आज के आर्टिकल में हम काव्यशास्त्र के अंतर्गत रूपक अलंकार(Rupak Alankar) को विस्तार से पढेंगे ,इससे जुड़ें महत्त्वपूर्ण उदाहरणों को भी पढेंगे। रूपक अलंकार उदाहरण, रूपक अलंकार किसे कहते है, सांग रूपक अलंकार, रूपक अलंकार के 10 उदाहरण, रूपक अलंकार के भेद, रूपक अलंकार के भेद PDF, रूपक अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।
रूपक अलंकार – Rupak Alankar
Table of Contents
आज के आर्टिकल में हम क्या सीखेंगे?
- रूपक अलंकार की परिभाषा
- रूपक अलंकार के भेद
- रूपक अलंकार के उदाहरण
- रूपक अलंकार के महत्त्वपूर्ण प्रश्न
रूपक अलंकार की परिभाषा – Rupak Alankar ki Paribhasha
जब किसी पद में उपमान एवं उपमेय में कोई भेद नहीं रह जाता है अर्थात् उपमेय में उपमान का निषेधरहित(अभेद आरोप) आरोपण कर दिया जाता है इसमें वाचक और साधारण धर्म शब्द नहीं होते है। वहाँ रूपक अलंकार माना जाता है। आसान भाषा में कहें तो जब एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आरोप किया जाये अर्थात् जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु का रूप दिया जाये तो रूपक अलंकार कहलाता है।
आरोप क्यों किया जाता है ?
जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु के साथ इस प्रकार रखा जाए, कि दोनों में कोई भेद न रहे। अर्थात उपमेय उपमान का रुप धारण कर लेता है।
रूपक अलंकार के उदाहरण – Rupak Alankar Ke Udaharan
- मुख कमल है। (रूपक अलंकार ) – इसमें एक तरह से मान ही लिया जाता है।
- मुख कमल के समान सुन्दर है (उपमा अलंकार) – इसमें समानता दिखाई जाती है।
1. ’मुख कमल है।’
स्पष्टीकरण–
इस उदाहरण में मुख पर कमल का आरोप किया गया है, अर्थात् मुख को कमल का रूप दिया गया है, या यों कहिये कि मुख को कमल बना दिया गया है।
2. बीती विभावरी जागरी !
अम्बर पनघट में डुबो रही तारा घाट उषा नगरी।
2. ’चरन-सरोज पखारन लागा।’
स्पष्टीकरण–
यहाँ ’चरणों’ (उपमेय) में ’सरोज’ (उपमान) का आरोप होने से रूपक अलंकार है।
3. प्रभात यौवन है वक्ष सर में कमल भी विकसित हुआ है कैसा।
4. ‘‘अवधेस के बालक चारि सदा, तुलसी मन-मंदिर में विहरें।’’
स्पष्टीकरण–
यहाँ ’मन-मंदिर’ पद में रूपक अलंकार है, क्योंकि यहाँ मन को मंदिर रूप में मान लिया गया है। इस प्रकार उपमेय (मन) में उपमान (मंदिर) का निषेधरहित (अभेद) आरोप होने के कारण यहाँ रूपक अलंकार हैं।
उदित उदयगिरी-मंच पर, रघुवर बाल-पतंग।
विकसे संत सरोज सब हर्षे लोचन भंग।
पहचान – जब किसी पद का भावार्थ ग्रहण करने पर दो पदों के बीच में ’रूपी’ शब्द की प्राप्ति होती है तो वहाँ रूपक अलंकार माना जाता है।
रूपक अलंकार के भेद – Rupak Alankar ke Bhed
रूपक अलंकार के मुख्यतः दो भेद होते है:-
- अभेद रूपक
- तद्रूप रूपक
अभेद रूपक में उपमेय और उपमान एक दिखाये जाते हैं, उनमें कोई भी भेद नहीं होता है; जबकि तद्रुप रूपक में उपमान, उपमेय का रूप तो धारण करता है, पर एक नहीं हो पाता। उसे ‘और’ या ‘दूसरा’ कहकर व्यक्त किया जाता है।
(1) अभेद रूपक
अभेद रूपक के तीन उपभेद होते है –
- सांग रूपक
- निरंग रूपक
- परम्परित रूपक
सांग रूपक
- जब किसी पद में उपमान का उपमेय में अंगों या अवयवों सहित आरोप किया जाता है तो वहाँ सांगरूपक अलंकार माना जाता है।
- इस रूपक में जिस आरोप की प्रधानता होती है, उसे ‘अंगी’ कहते हैं। शेष आरोप गौण रूप से उसके अंग बन कर आते है।
उदाहरण –
‘‘नारि-कुमुदिनी अवध – सर रघुवर – विरह – दिनेश।
