आज की पोस्ट में हम मनोविज्ञान के विषय में महत्त्वपूर्ण टॉपिक गत्यात्मक विकास(Gatyaatmak vikaas) को पढेंगे |
गत्यात्मक विकास(Gatyaatmak vikaas)
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किसी कार्य को बेहतर तरीके से कर पाने की क्षमता का विकास होना गत्यात्मक विकास कहलाता है। बच्चों के गत्यात्मक विकास उन्हें अधिक स्वतंत्र बनाते हैं। जिसके फलस्वरूप बच्चे अपने वातावरण को समझ पाते हैं।
बच्चों में गत्यात्मक विकास के साथ गत्यात्मक कौशल का भी विकास होता जाता है और वह किसी कार्य को बेहतर तरीके से कर सकता है। इसके लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता होती है।
गत्यात्मक विकास के प्रकार
गत्यात्मक विकास दो प्रकार के होते हैं :-
(क) स्थूल गत्यात्मक विकास
(ख) सूक्ष्म गत्यात्मक विकास
(क) स्थूल गत्यात्मक विकास :-
स्थूल गत्यात्मक विकास, ऐसा विकास होता है जिसमें बच्चा चलना, दौड़ना, कूदना, पैरों से प्रहार करना, ठोकर लगना, आदि सीखता है। जिसके फलस्वरूप बच्चे शारीरिक गतिविधियों से नियंत्रण एवं समन्वय सीखता है।
जिससे बच्चा गतिविधियों को कर पाने में शारीरिक संतुलन, गति व नियंत्रण कर पाने में समर्थ हो पाते हैं।
(ख) सूक्ष्म गत्यात्मक विकास :-
सूक्ष्म गत्यात्मक विकास, ऐसा विकास होता है जिसमें बच्चा वस्तुओं को उठाना, पकड़ना और जांच परख करने की क्रियाओं को सीखता है। इसमें बच्चा विभिन्न क्रियाओं को करना तथा उन्हें समन्वित एवं नियंत्रित करना सीखता है।
(अ ) गत्यात्मक विकास बच्चों के मानसिक क्षमताओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है :-
गत्यात्मक विकास बच्चों के मानसिक क्षमताओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गत्यात्मक विकास के कारण बच्चा विभिन्न प्रकार के कौशलों को सीखता है तथा उनका नियंत्रण एवं समन्वय करता है,
जिससे बच्चे में समझ पैदा होती है और जानने लगता है कि वह क्या कर रहा है। विभिन्न प्रकार के क्रियाओं को जानने के कारण उनमें मानिसिक क्षमताओं का विकास होता जाता है। फलस्वरूप उसमें कल्पनाशीलता का भी विकास होता है। जिसे निम्न उदाहरणों से समझा जा सकता है :-
⇒ जब बच्चा वस्तुओं को एक-दूसरे के उपर रखते हैं, उन्हें धकेलते हैं और खिलौने को एक-जगह से उठाकर दूसरे जगह रखते हैं, तब वे यह सीखते हैं कि वे अपने आसपास के वातावरण पर क्या प्रभाव डाल सकते हैं।
वस्तुओं और खिलौनों के साथ खेलते हुए स्थान और दिशा के बारे में भी जानकारी प्राप्त करते है। वे अपने अनुभवों से लगातार सीखते हैं। चल पाने की क्षमता बच्चों को स्वतंत्रता का एहसास दिलाती है और चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाती है।
⇒चलना, दौड़ना, कूदना आदि मूल कौशल है तथा जैसे-जैसे बच्चे में क्रियात्मक कौशल विकसित होते जाते हैं, बच्चे अधिक नियंत्रण एवं समन्वय बना पाते हैं।
गत्यात्मक विकास
वस्तुओं को पकड़ना खासकर रंगीन पेंसिल की तरफ आकर्षित होना, चित्रकारी करना आदि क्रियाओं से बच्चे में जांच-परख करने की समझ विकसित होती है।
