इस आर्टिकल में बिहारी सतसई की टीका बिहारी रत्नाकर – जगन्नाथदास रत्नाकर(Bihari Ratnakar Jagnath Das Ratnakar) को महत्त्वपूर्ण तथ्यों के साथ समझाया गया है।
बिहारी रत्नाकर – जगन्नाथदास रत्नाकर(Bihari Ratnakar)
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बिहारी रत्नाकर प्रथम 25 दोहे
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परे, स्याम हरित-दुति होइ॥ 1
शब्दार्थ :
भव – बाधा = सांसारिक कष्ठ
नागरि = चतुर /श्रेष्ठ
सोई = जो
तन = शरीर
झाँई = परछाई
श्याम = श्रीकृष्ण
हरित-दुति = हरे रंग की आभा/प्रसन्नता
व्याख्या : यह दोहा बिहारी सतसई के पहले दोहे मंगलाचरण के रूप में दिया गया है। इसमें कवि बिहारी ने राधा की स्तुति की है। राधा जी को अतिश्योक्ति के माध्यम से बढ़ा चढ़ा कर उनके प्रभाव का वर्णन किया गया है । कवि कहते है कि हे चतुर राधिका मेरे सांसारिक कष्ठ हरण कर लो। कवि कहते है कि आपकी तो परछाई/झलक पड़ने से ही श्याम वर्ण के श्रीकृष्ण हरे रंग में बदल जाते है या इसका अर्थ यह भी ले सकते है कि राधिका की परछाई मात्र से ही श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते है। इसलिए आप तो मेरे सारे सांसारिक कष्ठ दूर कर सकते हो। इस प्रकार कवि बिहारी अपनी सतसई के पहले दोहे में मंगलाचारण से ही सतसई की शुरुआत करतें है।
विशेष :
- इस दोहे में अतिश्योक्ति अलंकार का प्रयोग हुआ है।
- ‘नागरि’ शब्द में लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग हुआ है ।
- कवि बिहारी ने पद में रंग विषयक ज्ञान को भी प्रदर्शित किया है।
- अभंग श्लेष अलंकार प्रयोग हुआ है।
- काव्यलिंग अलंकार का प्रयोग हुआ है।
अपने अंग के जानि कै जोबन-नृपति प्रबीन।
स्तन, मन, नैन, नितम्ब की बड़ौ इजाफा कीन।। 2
शब्दार्थ :
जोबन-नृपति = यौवन रूपी राजा
प्रबीन = कुशल
इजाफा = बढ़ोतरी
व्याख्या :
कवि बिहारी कहते हैं कि जिस प्रकार राजा ने अपनी सेना के अंगो की बढ़ोतरी कर देता है, उसी प्रकार यौवन रूपी राजा नवयौवना नायिका के स्तनों, नैनो, मन और नितंबों को अपने पक्ष का मान कर उनको बढ़ावा दे देता है ।
विशेष :
अरतै टरत न बर-परे, दई मरक मनु मैन।
होङाहोङी बढ़ि चले चितु, चतुराईन नैन।। 3
व्याख्या : नवयौवना मुग्धा नायिका के लावण्य पर रीझ कर नायक अपने आप से कह रहा है कि यौवन के आगमन के कारण इस नायिका के उमंग से भरे हुए चित्त, चतुराई और तीनों ही प्रतिद्वन्द्विता की भावना से बढ़ रहे हैं जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो कामदेव ने भी इन्हें प्रोत्साहन दिया हुआ है। कहने का आशय यह है कि यौवन के आगमन के कारण नायिका का चित्त तो उमंगों से भर ही गया है, चतुराई भी बहुत आ गई है तथा नेत्र भी विशाल हो गए है।
विशेष – यौवन के आगमन के साथ ही नवयौवना के व्यवहार आदि में किचित् अन्तर आ जाता है। उसका मन यौवन के उद्दाम आवेग में डूबा रहता है और वह चतुर भी हो जाता है। कवि ने नारी-मनोविज्ञान के गंभीर ज्ञान का परिचय भी दिया है।
नायिका के इस सौन्दर्य वर्णन की वक्ता दूती भी हो सकती है जो कि नायक के समक्ष नायिका के लावण्य का वर्णन करे।
अलंकार – वृत्यानुप्रास – ’मरक मनु मैन’ तथा ’चले चितु चतुराई’ में।
छेकानुप्रास – ’होङाहोङी’ में।
हेतुत्प्रेक्षा – संपूर्ण दोहे में।
मानवीकरण – सम्पूर्ण दोहे में।
औरे-ओप कनीनिकनु गनी घनी-सरताज।
मनीं घनी के नेह की बनीं छनीं पट लाज।। 4
व्याख्या : प्रस्तुत दोहे में नवयौवना नायिका की आँखों की पुतलियों का प्रस्तुत दोहे में नवयौवना नायिका की आँखों की पुतलियों का वर्णन किया गया है। नायिका की सखी नायिका की पुतलियों की यौवनोचित शोभा और लज्जा का वर्णन कर रही है। प्रस्तुत दोहे में नायिका की सखी नायिका को संबोधित करते हुए कह रही है। कि ’’हे सखी, अब यौवनागम के कारण्रा तेरी आँखों की पुतलियों की आभा और ही हो गई है जिसका शुभ परिणाम यह हुआ है कि तू अपनी सपत्नियों में सर्वाधिक प्रमुख हो गई है अर्थात् प्रियतम के अत्यधिक निकट हो गई है। तेरी आँखों की ये पुतलियाँ लज्जा रूपी वस्त्र में छिपी हुई है और इसी कारण नायक के स्नेह की यौवन-दीप्त पुतलियाँ नायक के स्नेह को आकृष्ट करने के लिए लज्जारूपी आवरण में छिपी हुई मणियों की तरह शोभा पा रही है। यौवन के आगमन के साथ मुग्धा नायिका की पुतलियों में एक विशेष प्रकार की लज्जामिश्रित कान्ति आ जाना स्वाभाविक है।