अस्त भये प्रमुदित भई, निरखि राम – राकेश।।’’
उपमेय | उपमान |
नारी | कुमुदिनी |
अवध | सर (तालाब) |
रघुवर विरह (राम का वियोग) | दिनेश (सूर्य) |
राम | राकेश (चन्द्रमा) |
स्पष्टीकरण–
अवध रूपी सरोवर में निवास करने वाली नारी रूपी कुमुदिनियों को रघुवर का विरह रूपी सूर्य जला रहा था ,जो राम रूपी चंद्रमा के उदय होने पर मिट गया। सभी खिल उठी। यहाँ नारी को कुमुद ,अवध को सर, रामचंद्र के विरह को सूर्य ,राम को चंद्रमा का रूप दिया गया है उपमेय तथा उपमान का सभी अंगो सहित वर्णन किया गया है।
‘‘उदित उदयगिरि- मंच पर, रघुवर बाल-पतंग।
बिकसे संत – सरोज सब, हरषे लोचन-भृंग।।’’
उपमेय | उपमान |
सीता | स्वयंवर मंच उदयगिरि |
रघुवर (राम) | बाल-पतंग (बाल सूर्य) |
संत सरोज | कमल-वन |
लोचन | भृंग (भ्रमर) |
स्पष्टीकरण–
जनक सभा में रखे गये धनुष का वर्णन यहाँ किया गया है, जिसे तोङने के लिए श्रीराम मंच पर चढ़ गये हैं – कवि ने उसी दृश्य को सांगरूपक के माध्यम से रूपित किया है। प्रस्तुत पद में चार स्थानों पर रूपक की प्राप्ति हो रही है। इस प्रकार अंगों सहित रूपक की प्राप्ति होने के कारण यहाँ सांगरूपक अलंकार है।
‘‘बीती विभावरी जाग री।
अम्बर-पनघट में डूबो रही तारा-घट उषा – नागरी।।’’
उपमेय | उपमान |
नागरी | उषा |
घट | तारा |
पनघट | अम्बर |
‘‘छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोई बहुरंग कमल कुल सोहा।।
अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोई पराग मकरंद सुवासा।।’’
उपमेय | उपमान |
रामचरितमानस के दोहा, सोरठा आदि | छंद बहुरंगे कमल समूह |
उनका अनुपम | अर्थ पराग |
उनका सुन्दर | भाव मकरंद |
उसकी सुन्दर | भाषा सुगंध |
‘‘रनित भृंग घंटावली, झरत दान मधुनीर।
मंद-मंद आवतु चल्यो, कुंजर कुंज समीर।।’’
उपमेय | उपमान |
कुंजसमीर | कुंजर (हाथी) |
घंटावली | भृंग (भ्रमर) |
मधुनीर | दान (मदजल) |
’’सखि नील नभस्सर में उतरा, यह हंस अहा तरता-तरता।
अब तारक मौक्तिक शेष नहीं, निकला जिनको चरता-चरता।।’’
उपमेय | उपमान |
नीला आकाश | सरोवर |
सूर्य | हंस |
तारक (तारे) | मौक्तिक (मोती) |
’’शिशुता की निसा सिरानी, उग छाया यौवन दिनकर।
छवि विलसित तन सरवर में, दो सरसिज लसै मनोहर।।’’
उपमेय | उपमान |
शिशुता | निशा |
यौवन | दिनकर |
तन | सरोवर |
’’खडग बिजु चमकै चहुँ ओरा। बूँद बान बरसहिं घनघोरा।’’
उपमेय – खडग व बान उपमान – बीजु (बिजली) व बूँद
‘‘बढ़त-बढ़त सम्पत्ति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय।
घटत-घटत फिरि ना घटै, तरु समूल कुम्हलाय।।’’
‘‘जितने कष्ट कंटकों में है, जिनका जीवन सुमन खिला।
गौरव ग्रंथ उन्हें उतना ही, यत्र तत्र सर्वत्र मिला।।’’
’’डारे ठोङी-गाङ, गहि नैन बटोही मारि।
चिलक चैंध में रूप-ठग, हाँसी फाँसी डारि।।’’
(ब) निरंग रूपक
- जब किसी पद में अंगों या अवयवों से रहित उपमान का उपमेय में आरोपण किया जाता है तो वहाँ निरंग रूपक अलंकार होता है।
निरंग रूपक के उदाहरण
1.‘‘चरण कमल मृदु मंजु तुम्हारे।’’
स्पष्टीकरण–
प्रस्तुत पद केवल एक जगह (चरण-कमल अर्थात् कमल रूपी चरण) रूपक अलंकार है। इस प्रकार अंगों के बिना रूपक की प्राप्ति होने के कारण यहाँ निरंग रूपक अलंकार है।
2.‘‘अवधेश के बालक चारि सदा, तुलसी मन-मन्दिर में विहरें।।’’
3. पायो री मैंने राम रतन धन पायो।’’
4. ’’अवसि चलिय बन राम पहँ, भरत मंत्र भल कीन्ह।
सोक-सिंधु बूङत सबहिं, तुम अवलंबन दीन्ह।।’’
5.‘‘प्रियपति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है?
