विरोधों का साहित्य –

भारतेन्दु काल की कविता अन्तर्विरोधी मूल्यों की कविता है और यह अन्तर्विरोध समाज की संरचना के भीतर से आया है। उस समय अंग्रेजी संस्कृति और भारतीय संस्कृति के दो विरोधी मूल्यों का मिलन हो रहा था जिसने तनाव की स्थिति पैदा हुई। यह तनाव कविता में भी कई स्तरों पर व्यक्त होता है जैसे राजभक्ति बनाम राजविरोध, राजभक्ति बनाम राष्ट्रभक्ति, भक्ति-शृंगार बनाम जन सामान्य की समस्याएँ, ब्रज भाषा बनाम खड़ी बोली इत्यादि।

(2) राजभक्ति एवं राष्ट्रभक्ति –

भारतेन्दु युग के प्रारंभ के कवियों में ब्रिटिश सरकार के प्रति राजभक्ति के भाव थे। इसका कारण यह था कि प्रारंभ में वे साम्राज्यवादी सरकार स्वार्थ को स्पष्ट रूप से समझ नहीं सके। यद्यपि ब्रिटिश सरकार के स्वार्थ को स्पष्ट रूप से समझ नहीं सके। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने कुछ सुधार अवश्य किये परंतु ऐसा करने के पीछे उनकी सदिच्छा नहीं थी। इस आरम्भिक दौर में ब्रिटिश सरकार का सही रूप स्पष्ट न हो सका। इसलिए इस युग में जहाँ महारानी विक्टोरिया की प्रशंसा के भाव मिलते हैं, वहीं राष्ट्र प्रेम भी मिलता है-

‘‘पूरी अमी की कटोरिया सी, चिरजीओ सदा विक्टोरिया रानी।’’ (अम्बिका दत्त व्यास)

‘‘अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।’’ (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र)

समस्याओं पर आधुनिक चिंतन करने वाले कवियों के पास तत्कालीन तनावपूर्ण स्थितियों से उबरने का कोई साधन नहीं है । इसलिए वे भारत की दुर्दशा पर आँसू बहाने को विवश हैं-

‘‘रोवहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई।
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।।’’ (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र)

(3) शृंगारिकता की चेतना –

इस काल में आधुनिकता की चेतना के बावजूद रीतिकालीन प्रभाव पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सका। अतः कहीं-कहीं शुद्ध शृंगार के दर्शन भारतेन्दु युग की कविता में होते हैं जैसे-

‘‘पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना।
अखियाँ दुखियाँ नहिं मानती हैं।’’

कहीं-कहीं पर यह शृंगार भक्ति के साथ जुड़ कर भी आया है अर्थात् भक्ति व शृंगार का समन्वय हुआ है-

‘‘जय जय हरि राधा रस केलि।
तरनि तनूजा तट इकन्त पै बाहु-बाहु पै मेलि।’’

(4) भक्ति भावना –

यहाँ भक्ति के निर्गुण व सगुण दोनों रूप उपलब्ध होते हैं। यहाँ भक्ति का एक और व्यापक रूप उपलब्ध होता है जिसे ‘स्वदेशानुराग समन्वित भक्ति’ कहते हैं अर्थात् ईश्वर की भक्ति का उद्देश्य देश की समस्याओं को सुलझाना हो गया है-

‘‘हम आरत भारत वासिन पै।
अब दीन दयाल दया करिए।’’ (प्रताप नारायण मिश्र)

‘‘प्रभु हो पुनि भूतल अवतरियो
अपने या प्यारे भारत के पुनि दुख दरिद्र हरिये।’’ (राधा कृष्ण दास)

(5) समस्यापूर्ति –

इस युग में ‘कविता वर्द्धिनी सभा’ तथा ‘रसिक समाज’ जैसी संस्थाओं की स्थापना की गई थी जहाँ कवियों की गोष्ठियाँ होती थीं तथा नए कवियों को प्रोत्साहन दिया जाता था। इस परम्परा में एक विषय तय किया जाता था और उसकी अन्तिम पंक्ति तय होती थी। इसे ही समस्यापूर्ति कहा गया जो इस समय की प्रमुख प्रवृति रही।

(6) सामाजिक समस्याओं का चित्रण –

इस युग का काव्य जन जीवन से जुड़ा है अतः इसमें नारी शिक्षा, विधवा समस्या, बाल-विवाह, धार्मिक संकीर्णता जैसे विषयों की ओर कवियों की दृष्टि गई। इन कवियों ने समाज में फैली विकृतियों पर चोट करके समाज में नई चेतना पैदा की है।

‘‘कौन करेजो नहिं कसकत, सुनि बिपति बाल बिधवन की।’’ (प्रताप नारायण मिश्र)

 

शिल्पगत विशेषताएँ

(1) काव्यरूप –

इस युग में मूल रूप से मुक्तक काव्य की रचना हुई। कुछ प्रबंध काव्य भी मिलते हैं जैसे प्रेमघन कृत ‘जीर्ण जनपद’। इसके अतिरिक्त प्रगीत मुक्तक, लोकगीत तथा मुकरियाँ भी मिलती हैं। मुकरी का उदाहरण-

‘‘सब गुरुजन को बुरा बतावै, अपनी खिचड़ी आप पकावै।
भीतर तत्व न झूठी तेजी, क्यों सखि, साजन! नहीं अंग्रेजी!!’’

(2) भाषा –

भारतेन्दु युग के कवियों की अधिकतर रचनाएँ ब्रज भाषा में कोमलकान्त पदावली होने के कारण इस काल के कवि उसका मोह छोड़ नहीं सके। इस समय के गद्य साहित्य में खड़ी बोली का सफल प्रयोग हुआ किन्तु काव्य में उसे विशेष सफलता नहीं मिली। भाषा के संदर्भ में भारतेन्दु का मत था-

‘अंग्रेजी पढ़ि के यद्यपि, सब गुण होत प्रवीन।
पै निज भाषा ज्ञान बिन रहत हीन के हीन।’

(3) छन्द –

भारतेन्दु युग की कविता में दोहा, चौपाई , हरिगीतिका, कवित्त आदि परम्परागत छन्दों के अतिरिक्त लावनी, कजली व होली छन्दों का प्रयोग हुआ है।

(4) अलंकार –

यह कविता जन सामान्य की समस्याओं से सीधे जुड़ती है इसलिए अलंकरों की सजावट पर ध्यान नहीं देती किंतु अर्थालंकारों का जहाँ भी प्रयोग हुआ है, वह सफल है।

आज के आर्टिकल में हमने  भारतेन्दु युग की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ पढ़ी ,हम आशा करतें है कि आपको ये टॉपिक अच्छे से क्लियर हो गया होगा ।

  • महादेवी वर्मा जीवन परिचय 
  • सुमित्रानंदन पन्त  का जीवन परिचय 
  • निराला जी का जीवन परिचय 
  • भारतेन्दु जीवन परिचय देखें 
  • साहित्य के शानदार वीडियो यहाँ देखें 
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