विशेष – उपरोक्त कथन अन्य सम्भोग दुखिता नायिका का भी हो सकता है जो कि सपत्नी की लज्जा युक्त पुतलियों को देखकर डाहवंश कहती है ’’तू अपनी लज्जायुक्त पुतलियों के कारण प्रियतम के इतना निकट हो गई है और इस प्रकार सपत्नियों में प्रमुख हो गई है।’’
यौवनागमन के साथ नारी की पुतलियों में एक विशेष प्रकार की लज्जा का भाव आ जाता है जो कि किसी भी व्यक्ति को आकृष्ट कर लेता है। प्रस्तुत दोहे में कवि ने नारी-मनोविज्ञान सम्बन्धी ज्ञान का भी परिचय दिया है।
अलंकार – छेकानुप्रास – ’और ओप’ में।
वर्णमैत्री – ’मनीं धनी के नेह की बनी छनी’ में।
रूपक – ’पटलाज’ में।
भेदकातिशयोक्ति – संपूर्ण दोहे में।
सनि कंजल चख-झख-लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु।
क्यों न नृपति ह्वँ भोगवै लहि सुदेसु सबु देहु।। 5
व्याख्या : कज्जलयुक्त नेत्रों वाली नायिका के सौन्दर्य को देखकर नायक का मन उसके प्रति आसक्त हो उठा। नायक पूर्णतः उसके सौन्दर्य में डूब गया। नायक की इस मनोदशा का वर्णन दूती नायिका से कह रही है और इस प्रकार नायिका के मन में नायक के प्रति रूचि उत्पन्न कर रही है।
नायिका को सम्बोधित करते हुए दूती कहती है कि ’’तेरे नेत्र-रूपी मीन राशि में काजल रूपी शनि ग्रह का प्रवेश हो गया है और इस प्रकार इस शुभ लग्न में नायक के हृदय में तेरे प्रति स्नेह उमङ आया है। अर्थात् तेरे कंजनयुक्त नयनों के लावण्य को देखकर नायक के हृदय में तेरे प्रति असीम स्नेह उत्पन्न हो गया है। इस शुभ अवसर पर तूने नायक के सर्वांग पर अधिकार प्राप्त कर लिया है तो तू राजा की तरह उसका संपूर्ण भोग क्यों नहीं करती अर्थात् तुझे इस अनुकूल स्थिति का अधिकतम लाभ उठाना चाहिए।
विशेष – प्रस्तुत दोहे में कविवर बिहारी के ज्योतिषशास्त्र संबंधी ज्ञान का भरपूर परिचय मिलता है।
कवि ने प्रस्तुत दोहे में दूती-कार्य पर भी प्रकाश डाला है। तत्कालीन राजाओं एवं सामन्तों के यहाँ दूतियों की क्या भूमिका होती है – प्रस्तुत दोहे से इस संबंध में भी पर्याप्त प्रकाश पङता है। ये दूतियाँ सुन्दर नारियों को फुसला कर सामन्तों के स्नेह-पाश तक पहुंचा देती थी।
अलंकार – छेकानुप्रास – ’सुदिन सनेहू’ तथा ’सुदेसु सबु’ में
श्लेष – ’लग्न’ में।
सांगरूपक – सम्पूर्ण दोहे में।
सालति है नटसाल सी, क्यों हूँ निकसिति नांहि।
मनमथ-नेजा-नोक भी खुभी-खुभी जिय मांहि।। 6
व्याख्या : किसी नायिका के कानों में पहनी जाने वाली खूभी नायिका के मन में धँस गई है। नायक ऐसी नायिका की दूती से नायिका से मिलन की इच्छा व्यक्त करता है। प्रस्तुत दोहे में नायक की यही मिलन-उत्कंठा व्यक्त हुई है।
नायिका के कणों का आभूषण नायक के हृदय में धँस गया है। नायक दूती को संबोधित करते हुए कहता है कि ’’हे दूती, तुम्हारी नायिका के कानों में धारण की हुई खुभी मेरी हृदय में कामदेव के भाले की नोक की तरह धँसी हुई व्यथित कर रही है। कामदेव के भाले की यह नोक मेरे हृदय में हुए घाव में ही धंस कर रह गई है और किसी भी प्रकार घाव में से निकलती नहीं है अर्थात् इस भाले की नोक घाव के भीतर ही रह गई है। अतः मेरी यह पीङा समाप्त होने वाली नहीं है।’’
विशेष – प्रस्तुत दोहे में परकीया का चित्रण किया गया है।
अलंकार – छेकानुप्रास – ’निकसित नाहिं’ तथा ’नेजा-नोक’ में।
यमक – ’खुभी-खुभी’ में।
पूर्णोत्मा – संपूर्ण दोहे में तथा ’नटसाल-सी’ और मनमथ-नेजा-नोक’ में।
जुबति जोन्ह मैं मिलि गई, नैक न होति लखाइ।
सौंधे कै डोरै लगी अली चली संग जाइ।। 7
व्याख्या : प्रस्तुत दोहे में शुक्लाभिसारिका नायिका की कोई अतरंग सखी नायिका के शरीर में व्याप्त सुगन्धि का वर्णन कर रही है।