इस प्रकार उपरोक्त उदाहरण से पता चलता है कि गत्यात्मक विकास बच्चों के मानसिक क्षमताओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(ब) बच्चों में स्थूल तथा सूक्ष्म गत्यात्मक कौशलों के विकास हेतु चार गतिविधि :-
(i) बच्चे में स्थूल गत्यात्मक कौशलों के विकास हेतु चार गतिविधि :-
बच्चे में स्थूल क्रियात्मक कौशल के विकास से वे चलना, दौड़ना, कूदना आदि क्रियाओं को सीखते हैं। जिसे निम्न प्रकार से समझा जा सकता है :-
⇒ स्थूल गत्यात्मक विकास सिर से पैर की दिशा में होता है। सिर वाले क्षेत्र की मांस-पेशियां सबसे पहले नियंत्रित होती है, जिसके फलस्वरूप आंखों चेहरे की गतिविधियां नियंत्रित होती है। वह गर्दन को घुमाकर अपने चारों ओर देखता है
और अपने आस-पास के वातावरण को जानने का प्रयास करता है। जिससे बच्चे में विभिन्न प्रकार के मानसिक क्षमताओं का विकास होता है।
गत्यात्मक विकास
⇒ जब बच्चा चलना शुरू करता है, दौड़ता है, कूदता है, किसी वस्तु को उठाकर ठोकर मारता है तो वह सीखता है कि अपने पैरों द्वारा किस प्रकार की क्रियाएं संचालित कर सकता है और उसका प्रभाव क्या होगा।
⇔कूदना सीखने के पश्चात बच्चे फूदकना सीखते हैं और उछल-उछलकर अपनी योग्यता को बताते भी हैं। जैसे-जैसे उनमें क्रियात्मक कौशल विकसित होते जाते हैं, वे अधिक नियंत्रण एवं समन्वय बना पाते हैं।
⇒ शिशु बैठ पाने की योग्यता अर्जित करने के पूर्व सिर को टिकाना सीखते हैं और चलना सीख पाने से बहुत पहले ही हांथों का उपयोग करना शुरू कर देते हैं। इस प्रकार बच्चा सीखता है कि किस प्रकार वह अपने अंगों पर नियंत्रण एवं समन्वय स्थापित कर सकता है।
(ii) बच्चे में सूक्ष्म गत्यात्मक कौशलों के विकास हेतु चार गतिविधि :-
सूक्ष्म गत्यात्मक विकास हेतु बच्चे द्वारा किये गये निम्न गतिविधियों को देखकर उनका अवलोकन किया जा सकता है :-
पकड़ना –
बच्चा किसी वस्तु को पकड़कर यह सीखता है कि वह उस वस्तु पर किस प्रकार प्रभाव डाल सकता है।
उठाना, जांचना, परखना –
बच्चे स्वयं करके सीखते हैं तथा अपना अवलोकन वह स्वयं करता है। इस प्रकार वह अपने द्वारा किये गये कार्यों की जांच-परख भी करता है और तब तक करता है जब तक वह उस कार्य में निपुण ना हो जाये या वह उस कार्य से संतुष्ट ना हो जाये।
हाथों का प्रयोग –
जब बच्चा 3 से 6 वर्ष का हो जाता है तब वह अपने हांथों का पूर्ण रूप से प्रयोग करना शुरू कर देता है। वह बटन लगाना, चम्मच पकड़ना, गिलास पकड़ना, स्वयं हांथों से भोजन करना, गेंद फेंकना, आदि क्रियाओं को संचालित करता है
तथा वह सीखता है कि वह अपने हांथों से किस प्रकार की क्रियाओं को संचालित कर सकता है।
शरीर पर नियंत्रण एवं समन्वय –
जब बच्चा 6 से अधिक वर्ष का हो जाता है कि तब उनके मानसिक क्षमताओं की विकास की दर बढ़ जाती है और वह विभिन्न क्रियाकलापों को अपनी ज्ञानेन्द्रियों से शीघ्र समझ लेता है।
वह अपने वातावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखकर अपने शरीर पर नियंत्रण एवं समन्वय स्थापित करता है तथा वह उसके अनुसार ही व्यवहार करता है।
उपरोक्त गतिविधियों से पता चलता है कि गत्यात्मक विकास के साथ-साथ बच्चों में मानसिक क्षमताओं का विकास भी होता है।
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