रामविलास शर्मा – मार्क्सवाद समीक्षा – Hindi Sahitya

आज के आर्टिकल में हम रामविलास शर्मा – मार्क्सवाद समीक्षा(Ram Vilas Sharma) विषय पर चर्चा करने वाले है ,हम आशा करतें है कि आज का आर्टिकल आपके लिए उपयोगी साबित होगा ।

रामविलास शर्मा: मार्क्सवाद समीक्षा

रामविलास शर्मा ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण के आधार पर साहित्य की व्याख्या की। सामंतवाद, पूंजीवाद व्यापारिक पूंजीवाद, औद्योगिक पूंजीवाद, महाजनी पूंजीवाद, सर्वहारा को स्पष्ट किया। ’हिन्दी जाति’, ’हिन्दी भाषा’ के निर्माण में बाजार-व्यापार को महत्त्व दिया। भक्तिकाल को लोकजागरण तो आधुनिक काल को नव जागरण माना, जिसकी शुरूआत 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से मानी। आदिकालीन साहित्य को रीतिवाद का प्रथम उत्थान तो रीतिकाल को द्वितीय उत्थान माना।

शुक्ल जी की आलोचना पद्धति में व्याप्त कुछ त्रुटियों तथा असंगतियों का परिष्कार करते हुए डाॅ. रामविलास शर्मा ने मार्क्सवाद के रूप में एक सुसंगत और वैज्ञानिक विचारधारा को अपनी आलोचना पद्धति के रूप में अपनाया।

मार्क्सवादी आलोचक के रूप में डाॅ. शर्मा ने साहित्य से संबंधित अनेक प्रश्नों का सामना किया और एक गंभीर चिंतन प्रस्तुत किया। प्रगति-विरोधी विचारक प्रायः जनता को अशिक्षित भीङ की संज्ञा देते हैं। डाॅ. शर्मा ने इस विचार का विरोध करते हुए बताया कि जनता और कला में कोई वैर नहीं। वैर भाव उन लोगों के मन में उठता है जिनके लिए जनता एक कल्पना है अर्थात् जो जनता से संघर्ष करती-आगे बढ़ती या फिर जीतती या हारती हुई पहचान को छोङकर उसे अशिक्षित, कुसंस्कृत, अराजक, कलाहीन आदि पर्यायवाची शब्दों से पुकारते हैं। ये आलोचक जनता के संघर्षशील स्वरूप की सदा उपेक्षा करते हैं।

रामविलास शर्मा(Ram Vilas Sharma)

डाॅ. शर्मा ने मध्यकालीन भक्त कवियों की प्रगतिशीलता, लोकधर्मिता और कलात्मकता का उदाहरण प्रस्तुत करके अपने पक्ष को बङे ही जोरदार ढंग से रखा है। आगे डाॅ. शर्मा यथार्थवाद को और भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि साहित्यकार को जनता को देखते हुए उसके जीवन के विभिन्न पक्षों में निहित संबंध को भी देखना चाहिए और उसका चित्र फोटोग्राफिक नहीं होना चाहिए।

वे लिखते है – ’’बिना सम्बद्धता का विचार किए हुए जो साहित्यकार यथार्थवाद के नाम पर सामाजिक क्रियाओं का असम्बद्ध चित्रण करेगा, उसका चित्रण ऊपर से सच्चा प्रतीत होते हुए भी अवास्तविक होगा। इससे कला में अराजकता उत्पन्न होगी।’’

कलाकार की पात्रता के विषय पर वे लिखते हैं कि ’’सामाजिक विकास के नियमों को जानने से लेखक को वह पतवार मिल जाती है जिसके सहारे वह जनता के विशाल सागर में अपनी नाव खो सकता है। लेखक चाहे कितनी ही छोटी घटना का चित्रण करे, वह सफल कलात्मक चित्रण तभी कर सकेगा, जब वह उस घटना की सामाजिक पृष्ठभूमि को समझे तथा वह उस घटना को तत्कालीन भावी प्रभाव और महत्व से आँक सके।’’

रामविलास शर्मा: मार्क्सवाद समीक्षा

इस प्रकार डाॅ. शर्मा ने यथार्थवाद पर लगाए गए आरोपों का जोरदार खंडन किया तथा यथार्थवाद और युगबोध के अन्तर्सम्बन्धों को व्याख्यायित किया। उन्होंने यथार्थवाद के बारे में फैलाई गई भ्रान्तियों का पर्दाफाश किया ।

