• Home
  • PDF Notes
  • Videos
  • रीतिकाल
  • आधुनिक काल
  • साहित्य ट्रिक्स
  • आर्टिकल

हिंदी साहित्य चैनल

  • Skip to primary navigation
  • Skip to main content
  • Skip to primary sidebar
  • Skip to footer
  • Home
  • PDF NOTES
  • VIDEOS
  • कहानियाँ
  • व्याकरण
  • रीतिकाल
  • हिंदी लेखक
  • कविताएँ
  • Web Stories

नागमती वियोग खण्ड || पद्मावत || मलिक मुहम्मद जायसी || hindi sahitya

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:24th May, 2022| Comments: 0

Tweet
Share34
Pin
Share
34 Shares

दोस्तो आज की पोस्ट में नागमती वियोग खण्ड (nagmati viyog khand)की महत्वपूर्ण व्याख्या दी गयी है इसमे वही टॉपिक दिये गए है जो परीक्षा की हिसाब से उपयोगी है 

नागमती वियोग खण्ड(Nagmati viyog khand)

महत्त्वपूर्ण व्याख्या और तथ्य

नागमती का विरह वर्णन

जायसी के विरहाकुल हृदय की गहन अनुभूति का सर्वाधिक मार्मिक-चित्रण नागमती के विरह-वर्णन में प्राप्त होता है। डॉ कमल कुलश्रेष्ठ के शब्दों में, ‘‘वेदना का जितना निरीह, निरावरण, मार्मिक, गम्भीर, निर्मल एवं पावन स्वरूप इस विरह-वर्णन में मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है।

‘‘वास्तव में इसको पद्मावत का प्राण-बिन्दु माना जा सकता है। विरह-विदग्ध हृदय की संवेदनशीलता के इस चरम उत्कर्ष को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे प्रेम के चतुर चितेरेे कवि ने नागमती को स्वयं में साकार कर लिया हो।

नेट जेआरएफ हिंदी के बेहतरीन नोट्स के लिए यहाँ क्लिक करें 

 

नागमती विरह-वर्णन में जैसे व्यथा स्वयं ही मुखारित होने लगी है। इसके लिए नागमती के विरह का आधार भी एक कारण है।
नागमती का पतिप्रेम विरहावस्था में प्रगाढतर हो गया। संयोग-सुख के समान उसने विरह का भी अभिनन्दन किया। स्मृतियों के सहारे, पति के प्रत्यागमन की आशा में उसने पथ पर पलकें बिछा दीं।

किन्तु निर्मोही लौटा नहीं। एक वर्ष व्यतीत हो गया, प्रवास आजीवन प्रवास में बदल न जाए इस आशंका मात्र से ही उसका हृदय टूक-टूक हो गया। जायसी ने उसका चित्रण इस प्रकार किया है-

नागमती चितउरपथ हेरा। पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा।।
नागर काहु नारि बस परा। तेइ मोर पिउ मोसौं हरा।।
सुआ काल होई लेइगा पीऊ। पीउ नहिं जात, जात बरऊ जीऊ।।
सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह।
झुरि झुरि पंजर हौ भई, विरह काल मोहि दीन्ह।।

विरह व्यथिता नागमती महलों के वैभव, विलास और साज-सज्जा में कोई आकर्षण अनुभव नहीं करती है, उसके लिए प्रकृति का सौैन्दर्य, स्निग्ध कमनीयता, मलयज मोहकता और वासन्ती कौमार्य आदि सभी तत्व कष्टदायक हो जाते हैं।

प्रकृति अपना परिधान बदलती है किन्तु नागमती की विरह-व्यथा तो बढती ही जाती है उसके लिए सारा संसार भयावह लगता है। नागमती की सखियाँ उसे धीरज देने का प्रयास करती हैं, किन्तु सखियों का समझाना भी निरर्थक रह जाता है। इसी स्थल पर जायसी ने बारहमासे का वर्णन किया है।

जायसी ने एक-एक माह के क्रम से नागमती की वियोग-व्यथा का सजीव चित्रण किया है। संयोग के समय जो प्रेम सृष्टि के सम्पूर्ण उपकरणों से आनन्द का संचय करता था, वियोग के क्षणों में वही उससे दुख का सग्रंह करता है।

कवि ने जिन प्राकृतिक उपकरणों और व्यापारों का वर्णन किया है, उनके साहचर्य का अनुभव राजा से लेकर रंक तक सभी करते हैं। उदाहरणस्वरूप कुछ पंक्तियाँ हैं-