दुख-जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है।’’
स्पष्टीकरण–
यहाँ पर केवल एक जगह ’दुख’ उपमेय में ’जलनिधि’ उपमान का आरोप किया गया है। अतः अंग रहित आरोपण होने के कारण यहाँ निरंग रूपक अलंकार है।
6.’’हैं शत्रु भी यों मग्न, जिनके शौर्य-पारावार में।’’
7.’’राम विरह सागर महं भरत मगन मन होत।’’
8.’’चरण-कमल वंदौ हरिराई।’’
9.’’अंगना अंग से लिपटे भी, आतंक अंक पर काँप रहे हैं।’’
10.’’हरि मुख मृदुल मयंक’’
यहाँ मुख को चन्द्रमा बनाया गया है।
(स) परम्परित रूपक
- जब किसी पद में कम से कम दो रूपक अवश्य होते हैं तथा उनमें से एक रूपक के द्वारा दूसरे रूपक की पुष्टि होती हैं तो वहाँ परम्परित रूपक अलंकार माना जाता है।
परम्परित रूपक के उदाहरण
‘‘जय जय जय गिरिराज किशोरी।
जय महेश मुख चन्द्र चकोरी।।’’
स्पष्टीकरण–
प्रस्तुत पद में भगवान महेश (शिव) के मुख को चन्द्र के रूप में तथा पर्वतराजपुत्री पार्वती को चकोरी के रूप में माना गया है। चन्द्रमा के होने पर ही चकोरी का अस्तित्व होता है। यदि यहाँ महेश के मुख को चन्द्र नहीं माना जाये तो पार्वती को भी चकोरी नहीं माना जायेगा। अतः एक रूपक दूसरे रूपक का कारण होने के कारण यहाँ परम्परित रूपक अलंकार है।
‘‘बाडव ज्वाला सोती थी, इस प्रणय सिंधु के तल में।
प्यासी मछली सी आँखें थीं, विकल रूप के जल में।।’’
स्पष्टीकरण–
यहाँ आँखों में मछली का एवं रूप में जल का आरोपण एक दूसरे से जुङा हुआ है, अतः यहाँ परम्परित रूपक है।
3. ‘‘राम कथा सुन्दर करतारी। संसय विहग उड़ावन हारी।।’’
स्पष्टीकरण–
प्रस्तुत पद में रामचरितमानस की कथा को सुन्दर ताली (हाथों से बजायी जाने वाली ताली) के रूप में तथा हमारे हृदय के संसय को विहग (पक्षी) के रूप में माना गया है। जैसे – ताली के बजाने से पक्षी उङ जाते हैं, वैसे ही रामकथा के सुनने से हृदय के सभी संशय दूर हो जाते हैं।
यदि यहाँ ’रामकथा’ को ’ताली’ नहीं माना जाये तो ’संशय’ को भी ’पक्षी’ रूप में नहीं माना जायेगा। इस प्रकार एक रूपक दूसरे रूपक का कारण होने के कारण यहाँ परम्परित रूपक अलंकार है।
4.‘‘आशा मेरे हृदय मरु की मंजु मंदाकिनी है।’’
स्पष्टीकरण–
प्रस्तुत पद में हृदय को मरु के रूप में तथा आशा को मंदाकिनी के रूप में माना गया है। ये दोनों रूपक एक-दूसरे से आबद्ध होने के कारण यहाँ भी परम्परित रूपक अलंकार है।
5. ’’हृदय-गगन में रूप-चन्द्रिका बनकर उतरो मेरे।’’
6. ’’प्रेम अतिथि है खङा द्वार पर हृदय कपाट खोल दो तुम।’’
7. ’’नगर-नगर अपार, महा मोह-तम मित्र से।
तृष्णा-लता कुठार, लोभ-समुद्र अगस्त्य से।।’’
8. ’’दो आँसू तारक चख-नभ में अकस्मात् ही टूट पङे।’’
