आज के आर्टिकल में हम काव्यशास्त्र के अंतर्गत हम रस के प्रकार (Ras ke Parkar) विषय पर चर्चा करेंगे ,आप इस टॉपिक को अच्छे से तैयार करें ।
वीर रस
दोस्तो वीर रस सभी रसों में प्रधान माना जाता है। इस रस का देवता महेन्द्र माना गया है और इसका वर्ण, सोने के समान गौर है। वीर का स्थायी भाव उत्साह होता है। मानसिक वृत्तियों में इसका सम्बन्ध युयुत्सा से माना जा सकता है। इसका आलम्बन शत्रु, ऐश्वर्य, साहसिक कार्य, यश आदि हैं। उद्दीपन चेष्टा, प्रदर्शन, ललकार, आदि। अनुभव आँखों का लाल होना, भुजाओं या अंगों का संचालन, सैन्य को प्रेरित करना आदि हैं। इसके संचारी गर्व, उग्रता, धैर्य, तर्क, असूया, मति आदि हैं।
वीर रस के चार भेद माने गये हैं- युद्धवीर, दानवीर, दयावीर और धर्मवीर। यहाँ पर हम इनके अलग-अलग उदाहरण देकर रसांगों का विश्लेषण करेंगे।
युद्धवीर
डहडहे डंकन को सबद निसंक होत
बहबही सत्रुन की सेना जोर सरकी।
’हरिकेस’ सुभट घटान की उमंडि उत
चम्पति को नन्द कोप्यो उमँग समर की।
हाथिन की मन्द मारू राग की उमंड त्यों
त्यों लाली झलकत मुख छत्रसाल बर की।
फरकि फरकि उठैं बाहैं अस्त्र बाहिबे को
करकि करकि उठैं करी बखतर की।।
ऊपर के छन्द में उत्साह स्थायी भाव है। यह उत्साह युद्ध के लिए है, इसलिए ’युद्ध’ वीर रस है। इसका आलम्बन शत्रु है। डंकों का बजना और शत्रु की सेना का आगे बढ़ना उद्दीपन है। इस उत्साह का आश्रय चम्पतराय का पुत्र छत्रसाल है। मुख पर लालिमा और अस्त्र उठाने के लिए भुजाओं का फङक उठना अनुभाव है। क्रोध, रोमांच, उग्रता आदि संचारी भाव है। इस प्रकार वीर रस पूर्ण हुआ है।
दानवीर
संपति सुमेर की कुबेर की जो पावै ताहि,
तुरत लुटावत बिलम्ब उर धारै ना।
कहै ’पदमाकर’ सो हेम हय हाथिन के,
हलके हजारन के बितर बिचारै ना।।
गंज गजबकस महीप रघुनाथ राव,
पाइ गज धोखे कहूँ काहू देइ डारै ना।
याही डर गिरिजा गजानन को गोइ रही,
गिरि तें गरे तें निज गोद तें उतारे ना।।
इस छन्द में याचक आलम्बन है। धन, सम्पत्ति, हाथी, घोङे आदि उद्दीपन हैं, हाथियों आदि का दान अनुभाव है तथा हर्ष संचारी भाव है।
दयावीर
सुनि ’कमलापति’ विनीत बैन भारी तासु,
आसु चलिबे की लखी गति यों दराज की।
छोङि कमलासन पिछोङि गरुङासन हूँ,
कैसे कै बखानों दौर दौरे मृगराज की।
जाय सरसी में यों छुङाय गज ग्राह ही तें,
ठाढ़े आये तीर इमि सोभा महाराज की।
पीत पट लै लै कै अंगौछत सरीर,
कर कंजन तें पोंछत भुसुण्ड गजराज की।।
इस छन्द में आलम्बन हाथी है। उद्दीपन उसके विनीत बैन। अनुभाव आसन छोङकर पैदल दौङना, शरीर अँगौछना, सूँङ पोंछना आदि हैं। दया के लिए उत्साह स्थायी भाव है। चिन्ता, चपलता आदि संचारी भाव हैं।
धर्मवीर
तृण के समान धन धाम राज त्याग करि,
पाल्यौ पितु वचन जो जानत जनैया है।
कहै ’पद्माकर’ बिबेक ही की बानी बीच,
साचो सत्य बीर धीर धीरज धरैया है।
सुमृति पुरान बेद आगम कह्यो जो पंथ,
