वर्ड्सवर्थ का काव्यभाषा सिद्धान्त || Vardsvarth ka kavybhasha siddhant

वर्ड्सवर्थ का काव्यभाषा सिद्धान्त:

⇒वर्ड्सवर्थ की गणना 19वीं शताब्दी के प्रमुख समीक्षकों में की जाती है। इन्हें अपने समय का साहित्य पर्याप्त गिरा हुआ प्रतीत हुआ। अतः अपने युग की परिस्थिति को पहचानकर उन्होंने अपने कुछ सिद्धान्त प्रस्तुत किए।

वर्ड्सवर्थ का काव्यभाषा सिद्धान्त

 इन्होंने स्पष्ट किया कि काव्य के द्वारा हमारे भावों को शक्ति मिलनी चाहिए। भावों को प्रभावित करने की शक्ति की काव्य की विशेषता है। ऐसा लगता है कि वर्ड्सवर्थ के स्वर में एक कुशल चिकित्सक का निदान था।

काव्यभाषा-सिद्धान्त –

वर्ड्सवर्थ ने कहा-
1. काव्य में ग्रामीणों की दैनिक भाषा का प्रयोग होना चाहिए। ग्रामीण जीवन में मनुष्य के भाव सरल निष्कपट सच्चे होते हैं तथा प्रकृति के निरंतर सम्पर्क से विकसित होते हैं इसलिए उनमें तादात्म्य सुगम होता है।
2. गद्य और पद्य की भाषा में तात्विक भेद नहीं होता।
3. प्राचीन कवियों का भावाबोध जितना सरल था, उनकी भाषा उतनी ही सहज थी। भाषिक कृत्रिमता और आडंबर बाद के कवियों की देन है।
वर्ड्सवर्थ ने काव्यभाषा-सिद्धान्त के विषय में अपना एक निश्चित मत प्रस्तुत किया है। उसने माना है कि कविता की भाषा जन-साधारण से जुड़ी(ग्रामीण भाषा) हुई होनी चाहिए।
वर्ड्सवर्थ के पूर्व दाँतें ने काव्य में ग्रामीण भाषा के प्रयोग से हेय माना था। बाद के कवियों ने भी इसका समर्थन किया। अभिजात्य भाषा और बोल-चाल की भाषा का यह द्वन्द्व पुराना है। इस द्वन्द्व को वर्ड्सवर्थ ने ’लिरिकल बैलेड्स’ के द्वारा पुनः विचारों का केन्द्र बनाया।
18 वीं सदी के नव अभिजात्यवाद में भाषा के दो रूप प्रचलित थे। उच्च भाषा जिसे संस्कृत जनों की भाषा कहते थे तथा दूसरी निम्न भाषा जो साधारण जनों की भाषा थी। कालान्तर में उच्च भाषा कृत्रिम और दुर्बोध होती चली गई। इसीलिए भाषा के त्याग और ग्रामीण भाषा के प्रयोग पर वर्ड्सवर्थ ने बल दिया।

वर्ड्सवर्थ का काव्यभाषा सिद्धान्त

 काव्य की भाषा कैसी हो, इस विषय में उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं। भारतवर्ष के संस्कृत  काव्यशास्त्र के आचार्य कुन्तक ने तो रीति को काव्य की आत्मा मान लिया था। उन्होंने रीति को विशिष्ट पद-रचना अर्थात् भाषा का विशिष्ट रूप बतलाया। वास्तव में काव्य का आरम्भ सभी देशों में उसी भाषा के माध्यम से होता है जो विशिष्ट जनों की नहीं, अपितु जन-सामान्य की भाषा होती है।
जिस तीव्र गति से जीवन और जीवन की भाषा में परिवर्तन होता है, उस गति से साहित्य और साहित्य की भाषा में परिवर्तन नहीं होता। अंग्रेजी भाषा के अध्ययन-अध्यापन को वर्ड्सवर्थ के समय तक लगभग एक सौ बीस वर्ष पूरे हो गये थे, परन्तु आज के साहित्य में हिन्दी में जैसे शब्दों और वाक्य-विन्यास का प्रयोग हो रहा है, इस प्रकार का परिवर्तन अंग्रेजी की काव्यभाषा में नहीं आया था।
जब कभी कोई काव्य-रीति रूढ़ हो जाती है, तभी उसके प्रति किसी महान  साहित्यकार की प्रतिभा विरोध का स्वर ऊँचा करती है। वर्ड्सवर्थ का स्वर अपने युग की ऐसी ही रीतिबद्धता के प्रति विद्रोही रूप में व्यक्त हुआ था। वर्ड्सवर्थ रीतिबद्धता को अस्वाभाविक मानते थे। उनका कथन था कि ‘‘मैंने कई ऐसे अभिव्यंजना-प्रयोगों को जो स्वतः उचित और सुन्दर हैं, बचाया है, क्योंकि निम्न कोटि के कवियों ने उनका इतना अधिक प्रयोग बार-बार किया है कि उनके प्रति ऐसी अरुचि उत्पन्न हो गयी है कि उसे किसी कला के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता है।’’
वर्ड्सवर्थ का यह भी मत था कि सभी देशों के प्राचीनतम कवियों ने प्रायः वास्तविक घटनाओं के द्वारा उत्तेजित भावों के कारण कविताओं की रचना की है।
उन्होंने प्राकृतिक रूप से तथा मनुष्य के रूप में लिखा है। चूँकि उनके भाव सशक्त थे, इसलिए उनकी भाषा निर्भीक और अलंकृत होती थी। बाद में निम्न कोटि के कवियों ने उस प्रभावपूर्ण भाषा का अनुकरण किया। यद्यपि उनमें उन भावों का उद्रेक नहीं था।
इस प्रकार उस अलंकृत भाषा का यांत्रिक अनुकरण होने लगा।
ऐसी अनुभूतियों और विचारों के लिए भी उसका सुयोग होने लगा, जिनके साथ उसका कोई प्राकृतिक संबंध नहीं रह गया था। इस प्रकार अनजान में एक ऐसी भाषा बन गयी, जो मनुष्यों की वास्तविक भाषा से तत्त्वतः भिन्न हो गयी।

