अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त – हिंदी साहित्य – काव्यशास्त्र

आज के आर्टिकल में हम काव्यशास्त्र के अंन्तर्गत अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त (Arastu ka virechan Siddhant) विस्तार से पढेंगे ।

अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त (Arastu ka virechan Siddhant)

अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त

दोस्तो  प्लेटो ने काव्य पर आरोप लगाया था कि काव्य हमारी वासनाओं का दमन करने के स्थान पर उनका पोषण करता है। अरस्तू का मत इससे भिन्न है। वे यह तो मानते हैं कि काव्य मानवीय वासनाओं का दमन नहीं करता, पोषण ही करता है, पर वे यह स्वीकार नहीं करते कि वह अनैतिक भावनाओं को उभारता है।

ट्रैजिडी (त्रासदी) एक ऐसे कार्य का अनुकरण है जो गंभीर है, स्वतः पूर्ण है और जिसका एक निश्चित आयाम है। यह अनुकरण एक ऐसी भाषा में होता है जो कलात्मक अलंकारों से हर प्रकार से सुसज्जित रहती है। कलात्मक अलंकारों के ये विविध प्रकार के नाटक विभिन्न भागों में पाए जाते हैं।

यह अनुकरण कार्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, न कि वर्णनात्मक रूप में । यह अनुकरण करुणा और भय के संचार से मनोभावों को उत्तेजित कर उनका उचित विरेचन या समार्जन करता है।’’

इस प्रकार उन्होंने ’विरेचन’ का प्रयोग त्रासदी के कार्य को स्पष्ट करने के संबंध में किया है। अपने ’राजनीति’ नामक ग्रंथ में संगीत के प्रभाव का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा है कि संगीत का अध्ययन कई उद्देश्यों से किया जाना चाहिए –

  1. शिक्षा के लिए,
  2. विरेचन (शुद्धि) के लिए तथा
  3. बौद्धिक आनंद की उपलब्धि के लिए।

उनकी मान्यता है कि ’करुणा’ और ’त्रास’ अथवा ’आवेश’ कुछ व्यक्तियों में बङे प्रबल होते हैं, किंतु हम देखते हैं कि धार्मिमक रागों के प्रभाव से वे शांत हो जाते हैं, मानो उन आवेगों का शमन या विरेचन हो गया हो। करुणा और त्रास से आविष्ट व्यक्ति इस विधि से एक प्रकार की शुद्धि का अनुभव करते हैं और उनकी आत्मा विशद् (निर्मल) और प्रसन्न हो जाती है।’’

इस प्रकार अरस्तू करुणा एवं त्रास संबंधी मनोभावों के विरेचन की बात कहते हैं, क्योंकि वे इन्हें ही त्रासद मनोभाव मानते हैं तथा दोनों को एक-दूसरे का अन्योन्याश्रित भी मानते हैं। वे यह भी मानते हैं कि ’’मानव-मन में करुणा का उद्रेक अपात्र नायक के पतन के कारण और भय का उद्रेक अपने आत्मीय, स्वयं आदि की दुर्घटना के कारण होता है।’’

अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त

विरेचन का शाब्दिक अर्थ –

ग्रीक चिकित्सा में ’केथार्सिस’ की चर्चा आती है – अरस्तू ने यह शब्द वहीं से ग्रहण किया। उसका कारण यह था कि एक तो अरस्तू के पिता मैसीडोनिया के राजा के चिकित्सक थे और दूसरी ओर एथेन्स आने से पूर्व अरस्तू स्वयं चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। हिन्दी में ”Katharsis’‘ के लिए ’विरेचन’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, जो भारतीय चिकित्सा का शब्द है।

वह उपचार के उसी रूप से संबंधित है, जो उपचार ग्रीक चिकित्सा में ’केथार्सिस’ के नाम से जाना जाता था – अपच या कुपच आदि को दूर करने के लिए दस्तावर दवा देना। हिन्दी में कुछ लोगों ने इसके लिए ’रचन’ तथा ’परिष्करण’ आदि शब्दों का भी प्रयोग किया, किंतु अब ’विरेचन’ ही प्रचलित है।

विरेचन का स्वरूप –

व्याख्याकारों ने अरस्तू के ’विरेचन सिद्धान्त’ के प्रायः तीन अर्थ किए हैं –

1. धर्मपरक अर्थ,

2. नीतिपरक अर्थ

3. कलापरक अर्थ

डाॅ. देवीशरण रस्तोगी की मान्यता है – ’’विरेचन से अरस्तू का मंतव्य, निश्चय ही, भावावेगों के किसी-न-किसी प्रकार के विरेचन से था। ट्रैजिडि को देखकर व्यक्ति जिस मनःस्थिति में आता है, वह आवेगों के विरेचन की ही देन होती है-शांत चित्त और आवेगों के दबाव से मुक्त।