आचरत सोई सुद्ध करम करैया है।
मोह मति मन्दर पुरन्दर मही को, धनी,
धरम धुरन्धर हमारो रघुरैया है।।
यहाँ पर धर्म के कार्य आलम्बन, वेद, पुराण आदि का वचन उद्दीपन, कार्य और आचरण अनुभाव हैं तथा धैर्य, मति-दृढ़ता आदि संचारी भाव हैं।
करुण रस
करुण रस अत्यन्त प्रभावशाली है। इसमें सभी को तुरन्त द्रवित करने की शक्ति होती है। भोज ने जिस प्रकार शृंगार को ही एक रस के रूप में स्वीकार किया था, भवभूति उसी प्रकार करुण को ही एकमात्र रस मानते थे। उन्होंने कहा भी है- ’’एको रसः करुण एव निमित्तभेदात्।’’ करुण की एक रस है, अन्य रस तो भेद के कारण हैं। करुण रस के भीतर ’शोक’ स्थायी भाव परिपुष्ट होकर रसत्व को ग्रहण करता है। इसके देवता यम माने गये हैं और इसका वर्ण कपोतवत् कहा गया है। करुण रस का आलम्बन प्रिय व्यक्ति या वस्तु का अनिष्ट, हानि या विनाश है। उद्दीपन दुःखपूर्ण, अस्त-व्यस्त दशा का वर्णन या श्रवण है। अनुभाव रुदन, वैवण्र्य, विलाप, भाग्य या दैव को कोसना, शरीर का शिथिल हो जाना आदि हैं। संचारी भाव चिन्ता, ग्लानि, विषाद, स्मृति, व्याधि, निर्वेद, मरण माने गये हैं। उदाहरण-
बस यहीं दीप निर्वाण हुआ। सुत विरह वायु का बाण हुआ।।
धुँधला पङ गया चन्द्र ऊपर। कुछ दिखलाई न दिया भू पर।।
अति भीषण हाहाकार हुआ। सूना सा सब संसार हुआ।।
अर्धाङ्ग रानियाँ शोक कृता। मूच्र्छिता हुईं या अर्द्धमृता।।
हाथों से नेत्र बन्द करके। सहसा यह दृश्य देख उर के।।
’हा स्वामी’ कह ऊँचे स्वर से। दहके सुमन्त्र मानों दव से।।
अनुचर अनाथ से होते थे। जो थे अधीर सब रोते थे।।
यहाँ पर राजा दशरथ आलम्बन हैं। उनका मृत शरीर और हाहाकार आदि उद्दीपन हैं। विलाप, मूच्र्छा, आँखें बन्द करना, रोना आदि अनुभाव हैं। निर्वेद, जङता, विषाद, चपलता, भय आदि संचारी भाव है।
हाथ मींजिबो हाथ रह्यो।
लगी न संग चित्रकूटहु ते ह्याँ कहा जात बह्यौ।
पति सुरपुर सिय राम लखन बन, मुनि ब्रत भरत गह्यौ।
हौं रहि घर मसान पावक ज्यों, मरिबोई मृतक दह्यौ।
मेरोइ हिय कठोर करिबे कहँ, बिधि कहुँ कुलिस लह्यौ।
तुलसी बन पहुँचाइ फिरी सुत, क्यों कछु परत कह्यौ।।
यहाँ पर राम का वन जाना आलम्बन है। राजा दशरथ का मरण, भरत का संन्यास उद्दीपन है। हाथ मलना, पश्चात्ताप, विधाता को कोसना, आत्मनिन्दा आदि अनुभाव हैं। वैराग्य, ग्लानि, मोह, स्मृति आदि संचारी हैं। अतः करुण रस परिपुष्ट है।
अद्भुत रस
अद्भुत रस का स्थायी भाव विस्मय या आश्चर्य है। इसके अधिष्ठाता ब्रह्मा माने जाते हैं। इस रस का आलम्बन अलौकिक चरित्र, दृश्य अथवा विचित्र वस्तु है। ऐसे चरित्र या वस्तु के सम्बन्ध में सुनना या उन पर बार-बार विचार करना उद्दीपन है। आँखें फाङकर देखना, रोमांच, स्तब्ध हो जाना, अवाक् हो जाना, आदि अनुभाव हैं। भ्रम, हर्ष, औत्सुक्य, चंचलता, प्रलाप आदि संचारी भाव है। उदाहरण-
केसव कहि न जाय का कहिये।
देखत तव रचना बिचित्र अति समुझि मनहिं मन रहिये।।