चढा असाढ, गगन घन गाजा। साजा बिरह दुन्द दल बाजा।।
घूम, साम, धौरे घन धाए। सेत धजा बग-पाँति देखाए।।

चारों ओर फैली घटाओं को देखकर नागमती पुकारती है-‘ ओनई घटा आइ चहुँ फेरी, कन्त! उबारु मदन हौं घेरी’। उस समय नागमती की मनोदशा का यह चित्र तो अत्यन्त मार्मिक है-

जिन्ह घर कन्ता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब।
कन्त पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्व।।

श्रावण में चारों ओर जल ही जल फैल जाता है, नागमती की नाव का नाविक तो सात समुद्र पार था। भादों में उसकी व्यथा और भी बढ जाती है। शरद ऋतु प्रारम्भ हुई, जल कुछ उतरा तो वह प्रियतम के लौटने की प्रार्थना करने लगी। भ्रमर और काग द्वारा पति को संदेश भेजते हुए वह कहती है-

पिउ सौ कहेहु संदेसङा, हे भौंरा! हे काग!
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग।।

किन्तु पति न लौटा, वनस्पतियाँ उल्लासित हो गयीं किन्तु नागमती की उदासीनता बढती ही गयी।

नागमती का विरह वर्णन

‘बारहमासा’ का महत्त्व बताते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं- ‘‘वेदना का अत्यन्त निर्मल और कोमल स्वरूप, हिन्दू दाम्पत्य जीवन का अत्यन्त मर्मस्पर्शी माधुर्य, अपने चारों ओर की प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों के साथ विशुद्ध भारतीय हृदय की साहचर्य भावना तथा विषय के अनुसार भाषा का अत्यन्त स्निग्ध, सरल, मृदुल और अकृत्रिम प्रवाह देखने योग्य है।

पर इन कुछ विशेषताओं की ओर ध्यान जाने पर भी इसके सौन्दर्य का बहुत कुछ हेतु अनिर्वचनीय रह जाता है।‘‘ इस प्रलाप के विषय में आचार्य शुक्ल का यह कथन महत्त्वपूर्ण है-‘‘यह आशिक-माशूकों का निर्लज्ज प्रलाप नहीं है, यह हिन्दू गृहिणी का विरह वाणी है। इसका सात्विक मर्यादापूर्ण माधुर्य परम मनोहर है।

वन-वन भटकती नागमती अपनी वेदना व्यक्त करती है। आखिर वह पुण्यदशा प्राप्त होती है जहाँ सम्पूर्ण जङ-चेतन एक हो जाते हैं।

मानवी संवेदेना पशु-पक्षियों तक भी व्यापक हो जाती है।‘’ ’फिर फिर रोव, कोई नहिं बोला’ में रानी के अकेलेपन और व्यथा की झलक है तो ‘आधी रात विहंगम बोला’। में विरह-वर्णन के चरमोत्कर्ष के दर्शन होते हैं।

नागमती ने पदमावती को भी एक संदेश भेजती है, जिसमें व्यथा के साथ-साथ एक आदर्श हिन्दू गृहिणी का तपोमय स्वरूप भी दिखाई पङता है।

निष्कर्ष- नागमती के विरह-वर्णन की सबसे बङी विशेषता नागमती का अपने रानीपन को भूलकर सामान्य नारी की भाँति विरह-व्यथित होकर अपने हृदयोद्गारों को प्रकट करना है।

आचार्य शुक्ल के शब्दों में, ‘‘ जायसी ने स्त्री जाति की या कम से कम हिन्दू गृहिणी मात्र की सामान्य स्थिति के भीतर विप्रलम्भ शंगार के अत्यन्त समुज्ज्वल रूप का विकास दिखाया गया है।’’

कवि ने विरह के वेदनात्मक स्वरूप का चित्रण करते हुए संवेदनशीलता, विरहजन्य कृशता, करुणा और विश्वव्यापी भावुकता का भी स्वाभाविक, किन्तु मार्मिक चित्रण किया है।

इन सभी विशेषताओं के कारण जायसी को विरह-वर्णन का सम्राट और उनके विरह-वर्णन को हिन्दी साहित्य में अद्वितीय और अमूल्य माना गया है।

