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रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएँ || रीतिकाल || hindi sahitya

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:3rd Jan, 2021| Comments: 0

दोस्तों आज हम रीतिकाल काव्यधारा में हम रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएँ पढेंगे ,जिसके बारे में आपको जानना बहुत जरुरी है

रीतिमुक्त काव्य की सामान्य विशेषताएँ 

Table of Contents

  • रीतिमुक्त काव्य की सामान्य विशेषताएँ 
    • भावावेग काव्य –
    • आत्माभिव्यक्ति की शैली –
    • वियोग वर्णन का बाहुल्य –
    • अलंकारनिरपेक्षशैली –
    • अनुभूतियों का प्राधान्य-
    • सरल भाषा –
    • फ़ारसी का प्रभाव –

रीतिमुक्त पद्धति के कवियों और इनकी काव्य-प्रवृत्तियाँ का जो परिचय यहां प्रस्तुत किया गया है उसके समन्वित आकलन से रीतिकालीन स्वच्छंद काव्यधारा का यह स्वरूप स्थिर होता है:

भावावेग काव्य –

इस धारा के कवि अपनी काव्यगत विशेषताएँ के प्रति विशेष रूप से सजग रहे हैं। उन्होंने अपने काव्यादर्श व्यक्त किये हैं और उन्हें अपने समसामयिक रीतिबद्ध     काव्यदर्शों का साग्रह उद्घोष किया है।


इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे अपने काव्यमार्ग को परंपरामुक्त स्वच्छंद मानते थे। वास्तव में इनका काव्य-जगत भावावेगमय होने के कारण आंतरिक अधिक है, चेष्टामय बाह्य नहीं, जैसा कि बिहारी, मतिराम, पद्माकर आदि का है।

इन कवियों का लक्ष्य हृदय के भावावेगों को मुक्त भाव से उंङेल देना है। आत्मविभोर हो कर काव्य-रचना करने वाले ये लोग बौद्धिकता को काव्य का अनुकूल गुण नहीं मानते। घनानंद और आलम के काव्य में भावों के पर्त, उनके भेद-प्रभेद एक के बाद एक उघङते जाते हैं। ये भाव अपनी भंगिमाओं के ऐसे आकर्षक बिंब ले कर आते हैं कि पाठक उनकी अरूपता का अनुभव नहीं कर पाता और एक अनोखे भावलोक में पहुंच जाता है।

आत्माभिव्यक्ति की शैली –

इस धारा के काव्य में कवियों की प्रेमानुभूति को आत्माभिव्यक्ति की शैली में स्थान प्राप्त हुआ है। रीतिबद्ध कवियों ने प्रेमी-प्रेमिकाओं अथवा नायक-नायिकाओं की योजना कर प्रेमभाव की जैसी व्यंजना की है, वह यहां नहीं है। आत्माभिव्यक्ति की परंपरा यों तो भक्ति-साहित्य में ही प्रारंभ हो गयी थी, किंतु वहां भक्त जो दैन्य-निवेदन करता है,

वह साधनात्मक और आध्यात्मिक है, जबकि रीतिमुक्त काव्य में वह लौकिक प्रेमव्यथा का मर्मोंद्घाटन लिये हुए हैं। संक्षेप में, रीतिबद्ध काव्य वस्तुप्रधान है, तो रीतिमुक्त काव्य व्यक्तिप्रधान। इस धारा के कवि अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी-न-किसी से प्रेमाहत हुए थे, अतः इन्हें अपनी प्रेमव्यथा का वर्णन  करने में मुक्ति जैसा अनुभव हुआ होगा। हिंदी की लौकिक काव्यपरंपरा में यह शैली नवीन है।

फारसी का प्रभाव इसमें कारण हो सकता है, क्योंकि वहां प्रेमव्यंजना प्रायः उत्तम पुरुष की भाषा में की जाती है।

 

वियोग वर्णन का बाहुल्य –

रीतिमुक्त कवियों का प्रेम-वर्णन व्यथाप्रधान है। उसके अंतर्गत एक तो संयोग की मात्रा कम है और वह है भी तो उसमें भी पीङा की अनुभूति किसी-न-किसी प्रकार बनी रहती है। ’’यह कैसी संयोग न सूझि परै, जो वियोग न क्यों हूं बिछोहतु है।’’

परंपरानुसारी शृंगारवर्णन संयोग के हर्ष और वियोग के विषाद के अंतर्गत हुआ है, अतः रीतिमुक्त काव्य की व्यथाप्रधानता उसे प्रचलित परंपरा से पृथक् प्रमाणित करती है। इसका एक कारण तो यह है कि फारसी का प्रभाव इसके मूल में है।

