आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आदिकाल के अंतर्गत रासो काव्य (Raso Kavya) को पढेंगे , इस टॉपिक में हम रासो का अर्थ ,प्रमुख रासो काव्य ग्रन्थ और रासो काव्य की विशेषताएँ पढेंगे।
रासो साहित्य – Raso Kavya

रासो शब्द की उत्पत्ति
1.आचार्य शुक्ल ने रासो शब्द की उत्पत्ति रसायण शब्द से मानी है।
2.आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रासो शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के रासक शब्द से मानी हैं।
रासक – रासअ -रासा – रासो
3.नरोत्तम स्वामी ने रासक से रासो शब्द की उत्त्पत्ति मानी है।
4.दशरथ शर्मा व माता प्रसाद गुप्त ने रासो शब्द की उत्त्पत्ति रासक से मानी है।
5.नंद दुलारे वाजपेयी ने रास शब्द से उत्त्पत्ति मानी है।
रासो साहित्य की विशेषता – Raso kavya ki visheshta
- यह साहित्य मुख्यत: चारण कवियों के द्वारा रचा गया।
- इन रचनाओं में चारण कवियों के द्वारा अपने आश्रय दाता के शौर्य और ऐश्वर्य का वर्णन किया गया।
- चारण कवियों की संकुचित मानसिकता देखने को मिलती है।
- इनमें डिंगल और पिंगल शैली का प्रयोग हुआ है।
- युद्ध व प्रेम का अधिक वर्णन होने के कारण इसमें श्रृंगार और वीर रस की प्रधानता है।
- इनकी प्रमाणिकता संदिग्ध व अर्द्धप्रमाणिक मानी जाती है।
प्रमुख रासो ग्रंथ
पृथ्वीराज रासो :-
⇒ लेखक – चंदबरदाई
⇒ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि चंदबरदाई हिंदी के प्रथम महाकवि है, और पृथ्वीराज रासो हिंदी का प्रथम महाकाव्य।
⇒ मिश्र बंधुओं के अनुसार हिंदी का वास्तविक प्रथम महाकवि चंद्रवरदाई को ही कहा जा सकता है।
⇒ नरोत्तम स्वामी के अनुसार यह मुक्तक रचना मानी जाती है।
⇒ इसका प्रधान रस वीर है।
⇒ पृथ्वीराज रासो में 69समय (खंड )का प्रयोग हुआ है।
⇒ इसमें 68 छंदो का प्रयोग हुआ है।
⇒ इसकी रचना शैली पिंगल भाषा है।
⇒ जिसमें राजस्थानी और ब्रजभाषा को सम्मिलित किया गया है।
⇒ कयमास वध प्रसंग इसी ग्रंथ मे है।
⇒ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे शुक शुकी संवाद कहां है।
⇒ डॉ वूलर ने 1875 ई. मे जयानक के पृथ्वीराज विजय के आधार पर इसे अप्रमाणिक घोषित किया है।
⇒ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार यह पूरा ग्रंथ जाली है।
पृथ्वीराज रासो को अप्रमाणिक मानने वाले विद्वान
- गौरीशंकर हीराचंद ओझा
- कविराज मुरारी दान एवं श्यामल दान
- मुंशी देवी प्रसाद
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- डॉ वूलर
- मोती लाल मेनारिया
अर्द्धप्रमाणिक मानने वाले विद्वान
- हजारी प्रसाद द्विवेदी
- अगर चंद नाहटा
- मुनिजिन विजय
- सुनीतिकुमार चटर्जी
प्रमाणिक मानने वाले इतिहासकार
- डॉ श्याम सुंदर दास
- मोहनलाल विष्णु लाल पंड्या
- मथुरा प्रसाद दीक्षित
- डॉ दशरथ शर्मा
- अयोध्या सिंह उपाध्याय
- डॉ नगेंद्र
- जॉर्ज ग्रियर्सन
⇒ डॉ नगेंद्र ने इस रचना को घटना कोश कहकर पुकारा है।
⇒ डॉ नामवर सिंह ने चंद्रवरदाई को छंदों का राजा कहा है।
⇒ कर्नल जेम्स टॉड ने इस रचना को ऐतिहासिक ग्रंथ माना है
⇒ बाबू गुलाब राय ने इस रचना को स्वभाविक विकासशील महाकाव्य कहां है।
⇒ बाबू श्यामसुंदर दास ने उदय नारायण तिवारी ने इसे विशाल वीर काव्य कहा है।
⇒ डॉक्टर बच्चन सिंह के अनुसार यह एक राजनीतिक महाकाव्य है दूसरे शब्दों में राजनीति के महाकाव्यात्मक त्रासदी है।
पृथ्वीराज रासो रचना की हस्तलिखित कृतियों के निम्न चार रूपांतरण प्राप्त होते हैं
