आज की पोस्ट में हिंदी साहित्य के इतिहास के अंतर्गत परीक्षोपयोगी द्विवेदी युगीन महत्त्वपूर्ण पंक्तियाँ दी गयी है ,इन्हें आप कंठस्थ कर लेवें | अच्छी लगे तो शेयर जरुर करें
द्विवेदी युगीन कवियों की महत्वपूर्ण काव्य पंक्तियाँ
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महावीर प्रसाद द्विवेदी
सुरम्यरूपे, रसराशि-रंजिते,
विचित्र वर्णाभरणे! कहाँ गई ?
तुम्हीं अन्नदाता भारत के सचमुच बैलराज! महाराज!
बिना तुम्हारे हो जाते हम दाना-दाना को मोहताज।।
श्रीयुक्त नागरि विहारि दशा तिहारी।
हौवे विषाद मन मांहि अतीव भारी।।
सारी प्रजा निपढ़ दीन दुःखी जहाँ है,
कर्तव्य क्या न कुछ भी तुमको वहाँ है।
श्रीधर पाठक-
निज भाषा बोलहु लिखहु पढ़हु गुनहु सब लोग।
करहु सकल विषयन विषै निज भाषा उपजोग।।
वंदनीय वह देश जहाँ के देशी निज अभिमानी हों।
वन्धवता में बँधे परस्पर परता के अज्ञानी हो।।
जगत है सच्चा तनिक न कच्चा समझो बच्चा इसका भेद।
प्रकृति यहाँ एकान्त बैठि निज रूप सँवारति।
पल पल पलटति भेस छनिक छवि छिन छिन धारति।।
इस भारत में वन पावन तू ही तपस्वियों का तप आश्रम था
जग तत्व की खोज में लग्न, जहाँ ऋषियों ने अभग्न किया श्रम था।
मैथिलीशरण गुप्त-
भू-लोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ ?
हम कौन थे, क्या हो गये और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।।
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।
राम, तुम मानव हो ? ईश्वर नहीं हो क्या ?
विश्व में रमे नहीं सभी कहीं हो क्या ?
भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया, नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया, इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।।
सखि निरख नदी की धारा।
ढलमल ढलमल चंचल अंचल, झलमल झलमल तारा।।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।
चारू चंद्र की चंचल किरणें खेल रही है जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी छिटक रही है अवनि और अम्बर तल में।।
अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध’
दिवस का अवसान समीप था। गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरू शिखा पर थी अब राजती। कमलिनी कुल-वल्लभ की प्रभा।।
शोभा वारिधि की अमूल्य मणि सी लावण्यलीलामयी।
धीरे-धीरे दिन गत हुआ, पद्मिनीनाथ डूबे।
चार डग हमने भरे तो क्या किया।
है पङा मैदान कोसो का अभी।
विपत्ति से रक्षक सर्वभूत का, सहाय होना असहाय जीव का
उबरना संकट से स्वाजाति का, मनुष्य का सर्वप्रधान धर्म है।
नाथूराम शर्मा ’शंकर’
देशभक्त वीरों, मरने से नेक नहीं डरना होगा।
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा।
भङक भुला दो भूतकाल की सजिये वर्तमान के साज।
फैसन फेर इंडिया भर के गोरे गाॅड बनो ब्रजराज।।
रामनरेश त्रिपाठी
गंध-विहीन फूल है जैसे चंद्र चंद्रिका-हीन।
यों ही फीका है मनुष्य का जीवन प्रेम-विहीन।।
प्रेम स्वर्ग है, स्वर्ग प्रेम है, प्रेम अंशक-अशोक
ईश्वर का प्रतिबिम्ब प्रेम है, प्रेम हृदय आलोक।
पराधीन रहकर अपना सुख शोक न कह सकता है।
वह अपमान जगत में केवल पशु ही सह सकता है।।
देश-पे्रेम वह पुण्य-क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित
आत्मा के विकास से जिसमें, मनुष्यता होती है विकसित।
सत्यनारायण ’कविरत्न’
कौन भेजौ दूत, पूत सों विथा सुनावे।
बातन में बहराइ जाई ताको यहँ लावै।।
पढ़ी न अच्छर एक ग्यान सपने ना पायौ।
दूध दही चाटन में, सबरो जन्म गमायौ।।
नारी सिच्छा, निरादरत जे लोग अनारी।
ते स्वदेस-अवनति प्रचंड पातक अधिकारी।।
जगन्नाथ दास रत्नाकर-
कान्ह-दूत के धौं ब्रह्म दूत है पधारे आप।
धारे प्रन फेरन कौ मति ब्रजबारी की।।
नंद औ जसोमति के प्रेम-पगे पालन की,
लाङ भरे लालन की लालच लगावती।
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बेहतरीन सर जी,,, कृपया नेट पाठ्यक्रम ईकाई वार उपलब्ध कराने का कष्ट करें,,