शुक्लाभिसारिका नायिका के शरीर में व्याप्त सुगन्धि का वर्णन अपने गौरवर्ण के कारण चन्द्रमा की चाँदनी में इतनी घुल-मिल गई है कि यह तनिक भी नहीं दिखाई देती अर्थात् नायिका का नायिका तथा चन्द्रमा में आत्मसात् हो गया है और इस प्रकार नायिका तथा चन्द्रमा की ज्योत्स्ना में अभेदत्व की स्थिति हो गई है। इस अभेद की स्थिति के कारण उसके साथ चलना संभव नहीं है किन्तु फिर भी उसकी सखी (अथवा भ्रमर) उसके शरीर रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिसके सहारे उसकी सखी (अथवा भ्रमर) उसे पहचान पाती है अन्यथा तो अपने धवल-वर्ण के कारण बहू चाँदनी के साथ एकाकार हो गई थी।
विशेष – कवि ने प्रस्तुत दोहे में शुक्लाभिसारिका नायिका का चित्रण किया है। शास्त्रकारों ने ऐसी नायिका के लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि ’’शुक्लाभिसारिका नायिका केवल पूर्णचंद्रमा वाली राशि में ही प्रियतम से मिलने आती है।’’
अलंकार – छेकानुप्रास – ’जुबती जोन्ह’ में।
श्लेष – ’अली’ में।
भ्रान्तिमान – दूसरी पंक्ति में।
उन्मीलित – पहली पंक्ति में।
हौं रीझी लखि रीझिहौ छबिहि छबीले लाल।
सोनजुही सी होति दुति-मिलत-मालती माल।। 8
व्याख्या : नायिका के अपूर्व सौन्दर्य को देखकर उसकी दूती उस पर आसक्त हो गई है। वही दूती नायिका के प्रेमी नायक के समक्ष नायिका के लावण्य का वर्णन कर रही है जिससे कि नायक के मन में भी नायिका के प्रति आसक्ति उत्पन्न हो सके।
नायक के समक्ष नायिका के लावण्य का वर्णन करते हुए नायिका की दूती कहती है कि ’’हे नायक, उस अपूर्ण लावण्यमयी नायिका, के रूप को देखकर मैं तो पूर्णतः लुब्ध हो गई और हे छबीले लाला, यदि तुम भी उस रूप को देखोगे तो तुम भी उसके प्रति आसक्त हो जाओगे। उसके गले में पङी हुई मालती की माला उसके शरीर की यौवनारक्तिम कान्ति के कारण सोनजुही के फूलों की तरह स्वर्णिम हो जाती है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेख्य है कि मालती का फूल सफेद रंग का होता है। अतः नायिका के शरीर की कान्ति से उनका सोनजुही की तरह स्वर्णिम हो जाना नितान्त स्वाभाविक है।’’
विशेष – एक नारी, द्वारा अन्य नारी के सौन्दर्य का इतना प्रभावीत्पादक वर्णन यह सिद्ध करता है कि नायिका अपूर्ण सौन्दर्य से युक्त है। जब एक नारी के सौन्दर्य पर एक अन्य नारी इतनी अधिक रीझ सकती है तो उस सौन्दर्य को देखकर नायक की मनःस्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
अलंकार – छेकानुप्रास – ’छबिहि छबीले’ में।
वृत्यानुप्रास – ’मिलत मालती माल’ में।
उपमा – ’सोनजुही-सी’ में।
तद्गुण – सम्पूर्ण दोहे में।
बहके, सब जिय की कहत, ठौरू कुठारू लखेन।।
छिन औरे, छिन और से, ए छबि छाके नैन।। 9
व्याख्या :नायिका का मन नायक के प्रति अत्यधिक आसक्त हो गया है। उसकी सखी उसे समझाती है कि अपने इस प्रेम-प्रसंग को गुप्त ही रख अन्यथा समाज में हँसी उङेगी। नायिका इस रहस्य को, छिपाए रखने में अपने आपको असमर्थ पाती है। प्रस्तुत दोहे में नायिका अपनी सखी के समक्ष इसी असमर्थता का वर्णन कर रही है।
नायक के प्रेम में डूबी हुई नायिका की सखी उसे इस प्रेम-भाव को गुप्त रखने की शिक्षा देती है नायिका इस सम्बन्ध में अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहती है कि ’’हे सखी, मैं क्या करुँ, इस प्रेम-भाव को अपने तक रखना मेरे वश की बात नहीं है। मेरी ये आँखें क्षण में कुछ तथा दूसरे ही क्षण में कुछ और प्रकार की हो जाती है। मेरी ये आँखें अवसर अनवसर नहीं देखती और हृदय की सारी बात कह देती है। वस्तुतः मदिरा में उन्मत्त हो जाने के पश्चात् मनुष्य की विवेक शक्ति जाती रहती है और वह उचित-अनुचित की चिन्ता किए बिना ही व्यवहार करता है। नायिका की भी स्थिति ऐसी है। जब से उसकी आँखों में नायक के सौन्दर्य की मदिरा का पान किया है उनकी विवेकशक्ति जाती रही और वे आँखें अवसर-अनवसर पर विचार किए बिना ही नारी के हृदय की सारी बातें कह देती है।
विशेष – कविवर बिहारी ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि नारी का रूप भी जादू का सा प्रभाव रखता है। उस अपूर्व सौन्दर्य रूपी मदिरा को छक लेने के पश्चात् मनुष्य की विवेक-शक्ति नहीं रह जाती।