वहां भी प्रेमवेदनाप्रधान ही अधिक वर्णित हुआ है। दूसरे, तत्कालीन समाज की भी छाया इन कवियों के मन पर पङी थी। इस काल में व्यक्ति के मन में घुटन और अवसाद के भाव ही प्रमुख रूप से विद्यमान थे। सामंतशाही अपने चरम शिखर पर थी। व्यक्ति-स्वातंत्र्य पदाक्रांत था। पीङा की कहानी सुनने को कोई तैयार न था।

इसीलिए इन लोगों ने व्यथा को भीतर-ही-भीतर पी लेने की, उसे प्रकट न करने की बात बार-बार कही है। यह असंतोष काव्य में प्रेम की भाषा में अभिव्यक्ति पाये, यह स्वाभाविक था। इस प्रकार इन कवियों की ऐकांतिक प्रेमानुभूति के अंतरतम में सामाजिक असंतोष का भी पुट था।

 

अलंकारनिरपेक्षशैली –

प्राचीन काव्यपरंपरा का त्याग इनकी सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता है। रीतिकाल का समूचा साहित्य या तो आलंकारिक चमत्कारों के प्रभाव से शोभा-संपन्न हुआ है या फिर नायिकाभेद अथवा भावभेद से। दोनों ही संदर्भ अपनी शास्त्रीय इयत्ता में सीमित बन गये थे। नायिकाभेद का बोध कवि को परंपरा से अधिक होता था, जीवन से कम। इसी प्रकार भावभेद नौ रसों के स्थायी, संचारी आदि भावों तक परिमित हो गया था।

रीतिमुक्त कवियों ने अपनी काव्य-शैली पर जानबूझ कर अलंकारों के चमत्कार को आरोपित नहीं होने दिया है। ठाकुर ने प्रायः निरलंकृत सहज भाषा में अभिव्यक्तियां दी हैं। घनानंद ने अलंकारों का प्रयोग सबसे अधिक किया है, पर वे सप्रयास नहीं प्रयुक्त हुए, अपितु भाव के अंगरूप में प्रयुक्त हुए है। इसके अतिरिक्त मुहावरों एवं लक्षणाओं द्वारा शैली में सामथ्र्य, चमत्कार आदि लाने का जो नया मार्ग घनानंद ने खोला, वह भी उनकी अलंकारनिरपेक्षशैली का परिचायक है।

ठाकुर की शैली अलंकारसापेक्ष नहीं है, लोकोक्तियों का सफल प्रयोग उसकी विशेषता है। आलम और घनानंद के काव्य में सैकङों ऐसे पद्य मिलते हैं जिनमें एक भी अलंकार नहीं, पर कविता अपनी मार्मिकता से हृदय के अंतरतम को छू लेती है।

सुजान का सो कर उठना, चिक में से झांकना, काली साङी पहनना, सज कर चलने को उद्यत होना, शराब पीना, नाचने को एङी उठाना आदि छोटी-छोटी शतशः चेष्टाएं घनानंद के काव्य में वर्णित हैं, जिनकी प्रेरणा नायिकाभेद से नहीं प्राप्त हो सकती।

अतः रीतिमुक्त कवियों के वर्ण्य विषय और उनकी वर्णनशैली-दोनों काव्यपरंपरा से मुक्त है।

 

अनुभूतियों का प्राधान्य-

रीतिमुक्त कवियों की प्रेम-संबंधी धारणा रीतिबद्ध कवियों से भिन्न है। इनके प्रेम में उदात्तता है, रीतिबद्ध कवियों जैसी ऐंद्रिय वासना नहीं। प्रेमी वियोग की व्यथा सह कर भी प्रिय की कुशल-कामना करता है। उसके लिए त्याग करता है, और अंतिम श्वास तक उसी का स्मरण करता रहता हैं। प्रिय नहीं प्राप्त होता तो भी प्रेमी के प्राण प्रिय का संदेश ले कर बाहर निकलना चाहते हैं।

वेदना को प्रेमी अपना भाग्य समझता है, मौन हो कर उसे सह लेता है तथा किसी से कुछ कहता नहीं। घनानंद, आलम, बोधा, ठाकुर सभी इस विषय में एक सी धारणा लिये हुए है। प्रेम की अनन्यता के भाव इन कवियों ने बङी दृढ़ता और मार्मिकता के साथ बार-बार व्यक्त किये हैं।