सून्य भीति पर चित्र रंग नहिं तनु बिन लिखा चितेरे।
धोये मिटै न मरै भीति दुख पाइय यहि तनु हेरे।।
रबि-कर नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।
बदनहीन सो ग्रसै चराचर पान करन जे जाहीं।।
कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ जुगल प्रबल कोउ मानै।
तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम सो आपन पहिचानै।।
यहाँ पर यह जगत् आलम्बन है। उसकी विचित्रता, व्यापार-विलक्षणता और अद्भुत कार्य उद्दीपन है। अवाक् रह जाना, भ्रम में पङना आदि अनुभाव तथा विषाद, भ्रम, तर्क, मति आदि संचारी भाव हैं।
हास्य रस
हास्य रस का स्थायी भाव हास है। इसके देवता प्रमथ (शंकर के गण) माने जाते हैं और वर्ण श्वेत है। हास्य रस का आलम्बन विकृत रूप, आकार, वेशभूषा, विचित्र अनर्गल वचन, विलक्षण चेष्टाएँ हैं। विचित्र अंगभंगिमा, क्रियाकलाप आदि उद्दीपन हैं। आँखों और मुख का विकसित होना, खिलखिलाना आदि अनुभाव है। चपलता, हर्ष, गर्व आदि संचारी भाव है। हास्य के भेद- स्वनिष्ठ, परनिष्ठ तथा स्मित, हसित, विहसित, अवहसित, अपहसित और अपिहसित माने गये हैं। उदाहरण-
हँसि-हँसि भाजैं देखि दूलह दिगम्बर को,
पाहुनी जे आवैं हिमाचल के उछाह मैं।
कहै ’पद्माकर’ सु काहू सों कहै को कहा,
जोई जहाँ देखै सो हँसेई तहाँ राह मैं।
मगन भयेई हँसैं नगन महेस ठाढ़े,
और हँसैं एऊ हँसि-हँसि के उमाह मैं।
सीस पर गंगा हँसै, भुजनि भुजंगा हँसै,
हास ही को दंगा भयौ नंगा के बिबाह मैं।।
यहाँ पर दिगम्बर शंकर आलम्बन, उनका विकृत विलक्षण वेश उद्दीपन, भगना, हँसना, खङा रह जाना आदि अनुभाव है। हर्ष, भय, चपलता, संचारी भाव हैं। इसी प्रकार-
बार-बार बैल को निपट ऊँचो नाद सुनि,
हुंकरत बाघ बिरुझानो रस रेला मैं।
’भूधर’ भनत ताकी बास पाय सोर करि,
कुत्ता कोतवाल को बगानो बगमेला मैं।
फंुकरत मूषक को दूषक भुजंग तासों,
जंग जुरिबे को झुक्यो मोर हद हेला मैं।
आपुस मैं पारषद कहत पुकारि, कछु,
रारि सी मची है त्रिपुरारि के तबेला मैं।।
भयानक रस
इस रस का स्थायी भाव भय है। हिंस्त्र स्वभाव वाले जीव तथा उग्र स्वभाव और आचरण वाले व्यक्ति इसके आलम्बन हैं। विकृत और उग्र ध्वनि तथा भयावह चेष्टाएँ, निर्जनता आदि उद्दीपन हैं। हाथ-पैर का काँपना, आँखों का फाङना, रोंगटे खङे हो जाना, विवर्णता, कण्ठावरोध, चिल्लाना, भागना, गिङगिङाना आदि अनुभाव हैं। शंका, मोह, दैन्य, आवेग, चिन्ता, त्रास, चपलता, मरण, जुगुप्सा, आदि संचारी भाव हैं। भयानक रस का वर्ण कृष्ण या काला माना जाता है और इसके देवता कालदेव हैं। इसकी प्रवृत्ति संकोच की है, प्रसार की नहीं। उदाहरण-
हाहाकार हुआ क्रन्दनमय कठिन वज्र होते थे चूर,
हुए दिगन्त बधिर भीषण रव बार-बार होता था क्रूर।
दिग्दाहों से घूम उठे या जलधर उठे क्षितिज तट के,
सघन गगन में भीम प्रकंपन झंझा के चलते झटके।
धँसती धरा धधकती ज्वाला ज्वालामुखियों के निश्वास,