वस्तुतः व्यथा की सम्पूर्ण मधुरता, विरह की अपनी सारी मिठास, प्रणय के स्थायित्व और नारी की चरम भावुकता को साकार करने में जायसी को साहित्य में अन्यतम स्थान दिया गया है।

(1.)
चढा आसाढ गगन घन गाजा। साजा विरह दुंद दल बाजा।।
घूम, घाम, घौरे घन धाए। सेत धजा बग पाँति देखाए।।
खङक बीजु चमकै चहुँ ओरा। बुंद बान बरसहिं घन घोरा।।
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी। कंत! उबारु मदन हौं घेरी।।
दादुर मोर कोकिला पीऊ। गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ।।
पुष्य नखत सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नाह, मदिर को छावा।।
अद्रा लागि लाग भुईं लेई। माहि बिनु पिउ को आदर देई?।।
जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौं औ गर्व।
कंत पियारा बाहिरै हम सुख भूला सर्व।।

सप्रंसग व्याख्या- प्रस्तुत पद्यावतरण जायसी कृत पद्मावत काव्य के ‘नागमती वियोग खण्ड’ से लिया गया है। इस अंश के अन्तर्गत कवि जायसी ने नागमती के वर्षाकालीन विरहोद्दीपन का चित्र खींचा है। कवि जायसी कह रहे हैं कि आषाढ मास आते ही आकाश में मेघ गूँजने लगे हैं। विरह ने द्वन्द्व युद्ध के लिए अपनी सेना सजा ली है।

घुमेले काले, धौले बादल सैनिकों की भाँति गगन में दौङने लगे हैं। बगुलों की पक्तियाँ श्वेत ध्वजा-सी दिखने लगी है। खड्ग बिजली के रूप में चारों ओर चमक रहे हैं तथा घोर घनयानी भयानक बूँदों के बाण बरस रहे हैं। आद्र्रा नक्षत्र लग गया है और भूमि बीज ग्रहण करने लगी है अर्था्त खेत बोये जाने लगे हैं।

इतना सब होने पर भी प्रिय के बिना मुझे कौन आदर दे सकता है? चारों ओर घटा झुक आई है। हे कंत! हे प्रियतम! मदन अर्था्त कामदेव ने मुझे चारों ओर से घेर लिया है। ऐसी स्थिति में मुझे आकर बचाओ। दादुर, मोर, कोयल और पपिहे पिउ-पिउ करके मुझे बेध रहे हैं। अब ऐसा प्रतीत होता है कि घट में प्राण नहीं रहेगा। पुष्य नक्षत्र सिर के ऊपर आ गया है, अब श्रीघ ही आने वाला है,

परन्तु मैं बिना स्वामी की हूँ, मेरे मन्दिर- भवन को कौन छायेगा? जिनके घर पति हैं, वे सुखी हैं। उन्हीं को गौरव और गर्व है। मेरा प्यारा कंत तो परदेश में है, इसीलिए मैं सब सुख भूल गयी हूँ।

टिप्पणी-(1)

प्रस्तुत पद्यावतरण में असंगति अलंकार का सार्थक प्रयोग हुआ है। यहाँ पर उद्वेग, प्रलाप, जङता, व्याधि आदि काम दशाएँ व्यंजित हैं।

(2) आषाढ मास के कृष्ण पक्ष में आद्र्रा बरसात होती है। आद्र्रा में किसान भूमि में बीज बोने लगते हैं। आद्र्रा के बाद पुनर्वस आषाढ शुक्ल में और उसके बाद पुष्य श्रावण कृष्ण पक्ष में आता है। पुष्य को लोक में चिरैया नक्षत्र कहते हैं। नागमती आषाढ शुक्ल में कह रही है कि पुष्य सिर पर आ गया है।

(2.)
कातिक सरद चंद उजियारी। जग सीतल, हौं बिरहै जारी।।
चैदह करा चाँद परगासा। जनहुँ जरै सब धरति अकासा।।
तन-मन सेज करै अगिदाहू। सब कहँ चंद, भयऊ मोहि राहू।।
अबहूँ निठुर! आउ एहि बारा। परब देवारी होइ संसारा।।
सखि झूमक गावै अंग मोरी। हौं झुराँव बिछुरी मारि जोरी।।
जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा। मो कहँ विरह, सवति दुख दूजा।।
सखि मानैं तिउहार सब, गाइ देवारी खेलि।
हौं का गावौं कंत बिनु, रही सार सिर मेलि।।