अरस्तू के अनुसार ट्रैजिडि करुणा और त्रास के उद्रेक द्वारा तीन कार्य संपन्न करती है-नवीन दृष्टि देती है, कलास्वाद प्रदान करती है और चित्त को शांत करती है। इन्हीं तीन अवस्थाओं के आधार पर अरस्तू ट्रैजिडि की, काव्य की, उपयोगिता सिद्ध करना चाहते थे और प्लेटो के आरोप का विधिपूर्वक खंडन करना चाहते थे।

प्रो. डेविश डेशी का मत है कि ’’अरस्तू को अपने इस उद्देश्य में सफलता भी प्राप्त होती है। वे तीनों अवस्थाओं के आधार पर प्लेटो के आरोप को सदा के लिए निरस्त भी कर देते हैं।’’

विरेचन की व्याख्या –

परवर्ती आचार्यों ने विरेचन के तीन अर्थ किए हैं-

1. धर्मपरक

2. नीतिपरक

3. कलापरक।

1. धर्मपरक अर्थ –

भारत के समान ही, यूनान में भी नाटक का आरंभ धार्मिक उत्सवों से ही माना जाता है। प्रो. मरे के अनुसार वर्षारंभ पर दियान्युसस नामक देवता से संबद्ध उत्सव मनाया जाता था, जिसमें उससे यही प्रार्थना की जाती थी कि वह पाप, कुकर्मों से मुक्ति दिलाकर, आगामी वर्षों में विवेक व शुद्ध-हृदय प्रदान करके मृत्यु और कलुष का नाश करे। लिवि की मान्यता है कि अरस्तू के समय यूनान में त्रासदी का प्रवेश हो गया था, जिसके पीछे कोई कलात्मक उद्देश्य नहीं था, मात्र अंधविश्वास ही प्रमुख था। उनकी मान्यता थी कि यह उत्सव विपत्तियों का नाशक हैं।

361 ई.पू. में महामारी निवारणार्थ इसे अपनाया गया, अतः अरस्तू ने भी माना कि उद्दाम आवेग के शमन के लिए भी यूनान में उद्दाम संगीत का उपयोग होता था, जो पहले व्यक्ति के आवेग को बढ़ता था, फिर इसी से उद्दाम संगीत का उपयोग होता था, जो पहले व्यक्ति के आवेग को बढ़ाता था, फिर इसी से आवेग शनैः शनैः शांत होता था।

अतः विकारों के शमन की बात अरस्तू के सामने थी, यही संभवतः विरेचन की प्रेरणा का आधार बना। प्रो. गिलबर्ट मरे की मान्यता है कि विरेचन का मूलार्थ है -बाह्य उत्तेजना और अंत में उसके शमन द्वारा आत्मिक शुद्धि और शांति।

2. नीतिपरक अर्थ –

जर्मन विद्वान बारनेज ने विरेचन की नीतिपरक व्याख्या की, जिसका अनुकरण कारनेई तथा रेसिन ने भी किया। मनोविकार मानव में वासना-रूप में अवस्थित रहते हैं, जिनसे करुणा, त्रास, दुःखद मनोवेगों को दमित रखने के बजाय संतुलित रखना वांछित है। रंगमंच पर त्रासदी ऐसे दृश्य उपस्थित करती है, जिनसे मनोवेग अतिरंजित रूप में सामने आते हैं। पहले तो उनमें (प्रेक्षक में) त्रास व करुणा उभरती है, फिर उन्हीं कि उपशमित होने पर मानसिक शांति का आभास होेने लगता है।

क्योंकि त्रासदी इनके दंश का निराकरण करके सामंजस्य स्थापित करती है, अतः विरेचन का नीतिपरक अर्थ हुआ -’’विकारों की उत्तेजना द्वारा संपन्न अंतर्वृत्तियों का समंजन अथवा मन की शांति एवं परिष्कृत मनोविकारों के उत्तेजन के उपरांत उद्वेग का शमन और तज्जन्य मानसिक विशदता।’’

3. कलापरक अर्थ –

प्रो. बूचर की मान्यता है कि ’’यह (विरेचन) केवल मनोविज्ञान अथवा निदान-शास्त्र के एक तथ्य विशेष का वाचक न होकर, एक कला-सिद्धांत का अभिव्यंजक है…….. त्रासदी का कत्र्तव्य-कर्म केवल करुणा या त्रास के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना नहीं है, वरन् इन्हें सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है, इनको कला के माध्यम में ढालकर परिष्कृत तथा स्वच्छ करना है। प्रो. बूचर के अनुसार विरेचन का कलापरक अर्थ है – पहले मानसिक संतुलन और बाद में कलात्मक परिष्कार।