और संकुचित क्रमशः उसके अवयव का होता था ह्रास।
घनीभूत हो उठे पवन, फिर श्वासों, की गति होती रुद्ध,
और चेतना थी बिलखाती दृष्टि विकल होती थी क्रुद्ध।।
इस वर्णन में प्रलय आलम्बन है। भयंकर बादल, झंझावात, ज्वालामुखियों का आग उगलना आदि उद्दीपन हैं। हाहाकार, क्रन्दन, बधिर हो जाना आदि अनुभाव तथा त्रास, विकलता, मूच्र्छा, चंचलता आदि संचारी भाव हैं। इसी प्रकार-
गगडि गङगङान्यो खंभ फाट्यो चरचराय
निकस्यो नर नाहर को रूप अति भयानो है।
ककटि कटकटावै, डाढै, दसन लपलपावै जीभ
अधर फरफरावै मुच्छ व्योम व्यापमानो है।
भभरि भरभराने लोग, डडरि डरपराने धाम
थथरि थरथराने अंग चितै चाहत खानो है।
कहत ’रघुनाथ’ कोपि गरजे नृसिंह जबै
प्रलै को पयोधि मानों तङपि तङतङानो है।।
इस छन्द की शब्दावली भी भय के भाव को उद्दीप्त करने वाली है। आलंबन नृसिंह का भयावना रूप है। उद्दीपन खम्भ का गङगङाकर फटना, नृसिंह का दाँत कटकटाना, जीभ लपलपाना, ओंठ का फङफङाना आदि हैं। लोगों का भरभराकर भागना, अंगों का थरथराना आदि अनुभाव हैं। त्रास, विषाद, शंका आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार भयानक रस का पूर्ण परिपाक है।
वीभत्स रस
वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा या घृणा है। इसके देवता महाकाल माने जाते है और रंग नीलवर्ण है। इस रस का आलम्बन फूहङपन, रुधिर, मांस, सङी-गली तथा दुर्गन्धिमय वस्तुएँ हैं। उद्दीपन, इस प्रकार की वस्तुओं की चर्चा करना, देखना आदि हैं। थूकना, मुँह फेरना, नाक सिकोङना, कम्प आदि अनुभाव तथा भय, आवेग, व्याधि, अपस्मार आदि संचारी भाव हैं। उदाहरण –
ओझरी की झोरी काँधे, आँतन की सेल्ही बाँधे,
मूङ को कमण्डल खपर कियो कोरि कै।
जोगिनी झुटुङ्ग झुण्ड झुण्ड बनी तापसी सी,
तीर-तीर बैठी हैं समर-सरि खोरि कै।
सोनित सों सानि-सानि गूदा खात सेतुवासे,
प्रेत एक पियत बहोरि घोरि-घोरि कै।
तुलसी बैताल भूत साथ लिये भूतनाथ,
हेरि-हेरि हँसत हैं हाथ-हाथ जोरि कै।।
यहाँ पर युद्ध का दृश्य आलम्बन, जोगिनी, भूत-प्रेतों के क्रियाकलाप उद्दीपन हैं। हँसना, सिहरना, मुँह बिचकाना आदि अनुभाव हैं तथा भय, त्रास आदि संचारी हैं। इसी प्रकार-
सासु के विलोके सिंहनी सी जमुहाई लेति,
ससुर के देखे बाघिनी सी मुँह बावती।
ननद के देखे नागिनी-सी फुफकारै बैठी,
देवर के देखे डाकिनी-सी डरपावती।
भनत ’प्रधान’ मोछैं जारति परोसिन की,
खसम के देखे खाँव-खाँव करि धावती।
कर्कसा कसाइनि कुलच्छिनी कुबुद्धिनी ये,
करम के फूटे घर ऐसी नारि आवती।।
यहाँ कर्कशा का वर्णन घृणा के भाव का व्यंजक है।
रौद्र रस
रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है। इसके देवता रुद्र माने जाते हैं और रंग लाल वर्ण का माना गया है। आलम्बन शत्रु या कपटी, दुराचारी व्यक्ति होता है। उद्दीपन अपमान और निन्दा से भरे वचन होते हैं। अनुभाव भौहिं तानना, दाँत पीसना, ललकारना, काँपना, मुँह लाल हो जाना, हाथ चलाना आदि हैं। संचारी गर्व, अमर्ष, चपलता, आवेग आदि हैं।