सप्रसंग व्याख्या-

प्रस्तुत पद्यावतरण जायसी कृत ‘पùवत’ काव्य के ‘नागमती वियोग खण्ड’ से लिया गया है। प्रस्तुत अंश के अन्तर्गत विरह-विदग्धा नायिका नागमती के हृद्योद्गारों को व्यक्त किया गया है।

कवि जायसी कह रहे है कि नागमती कह रही है कि कार्तिक मास आ गया है। चारों ओर शरद चन्द्र की चाँदनी छा रही है। सारा संसार शीतल और आनन्दित हो रहा है, किन्तु मैं विरहाग्नि में प्रज्ज्वलित हो रही हूँ।

चन्द्रमा अपनी चैदह अर्था्त सम्पूर्ण कलाओं के साथ प्रकाशित हो रहा है, परन्तु मुझे ऐसा लग रहा है कि सारी धरती ओर आकाश जल रहे हैं। शैया मेरे तन और मन दोनों का अग्निदाह कर रही है।

भाव यह है कि शैया पर जाते ही मेरे तन और मन धू-धू करके जलने लगते है। यह चन्द्रमा सबके लिए तो शीतलता प्रदान करने वाला है, परन्तु मेरे लिए ये राहु के समान दुखदायी हो रहा है। यद्यपि चारों ओर चाँदनी छिटकी हुई है, किन्तु प्रिय स्वामी घर पर न हो तो विरहिणी को सारा संसार अंधकारपूर्ण दिखलाई देने लगता है।

नागमती कह रही है कि ये निष्ठर! अब भी तुम इस समय आ जाओ। देखो तो सही, सारा संसार दीपावली का त्यौहार मना रहा है। सखियाँ अपने अंगों को मरोङ-मरोङ कर अर्था्त नृत्य करती हुई झूूमक गीत गा रही हैं, परन्तु मैं सूखती जा रही हूँ। कारण यह कि मेरी जोङी बिछुङ गई है, मेरा प्रिय मुझसे बिछुङ गया है।

भाव यही है कि सारा संसार दीपावली की खुशियाँ मना रहा है और मैं विरह में तङफ रही हूँ। जिस घर में प्रिय होता है, उस घर की रानी की सारी मनोकामनाएँ पूरी होती रहती हैं। मेरे लिए तो विरह और सौत-इन दोनों का दुगुना दुख है।

अर्थात् एक तो मैं विरह-दुख से व्याकुल हो रही हूँ और दूसरे सौतिया डाह के संताप से व्यथित हो रही हूँ। इस प्रकार मेरा दुख दुगुना हो उठा है।

अन्त में नागमती ने कहा कि मेरी सारी सखियाँ गा-बजाकर त्यौहार मना रही हैं, दीपावली के विविध खेल खेल रही हैं, परन्तु मैं स्वामी के बिना क्या गीत गाऊँ? मैं दुखी होकर अपने सिर में धूल डाल रही हूँ।

टिप्पणी-(1)

‘जग सीतल हौं विरहै जारी’ में विरोधाभास अलंकार का सौंदर्य देखते हीे बनता है। ‘रही छार सिर मेलि’ में अर्थान्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि हैं।
(2) विरह के ऐसे वर्णन अन्य सूफी कवियों ने भी अपने काव्यों में किए हैं जो देखते ही बनते हैं। उदाहरणार्थ मंझन कृत ‘मधुमालती’ में आया यह वर्णन देखिए-
कातिक सरद सताई जारा।
अमी बुन्द बरखै विष धारा।।
मोहि तन विरह अगिनि परचारा।
सरद चाँद माँहि सेज अंगारा।।
सरद रैन तेहि सीतल जेहि पिय कंठ निवास।
सब कहै परब दिवारी मोहि कहँ भा वनवास।।
(3) इस पद्यावतरण में उद्वैग नामक विरहावस्था का व्यंजन हुआ है। आचार्य विश्वनाथ द्वारा विवेचित ‘संताप’ नामक विरह-दशा भी स्पष्ट है।