सन्त कवि कबीरदास ने एक स्थल पर प्रेम की उपमा रूई में लिपटी हुई अग्नि ने दी है। रूई में लिपटी हुई आग को प्रकट होने में समय नहीं लगता और इसी प्रकार प्रेम-भाव छिपाने से नहीं छिपता। महात्मा कबीर के शब्दों में-
कहत कबीरा क्यों बुरै रूई लपेटी आग।
अलंकार – छेकानुप्रास – ’छवि-छाके’ में।
भेदातिशयोक्ति – ’छिन औरे, छिन और से’ में।
फिरि फिरि चितु उस ही रहतु टुटी लाज की लाज।
अंग-अंग-छबि-झौर मैं भयौ भौर की नाव।। 10
व्याख्या :प्रस्तुत दोहे में नायक के प्रति आसक्त नायिका अपनी अन्तरंग सखी के समक्ष अपनी मनोदशा का वर्णन कर रही है। नायिका अपनी अन्तरंग सखी के समक्ष अपनी मनोदशा का वर्णन कर रही है। नायिका का मन बार-बार उसकी प्रियतम की ओर आकृष्ट हो रहा है। प्रस्तुत दौरे में कवि ने नायिका की इसी विवशता का वर्णन किया है।
प्रियतम के रंगी हुई नायिका अपनी अन्तरंग सखी को संबोधित करते हुए कहती है कि ’’हे सखी जिस घङी मैंने प्रियतम के अंग-प्रत्यय के अपूर्व सौन्दर्य राशि के दर्शन किए है। मेरा मन बार-बार उसी रूप-सौन्दर्य को देखने के लिए आकृष्ट होता है। मेरा यह मन लोक-लाज की रस्सी को तोङकर उसी प्रियतम के दिव्य रूप को निहारने में लगा रहता है। हे सखी मेरे इस मन की स्थिति तो प्रियतम के रूप-सौन्दर्य रूपी भँवर में फंसी हुई नौका की तरह है अर्थात् यह मन प्रियतम के रूप-सौन्दर्य में ही डूबा रहता है।
विशेष – प्रस्तुत दोहे में कवि ने पूर्वानुरागिनी की स्नेह-दशा का वर्णन किया है।
कुछ विद्वानों के अनुसार उपर्युक्त दोेहे में पूर्वानुरागिनी नायिका का नहीं अपितु नायक की स्नेह-दशा का वर्णन किया है।
अलंकार – पुनरूक्ति प्रकाश – ’फिरि फिरि’ तथा ’अंग-अंग’ में।
छेकानुप्रास – ’भयौ भौर’ में।
रूपक – ’लाज की लाज’ तथा ’छबि झौर’ में।
नौकी दई अनाकनी, फीकी परी गुहारि।
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनुतारि।। 11
व्याख्या : प्रस्तुत दोहे में एक भक्त, भगवान को यह उपालम्भ दे रहा है कि भगवान ने उसका उद्दार नहीं किया।
अपना उद्धार न होने पर भगवान को उपालम्भ देते हुए एक भक्त कहता है कि ’हे भगवान्, आपने यह अच्छी रीति शुरू कर दी है कि मेरी सभी प्रार्थनाएँ सुनकर भी अनसुनी कर दी है जिसके कि मेरी सभी आर्त-प्रार्थनाएं प्रभाव रहित हो गई है अर्थात् अब मेरी आर्त-पुकारा का आप पर कोई भी प्रभाव नहीं पङता। यह स्थिति देखकर मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मानो एक बार हाथी का (ग्राह से) उद्धार कर देनेे के पश्चात् आपने भक्तों के उद्धार करने की कीर्ति को छोङ दिया है।’’
विशेष – प्रस्तुत दोहे में कवि ने गज-उद्धार की कथा का उल्लेख किया है। इस पौराणिक कथा के अनुसार एक बार ऐरावत हाथी नदी में पानी पीने लगा कि ग्राह ने उसे पकङ लिया। गज के लिए अपने आपको बचाना सम्भव नहीं रहा। अन्ततः उसने भगवान् का स्मरण किया तो भगवान नंगे पाँव आए और उसे हाथी को ग्राह के पंजे से मुक्त करा दिया।
प्रस्तुत दोहा यह प्रमाणित करता है कि कविवर बिहारी ने अपनी इस सतसई में केवल शृंगारपरक दोहों की ही सृष्टि नहीं की है अपितु कहीं-कहीं विषय-परिवर्तन भी मिलता है।
कवि ने यथा स्थान मुहावरों का सफल प्रयोग करके अभिव्यंजना को सशक्त बनाया है। कवि ने इस दोहे में निम्न मुहावरों का प्रयोग किया है-
अनाकनी देना, गुहार का फीका पङना आदि-
अलंकार-उत्प्रेक्षा- ’तज्यौ मनौ तारन-बिरदु’ में।
सभंग यमक – ’बारक बरनु’ में।
वक्रोक्ति – संपूर्ण दोहे में।
चितई ललचैहें चखनु, डटि घूंघट-पट माँह।
छल सौं चली छुपाइ कै, छिनकु छबीली छांह।। 12
व्याख्या : नायक को देखकर नायिका ने भी चतुराई से अपने प्रेम की आतुरता को व्यक्त किया है। प्रस्तुत दोहे में नायक, नायिका की दूती से नायिका की इन्हीं अनुराग-व्यंजक चेष्टाओं का वर्णन कर रहा है। यह कथन नायक का स्वगत कथन भी हो सकता है।