वर्ड्सवर्थ का मत है

कि ‘‘भाव एवं विचार तथा भाषा का संबंध स्वाभाविक है। जिस प्रकार का और जिस कोटि को भाव होगा, उसी प्रकार की और उसी कोटि की भाषा होगी।’’ वर्ड्सवर्थ ने मनुष्यों की वास्तविक भाषा का स्वरूप भी स्पष्ट किया है। वास्तव में मनुष्यों की वास्तविक भाषा से उनका तात्पर्य उसे भाषा से था जो भावों और विचारों के साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ी हुई हो और उन भावों और विचारों को सहज रूप से व्यक्त कर सके।
साधारण भाषा का अर्थ वर्ड्सवर्थ ने तुच्छ भाषा के रूप में नहीं माना। इतना ही नहीं, वर्ड्सवर्थ ने प्रारम्भिक काव्यभाषा और साधारण भाषा का अन्तर भी स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि प्रारम्भ में काव्य की भाषा और साधारण भाषा में अन्तर था।
इसका एक अन्य कारण भी था। उसमें छन्द का योग पहले से ही हो चला था। यही कारण था कि उसके द्वारा लोग वास्तविक जीवन की भाषा की अपेक्षा अधिक प्रभावित होने लगे थे। प्रभाव का यह कारण अर्थात् छन्द, उनके वास्तविक जीवन से भिन्न था। बाद के कवियों ने इसका दुरुपयोग करना आरम्भ कर दिया। कालान्तर में छन्द इस असाधारण भाषा का प्रतीक बन गया।
जिस किसी ने छन्द में लिखना आरम्भ किया, उसने अपनी प्रतिभा और सामथ्र्य के अनुसार उस शुद्ध और प्रारम्भिक भाषा में अपनी भाषा मिला दी। इस प्रकार एक नवीन भाषा बन गयी जो मनुष्यों की वास्तविक भाषा नहीं रह गयी थी।
वर्ड्सवर्थ ने काव्यभाषा के विवेचन के अन्त में यह विचार व्यक्त किया है कि ‘‘कल्पना और भाव की कृतियों की एक और केवल एक भाषा होनी चाहिए, चाहे वे कृतियाँ गद्य में हो या पद्य में। छन्द इस प्रकार की कृतियों के लिए ऊपरी अथवा आकस्मिक तत्त्व होते हैं।’’