3.
भा वैसाख तपनि अति लागी। चोआ चीर चंदन भा आगी।।
सूरज जरत हिवंचल ताका। विरह बजागि सौंह रथ हाँका।।
जरत बजागिनि करु, पिउ छाँरा। आई बझाउँ, अँगारन्ह माहाँ।।
तोहि दरसन होइ सीतल नारी। आइ आगि तें करू फुलवारी।।
लागिउँ जरै, जरै जस भारू। फिरि-फिरि भूंजेसि, तजिउँ न बारू।।
सरवर हिया घटत निति जाई। टूक टूक होइकि बिहराई।।
बिहरत हिया करहु पिउ! टेका। दीठि दवंगरा मरेवहु एका।।
कँवल जोे बिगसा मानसर, बिनु जल गएउ सुखाइ।
कबहुं बेलि फिरि पलुहै, जौ पिउ सींचै आइ।।

सप्रसंग व्याख्या-

प्रस्तुत पद्यावतरण जायसी कृत पद्मावत काव्य के ‘नागमती वियोग खण्ड’ से लिया गया है। इस अंश के अन्तर्गत वैसाख की गर्मी का चित्रण किया गया है। कवि जायसी कह रहे हैं कि वैसाख मास आते ही गर्मी पङनी शुरू हो जाती है। गर्मी विरहिणियों को बहुत दुखदायी होती है।

नागमती का विरह दुगुना हो जाता है। कवि जायसी ने इसी स्थिति का चित्रण इस अंश में किया है। कवि कह रहा है कि वैसाख का महीना आ गया है। अत्यन्त गर्मी पङने लग गयी है। यह इतनी अधिक हो गयी है कि रेशमी वस्त्र और चन्दन जैसे शीतल पदार्थ भी शरीर में अग्नि का-सा दाह उत्पन्न करते है। सूर्य जलता हुआ हिमालय की ओर जाना चाहता है। परन्तु उसने विरह की वज्राग्नि का अपना रथ मेरे सम्मुख ही हाँक दिया है।

इस विरह की वज्राग्नि के लिए छाया ही एकमात्र सहारा है। हे प्रिय! तो आओ और भुजते अंगारों में गङी (जलती हुई) मुझ नागमती को आकर बुझाओ (शीतल करो)। तुम्हारे दर्शनों से यह नारी शीतल हो सकती है। इसलिए तुम आकर अग्नि की जगह पर मेरे लिए पुष्पवाटिका का निर्माण करो।

मेरा शरीर भाङ के समान जल रहा है। विरह रूपी तप्त बालू में मेरे प्राण बार-बार भुन रहे हैं। भाव यह है कि जैसे जलती बालू में दाने भूने जाते हैं और बाहर नहीं निकल पाते हैं, उसी प्रकार मेरे प्राण विरह में तपते और भुनते हुए शरीर छोङकर निकल नहीं पाते हैं। सरोवर की तरह मेरा हृदय प्रति-दिन घटता जा रहा है।

एक दिन वह टुकङे-टुकङे होकर कट जायेगा। हृदय कट रहा है। हे प्रिय, तुम उसे सहारा दो और अपनी कृपा-दृष्टि रूपी दँवगरे से उसे एक में मिलाओ। अन्त में नागमती कहती है कि मानसरोवर में कमल खिला था वह बिना जल के सूख रहा है। हे प्रिय! यदि तुम आकर उसे अपने स्नेह के जल से सींचोगे तो उसमें फिर से नये पल्लव अंकुरित हो उठेंगे।

टिप्पणी-

(1) प्रस्तुत पद्यावतरण के अन्तर्गत हेतूत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक और अप्रस्तुतप्रशंसा जैसे अलंकारों का प्रयोग किया गया है।

(2) यहाँ पर दुर्बलता नामक विरह अवस्था व्यंजित हुई है। जीवन के साम्य द्वारा वेदना की मार्मिक विवृत्ति हुई है। इस पद्यावतरण में आये ‘सरवर………….एका’ अंश में प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण द्रष्टव्य है।

(3) ‘सूरज जरत हिवंचल ताका’ से तात्पर्य है कि गर्मी से सूर्य जलने लगा है। उसने हिमालय की ओर जाना चाहा, परन्तु नागमती के शरीर में जलने वाली वज्राग्नि से ज्ञात होता है कि हिमालय की ओर न जाकर सूर्य ने अपना रथ नागमती की ओर हाँक दिया।

इसी से नागमती के शरीर में विरह की अग्नि सूर्य जैसी धधक रही है। सूर्य की गर्मी से त्रस्त होकर हिमालय जाना चाहता है, परन्तु वास्तविक बात यह है कि वह गर्मी में वहाँ जा नहीं पाता, अन्यथा ग्रीष्म ऋतु ही न हो।