नायिका की अनुराग-व्यंजक चेष्टाओं का वर्णन करते हुए नायक उस नायिका की सखी अथवा दूती से कहता है कि ’हे दूती, उस देखा। नायिका ने पहले तो घूंघट के वस्त्र में से भली-भाँति मेरी ओर देखा। नायिका ने ललचाई दृष्टि से मुझे देखा और फिर एक क्षण के लिए अत्यन्त चतुराई से अपनी प्रतिच्छाया से मेरी प्रतिच्छाया को स्पर्श कराके चली गई।’’
विशेष – प्रस्तुत दोहे में कवि ने परकीया क्रिया-विदग्वा नायिका का वर्णन किया है।
नायिका लोकलाज के कारण नायक के शरीर का स्पर्श नहीं कर सकी किन्तु उसकी प्रतिच्छाया को स्पर्श करके उसे अवश्य ही किचित सन्तोष प्राप्त हुआ होगा।
परकीया क्रिया-विदग्धा नायिका की कायिक-चेष्टाओं का प्रभावोत्पादक वर्णन किया गया है।
अलंकार – वृत्यानुप्रास – ’छिनकु छबीली छाँह’ में।
युक्ति – संपूर्ण दोहे में।
जोग-जुगति लिखए सबै, मनों महामुनि मैन।
चाहत पिय-अद्वैतता, काननु सेवत नैन।। 13
व्याख्या : प्रस्तुत दोहे में नायिका की समवयस्क युवतियाँ नायिका के नेत्रों की कानों तक की लम्बाई का वर्णन कर रही है।
प्रस्तुत दोहे में दो अर्थ भासित होते हैं जो कि इस प्रकार हैं –
(क) नायिका की समवयस्क युवतियाँ नायिका के विस्तृत नेत्रों की शोभा का वर्णन करते हुए उसे कहती है कि ’’हे सखी, तेरे इन नेत्रों को कामदेवरूपी महामुनि ने योग क्रिया की सारी युक्तियाँ सिखा दी हैं जिससे कि परमात्मा के साथ तुम्हारी अभिन्नता प्राप्त करने हेतु तुम्हारे ये नेत्र रूपी योगी वन-प्रदेश में तपस्या-रत हो गए हैं।’’
(ख) नायिका के विस्तृत नेत्रों की शोभा का वर्णन करते हुए उसकी सखियाँ उससे कहती है कि ’’हे सखी, कामदेवरूपी महात्मा ने तेरे इन विस्तृत नेत्रों को प्रियतम से मिलने की सारी युक्तियाँ सिखा दी हैं। तेरे ये नेत्र प्रियतम के दर्शन पाने के हेतु कान तक लंबे हो गए हैं।’’
विशेष – कवि ने जोग, प्रिय, काननु और नैन के श्लिष्ट प्रयोग के कारण इस दोहे में दो अर्थों की व्यंजना की है। शृंगार और योग संबंधी इन दो परस्पर-विरोधी अर्थों की व्यंजना की है। विलक्षण प्रतिभा की परिचायक है।
प्रस्तुत दोहे में कवि ने नारी-मनोविज्ञान का भी परिचय दिया है। समवयस्क युवतियों का परस्पर शिष्ट परिहास इसी प्रकार का होता है।
अलंकार – रूपक – ’महामुनि मैन’ में।
छेकानुप्रास – ’जोग-जुगति’ में।
श्लेष – जोग, पिय, काननु तथा नैन में।
फलोत्प्रेक्षा – संपूर्ण दोहे में।
वृत्यानुप्रास – ’मनौमहामुनि मैन’ में।
खरी पातरी कान कौ, कौन, बहाऊ बानि।
आक-कली न रली करै अली, अली, जिय जानि।। 14
व्याख्या : प्रस्तुत दोहे में मानिनी नायिका का वर्णन है जो कि नायक के प्रति सहज ही अविश्वास कर लेती है। नायिका दूती नायिका को समझा रही है कि किसी के कहने-सुनने पर यूँ ही विश्वास नहीं कर लेना चाहिए।
मानिनी नायिका की दूती उसे समझाते हुए कह रही है कि ’’हे नायिका, तू कान की बहुत कच्ची है अर्थात् नायक के संबंध में उल्टी-सीधी बातें सुनकर सहज की उनका विश्वास कर लेती है। यह कैसी बुरी आदत तूने सीख ली है कि अपने नायक पर सहज ही अविश्वास करने लगी है। हे सखी, अपने हृदय में यह बात अच्छी तरह समझ ले कि भ्रमर मदार-वृक्ष की कली नीरस होती है अतः भ्रमर उसके प्रति आकृष्ट हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार नायक भी तुझ जैसी लावण्यमयी को छोङकर किसी अन्य नीरस नायिका के प्रति आकृष्ट होने वाला नहीं है।’’
विशेष – कवि ने प्रसंगानुकूल मुहावरों का प्रयोग करके अभिव्यंजना को सशक्त एवं सजीव बना दिया है। प्रस्तुत दोहे में ’खरी पातरी कान की’ तथा ’बहाऊ बानि’ का सार्थक प्रयोग किया गया है।
कवि ने नारी मनोविज्ञान का भी परिचय दिया है। नारी का हृदय अत्यन्त कोमल होता है अतः नायक के पर-नायिका अनुरक्त होने की बात पर सहज ही विश्वास कर लेती है।
अलंकार – यमक – ’अली-अली’ में।
रूपकातिशयोक्ति – ’आक कली न रली करै अली’ में।
छेकानुप्रास – ’बहाऊ बानि’, ’जिय जानि’ में।
वर्ण-मैत्री – सम्पूर्ण दोहे में।
पिय बिछुरन को दुसहु दुखु, हरषु जाल प्यौसार।
दुरजोधन सौं देखयति तजत प्रान इहि बार।। 15