⇒ वृहद रूपांतरण :- इसमें 69 समय और 16306 छंद है।इसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा काशी मे हुआ इसकी हस्त लिखित प्रति उदयपुर मे है।
⇒ मध्यम रूपांतरण :- इसमें 7000छंद है।इसकी प्रतिया अबोहर और बीकानेर मे सुरक्षित है
⇒ लघु रूपांतरण इसमें 3500 छंद है। यह बीकानेर मे सुरक्षित है।
⇒ लघुतम रूपांतरण इसमें 1300छंद है। डॉ दशरथ शर्मा ने इसे ही मूल संस्करण माना है।
बीसलदेव रासो
- लेखक नरपति नाल्ह
- रचना समय -1155 विक्रम संवत
- इसका प्रधान रस श्रृंगार है
- इसका काव्य स्वरूप मुक्तक है
- इसमें कुल छंद 128 है
- माता प्रसाद गुप्त ने इसकी 128 छंदों की एक प्रति का संपादन किया है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार वीर गीत परंपरा का प्राचीनतम ग्रंथ बीसलदेव रासो है।
- इसकी नायिका राजमती है
- इसका नायक बीसलदेव तृतीय है।
- इसका विभाजन चार खंडों में किया गया है
- प्रथम खंड में राजमती और बीसलदेव के विवाह का वर्णन है
- इसके दूसरे खंड में बीसलदेव के उड़ीसा चले जाने का वर्णन है
- तीसरा खंड में राजमती के विरह वर्णन को दर्शाया गया है
- चतुर्थ खंड में बीसलदेव और राजमती का पुनर्मिलन है , इसमें राजस्थानी ब्रज और मध्य देश की भाषा का प्रयोग हुआ है
- इस की रचना शैली पिंगल मानी जाती है।
- हिंदी में बारहमासा का सर्वप्रथम वर्णन इसी ग्रंथ में हुआ
परमाल रासो
- लेखक : जगनिक
- रचनाकाल 1230 विक्रम संवत
- जगनिक कालिंजर के राजा परमर्दीदेव का दरबारी भाट कवि था। जिसने महोबे के 2 प्रसिद्ध वीरों आल्हा और उदल का वर्णन किया है।
- 1865 मे चार्ल्स इलियट के द्वारा आल्हाखंड का प्रकाशन करवाया गया।
- श्याम सुंदर दास ने इसे परमालरासो के नाम से प्रकाशन करवाया।
- वाटर फील्ड ने इसका प्रकाशन अंग्रेजी मे किया।
⇒ इस रचना के गीतों की गेय परम्परा का प्रमुख केंद्र बैंसवाड़ा, महोबा, बुंदेलखंड माने जाते है।
⇒ परमाल रासो को आसाढ़, श्रावण मास मे गया जाता है।
खुमान रासो
- लेखक :-दलपत विजय
- इनका रचनाकाल 9वीं शताब्दी माना जाता है
- इस रचना में कुल 5000 छंद है जिसमें वीर रस की प्रधानता है
- इस ग्रंथ की प्रमाणिक हस्तलिखित प्रति पुणे संग्रहालय में सुरक्षित है
- इस ग्रंथ में चित्तौड़ के रावल खुमान के साथ बगदाद के खलीफा अल मामू के युद्धों का वर्णन है।
- आचार्य शुक्ल के अनुसार 710 ईसवी से 1000 के बीच चित्तौड़ के रावल कुमाण नाम के तीन राजा हुए कर्नल टॉड ने इनको एक मानकर उनके युद्धो का विस्तार से वर्णन किया है।
- द्वितीय खुमाण के नाम पर खुमाण रासो की रचना हुई जिसका काल 870 -900विक्रम संवत है।
- खुमाण रासो की भाषा राजस्थानी है।
हम्मीर रासो
- शारंगधर द्वारा रचित
- इस रचना की मूल प्रति प्राप्त नहीं हुई है।
- प्राकृत पेंगलम मे कुछ पदों से इस रचना का पता चलता है।
- आचार्य शुक्ल ने इस ग्रंथ से अपभ्रंश रचनाओं की समाप्ति हुई मानी जाती है।
- रामचंद्र शुक्ल के अनुसार यह पुस्तक साहित्यिक पुस्तक के अंतर्गत आती है।
विजयपाल रासो
- नाल्ह सिंह द्वारा रचित।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार यह पुस्तक साहित्यिक पुस्तक के अंतर्गत आती है।
आज के आर्टिकल में हमने हिंदी साहित्य के आदिकाल के अंतर्गत रासो काव्य (Raso Kavya) को पढ़ा ,अगर इस आर्टिकल में कोई भी त्रुटी हो तो नीचे कमेंट बॉक्स में जरुर लिखें ,आर्टिकल को समय -समय पर अपडेट किया जाएगा।
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