काव्यभाषा के गुण –

वर्ड्सवर्थ ने जिस प्रकार काव्य की वस्तु साधारण जीवन से ली है, उसी प्रकार उसने भाषा भी वहीं से ग्रहण की है। उनकी दृष्टि में भाषा में भी कुछ गुण अपेक्षित होते हैं। इस संबंध में उन्होंने लिखा है कि ‘‘इन मनुष्यों का सम्पर्क उन सर्वाेत्तम वस्तुओं से रहता है, जिनसे भाषा का सर्र्वाेत्तम अंश उपलब्ध होता है।
अपने सामाजिक स्तर और अपने परिचय की संकीर्ण परिधि तथा समानता के कारण वे सामाजिक कृत्रिम प्रदर्शनों के वश में अपेक्षाकृत कम रहते हैं। इसके कारण वे अपनी अनुभूतियों और विचारों को सहज रूप से व्यक्त करते हैं। इसलिए बार-बार अनुभवांे तथा नियमित अनुभूतियों से उत्पन्न होने वाली यह भाषा कवियों द्वारा निर्मित समृद्ध भाषा की अपेक्षा अधिक स्थायी एवं दार्शनिक भाषा होती है।’’
डाॅ. कृष्णदेव शर्मा ने वर्ड्सवर्थ की काव्यभाषा एवं शैली के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है कि ’’वर्ड्सवर्थ ने प्रचलित शैली और रूढ़ भाषा को अनुपयोगी मानकर उसका विकास व्यक्तिवाद और भावात्मकता के आधार पर किया। उन्होंने परम्परागत शैली को विकृत, विरूपण, मिश्रित तथा भावहीन माना।
टी. एस. इलियट की  तरह वर्ड्सवर्थ ने भी सामान्य भाषा को अधिक उपादेय माना और उसी का समर्थन किया। वर्ड्सवर्थ से पूर्व कृत्रिम भाषा के लिए जो नियम-उपनियम बनाये गये थे, वे अर्थात् वर्ड्सवर्थ उनके विरुद्ध थे। विशिष्ट काव्यगत उक्तियों, मानवीकरण और वक्रोक्ति आदि के वे विरोधी थे। यहाँ तक कि वे काव्य-रचना में विपर्यय और वैषम्य के प्रति भी अरुचि प्रकट करते थे।
अनावश्यक रूप से ठूँसी गयी पौराणिक कथाएँ, भावाभास तथा दंत-कथाएँ भी वर्ड्सवर्थ को रुचिकर नहीं थीं। समग्रतः वे कृत्रिमता तथा सीमित काव्य-रूपों को मान्यता देने के विरुद्ध थे। काव्य की शैली के सम्बन्ध में भी वर्ड्सवर्थ ने आपत्तियाँ उठाई हैं।’’
इतना सब कुछ होते हुए भी वर्ड्सवर्थ ने काव्य में कृत्रिमता की अपेक्षा सरल भाषा के प्रयोग पर ही विशेष बल दिया है।

वर्ड्सवर्थ का काव्यभाषा सिद्धान्त

⇒वर्ड्सवर्थ गद्य और पद्य की भाषा में अन्तर नहीं मानते थे। गद्य की भाषा पद्य में  परिवर्तित हो सकती है। वर्ड्सवर्थ गद्य और पद्य की भाषा को एक मानते थे। गद्य और पद्य की दोनों भाषाओं में भी अपेक्षाकृत गद्य की भाषा को ही उन्होंने महत्त्व प्रदान किया था।
अपनी गद्यमयी भाषा के समर्थन में वर्ड्सवर्थ ने यहाँ तक कहा था कि दोनों भाषाओं को अभिव्यंजना करने वाली इन्द्रियाँ तथा दोनों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियाँ एक ही हैं और इनका राग और रुचि दोनों परस्पर समान हैं। जन-साधारण की भाषा से वर्ड्सवर्थ का तात्पर्य था जिसे उन्होंने अपने ग्रंथ ’लिरिकल बैलेड्स’ के अतिरिक्त किसी भी अन्य ग्रंथ में प्रयोग नहीं किया है।
वर्ड्सवर्थ ने बाद में सुधार और परिवर्तन की बात भी कही है कि भाषा का चुनाव लोगों की वास्तविक भाषा से करना चाहिए। यही जनसाधारण की भाषा का अर्थ है। इससे स्पष्ट होता है कि वे सामान्य भाषा को ज्यों का त्यों अपनाने के पक्ष में नहीं थे। वे उस भाषा में चुनाव करना आवश्यक समझते थे।
ऐसा लगता है कि सरल भाषा से वर्ड्सवर्थ का तात्पर्य अभिव्यक्ति की सरलता से है जो आडम्बररहित, स्वाभाविक और सजीव हो तथा पाठक के मन में उलझन और अरुचि उत्पन्न न करके आनन्द प्रदान करे। सम्भवतः इसी कारण उन्होंने भाषा में चुनाव की बात पर जोर दिया है। चुनाव के संदर्भ में यह भी ध्यान देने की बात है कि वे ग्राम्यत्व और शैथिल्य के सूचक शब्दों के प्रयोग से बचने के पक्षधर थे।