यह प्रेम भावनात्मक है। संयोग हो अथवा वियोग, प्रेमी सदा चाह में मग्न रहता है। संयोग के रूप-वर्णन में भी अभिलाषाओं का प्राधान्य रहता है। इसके विपरीत कविता स्थूल, चेष्टाप्रधान अथवा रूपप्रधान प्रेम को ले कर चली है, इसीलिए उसमें कहीं-कहीं अनौचित्य एवं अश्लीलता आ जाती है। इसमें वैसा कुछ नहीं है, क्योंकि इसकी उत्सभूमि और क्रीङाभूमि भाव ही हैं।

वियोग में अनुभूतियों का प्राधान्य और भी बढ़ जाता है। उपमानों और बिंबों के सहारे कवि अंतर्दशाओं का ऐसा अनुभव करता चलता है कि पाठक भावमग्न हो जाते हैं। घनानंद और आलम के काव्य में हमें भावों की अनेक सूक्ष्म अंतर्दशाओं का वर्णन मिलता है, जो न रुक्ष है और न अनास्वाद्य।

भावात्मकता के कारण इन कवियों का प्रेम-वर्णन प्रारंभ में स्थूल शारीरिक है, पर बाद में परम सत्ता के प्रति उन्मुख हो कर ऊध्र्वगामी बन गया है। इसीलिए इसमें कहीं-कहीं रहस्यात्मकता का सौरभ और बढ़ गया है।

रीतिमुक्त प्रेम की एक और विशेषता उसकी विषमता है। उसका निर्वाह कर सकना सबके लिए सुगम नहीं है। प्रेमी प्रिय में आसक्त, उसके वियोग में व्यथापीङित, आतुर, सचिंत और सकाम है। वह अपने प्रेम का निर्वाह करने में प्राणपण से प्रस्तुत है, पर प्रिय इसके विपरीत उपेक्षक, अन्योन्मुख, सुख-चैन का ग्राहक, भुलक्कङ और लापरवाह है।

उसके संबंध में प्रेम के निर्वाह का प्रश्न ही नहीं उठता। यह विषमता वैसे तो चारों कवियों के काव्य में विद्यमान है, पर घनानंद में वह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गयी है। प्रेम की विषय भावना के कारण ही घनानंद की शैली में विरोध की प्रधानता हो गयी है-उन्हें प्रेम की अनुभूति में पद-पद पर विषमता और विरोध के दर्शन होते हैं।

इस प्रवृत्ति की प्रेरणा पर विचार करें तो इसके स्त्रोत पूर्ववर्ती साहित्य में मिल जाते हैं। फारसी-काव्य में एकपक्षीय प्रेम का ही वर्णन है। मथुरा भक्ति में जब वियोग की अनुभूति होती है तो परमेश्वर रूपी प्रिय को निष्ठुर, कठोर और उपेक्षक कह कर उलाहना दिया जाती है। सूर का ’भ्रमरगीत’ विषम भगवत्प्रेम का ही काव्य है।

’भागवत’ में दशम स्कंध में भगवान श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं को समझाया है कि ’’मैं प्रेम करने वाले भक्तों से स्वयं प्रेम नहीं करता, इसी से उनका प्रेम परिपक्व होता है।’ अतः इन कवियों की प्रेमभावना में आध्यात्मिकता की गंध से यह गुण आ गया हो, यह बहुत संभव है। तीसरा कारण इन लोगों के व्यक्तिगत जीवन की परिस्थितियां भी हो सकती है। इन सभी के जीवन में असफल प्रेम का प्रसंग घटा था।

विचारणीय बात यह है कि इस विषमता से प्रेमानुभूति में पुष्टता और परिपक्वता और अधिक बढ़ती है। इससे प्रिय का स्वरूप सदोष किंवा लांछित नहीं होता, अपितु प्रेमी का स्वरूप इस बात से और भी अधिक उज्ज्वल हो उठता है कि वह दूसरी ओर से कुछ न पा कर भी अपने मार्ग पर अडिग रहता है।

अतः रीतिमुक्त कवियों के प्रेम की विषमता अनुभूति में दृढ़ता लाने के लिए नियोजित है, न कि उसे एकदेशीय किंवा अपूर्ण बनाये बनाने के लिए।

 

सरल भाषा –

इस धारा की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता भाषा का असाधारण प्रयोग है। वहां रीतिबद्ध कवियों की भाषा अलंकारों की सत्ता में जकङी हुई होने के कारण जीवन से कटी हुई है और एकरूपता के दोष से पीङित है, वहां रीतिमुक्त कवियों की भाषा इन अभावों से मुक्त है।