व्याख्या : प्रस्तुत दोहे में कवि ने नायिका के नैहर जाते समय के दुःख का वर्णन किया है। जब तक नायिका मुग्धा थी, नैहर जाते समय उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता था। अबकी बार वह मध्यावस्था को पहुंच चुकी है अतः नैहर जाते समय नायक के वियोग का दुःख भी हो रहा है। कवि ने इस दोहे में नायिका की इस सुख-दुखात्मक मनोदशा का वर्णन किया है। एक सखी दूसरी सखी से कह रही है।
नेहर जा रही नायिका को एक और तो प्रियतम से बिछोह का भारी दुःख है और दूसरी ओर नैहर में परिजनों से मिलने का हर्ष भी है। नायिका की यह सुख-दुःखात्मक मनोदशा दुर्योधन जैसी है, जिसने कि हर्ष और विषाद की द्विविधापूर्ण स्थिति में प्राण त्यागे थे। नायिका की सखी दूसरी सखी से यही कह रही है कि ’’अबकी बार नैहर जाती हुई नायिका की मनोदशा दुर्योधन की-सी लग रही है, जिसने हर्ष और शोक के मिश्रित वातावरण में प्राण त्यागे थे।’’
विशेष – उपरोक्त दोहे में महाभारत की एक कथा का उल्लेख है। कथा इस प्रकार है – धृतराष्ट्र के पुत्र और कौरवपक्ष के नायक दुर्योधन को यह वरदान मिला हुआ था कि उसकी मृत्यु सुख-दुःखात्मक स्थिति में होगी। महाभारत के युद्ध में एक बार अश्वत्थामाने द्रौपदी के पाँचों सुतों को पांडव समझ कर उनके सिर काट दिए। द्रौपदी के पाँचों पुत्रों की इस हत्या को पाण्डु पुत्रों की हत्या मानकर दुर्योधन अत्यधिक हर्षित हो उठा। तथापि जब उसे यह ज्ञात हुआ कि अश्वत्थामा ने पाण्डु-पुत्रों के नहीं द्रौपदी के ही पाँचों पुत्रों के सिर काट डाले है तो उसका हर्ष विषाद में बदल गया। इसी द्विविधापूर्ण स्थिति में दुर्योधन की मृत्यु हुई थी।
अलंकार – छेकानुप्रास – ’दुसहु दुख’ में।
पूर्णापमा – दूसरी पंक्ति में।
झीनै पट मैं झुलमुली झलकति ओप अपार।
सुरतरु की मनु सिंधु मैं लसति अपल्लव डार।। 16
व्याख्या : प्रस्तुत दोहे में कवि ने नायिका के कानों मेें पहने जाने वाले आभूषण की शोभा का वर्णन किया है। नायिका की दूती नायक के समक्ष इस आभूषण की शोभा का वर्णन करते हुए उसकी दूती नायक से कहती है कि ’’नायिका ने कानों में जो झलुमुली धारणा कर रखी है, उसकी अपार आभा महीन वस्त्र के भीतर से प्रकाशित हो रही है। जिसे देख कर ऐसा प्रतीत होता है मानो समुद्र के भीतर कल्पवृक्ष की पत्तों से युक्त डाल शोभायमान हो रही हो।
विशेष – कई टीकाकारों ने झुलमुली का आशय झुलमुलाती हुई कान्ति से लिया है। टीकाकार रत्नाकार के अनुसार झुलमुली का अर्थ कर्णाभूषण नहीं अपितु नायिका के शरीर की झिलमिलाती हुई कान्ति से है। प्रस्तुत अर्थ में इस दोहे का अर्थ इस प्रकार होगा, नायिका की अपार कान्ति का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ’’महीन वस्त्रों में से नायिका के शरीर के सौन्दर्य की अपार कान्ति झलमला रही है जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो समुद्र में कल्पवृक्ष की पत्तों से युक्त डाल सुशोभित हो रही हो।’’ नायिका ने जो महीन वस्त्र धारण कर रखे हैं, वे समुद्र की तरह हैं जिनमें से उसके शरीर के विभिन्न अवयवों की कान्ति (कल्पवृक्ष के पत्तों से युक्त शाखा की तरह) उद्भासित हो रही है। ’सपल्लाव डार’ का आशय नायिका के हाथ, मुख, पाँव, अधर तथा अन्य शरीरांगों से है।
प्रस्तुत दोहे में ’रति’ नामक स्थायीभाव की सफल पुष्टि की गई है। इस दोहे में नायक को आश्रय, नायिका को आलम्बन माना जा सकता है। नायिका के शरीर की शोभा को उद्दीपन और नायक के प्रशंसात्मक कथन को अनुभाव समझा जा सकता है।
अलंकार – अनुप्रास – पहली पंक्ति में।
वस्तूत्प्रेक्षा – सम्पूर्ण दोहे में।
डारे ठोढी-गाङ, गहि नैन-बटोही मारि।
चिलक-चैंध मैं रूप-ठग, हाँसी-फांसी हारि।। 17
व्याख्या : प्रस्तुत दोहे में कविवर बिहारी नायिका की ठोङी में पङे हुए गड्डों के सौन्दर्य का वर्णन कर रहे हैं। परकीया नायिका की ठोङी में गड्ढा पङा हुआ है। जिसे देखकर नायक मन ही मन रीझता है और कहता है।
नायिका की ठोङी में पङे हुए गड्डों पर रीझते हुए नायक कहता है कि ’हे नायिका, तेरे अपार सौन्दर्य रूपी ठग ने अपनी चमक की चैंध से मेरे नेत्रों रूपी पथिकों को, हँसी रूपी फाँसी का फंदा डाल कर अपनी ठोङी में पङे हुए गड्ढे में डाल दिया है अर्थात् मेरे ये नेत्र तेरी ठोङी के गड्ढे में डाल दिया है अर्थात् मेरे ये नेत्र तेरी ठोङी के गड्ढे के प्रति इतने अधिक आकृष्ट हो गए हैं कि वे वहां से हटने का नाम ही नहीं लेते।’’ कहने का तात्पर्य यह है कि नायक उस नायिका की ठोङी में पङे हुए गड्ढे और उसकी हँसी के प्रति पूर्णतः समर्पित हो गया है।
