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संदेह अलंकार – परिभाषा ,उदाहरण || Sandeh Alankar

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:1st Oct, 2022| Comments: 1

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आज के आर्टिकल में हम काव्यशास्त्र के अंतर्गत संदेह अलंकार(Sandeh Alankar) को विस्तार से पढेंगे ,इससे जुड़ें महत्त्वपूर्ण उदाहरणों को भी पढेंगे।

संदेह अलंकार – Sandeh Alankar

Table of Contents

  • संदेह अलंकार – Sandeh Alankar
    • संदेह अलंकार की परिभाषा – Sandeh Alankar ki Paribhasha
    • संदेह अलंकार के उदाहरण – Sandeh Alankar ke Udaharan
    • संदेह अलंकार के अन्य उदाहरण

Sandeh Alankar

संदेह अलंकार की परिभाषा – Sandeh Alankar ki Paribhasha

जब किसी पद में समानता के कारण उपमेय में उपमान का संदेह उत्पन्न हो जाता है और यह संदेह अन्त तक बना रहता है तो वहाँ संदेह अलंकार(Sandeh Alankar) माना जाता है।
इसका मतलब यह है कि जब किसी पदार्थ को देखकर हम उसके नाम (संज्ञा) के बारे में कोई निर्णय नहीं कर पाते है एवं यह अनिर्णय को स्थिति अन्त तक बनी रहती है तो वहाँ संदेह अलंकार माना जाता है।

जब सादृश्य के कारण एक वस्तु में अनेक वस्तु के होने की संभावना दिखायी पड़े और निश्चय न हो पाये, तब संदेह अलंकार माना जाता है।

उदाहरण

’हरि-मुख यह आली! किधौं, कैधौं उयो मयंक ?’

हे सखी! यह हरि का मुख है या चन्द्रमा उगा है ? यहाँ हरि के मुख को देखकर सखी को निश्चय नहीं होता कि यह हरि का मुख है या चन्द्रमा है। हरि के मुख में हरि-मुख और चन्द्रमा दोनों के होने की संभावना दिखायी पड़ती है।

पहचान : ’किधौं’, ’केधौं’, ’किंवा’ (संदेहवाचक का प्रयोग)

’’निश्चय होय न वस्तु को, सो संदेह कहाय।
किधों, यही धौं, यह कि यह, इति विधि शब्द जताय।।’’

संदेह अलंकार के उदाहरण – Sandeh Alankar ke Udaharan

’’ये है सरस ओस की बूँदें या हैं मंजुल मोती।।’’

प्रस्तुत पद में हंसिनी अपने सामने छायी ओस की बूँदों को देखती है, परन्तु सादृश्यता के कारण वह यह निर्णय नहीं कर पा रही है कि ’ओस की बूँदे’ है अथवा सुन्दर मोती है। इस प्रकार अन्त तक संशय बने रहने के कारण यहाँ संदेह अलंकार है।

’’सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।।’’

महाभारत काल में द्रौपदी के चीर हरण के समय उसकी बढ़ती साड़ी (चीर) को देखकर दुःशासन के मन में यह संशय उत्पन्न हो रहा है कि यह साड़ी के बीच नारी (द्रौपदी) है या नारी के बीच साड़ी है अथवा साड़ी नारी की बनी हुई है या नारी साड़ी से निर्मित है।

’’कज्जल के कूट पर दीपशिखा सोती है, कि श्याम घनमंडल में दामिनी की धारा है ?
यामिनी के अंक में कलाधर की कोर है, कि राहु के कबंध पर कराल केतु तारा है ?
’शंकर’ कसौटी पर कंचन की लीक है, कि तेज ने तिमिर के हिये में तीर मारा है ?
काली पाटियों के बी मोहिनी की मांग है, कि ढाल खांडा कामदेव का दुधारा है ?’’

’’कहूँ मानवी यदि मैं तुझको तो वैसा संकोच कहाँ ?
कहूँ दानवी तो उसमें है, लावण्य की लोच कहाँ ?
वन देवी समझूँ तो वह होती है भोली भाली,
तुम्ही बताओ अतः कौन तुम, हे रमणी! रहस्यवाली।।’’

प्रस्तुत पद में रूपपरिवर्तिता शूर्पणखा को देखकर लक्ष्मणजी यह निर्णय नहीं कर पा रहे है कि वह किसी मानव की स्त्री है अथवा किसी दानव की स्त्री है अथवा कोई वनदेवी है तथा अन्त तक भी अनिर्णय की स्थिति बनी हुई है, अतः यहाँ संदेह अलंकार है।

’’चमकत कैंधों सूर सूरजा दुधार किंधौ, सहर सतारा को सितारा चमकत है ?’’