सत्य तो यह है कि रीतिबद्ध कवि भाषा की उस जीवनीशक्ति से अपरिचित हैं, जो जायसी, सूर, तुलसी आदि के काव्य में सुलभ है। न उन्हें अपने लोकजीवन में सौंदर्य दिखायी पङता है और न भाषा के व्यावहारिक रूप में रमणीयता। रीतिमुक्त कवियों ने इस दिशा में नया मार्ग अपनाया है। सूरदास आदि की भांति उन्होंने लक्षणाओं, लोकोक्तियाँ और मुहावरों के प्रयोग से अपनी भाषाशक्ति बढ़ायी है और अभिव्यंजनाशिल्प के नये आयाम खोले हैं।

लक्षणा के सहारे घनानंद अपनी सूक्ष्म अनुभूतियों को तो सफल अभिव्यक्ति दे ही सके हैं, वे उनमें अनेक प्रकार की चमत्कारयोजना भी कर गये हैं। घनानंद का काव्यशिल्प अलंकारों का मुहताज नहीं है, सहज भाषा में बङी मार्मिक व्यंजनापूर्ण अभिव्यक्ति उन्होंने की है। ठाकुर ने भी लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रचुर प्रयोग किया है। उनकी संपूर्ण कला ही लोकजीवन की ओर विशेष झुकी हुई है।

 

फ़ारसी का प्रभाव –

रीतिमुक्त काव्यधारा का फारसी की काव्यप्रवृत्तियों से प्रभावित होना भी ध्यान आकृष्ट करता है। सत्य तो यह है कि अकबर के शासनकाल से ही मुगल-दरबार में हिंदी और फारसी के कवियों का साथ-साथ बैठना, एक-दूसरे की कविता को सुनना-समझना प्रारंभ हो गया था। फलस्वरूप दोनों ही एक-दूसरे से प्रभावित होने लगे। भक्तिकाल में यह प्रभाव प्रारंभिक अवस्था में रहा।

भक्तकवियों की भाषा में जहां-तहां फारसी के शब्द आने लगे और भगवत्प्रेम की अनुभूति में लौकिकता का हल्का रंग झलकने लगा, पर काव्य का स्वरूप और आत्मा उससे अछूते रहे। इस काल की काव्यकला का झुकाव या तो लोकजीवन की ओर है या फिर संस्कृत की काव्य-परंपरा की ओर। किंतु रीतिकाल तक आते-आते फारसी उत्तर भारत के हिंदू-समाज में फैलने लगी थी।

हिंदुओं में भी फारसी के विद्वान और कवि होने लगे। घनानंद और आलम फारसी के विद्वान थे। किंवदन्ती है कि घनानंद ने कोई मसनवी भी लिखी थी। इसलिए यह प्रभाव विषय, भाव और शैली सब पर आ गया। काव्य भक्तों के बजाय कविंदों के हाथ में आया, तो कविता भी भगवान के दरबार से उतर कर राजदरबारों में आ बैठी।

राधा और कृष्ण नायक-नायिकाएं बन गये। उनके प्रेम में नागरिकता और मादकता का सन्निवेश रीतिकाल की देन है, जो दरबारी संस्कृति और उसमें छिपे फारसी-प्रभाव का फल है।

जो लोग संस्कृत की परंपरा का निर्वाह कर रहे थे, वे भी इस प्रभाव से अछूते न रह सके। मुक्तककला का सर्वव्यापी प्रसार, उपमानों और बिंबों में परिवर्तन शृंगार में खंडिता के वचनों की प्रचुरता आदि को फारसी-काव्य के प्रभाव का ही फल माना जाता है।

इस काल के कवित्त-सवैयों में जो अंतिम पंक्ति अधिक सप्राण होती है, वह भी फारसी का ही प्रभाव है, शेरों में भी प्रभाविष्णु अंश उनका अंतिम भाग रहता है। रीतिमुक्त कवियों पर यह प्रभाव और भी अधिक पङा। विषम प्रेम का आश्रयण, आत्मकथन की शैली में भावात्मक काव्यप्रणयन और भाषा में अलंकारों की उपेक्षा इसी प्रभाव के परिचायक है।

आत्मकथन की शैली का कारण कवियों का व्यक्तिगत प्रेमी जीवन भी हो सकता है, पर फारसी का साहित्यिक प्रभाव भी अपनी भूमिका निभा रहा है। घनानंद तो मुहम्मदशाह के मीरमुंशी थे, साथ ही फारसी के विद्वान थे। अतः इन पर उसका प्रभाव सर्वाधिक पङा। इनको रचना ’इश्कलता’ की भाषा में फारसी के शब्दों की भरमार है।