वर्ड्सवर्थ का भाषा सम्बन्धी मत – 

वर्ड्सवर्थ का भाषा सम्बन्धी मत काव्य से सम्बन्धित विचारों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है। वे कविता को तीव्रतम भावावेग का उच्छलन मानते हैं और यह नित्य सनातन सत्य है कि भावावेग के समय हृदय से जो भाषा निकलती है, उसमें स्वाभाविकता, सरलता और सजीवता होती है। इस प्रकार की भाषा में कोई आडम्बर नहीं होता है। यह भाषा तो प्रसादगुण से ओतप्रोत होती है।
ऐसा लगता है कि तीव्र भावावेग के समय भी भाषा में कवित्त्व शक्ति के प्रभाव से अनेक अलंकारों और वक्रोक्ति आदि का समावेश हो जाता है। ऐसे समावेश को वर्ड्सवर्थ कृत्रिम नहीं मानते हैं। उनकी दृष्टि में कृत्रिमता वह है जो ऊपर से चिन्तन आदि के द्वारा लायी गयी हो और जो भाषा में बोझिल बनाये।
वर्ड्सवर्थ के अनुसार कवि जितना भाषा के निकट पहुँचेगा, उसकी भाषा-शैली उतनी ही सच्ची होगी और कवि-कर्म में उसे सफलता प्राप्त होगी। डाॅ. शांतिस्वरूप गुप्त ने वर्ड्सवर्थ की भाषागत विवेचना के संदर्भ में यह टिप्पणी दी है –
’’जिस प्रकार जाॅन डाॅन ने अपनी काव्य-शैली को स्पेंसर की शैली से, ड्राइडन ने अपनी शैली को मैटाफिजिकल कवियांे की कृत्रिम शैली से महान माना तथा आधुनिक युग में जिस प्रकार टी. एस. इलियट तथा एजरापाउण्ड प्रतिदिन की बोलचाल की भाषा के प्रयोग के समर्थक हैं, उसी प्रकार वर्ड्सवर्थ ने कहा कि उनकी अपनी भाषा-शैली अधिक प्राकृतिक और स्वाभाविक है।’’
वर्ड्सवर्थ भाषा में उन प्रणालियों के विरोधी थे जिन्हें हम मानवीकरण, वक्रोक्ति और विपर्यय आदि के रूप में स्वीकार करते हैं। वर्ड्सवर्थ ने सत्रहवीं शताब्दी की शैलीगत विशेषताओं-विलक्षणता, दूरारूढ़ कल्पना, अतिशयोक्ति, शाब्दिक चमत्कार और अस्पष्टता की आलोचना की थी।

काव्यभाषा सम्बन्धी मत की विवेचना –

  काॅलरिज ने वर्ड्सवर्थ की काव्यभाषा सम्बन्धी मान्यताओं की कटु आलोचना की। स्वयं वर्ड्सवर्थ ने भी अपने काव्य में ऐसी काव्य-उक्तियों का प्रयोग किया है, जिनका सैद्धांतिक रूप से विरोध वे कर चुके थे। उदाहरण के लिए वर्ड्सवर्थ की वाक्य-रचना कहीं-कहीं अत्यन्त उलझी हुई और अस्पष्ट है।
उन्होंने कभी पुस्तक सम्बन्धी बहु-अक्षर शब्दों का प्रयोग किया है। उनके काव्य में भावाभास का भी प्रयोग प्राप्त होता है। अठारहवीं शताब्दी के काव्य में प्रयुक्त वक्रोक्ति के समान उनकी अनेक कविताओं में वक्रोक्ति का प्रयोग हुआ है। वर्ड्सवर्थ ने काव्य से कृत्रिमता को दूर करने के लिए सरलता पर बल दिया है, क्योंकि वर्ड्सवर्थ के समय में अलंकृत भाषा का यांत्रिक अनुकरण हो रहा था।
वर्ड्सवर्थ की मान्यता थी कि सरल और ग्रामीण जीवन से यदि विषय चुने जायेंगे तो भाषा स्वंय स्थूल हो जायेगी। वर्ड्सवर्थ की दृष्टि में कवि का कत्र्तव्य जन-साधारण की भाषा को काव्य में स्थान देना था। वर्ड्सवर्थ ने काव्यभाषा के सम्बन्ध में यह भी मान्यता स्पष्ट की कि काव्य की भाषा जनसाधारण की भाषा होनी चाहिए।

वर्ड्सवर्थ का काव्यभाषा सिद्धान्त

छन्दोबद्ध भाषा और गद्य की भाषा में किसी प्रकार तात्त्विक अन्तर नहीं होना चाहिए। इस प्रकार का अन्तर हो भी नहीं सकता। इस स्थापना के लिए वर्ड्सवर्थ ने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, वे इस रूप में हैं कि गद्य की भाषा तथा कविता की भाषा दोनों की अभिव्यंजना करने वाली इन्द्रियाँ तथा दोनों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियाँ समान ही हैं। इन दोनों के परिच्छेद समान तत्त्वों से निर्मित है। इन दोनों प्रकार की भाषाओं की राग के प्रति रुचि भी एक जैसी होती है।

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