विशेष – कवि ने सांगरूपक की सफल योजना की है। प्रस्तुत रूपक में नायिका का सौन्दर्य तो ठग है और उसके सुन्दर शरीर की छवि पथिकों के लिए चैंध बन जाती है। नायिका की सुखद हँसी, फाँसी के फन्दे की तरह है और नायक के नेत्र पथिक हैं जो कि हँसी रूपी फाँसी के फन्दे में पङकर मर जाते हैं और फिर ठोङी रूपी गड्ढे में धकेेल दिए जाते हैं।
अलंकार – छेकानुप्रास – गाङ गहि’ में।
सांगरूपक – सम्पूर्ण दोहे में।
कीनै हूँ कोटिक जतन, अब कहि काढ़ै कौनु।
भो मन मोहन-रूपु मिलि, पाना मैं को लौनु।। 18
व्याख्या : नायिका मोहन के रूप में प्रति अत्यधिक आसक्त हो गई है। उस की सखी उसे बार-बार यही कहती है कि ’’प्रेम के इस दुर्गंध पथ को छोङ दे’’ किन्तु नायिका का मन विवश है क्योंकि वह पूर्णतः नायक के लावण्य में फंस गया है। प्रस्तुत दोहे में नायिका अपनी इसी असमर्थता को व्यक्त कर रही है।
मोहन से विमुख होने का उपदेश देने वाली सखी को सम्बोधित करते हुए नायिका कहती है कि ’हे सखी, मेरा मन तो मोहन के रूप-लावण्य में इस तरह निगग्न हो गया है जैसे कि पानी मैं नमक मिल जाता है। जिस प्रकार करोङों प्रयत्न करने पर भी नमकीन पानी में से नमक को अलग नहीं किया जा सकता ठीक विमुख नहीं कर पा रही हूँ। मोहन के लावण्य में डुबे हुए मेरे मन को अब कौन निकाले अर्थात् मेरा यह मन अब मोहन से विमुख-हो ही नहीं सकता।’’
विशेष – प्रस्तुत दोहे में प्रौढ़ा नायिका की मनःस्थिति का चित्रण किया गया है।
नायिका के एकनिष्ठ प्रेम की झलक भी देखी जा सकती है। नायिका का मन मोहन के रूप-लावण्य में पूर्णतः निगम्न है। उसे कहीं भी मोहन जैसा रूप नहीं दीखता। अतः मोहन के प्रति एकनिष्ठ प्रेम का भाव सर्वथा स्वाभाविक है। मीरा बाई की तरह इस नायिका का मन भी ’’कहीं अनत सुख नहीं पाता।’’
अलंकार – वृत्यानुप्रास – ’कहि काढै कौनु’ में।
श्लेष – मन में।
दृष्टान्त – सम्पूर्ण दोहे में।
वक्रोक्ति – सम्पूर्ण दोहे में।
लग्यो सुमनु ह्वै है सफलु आतप-रोसु निवारि।
बारी बारी आपनी सींचि सुहृदता बारि।। 19
व्याख्या : प्रस्तुत दोहे का प्रकरण अत्यन्त रूचिकर है। कार्यक्रम के अनुसार नायक को नायिका के पास जाना है किन्तु परिस्थितिवश वह नियत समय पर नायिका के पास नहीं पहुंच जाता। परिणाम यह होता है कि नायिका निराश होकर वाटिका में चली जाती है। तभी नायक से अभी मिल कर आई हुई नायिका की एक सखी वहीं वाटिका में पहुंच जाती है जहां कि नायिका अनेक श्लेष के माध्यम से नायिका को सारी बात कह देती है। श्लेष में कहे हुए ये वचन नायिका को सहज ही समझ में आ जाते हैं। तथापि वहाँ उपस्थित उसकी अन्य सखियाँ यह समझती है कि नायिका की सखी ये सारे वचन वाटिका के माली को सम्बोधित करते हुए कह रही है।
इस प्रकार इस दोहे के दो अर्थ हो सकते है जो कि निम्नानुसार हैं –
(क) नायिका के अर्थ में – नायक के नियम समय पर न पहुंच पाने के कारण रूष्ट हुई नायिका वाटिका में पहुंच जाती है। तभी नायक से मिल कर आई हुई नायिका की सखी उसे कहती है कि ’हे भोली नायिका जिस नायक के प्रति तेरा सुन्दर मन अनुरक्त है सो उसे वांछित फल की प्राप्ति होगी। तू अपने नायक के प्रति रोष का भाव छोङ दे और अपनी पारी को मैत्रीपूर्ण वचनों से सरस कर ले। अभिप्रायः यह है कि नायक भी तेरे प्रति पूर्णतः आसक्त है अतः मान का त्याग करके, स्थिति का लाभ उठा कर प्रेम-रस का सुख भोग।
(ख) माली के अर्थ में – नायिका के समीप अनेक समवयस्क सखियों को उपस्थित देखकर नायिका की सखी माली को सम्बोधित करते हुए कहती है कि ’’हे माली, तेरी वाटिका में जो फूल लगा हुआ है इसमें फल अवश्य ही लगेंगे। तू अपनी वाटिका को सूर्य के ताप से बचा और उपयोगी जल से इसका सिंचन कर।’’
