सिद्ध साहित्य – हिंदी साहित्य का आदिकाल

आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आदिकाल के अंतर्गत सिद्ध साहित्य(Siddh Sahitya) को विस्तार से पढेंगे ,इस टॉपिक में वही तथ्य दिए गए है जो हर परीक्षा में पूछे जाते है।

आदिकालीन सिद्ध साहित्य

सिद्ध साहित्य
सिद्ध साहित्य

“बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा से जो साहित्य देशभाषा में लिखा गया वही सिद्ध साहित्य(Siddh Sahitya) कहलाता है।”

बौद्ध धर्म विकृत होकर वज्रयान संप्रदाय के रूप में देश के पूर्वी भागों में फैल चुका था बिहार से लेकर आसाम तक यह फैले थे। इनका प्रमुख केंद्र ‘श्री पर्वत’ था।  बिहार के नालंदा और तक्षशिला विद्यापीठ इनके प्रमुख अड्डे माने जाते हैं। इन बौद्ध तांत्रिकों में वामाचार की गहरी प्रवृत्ति पाई जाती थी।

बौद्ध धर्म  दो भागो में हीनयान और महायान में विभाजित हुआ। कालांतर में महायान से मंत्रयान और वज्रयान हुआ और वज्रयान से सहजयान में रूपांतरित हुआ।

राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है। यह सिद्ध अपने नाम के अंत में आदर के रूप मे ‘पा’ शब्द का प्रयोग करते थे
जैसे : सरहपा, लुईपा

मुनि अद्वय वज्र तथा मुनिदत्त सूरी ने सिद्धों की भाषा संध्या भाषा /संधा भाषा  कहा है। जिसका अर्थ होता है “कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट “। हरप्रसाद शास्त्री ने सिद्धों की भाषा को ‘आलोअंधारी ‘(अँधेरे में उजाला) कहा है।  बौद्ध- ज्ञान -ओ -दोहा नाम से बांग्ला भाषा में हरप्रसाद शास्त्री ने सिद्ध साहित्य का संग्रह प्रकाशित करवाया।

नोट : सिद्धों की रचनाएँ ‘संधा/ संध्या’ भाषा शैली में है। संधा भाषा वस्तुतः अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करने वाली प्रतीकात्मक भाषा शैली है।

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, चर्यागीत और दोहाकोश की रचना करने वाले पहले बौद्ध सिद्ध ‘सरहपा’ हैं। ‘सरहपा’ को हिन्दी का पहला कवि माना जाता है। राहुल सांकृत्यायन ने ‘सरहपा’ का समय 769 ई. स्थिर किया है। बाबू गुलाब राय तथा डॉ. विनय तोष भट्टाचार्य ने इसका समर्थन किया है। अधिकांश विद्वानों को यही समय मान्य है। बच्चन सिंह ने लिखा है- ” आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में ही दिखायी देता है। “I

सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ :

  • इस साहित्य में तंत्र साधना पर अधिक बल दिया जाता था।
  • अंतर्मुखी साधना पर बल।
  • रागात्मक प्रवृति को बल।
  • प्रवृत्तिमुलक और निवृत्तिमुलक दृष्टीकोण  का समन्वय ।
  • जाति प्रथा और वर्ण भेद व्यवस्था का विरोध किया गया।
  • जीवन की सहजता और स्वभाविकता पर बल।
  • शिव व शक्ति की युगल रूप में उपासना।
  • सहज साधना और सहज मार्ग की उपासना।
  • महासुखवाद का प्रवर्तन।
  • सिद्ध साहित्य में योग में काया – साधना की भूमियों का निरूपण
  • अपने धर्म का मंडन किया और वैदिक धर्म का खंडन किया गया। (खंडन और मंडन की प्रवृति)।
  • ब्राह्मण व वैदिक धर्मों का खंडन।
  • सिद्धो में पंचमकार की दुष्प्रवृत्ति देखने को मिलती है – मांस,मछली, मदिरा,मुद्रा और मैथुन।
  • पंच बिड़ाल(आलस्य, हिंसा , काम,चिकित्सा और मोह)  पर प्रतिबन्ध।
  • जीवन और जगत के प्रति सकारत्मक रवैया।
  • रहस्यात्मक और प्रतीकात्मक भाषा शैली।
  • मुक्तक काव्य की प्रचुरता।
  • शून्यवाद की प्रतिष्ठा।
  • वाममार्गी साधना पद्यति।
  • सिद्ध साहित्य नीरस व शुष्क न होकर सरस।
  • सिद्ध मोक्ष का विश्वास नहीं।

सिद्ध साहित्य दोहाकोश और चर्यापद के रूप में उपलब्ध है। सिद्धों की रचना इन्हीं दो काव्यरूपों में मिलती है।

महामुद्रा क्या था?