आचार्य शुक्ल मध्यकालीन भक्त कवियों की परम्परा यथा जायसी, सूर और तुलसी की प्रगतिशील परम्परा का अनुसंधान करते हैं। उन्होंने प्रेमचंद, भारतेन्दु, निराला, रामचन्द्र शुक्ल और महावीर प्रसाद द्विवेदी पर आलोचनात्मक पुस्तकें लिखकर हिन्दी आलोचना को समृद्ध किया। प्रेमचंद पर डाॅ. शर्मा ने दो पुस्तकें लिखी ’’प्रेमचन्द’’ 1941 ई. तथा ’’प्रेमचन्द और उनका युग’’ 1952 ई.

’’प्रेमचंद’’ (1941 ई.) नामक अपनी पुस्तक में उन्होंने प्रेमचंद की रचनाओं में आए शोषक वर्ग, उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि, प्रेमचंद की प्रगतिशीलता आदि का विश्लेषण किया है। वे लिखते हैं – ’’निर्धनता और अंधविश्वास। परन्तु इसके साथ सहनशीलता और सहृदयता किसानों के इस सरल सुखी संसार में नवीन सभ्यता आकर पुराने चक्र में जैसे बिजली डाल देती है और ये किसान छिन्न-भिन्न होकर इधर-उधर बिखर जाते हैं। प्रेमचंद हमें निराश नहीं करते। आत्मबल पर विश्वास कर संगठित होकर सामाजिक यन्त्र पर आघात करने का हमें संदेश देते हैं। परन्तु उनकी आशा उथली नहीं है।

रामविलास शर्मा: मार्क्सवाद समीक्षा

उसके नीचे परिस्थिति की भयंकरता का पूरा ज्ञान है।’’ वे प्रेमचंद की रचनाओं के समानान्तर भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन को रखते हैं तथा दिखाते हैं कि प्रेमचंद भारतीय स्वाधीनता अपने युग की प्रगतिशील क्रांतिकारी विचारधारा को पहचानने की पूरी क्षमता रखते हैं।
गोदान में डाॅ. शर्मा पूँजीवादी शोषण चक्र तथा महाजनी सभ्यता की क्रूर सच्चाईयों का उद्घाटन करते हैं।

शोषण का बदला हुआ स्वरूप, उपनिवेशवाद और राजनीतिक चेतना, जातिवाद, आदि सामाजिक यथार्थ को डाॅ. शर्मा ने बङे ही महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित किया।
’’प्रेमचंद और उनका युग’’ में प्रेमचंद का रचनाकार व्यक्तित्व, उनका सम्पादकीय व्यक्तित्व, युगीन परिस्थितियों और उनसे प्रभावित उनकी रचनाओं का विशद् वर्णन किया गया है।

1953 में प्रकाशित ’’भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’’ तथा 1943 ई. में प्रकाशित ’’भारतेन्दु युग’’। इन दोनों पुस्तकों में उन्होंने 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध के बौद्धिक सांस्कृतिक परिवेश को पहचानने का प्रयास किया है।

रामविलास शर्मा: मार्क्सवाद समीक्षा

’’भारतेन्दु युग और हिन्दी भाषा की विकास परम्परा’’ (1975 ई.) में उन्होंने भारतेन्दु की स्थिति और आधुनिक समस्याओं के अन्तःसंबंधों पर विचार किया है। भारतेन्दु की रचना दृष्टि के अन्तर्विरोधों की पहचान करते हुए, वे कहते हैं कि भारतेन्दु-युग में एक ओर राजभक्ति मिलती हैं तो दूसरी ओर देशभक्ति। इसका कारण वे महारानी के घोषणा पत्र को मानते हैं जिसके कारण बुद्धिजीवी वर्ग में एक आशा की किरण झलकी।

भारतेन्दु की राजभक्ति का कारण डाॅ. शर्मा बेहतरी, विकास, न्याय और समान अवसर की आशा को मानते हैं। डाॅ. शर्मा भारतेन्दु युग के रचनाकारों की प्रगतिशीलता को रेखांकित करते हुए उसे प्रगतिशील साहित्य की श्रेणी में रखते है। भारतेन्दु युग में नाटक, सभा-समितियों के गठन, तथा लेखकों का जनता से प्रगाढ़ तथा आत्मीय संबंध को भी वे रेखांकित करते हैं।