डाॅ. नगेन्द्र की मान्यता है कि विरेचन में कलास्वाद का सहज अंतरभाव नहीं है। विरेचन के द्वारा नवीन दृष्टि भी प्राप्त होती है और मनःशांति भी, किंतु उन दोनों को कलास्वाद तक खींच लाना गलत है। यह विरेचन के मंतव्य से सर्वथा बाहर की वस्तु है। उनका कथन है, ’’विरेचन कलास्वाद का साधक तो अवश्य है, परंतु विरेचन में कलास्वाद का सहज अंतरभाव नहीं है, अतएव विरेचन सिद्धान्त को भावात्मक रूप देना कदाचित् न्याय नहीं हैं।’’

विरेचन सिद्धान्त की समीक्षा –

अरस्तू का इस संबंध में विवेचन अपर्याप्त ही है, अतः अरस्तू के अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिए अनुमान का आश्रय लेना ही पङेगा। अनुकरण सिद्धांत की भांति ही अरस्तू का यह विरेचन सिद्धान्त भी प्लेटो के काव्याक्षेप का ही प्रतिवाद रूप है। प्लेटो ने यह आक्षेप लगाया कि ’’कविता हमारी वासनाओं का दमन करने के स्थान पर उनका पोषण और सिंचन करती है।’’

इसी आक्षेप का उत्तर देते हुए अरस्तू ने कहा कि ’’त्रासदी में करुणा तथा त्रास के उद्रेक के द्वारा उन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।’’ जहाँ प्लेटो ने कविता को भावनाओं की उत्तेजना का कारण मानकर उसे त्याज्य ठहराया, वहीं अरस्तू ने कविता को भावोत्तेजना तक सीमित न मानकर उत्तेजित भावनाओं, परिष्कार एवं शमन का भी कारण माना है। गुरू ने कविता को अशांति का मूल माना है, जबकि शिष्य कविता को शांतिदायक मानता है।

अरस्तू के व्याख्याताओं द्वारा की गई विरेचन की अर्थ-व्याप्ति संभवतः अभिप्रेत अर्थ से कुछ अधिक व्यापक है। इन व्याख्याओं में आवश्यकता से अधिक अर्थ भरने की योजना हुई है। गिल्बर्ट मरे ने यूनानी भाषा और पुरा विद्या से आक्रांत होने के कारण विरेचन का संबंध प्राचीन प्रथाओं से मानकर, एक आग्रहपूर्वक चिंतन का परिचय दिया।

प्रो. बूचर ने विरेचन के दो पक्ष माने-

1. अभावात्मक

2. भावात्मक।

मनोवेगों के उत्तेजन और तत्पश्चात् उनके शमन से उत्पन्न मनःशांति उसका अभावात्मक पक्ष है तथा उसके उपरांत कलात्मक परितोष उसका भावात्मक पक्ष है। यह दूसरा पक्ष संभवतः अरस्तू की मान्यताओं की परिधि से बाहर है।

विरेचन सिद्धांत की देन –

⇒विरेचन सिद्धांत की देन बहुविध है। पहली देन तो यही है कि उसी ने प्लेटो द्वारा लगाए गए आरोप का निराकरण करके सदा के लिए उस आरोप को निरस्त कर दिया। दूसरी देन यह है कि उसने गत कितने ही वर्षों के काव्यशास्त्रीय चिंतन को किसी-न-किसी रूप में अवश्य ही प्रभावित किया। उसके समर्थन और विरोध की कहानी ही, एक प्रकार से, पश्चिमी काव्यशास्त्र के विकास ही कहानी है।

विरेचन सिद्धांत की एक महत्ता यह भी है कि उसे कभी-कभी समर्थ आलोचकों का भी बल मिला है, जिनमें आई.ए. रिचर्ड्स महत्त्वूपर्ण है। रिचर्ड्स की समीक्षा का मूलाधार है -अंतर्वृत्तियों का समंजन और इस धारणा के मूल में विरेचन स्पष्टतः सक्रिय दीख पङता है।

समंजन के द्वारा भी अंततः वही उपलब्ध होता है जो विरेचन का प्राप्य है-आवेग के अवांछित अंशों से छुटकारा, चित्त का शांत हो जाना, व्यर्थ के दबावों से मुक्त होेने के बाद शांति का अनुभव करना, भले ही वह आनंदावस्था न हो, उस जैसी भी न हो, किंतु उसकी भूमिका अवश्य ही होना चाहिएl

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