उदाहरण –
बारि टारि डारौं कुम्भकर्नहिं बिदारि डारौं,
मारौं मेघनादै आजु यों बल अनन्त हौं।
कहै ’पदमाकर’ त्रिकूट ही को ढाय डारौं,
डारत करेई जातुधानन को अन्त हौं।
अच्छहिं निरच्छ कपि ऋंच्छहिं उचारौं इमि,
तोसे तुच्छ तुच्छन को कछुवै न गन्त हौं।
जारि डारौं लंकहिं उजारि डारौं उपवन,
मारि डारौं रावन को तौ मैं हनुमन्त हौं।।
इस छन्द में रावण, कुम्भकर्ण आदि शत्रु आलम्बन हैं। उनके कटु वचन उद्दीपन हैं। विविध प्रकार से अपनी वीरता वर्णन करना, अनुभाव तथा गर्व, अमर्ष, उग्रता आदि संचारी भाव हैं। इसी प्रकार-
बौरौं सबैं रघुवंश कुठार की धार में बारन बाजि सरत्थहिं।
बान की बाय उङान कै लच्छन लच्छ करौं अरिहा समरत्थहिं।
रामहिं बाम समेत पठै बन कोप के भार में भूजौं भरत्थहिं।
जो धनु हाथ गहैं रघुनाथ तौ आजु अनाथ करौं दसरत्थहिं।।
इसमें परशुराम के क्रोध से रौद्र रस की निष्पत्ति हुई है।
शान्त रस
शृंगार, वीर और शान्त की गणना प्रधान रसों में होती है, क्योंकि ये उदात्त वृत्तियों के प्रेरक हैं और महाकाव्य में इनमें से एक प्रधान या अंगी रस के रूप में प्रतिष्ठित होता है। शान्त रस का स्थायी भाव निर्वेद है। इसके देवता विष्णु माने गये हैं। इसका रंग कुन्द पुष्प या चन्द्रमा के समान शुक्ल माना गया है। आलम्बन संसार की असारता और क्षणभंगुरता है। उद्दीपन सत्संग, श्मशान या तीर्थदर्शन, मृतक आदि हैं। अनुभाव रोमांच, अश्रु, पश्चात्ताप, ग्लानि आदि हैं। संचारी भाव हर्ष, धृति, मति, स्मरण, बोध आदि हैं। उदाहरण-
हाथी न साथी न घोरे न चेरे न गाँव न ठाँव को नाँव बिलैहै।
तात न मात न मित्र न पुत्र न बित्त न अंग के संग रहै है।
’केशव’ काम को राम बिसारत और निकाम ते काम न ऐहै।
चेत रे चेत अजौं चित अन्तर अन्तक लोक अकेलोइ जैहै।।
यहाँ पर अनित्य सांसारिक वैभव आलम्बन है। हाथी, घोङे, मित्र-पुत्र आदि का शरीर के साथ छूट जाना उद्दीपन है। यह कथन अनुभाव है तथा बोध, शंका, तर्क आदि संचारी भाव हैं। इसी प्रकार-
मिलि जैहै धूरि में धराधर धरातल हूँ,
काल कर सागर सलिल को उलीचिहै।
बङे-बङे लोकपाल बिपुल वारे,
पल में बिलैहैं ज्यों बिलाति बारि बीचिहै।
’हरिऔध’ कहा बात तुच्छ तनधारिन की,
कबौं मेदिनी हू मीच भै ते आँख मीचिहै।
सरस बसन्त ह्वै बिरस सरसैहै नाहिं,
बरसि सुधाकर सुधारस न सींचिहै।।
वात्सल्य रस
संस्कृत के अधिकांश आचार्याें ने इसे अलग रस न मानकर शृंगार के भीतर ही परिगणित किया है। मम्मट ने ’’रतिर्देवादविषया’’ कहकर इसे भाव के रूप में ही स्वीकार कर लिया है। इसी प्रकार अन्य कुछ आचार्यों का मत है कि वात्सल्य, भक्ति आदि शृंगार के भीतर ही हैं। परन्तु इसे स्वतन्त्र रस के रूप में स्वीकार करने वाले भोज, भानुदत्त, विश्वनाथ, हरिश्चंद्र आदि हैं। इस रस को पूर्णता से प्रतिष्ठित करने वाले आचार्य विश्वनाथ हैं, जिन्होंने ’साहित्यदर्पण’ में लिखा है-