यहाँ छत्रपति शिवाजी का खड्ग चमक रहा है अथवा सतारा नगर (शिवाजी की राजधानी) का भाग्य सूचक सितारा चमक रहा है। इसका संशय बने रहने के कारण यहाँ संदेह अलंकार है।

’’राधा मुख आलि किधौं, कैधो उग्यो मयंक।’’

’’कैंधौ रितुराज काज अवनि उसाँस लेत।
किधौं यह ग्रीषम की भीषण लुआर है।’’

ये ग्रीष्म ऋतु की भयंकर लू की लपटे है या वसन्त के विरह में पृथ्वी के अन्तस् से निकलती हुई विरह-दुःख की आहें ?

’’ये छीटें है उड़ते अथवा मोती बिखरे रहे है।’’

’’की तुम तीन देव महँ कोऊ ?
नर नारायण की तुम दोऊ ? ’’

कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं।
राम-लखन सखि। होहिं कि नाहीं।।

यहाँ भरत-शत्रुघ्न को देखकर ग्रामों की स्त्रियों को, सादृश्य के कारण, उनके राम-लक्ष्मण होने का संदेह होता है।

’’तारे आसमान के है आये मेहमान बनि, केशों में निशा ने मुक्तावली सजायी है।
बिखर गयो है चूर-चूर ह्वै कै चंद किधौं, कैधों घर-घर दीपावली सुहायी है।’’

यहाँ दीप-मालिका में तारावली, मुक्तामाला और चन्द्रमा के चूर्णीभूत कणों का संदेह होता है।

’’क्या शुभ्र हासिनी शरद घटा अवनी पर आकर है छायी।
अथवा गिरकर नभ से कोई सुरबाला हुई धराशायी।।’’

’’बाल गुड़ी नभ में उड़ी, सोहति इत उत धावती।
कै अवगाहत डोलत कोऊ, ब्रज रमणी जल लावती।।’’

’’तुम हो अखिल विश्व में,
या यह अखिल विश्व है तुममें ?
अथवा अखिल विश्व तुम एक ? (निराला)’’

’’निद्रा के उस अलसित वन में, वह क्या भावी की छाया।
दृग पलकों में विचर रही या वन्य देवियों की माया।।’’

’’कोई पुरन्दर की किंकरी है, या किसी सुर की सुन्दरी है।’’

बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल जाल मानौ
लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है।
कैधौं ब्योम बीथिका भरे है भूरि धूमकेतु,
बीररस वीर तरवारि सी उधारी है।
तुलसी सुरेस चाप कैधौं दामिनि कलाप
कैधौं चली मेरु ते कृसानु-सरि भारी है।
देखे जातुधान जातुधानी अकुलानी कहैं,
कानन उजार्यो अब नगर प्रजारी है।।

संदेह अलंकार के अन्य उदाहरण

’’कहहिं सप्रेम एक एक पाही।
राम-लखन सखि। होहिं की नाही।।’’

’’काटे न कटत रात यारी सखि मोसो
सावन की रात किंधौ द्रोपदी की सारी है।’’

’’यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उसकी कुछ समझ नहीं आया।’’

’’वह पूर्ण चंद्र उगा है या किसी का है मुखङा।’’

’’कैधों व्योम बीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु
कैंधो चली मेरु ते कृषानु सरी भारी है।’’

’’दिग्दाहों से धूम उठे
या जलधर उठे क्षितिज तट के।’’

’’हे उदित पूणेन्दु वह अथवा किसी
कमिनी के बदन की बिखरी हटा।’’

’’वन देवी समझू तो वह होती है भेली-भाली।’’

’’विरह है अथवा यह वरदान।’’

’’मन मलीन तन सुन्दर कैसे।
विषरस भरा कनक घट जैसे।।’’

’’प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।’’

’’मद भरे ये नलिन नयन मलीन हैं।
अल्प जल में या विकल लघु मीन हैं।।’’

हम उम्मीद करतें है कि आज के आर्टिकल में संदेह अलंकार(Sandeh Alankar) आपने अच्छे से समझ लिया होगा ,अगर फिर भी कोई समस्या हो तो नीचे कमेंट बॉक्स में जरुर लिखें

उपमा अलंकारवक्रोक्ति अलंकार
उत्प्रेक्षा अलंकारभ्रांतिमान अलंकार
दीपक अलंकारव्यतिरेक अलंकार
विरोधाभास अलंकारश्लेष अलंकार
अलंकार सम्पूर्ण परिचयसाहित्य के शानदार वीडियो यहाँ देखें 
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  1. Pankaj says

    20/10/2022 at 7:07 AM

    Thanks

    Reply

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