अपभ्रंश साहित्य -आदिकाल (हिंदी साहित्य)

आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आदिकाल के अंतर्गत अपभ्रंश साहित्य (Apbhransh Sahitya) को अच्छे से पढेंगे ,इससे जुड़ें महत्त्वपूर्ण तथ्य भी पढेंगे ।

अपभ्रंश साहित्य – Apbhransh Sahitya

आधुनिक भाषाओं के उदय से पहले उत्तर भारत में बोलचाल और साहित्य रचना की सबसे जीवंत और प्रमुख भाषा अपभ्रंश थी। भाषा वैज्ञानिक दृष्टी से अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था है ,जो प्राकृत और आधुनिक भाषाओं के बीच की स्थिति है।

भरतमुनि ने अपभ्रंश को देशभाषा कहा था। शुक्ल के अनुसार अपभ्रंश नाम सर्वप्रथम वल्लभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेखों में मिलता है।

डॉ. हरदेव बाहरी ने सातवीं शती से ग्यारहवीं शती के अंत तक को ‘अपभ्रंश का स्वर्णकाल’ माना है। अपभ्रंश में तीन प्रकार के बंध मिलते हैं- 1. दोहा बंध, 2. पद्धड़िया बंध और 3. गेय पद बंध। अपभ्रंश का चरित काव्य (किसी चरित्र – विशेष पर आधारित काव्य) पद्धड़िया बंध में लिखा गया है। चरित काव्यों में पद्धड़िया छंद की आठ-आठ पंक्तियों के बाद धत्ता दिया रहता है, जिसे ‘कड़वक’ कहते हैं।

अपभ्रंश साहित्य में अधिकांश जैन साहित्य लिखा गया है ।

नोट : मध्यकालीन आर्यभाषा की तीसरी अवस्था – अपभ्रंश

आज हम हिंदी साहित्य के आदिकाल के अंतर्गत अपभ्रंश साहित्य की चर्चा करने वाले है ।

स्वयंभू देव:

  • पउमचरिउ
  • रिट्ठमेणिचरिउ
  • स्वयंभूछंद
  • पंचमि चरिउ

ट्रिकः स्वंय पंच परि

”हिंदी का प्रथम कवि स्वयंभू है “‘ – डॉ . रामकुमार वर्मा

विशेष :-

1. इनका समयकाल आठवीं शताब्दी (783 ई.) निर्धारित किया जाता है।

2. ’पउमचरिउ’ रचना में भगवान राम के चरित्र का वर्णन किया गया है। अतएव इस रचना को ’अपभ्रंश की रामायण कथा’ एवं स्वयंभू को ’अपभ्रंश का वाल्मीकि’ कहा जाता है।
3. ’रिट्ठमेणिचरिउ’ रचना में कृष्ण के चरित्र का वर्णन किया गया है।
4. इनको अपभ्रंश का प्रथम महाकवि भी कहा जाता है।
5. ’पउमचरिउ’ अपभ्रंश की प्रथम कडवक बद्ध रचना (7 चौपाई + 1 दोहा) है।
6. ’पउमचरिउ’ में 12000 श्लोक है। इनमें पाँच काण्ड एवं 90 संधियाँ हैं। इनमें से 83 संधियाँ ’स्वयंभू’ के द्वारा तथा
शेष सात संधियाँ उनके पुत्र त्रिभुवन द्वारा रचित मानी जाती है।
7. डा. रामकुमार वर्मा ने स्वयंभू को हिन्दी का प्रथम कवि माना है।
8. स्वयंभू ने अपनी भाषा को ‘ देशी भाषा’ कहा है।

पुष्पदंत

  • महापुराण
  • णयकुमारचरिउ (नाग कुमार चरित्र)
  • जसहरचरिउ (अन्य नाम -यशोधरा चरित्र)
  • कोश ग्रंथ

विशेष –

1. इनका स्थितिकाल दसवीं शताब्दी माना जाता है।
2. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार -’’यह पुष्य सम्भवतः अपभ्रंश का प्रसिद्ध कवि पुष्यदंत है जिसका
आविर्भाव 9 वीं शती में हुआ।’’
3. शिवसिंह सेंगर ने पुष्य कवि को ’भाखा की जङ’ कहा है।
4. पुष्यदंत ने स्वयं को ’अभिमान मेरु’, ’काव्यरत्नाकर’, ’कविकुल तिलक’ आदि उपाधियों से विभूषित किया है।
5. ये प्रारंभ में शैव मतानुयायी थे, किंतु बाद में अपने आश्रयदाता के अनुरोध पर ’जैन’ पंथ स्वीकार कर लिया।
6. साहित्यिक शिल्प एवं तात्त्विक दृष्टि से इनकी रचनाओं पर ’जिनभक्ति’ का प्रभाव देखने को मिलता है।
7. इनकी ’महापुराण’ रचना में तिरसठ महापुरुषों (शलाका पुरुषों) की जीवन घटनाओं का वर्णन किया गया है।
प्रसंगवश रामकथा का उल्लेख भी प्राप्त हो जाता है।
8. शिवसिंह सेंगर ने इनको ’अपभ्रंश का भवभूति’ कहकर पुकारा है।
9. ’महापुराण’ रचना के कारण इनको ’अपभ्रंश का वेदव्यास’ भी कहा जाता है।