स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रसं विदुः।
स्थायी वत्सलता स्नेह पुत्राद्यालंबनं मतम्।।
उद्दीपनादि तच्चेष्टा विद्या शौर्यदयादयः।
आलिंगनांगसंस्पर्श शिरश्चुम्बमीक्षणम्।।
पुलकानन्दवाष्पाद्या अनुभावाः प्रकीर्तिताः।
संचारिणोऽनिष्टशंका हर्षगर्वादयो मताः।।
इस प्रकार स्पष्ट चमत्कार के कारण वात्सल्य की रसत्व रूप में प्रतिष्ठा होनी चाहिए। इसका स्थायी भाव पुत्रस्नेह है। पुत्रादि आलंबन हैं, उनकी चेष्टाएँ तथा विद्या, दया आदि उद्दीपन हैं। आलिंगन, अंगस्पर्श, सिर चूमना, निहारना आदि अनुभाव तथा शंका, हर्ष, गर्व आदि संचारी भाव हैं। सूरदास और तुलसीदास की रचनाओं में वात्सल्य रस के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। उदाहरण-
जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोई कछु गावै।।
मेरे लाल की आउ निदरिया काहे न आनि सुवावै।
तू काहे न बेगि सों आवै, तोकों कान्ह बुलावै।।
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं कबहुँ अधर फरकावैं।
सोवत जानि मौन ह्वै रहि रहि करि करि सैन बतावै।।
इहि अन्तर अकुलाय उठे हरि जसुमति मधुरे गावै।
जो सुख ’सूर’ अमर मुनि दुर्लभ सो नँदभामिनि पावै।।
इस पद में कृष्ण आलम्बन और यशोदा आश्रय हैं। कृष्ण का पलकें मूँदना, अकुला उठना आदि उद्दीपन हैं। यशोदा का हलराना, गाना, संकेतों से बात करना अनुभाव हैं तथा शंका, हर्ष आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार वात्सल्य रस पूर्ण है। इसी प्रकार-
धूरि भरे अति सोभित स्याम जू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना पग पैंजनी बाजत पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखानि बिलोकत वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग कहा कहिये हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी।
कबहूँ ससि माँगत आरि करैं कबहूँ प्रतिबिम्ब निहारि डरैं।
·कबहूँ करताल बजाइ कै नाचत, मातु सबै मन मोद भरैं।
कबहूँ रिसियाय कहैं हठि कै पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।
अवधेस के बालक चारि सदा, तुलसी मन-मंदिर में बिहरैं।।
भक्ति रस
आचार्य विश्वनाथ के समान, संस्कृत के धुरन्धर आचार्य पण्डितराज जगन्नाथ ने भक्ति के स्वतऩ्त्र रसत्व पर अपने विचार प्रकट किये हैं। उन्होंने लिखा है-
कथमेत एव रसाः? भगवदालंबनस्य रोमांचाश्रुपातादिरनुभावितस्य हर्षादिभिः पोषितस्य भागवतादिपुराणश्रवणसमये भगवभ्दक्तैरनुभूयमानस्य भक्तिरसस्य दुरपह्नवत्वात्। भगवदनुरूपा भक्तिश्चात्र स्थायिभावः। न चासौ शान्तरसेऽन्तर्भावर्हति, अनुरागस्य वैराग्यविरुद्धत्वात्। (रसगंगाधर)
इस प्रकार स्थायीभाव भगवत्प्रेम, आलम्बन ईश्वर या उसका कोई रूप, पुराणादि का श्रवण उद्दीपन, रोमांचादि अनुभाव तथा हर्ष, दैन्य आदि संचारी भाव हैं। रसतंरगिणीकार भानुदत्त ने भी भक्ति को अलौकिक रस के रूप में स्वीकार किया है। भक्ति को शान्त के भीतर नहीं रखा जा सकता, क्योंकि शान्त निर्वेद या वैराग्य पर आश्रित है और भक्ति अनुराग पर।