4.
भई पुछार लीन्ह बनवासू। बैरिनि संवति दीन्ह चिलबाँसू।।
होइ घर बान विरह तनु लागा। जौ पिउ आवै उडहिं तौ कागा।।
हारिल भई पंथ मैं सेवा। अब तहँ पठवौं कौन परेवा।।
धौरी पंडुक कहु पिउ कंठ लवा। करै मेराव सोइ गौरवा।।
कोइल भई पुकारित रही। महरि पुकारै लेइ लेइ दही।।
पेङ तिलोरी औ जल हंसा। हिरदय पैठि विरह कटनंसा।।
जेहि पंखी के निअर होइ, कहै विरह कै बात।
सोइ पंखी जाइ जरि, तखिर होइ निपात।।

सप्रसंग व्याख्या-

प्रस्तुत पद्यावतरण जायसी कृत पद्मावत काव्य के ‘नागमती वियोग खण्ड’ से लिया गया है। नागमती की वियोग वेदना जब चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो वह अपने प्रिय का पता पूछने के लिए राजप्रसाद को छोङकर जंगल में या खुले में आ जाती है। वन में उसे विभिन्न प्रकार के पक्षी मिलते हैं।

वह उन सभी के समक्ष अपना दुखङा रोती है और अपना ‘रानीपन‘ भूल जाती है। इसी स्थिति को इस पद्यांश में चित्रित किया गया हैं। इस पंद्याश के दो अर्थ किए गए हैं।

पहला अर्थ पक्षियों के संदर्भ से है और दूसरा अर्थ नागमती के संदर्भ से। श्लेष की सहायता से किये गये ये दोनों अर्थ क्रमशः इस प्रकार हैं-
पक्षियों के संदर्भ से- कवि कह रहा है कि नागमती ने मोरनी बनकर वनवास लिया, किन्तु बैरिन सौत ने उसे फँसाने के लिए वहाँ भी फंदा लगा रखा है जो विरह के तीक्ष्ण बाणों के समान उसके हृदय को व्यथित करता है।

वह कौए को देखकर कहती है कि हे कौए! यदि स्वामी आ रहे हों तो उङ जा। हारिल पक्षी मार्ग में ही टिक कर बैठ गया है। अब मैं किस पक्षी को स्वामी के पास भेजूँ? हे धौरी! हे पंडुक! तुम प्रिय के नाम का उच्चारण करो।

जो जोङे से रहता है, वह गोरैया पक्षी होता है। हे बया! तू जा। मैं प्यारे कंठलवा को लेती हूँ। कोयल बनकर मैं पुकारती रही। महरि (ग्वालिनि) ‘लो दही, लो दही’ पुकार रही है। पेङ पर किलोरी तथा जल में हंस क्रीङा कर रहे हैं। नीलकंठ हृदय में घुसकर उङ रहा है।

नागमती के संदर्भ से-

कवि कह रहा है कि नागमती पति की खोज करने के लिए मोरनी के समान वन में जा पहुँची और वहीं विभिन्न पक्षियों से पूछने का प्रयत्न करती हुई भटकने लगी। यहाँ ‘पुछार’ शब्द पूछने वाली के अर्थ में आया है। नागमती ने अपने पति का पता पूछने वाली बनकर वनवास लिया, परन्तु वहाँ उसकी बैरिन सौत ने पक्षियों को फँसाने वाला फंदा लगा रखा है।

अतः कोई पक्षी उसके पास तक नहीं पहुँचता है। यह देखकर नागमती को अपने याद सताने लगी और विरह उसके हृदय में तीखे बाण के समान वेदना उत्पन्न करने लगा। वह एक वृक्ष पर कौए को बैठा देखकर उससे कहती है कि हे कौए! यदि मेरे स्वामी आ रहे हैं तो उङ जा।

(कौए से इस प्रकार कहने से यदि कौआ उङ जाता है तो शुभ शकुन माना जाता है जो प्रियतम के आने का सूचक माना जाता है।) नागमती कह रही है कि मैं मार्ग पर भटकती हुई बहुत थक गयी हूँ। अब मैं किस पक्षी को अपने पति के पास भेजूँ क्योंकि सौत के फंदे के भय से कोई भी पक्षी मेरे पास तक नहीं आता है।