9. रविकुल-कैरव-विधु रघुनायक।
स्पष्टीकरण–
यह भी दो रूपक परस्पर जुङे हैं। रविकुल को कैरव और रघुनायक को विधु बनाया गया है, पर रघुनायक को विधु इसलिए बनाया है कि पहले रविकुल को कैरव बना चुके थे। रघुनायक और विधु का रूपक रविकुल और कैरव रूपक पर आश्रित है।
10. ’’उदयो ब्रज-नभ आइ यह हरि-मुख मधुर मयंक।
स्पष्टीकरण–
यहाँ पहले ब्रज को नभ बनाया। फिर हरि-मुख को मयंक बनाया। दूसरे रूपक से पहला रूपक जुङा हुआ है।
(2) तद्रूप रूपक
- जब किसी पद में उपमेय को उपमान के दूसरे रूप में स्वीकार किया जाता है; वहाँ तद्रूप रूपक अलंकार माना जाता है।
उदाहरण
1.‘‘अपर धनेश जनेश यह, नहिं पुष्पक आसीन।’’
स्पष्टीकरण–
प्रस्तुत पद में जनेश (राजा) को दूसरे धनेश (कुबेर) के रूप में माना गया है, अतः यहाँ तद्रूप रूपक अलंकार है।
2.‘‘अवधपुरी अमरावती दूजी।।’’
दशरथ दूजो इन्द्र मही पर।
3. बल-विभव में कुरुराज सचमुच दूसरा सुरराज है।
स्पष्टीकरण–
यहाँ कुरुराज (दुर्योधन) को सुरराज (इन्द्र) बनाया पर दूसरा इन्द्र है यह कहकर भेद कहा गया है।
4. ’’तू सुंदरि शचि दूसरी, यह दूजो सुरराज।।’’
स्पष्टीकरण–
प्रस्तुत पद में नायक को दूसरे इन्द्र (सुरराज) के रूप में तथा नायिका को दूसरी इन्द्राणी (शची) के रूप में स्वीकार किया गया है, अतः यहाँ तद्रूप रूपक अलंकार है।
5. ’’एक जीभ के लछिमन दूसर सेस।’’
6. ’’लगति कलानिधि चाँदनी, निसि ही मैं अभिराम।
दीपति वा मुखचन्द की, दिपति आठहूँ जाम।।’’
7. ’’दृग कुमुदन को दुखहरन, सीत करन मन देस।
यह बनिता भुवलोक की, चन्द्रकला सुभ बेस।।’’
8. ’’नहिं रतनाकर ते भयो, चलि देखौ निरसंक।
याते दूजो कहत हौं, वाको बदन मयंक।।’’
9. ’मुख दूसरा चन्द्रमा है।’
स्पष्टीकरण–
यहाँ मुख को चन्द्रमा बनाया है, पर दूसरा चन्द्रमा है ,यह कहकर कुछ भेद रखा गया है।
निष्कर्ष – Conclusion
हमारे द्वारा आज का आर्टिकल रूपक अलंकार (Rupak alankar) पसंद आया होगा। हम यही आशा करतें है कि आपको यह टॉपिक अच्छे से समझ आया होगा। आज की इस पोस्ट में हमने जाना कि ‘रूपक अलंकार की परिभाषा’ और रूपक अलंकार के बहुत सारे उदाहरण। दोस्तों हमने इस पोस्ट में पूरा प्रयास किया है कि आपको इससे जुड़ी सभी जानकारी सरल भाषा मे बता सकें। फिर भी अगर आपके मन मे कोई संदेह हो तो नीचे कमेंट बॉक्स में सवाल कर पूछ सकते हैं।
उपमा अलंकार | वक्रोक्ति अलंकार |
उत्प्रेक्षा अलंकार | भ्रांतिमान अलंकार |
दीपक अलंकार | व्यतिरेक अलंकार |
विरोधाभास अलंकार | श्लेष अलंकार |
अलंकार सम्पूर्ण परिचय | साहित्य के शानदार वीडियो यहाँ देखें |
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