धनपाल

  • भविसयत्तकहा

विशेष –

1. इनका स्थितिकाल दसवीं शताब्दी माना जाता है।
2. पाश्चात्य विद्वान डाॅ. विण्टरनित्ज महोदय ने इस रचना को ’रोमांटिक महाकाव्य’ की संज्ञा प्रदान की है।

अब्दुल रहमान

  • संदेशरासक

विशेष –

1. इनका स्थितिकाल बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं तेरहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध काल निर्धारित किया जाता
है।
2. ’संदेशरासक’ एक खण्डकाव्य है, जिसमें विक्रमपुर की एक वियोगिनी के विरह की कथा वर्णित है।
3. इनको ’अद्दहमाण’ के नाम से भी जाना जाता है।
4. ये किसी भी भारतीय भाषा में रचना करने वाले प्रथम मुसलमान कवि माने जाते हैं।
5. ’संदेश रासक’ शृंगार काव्य परम्परा की सर्वप्रथम रचना भी मानी जाती है।

जोइन्दु उर्फ (योगीन्द्र)

  • परमात्मप्रकाश
  • योगसार

विशेष –

1. इनका स्थितिकाल छठी शताब्दी निर्धारित किया जाता है।
2. अपभ्रंश भाषा में दोहा-काव्य का आरम्भ छठी शताब्दी के कवि जोइन्दु से माना जाता है।

रामसिंह

  • पाहुड दोहा

विशेष –

1. इनका स्थितिकाल ग्यारहवीं शताब्दी निर्धारित किया जाता है।
2. इस रचना में इंद्रिय-सुख एवं अन्य सांसारिक सुखों की निंदा की गई है तथा त्याग, आत्मज्ञान और आत्मानुभूति
को महत्त्व दिया गया है।

हेमचंद्र

  • शब्दानुशासन
  • प्राकृत व्याकरण
  • छंदोनुशासन
  • देशीनाममाला (कोश ग्रंथ)

विशेष –

1. इनका स्थितिकाल बारहवीं शताब्दी निर्धारित किया जाता है।
2. हेमचन्द्र गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह और उनके भतीजे कुमार पाल के राजदरबार में रहते थे।
3. आचार्य के व्याकरण का नाम ’सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन’ था।
4. हेमचन्द्र का व्याकरण ’सिद्ध हेम’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
5. ’सिद्ध हेम’ में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का समावेश किया गया है।
6. हेमचन्द्र प्रसिद्ध जैन आचार्य थे और इनका जन्म 1088 ई. में हुआ।
7. हेमचन्द्र को प्राकृत का पाणिनी माना जाता है। अपने व्याकरण के उदाहरणों के लिए हेमचन्द्र ने भट्टी के समान एक ’द्वयाश्रय काव्य’ की भी रचना की है।
8. ये गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह (वि.सं. 1150-1199) और उनके भतीजे कुमारपाल (वि.सं. 1199-1230) के आश्रय में रहे थे।
9. इनकी रचना ’सिद्ध-हेमचंद्र-शब्दानुशासन’ एक बङा भारी व्याकरण ग्रंथ है। इसमें संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश तीनों भाषाओं का समावेश किया गया है।

अपभ्रंश के उदाहरणों में इन्होंने पूरे दोहे या पद्य उद्धृत किये हैं। यथा –

’भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु।
लज्जेजं तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु।।’

’पिय संगमि कउ निद्दङी? पियहो परक्खहो केंव।
मइँ बित्रिवि बित्रासिया, निंद्दन एँव न तेंव।।’

’जइ सो न आवइ, दुइ! धरु, काँइ अहोमुहु तुज्झु।
वयणु ज खंढइ तउ, सहि ए! सो पिउ होइ न मुज्झु।।’

आदिकाल की अन्य रचनाएँ –

रचना का नामरचनाकार का नाम
प्राकृत प्रकाशवररुचि
पृथ्वीराज विजयजयानक
कुवलयमालाउद्योतनसूरि
भावना संधि प्रकरणजयदेव मुनि
दोहा पाहुङमहचंद मुनि
आनंदा-आनंद स्रोतमहाणदि आनंद
संयम मंजरीमहेश्वर सूरि
सन्तकुमार चरिउहरिभद्र सूरि
नेमिनाथ चरिउहरिभद्र सूरि
धम्म परिक्खा (धर्म परीक्षा)हरिषेण
प्राकृत व्याकरणहेमचंद्र सूरि
छंदोनुशासनहेमचंद्र सूरि
देशीनाममाला (कोश ग्रंथ)हेमचंद्र सूरि
अचलदास खींची री वचनिकाशिवदास गाडण

निष्कर्ष :

आज के आर्टिकल में हमनें हिंदी साहित्य के आदिकाल के अंतर्गत अपभ्रंश साहित्य (Apbhransh Sahitya) को अच्छे से पढ़ा  ,इससे जुड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी आपको अच्छी लगी होगी ….धन्यवाद ।

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