मैं प्रियतम का नाम रटते-रटते श्वेत और पीली पङ गयी हूँ। यदि प्रति के हृदय में मेरे प्रति क्रोध की भावना है अर्थात् वह मुझसे रुष्ट हैं तो मेरे लिए इस संसार में अब कोई स्थान नहीं रह गया है, जहाँ मैं रह सकूँ। अतः तू जाकर मेरे पति से मेरा संदेश कहकर लौट आ और इस प्रकार मुझे अपने पति के कण्ठ से लगने का सौभाग्य प्रदान कर।

नागमती कहती है कि वही पक्षी गौरवशाली होगा जो पति से मेरा मिलन करायेगा। मैं पति का नाम पुकारते-पुकारते कोयल बन गयी हँू। तू जाकर स्वामी से कहना कि तुम्हारी स्त्री बराबर ‘बचाओ, बचाओ, विरह मुझे जलाये डाल रहा है’ इस प्रकार निरन्तर पुकार रही है।

जब मैं वृक्ष पर तिलोरी को तथा जल में हंसों को क्रीङा करते हुए देखती हूँ तोे मुझे अपने पति की स्मृति सताने लगती है और विरह मेरे हृदय में घुसकर मुझे नष्ट करने लगता है।

अन्त में वह कहती है कि मैं जिस पक्षी के पास जाकर अपनी विरह -व्यथा निवेदित करती हूँ वही पक्षी मेरी विहराग्नि की ज्वाला से जलकर भस्म हो जाता है और उस वृक्ष के सारे पत्र जल जाने के कारण वह पत्रहीन हो जाता है।

टिप्पणी-

(1) प्रस्तुत पद्यावतरण के अन्तर्गत मुद्रा, श्लेष और ऊहा अलंकारों का प्रयोग हुआ है, साथ ही मसनवी शैली का प्रयोग भी सार्थक बन पङा है।

नेट जेआरएफ हिंदी के बेहतरीन नोट्स के लिए यहाँ क्लिक करें 

नागमती वियोग खण्ड

ये भी अच्छे से जानें ⇓⇓

 

  • समास क्या होता है ?
  • परीक्षा में आने वाले मुहावरे 
  • सर्वनाम व उसके भेद 
  • महत्वपूर्ण विलोम शब्द देखें 
  • विराम चिन्ह क्या है ?
  • परीक्षा में आने वाले ही शब्द युग्म ही पढ़ें 

 

  • साहित्य के शानदार वीडियो यहाँ देखें 
Tweet
Share34
Pin
Share
34 Shares
Previous Post
Next Post

Reader Interactions

ये भी पढ़ें

  • My 11 Circle Download – Latest Version App, Apk , Login, Register

    My 11 Circle Download – Latest Version App, Apk , Login, Register

  • First Grade Hindi Solved Paper 2022 – Answer Key, Download PDF

    First Grade Hindi Solved Paper 2022 – Answer Key, Download PDF

  • Ballebaazi App Download – Latest Version Apk, Login, Register, Fantasy Game

    Ballebaazi App Download – Latest Version Apk, Login, Register, Fantasy Game

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Primary Sidebar

Subscribe Us Now On Youtube

Search

सम्पूर्ण हिंदी साहित्य पीडीऍफ़ नोट्स और 5000 वस्तुनिष्ठ प्रश्न मात्र 100रु

सैकंड ग्रेड हिंदी कोर्स जॉइन करें

ट्विटर के नए सीईओ

टेलीग्राम चैनल जॉइन करें

Recent Posts

  • द्वन्द्व समास – परिभाषा, उदाहरण, पहचान || Dwand samas
  • द्विगु समास – परिभाषा, उदाहरण, पहचान || Dvigu Samas
  • NTA UGC NET Hindi Paper 2022 – Download | यूजीसी नेट हिंदी हल प्रश्न पत्र
  • My 11 Circle Download – Latest Version App, Apk , Login, Register
  • First Grade Hindi Solved Paper 2022 – Answer Key, Download PDF
  • Ballebaazi App Download – Latest Version Apk, Login, Register, Fantasy Game
  • कर्मधारय समास – परिभाषा, उदाहरण, पहचान || Karmadharaya Samas
  • Rush Apk Download – Latest Version App, Login, Register
  • AJIO App Download – Latest Version Apk, Login, Register
  • अव्ययीभाव समास – परिभाषा, भेद और उदाहरण || Avyayibhav Samas