उसके भाव भी फारसी की भांति अत्युक्तिपूर्ण और आशिकाना ढंग के हैं। घनानंदकृत ’वियोगवेलि’ का छंद फारसी का है। शराब, दिल के टुकङे, प्राणों का घुट मरना, छाती में घाव या छाले पङना, छुरी, तलवार या भाले, बधिक आदि अप्रस्तुत इनके समस्त काव्य में प्रचुरता से प्रयुक्त हुए हैं। लक्षणा और मुहावरों के प्रयोग से भाषा की जैसी शक्ति इन्होंने बढ़ायी है, वह प्रभाव का बङा स्वस्थ और स्वतंत्र रूप है।

उसमें ब्रजभाषा की निजी प्रकृति का दक्षतापूर्ण प्रयोग हुआ है, फारसी की केवल प्रेरणा है। मुहावरे ब्रज के और लक्षणाएं कवि की निजी है। घनानंद का यह पक्ष सबसे अधिक अभिनंदनीय है। भावों में चमत्कार के स्थान पर मार्मिकता, सूक्ष्मता, वैयक्तिकता, विषाद, आंतरिकता आदि गुण भी फारसी के प्रभाव के फलस्वरूप हैं। घनानंद का यह पक्ष सबसे अधिक अभिनंदनीय है।

भावों में चमत्कार के स्थान पर मार्मिकता, सूक्ष्मता, वैयक्तिकता, विषाद, आंतरिकता आदि गुण भी फारसी के प्रभाव के फलस्वरूप हैं। शैली में जो रहस्य का पुट कहीं-कहीं आ गया है, वह भी फारसी के सूफी-पक्ष का प्रभाव हो सकता है। सब मिला कर घनानंद ने फारसी-प्रभाव का पचा कर प्रयोग किया है, उसका अंधानुकरण नहीं किया।

आलम की शैली में भी नैराश्य, विषम प्रेम, भावों की आंतरिकता आदि गुण फारसी के प्रभाव से आये हैं। ’आलमकेलि’ को ले कर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जो इनके संबंध में कहा है कि ’कहीं-कहीं फारसीशैली के रसबाधक भाव भी इनमें मिलते हैं, वह ठीक ही है। बोधा की भाषा और भाव दोनों में फारसी का प्रभाव खुल पर पङा। फारसी की प्रचुर शब्दावली के मिश्रण से इनकी भाषा बोझिल और शैली असंयत हो गयी। बोधा के काव्य पर फारसी का खुला प्रभाव सभी आलोचकों ने स्वीकार किया है।

इस प्रकार रीतिमुक्त कवियों ने रीतिकालीन काव्यफलक पर जो नयी रेखा खींची थी, उसमें उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता के साथ-साथ फारसी के प्रभाव को भी प्रेरक कारण माना जा सकता है।

बिहारी की पंक्तियाँ –

1. तंत्रीनाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग।
अनबूङे बूङे तिरे, जे बूङे सब अंग।।
2. अनियारे दीरघ दृगनु किती न तरुनि समान।
वह चितवनि औरे कछू, जिहिं बस होत सुजान।।
3. बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करै भौंहनि हँसे, दैन कहै, नटि जाइ।।
4. दृग अरुझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठ दुरजन हिए, दई नई यह रीति।।
5. कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वह खाए बौराए जग, यह पाए बौराए।।
6. तौ पर बारो उरबसी, सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसी, ह्वै उरबसी समान।।
7. कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात।
भरै भौन में करत हैं नैननि ही सों बात।।
8. मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परें स्याम हरित दुति होय।।
9. कागद पर लिखत न बनत कहत संदेश लजात।
कहिहैं सब तेरो हियो, मेरे हिय की बात।।
10. या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहि कोय।
ज्यौं ज्यौं बूङे स्याम रंग त्यौं त्यौं उज्ज्वल होय।।
11. जप माला छापा तिलक सरै न एकौ काम।
मन काँचे नाँचे वृथा साँचे राँचे राम।।
12. कहा लङैते दृत करे परे लाल बेहाल।
कहुँ मुरली कहुँ पीत पट कहूँ मुकुट बनमाल।।
13. सोहत ओढ़े पीत पट स्याम सलोने गात।
मनौ नीलमनि-सैल पर आतम परयौ प्रभात।।

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