1946 ई. में ’’निराला’’ तथा 1972 ई. में ’’निराला की साहित्य साधना’’ नामक पुस्तक का द्वितीय खंड प्रकाशित हुआ। इन पुस्तकों में डाॅ. शर्मा ने निराला के सम्पूर्ण साहित्य गद्य और पद्य दोनों की व्याख्या और उसका मूल्यांकन प्रस्तुत किया है।

Ram Vilas Sharma: Marxism Review in Hindi

’निराला’ नामक पुस्तक का हिन्दी आलोचना में महत्त्वपूर्ण स्थान है। पुस्तक की भूमिका में छायावादी कवियों की प्रगतिशीलता के मूल्यांकन पर बल देते हुए डाॅ. शर्मा ने लिखा है ’’इस पुस्तक को लिखने का मूल उद्देश्य यह है कि साधारण पाठकों तक निराला साहित्य पहुँचे।’’

वे आगे लिखते हैं कि नए कवियों ने व्यक्तिगत के पूर्ण विकास के लिए उस सामाजिक स्वाधीनता की मांग की। जिसे पिछले युग के बंधन दबाकर रखना चाहते थे और छन्द और भाषा के नए प्रयोग करके उन्होंने रीतिकालीन आचार्यों को बता दिया कि हिन्दी में एक नए युग का आरंभ हो गया है।
निराला की तुलसीदास और राम की शक्तिपूजा नामक दो कविताओं में अंतर बताते हुए वे कहते हैं कि ’तुलसीदास’ में कवि एक हद तक तटस्थ है, पर ’राम की शक्तिपूजा’ एक नाटकीय कविता है जिसमें कवि अपने प्रति इतना तटस्थ हो गया है कि इस कविता में मुख्यपात्र से उसके तादात्म्य को हम समझ नहीं पाते। दूसरी बात यह है कि इस कविता में राम संघर्ष का चित्र जितना प्रभावशाली है उतना उनकी विजय का नहीं।

मार्क्सवाद समीक्षा

राम की शक्तिपूजा, सरोज स्मृति, वनबेला, अनामिका को डाॅ. शर्मा संक्रमण काल की कविता मानते हैं। डाॅ. शर्मा निराला की यथार्थवादी प्रगतिवादी दृष्टि को उनकी गद्य रचनाओं में भी खोजते हैं।

अपने एक निबंध में डाॅ. शर्मा लिखते हैं – बींसवीं सदी में हिन्दी भाषी जनता ने तीन महान् साहित्यिक विभूतियों को जन्म दिया। ’’कथा साहित्य में प्रेमचन्द्र, आलोचना में रामचन्द्र शुक्ल और कविता में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला। ये तीनों विभूतियाँ एक दूसरे की पूरक हैं।’’ वे आगे आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि पर एक पूरी पुस्तक ’’आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना’’ (1955 ई.) लिखते हैं। इस पुस्तक में वे आचार्य शुक्ल की आलोचना दृष्टि, उनकी प्रगतिशीलता तथा लोक हृदय से उनकी आत्मीयता को रेखांकित किया है। इस सिद्धान्त की लौकिक व्याख्या करने के कारण शुक्ल जी को डाॅ. शर्मा भौतिकवाद से प्रभावित भी करते हैं।

तुलसीदास के संदर्भ में डाॅ. शर्मा लिखते हैं – ’’शुक्ल जी ने तुलसी के इस प्रेम को पहचाना और इसे केशव-बिहारी के प्रेम से एकदम भिन्न माना। यही उन्हें हिन्दी का महान् आलोचक बनाता है।’’ डाॅ. शर्मा लिखते हैं – ’’शुक्ल जी ने केशव की वास्तविकता प्रकट करके आलोचना के पुराने सामंती मानदंडों को बदलने में बङी सहायता की। शुक्ल जी द्वारा केशव की आलोचना ने लाला भगवानदीन और राव राजा श्याम बिहारी मिश्र आदि का युग समाप्त कर दिया और हिन्दी आलोचना के एक नए युग का सूत्रपात किया।’’

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