Categories

  • All Hindi Sahitya Old Paper
  • App Review
  • General Knowledge
  • Hindi Literature Pdf
  • hindi sahitya question
  • Motivational Stories
  • NET/JRF टेस्ट सीरीज़ पेपर
  • NTA (UGC) NET hindi Study Material
  • Uncategorized
  • आधुनिक काल साहित्य
  • आलोचना
  • उपन्यास
  • कवि लेखक परिचय
  • कविता
  • कहानी लेखन
  • काव्यशास्त्र
  • कृष्णकाव्य धारा
  • छायावाद
  • दलित साहित्य
  • नाटक
  • प्रयोगवाद
  • मनोविज्ञान महत्वपूर्ण
  • रामकाव्य धारा
  • रीतिकाल
  • रीतिकाल प्रश्नोत्तर सीरीज़
  • विलोम शब्द
  • व्याकरण
  • शब्दशक्ति
  • संतकाव्य धारा
  • संधि
  • समास
  • साहित्य पुरस्कार
  • सुफीकाव्य धारा
  • हालावाद
  • हिंदी डायरी
  • हिंदी पाठ प्रश्नोत्तर
  • हिंदी साहित्य
  • हिंदी साहित्य क्विज प्रश्नोतर
  • हिंदी साहित्य ट्रिक्स
  • हिन्दी एकांकी
  • हिन्दी जीवनियाँ
  • हिन्दी निबन्ध
  • हिन्दी रिपोर्ताज
  • हिन्दी शिक्षण विधियाँ
  • हिन्दी साहित्य आदिकाल

हमारा यूट्यूब चैनल देखें

Best Article

  • बेहतरीन मोटिवेशनल सुविचार
  • बेहतरीन हिंदी कहानियाँ
  • हिंदी वर्णमाला
  • हिंदी वर्णमाला चित्र सहित
  • मैथिलीशरण गुप्त
  • सुमित्रानंदन पन्त
  • महादेवी वर्मा
  • हरिवंशराय बच्चन
  • कबीरदास
  • तुलसीदास

Popular Posts

Net Jrf Hindi december 2019 Modal Test Paper उत्तरमाला सहित
आचार्य रामचंद्र शुक्ल || जीवन परिचय || Hindi Sahitya
तुलसीदास का जीवन परिचय || Tulsidas ka jeevan parichay
रामधारी सिंह दिनकर – Ramdhari Singh Dinkar || हिन्दी साहित्य
Ugc Net hindi answer key june 2019 || हल प्रश्न पत्र जून 2019
Sumitranandan pant || सुमित्रानंदन पंत कृतित्व
Suryakant Tripathi Nirala || सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

Footer

हिंदी व्याकरण

 वर्ण विचार
 संज्ञा
 सर्वनाम
 क्रिया
 वाक्य
 पर्यायवाची
 समास
 प्रत्यय
 संधि
 विशेषण
 विलोम शब्द
 काल
 विराम चिह्न
 उपसर्ग
 अव्यय
 कारक
 वाच्य
 शुद्ध वर्तनी
 रस
 अलंकार
 मुहावरे लोकोक्ति

कवि लेखक परिचय

 जयशंकर प्रसाद
 कबीर
 तुलसीदास
 सुमित्रानंदन पंत
 रामधारी सिंह दिनकर
 बिहारी
 महादेवी वर्मा
 देव
 मीराबाई
 बोधा
 आलम कवि
 धर्मवीर भारती
मतिराम
 रमणिका गुप्ता
 रामवृक्ष बेनीपुरी
 विष्णु प्रभाकर
 मन्नू भंडारी
 गजानन माधव मुक्तिबोध
 सुभद्रा कुमारी चौहान
 राहुल सांकृत्यायन
 कुंवर नारायण

कविता

 पथिक
 छाया मत छूना
 मेघ आए
 चन्द्रगहना से लौटती बेर
 पूजन
 कैदी और कोकिला
 यह दंतुरित मुस्कान
 कविता के बहाने
 बात सीधी थी पर
 कैमरे में बन्द अपाहिज
 भारत माता
 संध्या के बाद
 कार्नेलिया का गीत
 देवसेना का गीत
 भिक्षुक
 आत्मकथ्य
 बादल को घिरते देखा है
 गीत-फरोश
Copyright ©2020 HindiSahity.Com Sitemap Privacy Policy Disclaimer Contact Us