भक्ति को रस-रूप में प्रतिष्ठित करनेवाले, मधुसूदन सरस्वती और रूप गोस्वामी हैं। इनके अनुसार भक्ति परमरसरूपा है।
’हरिभक्तिरसामृतसिन्धु’ में भक्ति रस दो प्रकार का माना गया है, प्रथम-मुख्य भक्ति रस, द्वितीय-गौण भक्ति रस। मुख्य शक्ति रस पाँच प्रकार का है- शान्त, प्रीति, प्रेम, वत्सल और मधुर तथा गौण रस सात प्रकार का है- हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, भयानक, वीभत्स। इनमें से प्रीति और प्रेम क्रमशः दास्य और सख्य भाव हैं। भक्ति का यह विवेचन आलम्बन के अलौकिकत्व के कारण है। फिर ईश्वर के प्रति भक्ति की भावना स्थायी भाव के रूप में मानव-संस्कार में प्रतिष्ठित होने से, भक्ति रस लौकिक दृष्टि से भी मान्य हो सकता है। उदाहरण-
तू दयालु दीन हौं तू दानि हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी तू पाप पुंज हारी।।
नाथ तू अनाथ को अनाथ कौन मोसो।
मों समान आरत नहिं आरति हर तोसो।।
ब्रह्म तू हौं जीव हौं तू ठाकुर हौं चेरो।
तात मातु गुरु सखा तू सब बिधि हित मेरो।।
मोंहि तोंहि नाते अनेक मानिये जो भावै।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु चरन सरन पावै।।
यहाँ पर ईश्वर के प्रति अनुराग, स्थायी भाव है। राम या ईश्वर आलम्बन हैं। उनकी दानशीलता, दयालुता, करुणा आदि उद्दीपन हैं। कथन, विनय आदि अनुभाव हैं। दैन्य, हर्ष, गर्व आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार यह भक्ति-रस का परिपाक हैं। इसी प्रकार-
बसौ मोरे नैनन में नँदलाल।
मोहिनी मूरति साँवरी सूरति, नैना बने बिसाल।
अधर सुधारस मुरली राजति, उर बैजंती माल।
छुद्रघंटिका कटि तट सोभित, नूपुर सब्द रसाल।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भक्तबछल गोपाल।।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि उत्कृष्ट कोटि के काव्य में इसका परिपाक अथवा भाव की सुन्दर अभिव्यक्ति है। रस-सिद्धान्त के भीतर भाव और कला दोनों ही पक्षों का सामंजस्य रसत्व की परिणति के लिए आवश्यक है। जिन कवियों ने अपनी रचनाओं से रसवृष्टि कवि हैं जिनके लिए कहा गया है-
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः करीश्वराः।
नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम्।।
छन्द की परिभाषा- प्रकार तथा महत्वपूर्ण उदाहरण
टी. एस. ईलियट के काव्य सिद्धान्त
वर्ड्सवर्थ का काव्यभाषा सिद्धान्त
Excellent
जी धन्यवाद
App acche post karte ho . Kisi ki help ho Jaye agr Kisi ke post se to post Karne vale ka thanks bolate hai . Ap se gujarish hai ki please ap aise hi padhayi ke liye Kuch na kuch post kiya kariye .
Thanks
आपके इस फीडबैक के लिए धन्यवाद