सिद्धों ने नारी को साधना का केन्द्र बिन्दु माना। सिद्धि प्राप्ति के लिए स्त्री का योग या सेवन आवश्यक था । सिद्ध इसे ही ‘शक्ति-योगिनी’ या ‘महामुद्रा’ कहते थे ।

राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है जिनमें सिद्ध सरहपा से यह साहित्य आरंभ होता है। सिद्धो की भाषा में उलट भाषा शैली का पूर्व रूप देखने को मिलता है जो आगे चलकर कबीर मे देखने को मिला।

‘सिद्ध साहित्य’ आदिकालीन हिन्दी साहित्य की एक प्रमुख काव्यधारा है। सिद्धों की कुल संख्या 84 मानी जाती है, जिसमें मणिभद्रपा, लक्ष्मीकरा तथा कनखलापा योगिनी थीं। इन तीनों के अतिरिक्त ‘मेखलापा’ भी सिद्ध योगिनी थीं। इस प्रकार 84 सिद्धों में से 4 महिलाएँ थीं।

सिद्ध साहित्य के प्रमुख कवि

 

गुरू शिष्य परम्परा के अनुसार क्रम – सरहपा ⇒ शबरपा ⇒ लुइपा
कालक्रम (समय) की दृष्टि से क्रम – सरहपा ⇒ लुइपा ⇒ शबरपा

लुइपा
->
शबरपा

सरहपा

  • सरहपा को हिन्दी का पहला कवि माना गया है।
  • हिंदी में सर्वप्रथम दोहा और चौपाई शैली का प्रयोग करने वाले कवि
  • इनका समय 769 ई.माना जाता है।
  • यह जाति से ब्राह्मण माने जाते हैं।
  • इन्हें सरहपाद,सरोज वज्र, राहुल भद्र आदि नामों से भी जाना जाता है।
  • इनके द्वारा रचित कुल 32 ग्रंथ थे।
  • जिनमें से दोहाकोश सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है।
  • दोहाकोश का संपादन प्रबोध चंद्र बागची ने किया।
  • डॉक्टर बच्चन सिंह के अनुसार :- “आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में ही दिखाई देता है।”
  • सरहपा को सहज यान शाखा के प्रवर्तक भी कहा जाता है।
  • सहजिया संप्रदाय के प्रवर्तक सरहपा माने जाते हैं।
  • यह पाल शासक धर्मपाल के समकालीन थे।

शबरपा

  • यह सरहपा के शिष्य माने जाते हैं।
  • इनके गुरु सरहपा माने जाते हैं।
  • लूईपा इनके शिष्य माने जाते है।
  • चर्यापद, महामुद्रा वज्र गीति, वज्र योगिनी साधना इनके प्रमुख ग्रंथ हैं।
  • चर्यापद एक प्रकार का गीत है जो सामान्यतः अनुष्ठानों के समय गाया जाता है।

लूईपा

  • यह सरहपा के शिष्य थे।
  • 84 सिद्धों में इनका स्थान सबसे ऊंचा माना जाता है
  • इनका ग्रंथ लूइपागीतिका है
  • लूइपागीतिका में 240 पद है और यह खंडकाव्य है
  • यह उपदेश प्रधान रचना है। इसमें वणिक कथा के माध्यम से सहज जीवन के महत्त्व को समझाया गया है।
  • सिद्ध साहित्य के सर्वाधिक रहस्यवादी कवि
  • इनकी साधना का प्रभाव देखकर उड़ीसा के राजा दारिकपा इनके शिष्य हो गए।
  • “ काआ तरूवर पंच विडाल , चंचल चीआ पइठो काल । ” इनकी चर्चित पंक्ति।
  • सर्वाधिक रह्स्याताम्कता  और दार्शनिकता  से युक्त काव्य।

डोम्भिपा

  • यह मगध के क्षत्रिय थे।
  • इनके ग्रंथों की संख्या 21 है
  • डोम्बिगीतिका, योगचर्या अक्षरद्विकोपदेश इनकी प्रमुख रचनाएँ है

कन्हपा/कृष्णपा

  • जन्म : 820 ई.(सर्वमान्य)
  • यह सिद्धो में सर्वश्रेष्ठ विद्वान तथा सबसे बड़े कवि थे।
  • इनका जन्म कर्नाटक के ब्राह्मण परिवार में हुआ।
  • “कणहपा पांडित्य और कवित्व के बेजोड़ थे” –राहुल सांकृत्यायन
  • इन्होंने जालंधरपा को अपना गुरु बनाया।
  • राजा देवपाल के समकालीन

कुक्कुरिपा

  • इनके गुरु चर्पटिया थे
  • इनका ग्रंथ योगभावनोपदेश था।

आज के आर्टिकल में हमनें  हिंदी साहित्य के आदिकाल के अंतर्गत सिद्ध साहित्य(Siddh Sahitya) को पढ़ा, हम आशा करतें है कि आपने कुछ नया सीखा होगा ,आर्टिकल में कोई त्रुटी हो तो जरुर लिखें।

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