विशेष – प्रस्तुत दोहे में तत्कालीन सामन्ती व्यवस्था में व्याप्त विलासमयता की झांकी मिलती है। नायक का सम्बन्ध एकाधिक नायिकाओं से होता था।
नायिका की सखी की चतुराई देखते ही बनती है क्योंकि प्रत्यक्षतः माली को कहे हुए उसके वचन नायिका के लिए पहेली नहीं थे। इस प्रकार प्रयोजन पूरा कर लेती है।
प्रस्तुत दोहे में कवि ने परकीया नायिका का वर्णन किया है।
अलंकार – छेकानुप्रास – ’सांचि सुहृदयता’ में।
यमक – ’बारी-बारी’ में।
रूपक – ’आपत – रोसु’ तथा ’सुहृदता बारि’ में।
श्लेष – सम्पूर्ण दोहे में।
अजौ तरयौना ही रह्यौ श्रुति सेवत इक-रंग।
नाम बास बेसरि लह्यौ बसि मुकुतनु के संग।। 20
व्याख्या : प्रस्तुत दोहे में कविवर बिहारी लाल जी बेसरि नामक नाक के आभूषण की शोभा का वर्णन करते हैं और साथ ही श्लेष के सहारे सत्संग की महिमा का भी वर्णन करते हैं। इस प्रकार इस दोहे के दो अर्थ लिए जा सकते हैं – एक तो बेसरि (नाक में पहने जाने वाला आभूषण) के पक्ष में और दूसरा (सत्संग के पक्ष में)।
ये दोनों अर्थ इस प्रकार हैं –
(क) (बेसरि के अर्थों में) कवि कहता है कि नायिका ने अपने कान में जो आभूषण पहन रखा है वह आज तक भी, कानों की सेवा करते रहने पर भी तर नहीं पाया अर्थात् यद्यपि इसने नायिका के कानों की अत्यधिक सेवा की फिर भी उसका उद्धार नहीं हो सका। इसके विपरीत नायिका की नासिका का वास प्राप्त कर लिया अर्थात् यह नाक में धारण किया गया और इस प्रकार उच्च पद का अधिकारी बन गया। (नासिका का स्थान उच्च माना जाता है।)
(ख) (सत्संग के पक्ष में) कवि कहता है कि यद्यपि मनुष्य ने वेदों की बहुत सेवा की फिर भी वह अधम पापी के स्तर से ऊपर नहीं उठ सका। फिर महापापी बेसरि ने जीवन से मुक्त व्यक्तियों अर्थात् सन्तों के साथ रहकर स्वर्ग का निवास प्राप्त कर लिया अर्थात् गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया। कवि के अनुसार वेदों से कहीं श्रेयस्कर सत्संगति होती है।
विशेष – अलंकार – सभंग श्लेष – तर्यौना’ में।
श्लेष – श्रुति, नाक, बेसरि तथा मुकतनु में।
मुद्रालंकार – सम्पूर्ण दोहे में।
जम करि-मुँह-तरहरि परयौ, इहिं धरहरि चित लाउ।
विषय-तृषा परिहरि अजौं नरहरि के गुन गाउ।। 21
पलनु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरू भाल।
आजु मिले, सु भली करी; भले बने हौ लाल।। 22
लाज-गरब-आलस-उमग-भरै नैन मुसकात।
राति-रमी रति देति कहि औरें प्रभा प्रभात।। 23
पति रति की बतियाँ कहीं, सखी लखी मुसकाइ।
कै कै सबै टलाटलीं, अलीं चलीं सुखु पाइ।। 24
तो पर वारौं उरबसी, सुनी, राधिके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी ह्वै उरबसी-समान।। 25
बिहारी रत्नाकर के अभ्यास प्रश्न- उत्तर(Bihari Ratnakar)
1. ‘बिहारी सतसई’ ग्रन्थ की प्रामाणिक टीका है-
⇒ बिहारी रत्नाकर
2. जा तनु की झांई परै, स्यामु हरित-दुति होई।।
इस पंक्ति से बिहारी के किस ज्ञान का पता चलता है-
⇒ रंग ज्ञान
3. अर तैं टरत न वर परे, दई मरक मु मैन।
होङा होङी बढ़ि चले चित, चतुराई नैन।
इस दोहे में मूलतः है –
⇒ शृंगार
4. मनी धनी के नेह की बनीं छनी पट लाज।।
’मनी’ में कौनसा अलंकार है –
⇒ उपमेय लुप्तोपमा
5. ‘बिहारी-सतसई’ में कुल दोहे हैं-
⇒ 713
6. सालति है नट साल सी क्यों हूँ निकसति नाँहि।
मनमथ-नेजा नोक सी खुभी खुभी जिय माँहि।
बिहारी की इस पंक्ति में आश्रय विभाव है –
⇒ नायक
7. हीं रीझी, लखि रीझिहौ छबिहिं छबीले लाल।
सोनजुही सी होति दुति-मिलत मालती माल।।
इस दोहे में कौनसा अलंकार है –
⇒ रूपकातिशयोक्ति
8. कवि बिहारी ने प्रथम दोहे में स्मरण किया है-
⇒ राधा को
9. फिरि फिरि चिंतु उत हीं रहतु, टूटी लाज की लाव।
अंग-अंग छवि झौंर मैं भयौ भौंर की नाव।।
यहाँ ’लाव’ शब्द का अर्थ है –
⇒ रस्सी
10. चितई ललचैहैं चखनु डटि घूँघट-पट माँह।
छल सौं चली छुवाह कै छिनकु छबीली छाँह।।
यहाँ व्यक्त रस है –
⇒ संयोग शृंगार
11. ‘अपने अंग के जानि कै, जोवन-नृपति प्रबीन।
स्तन, मन, नैन, नितम्ब को बड़ी इजाफा कीन।।
उक्त सम्पूर्ण दोहे में अलंकार है-
⇒ मानवीकरण
12. ’’आक-कली न रत्नी करै अली, अली, जिय जानि।
इस पंक्ति में कौनसा अलंकार है –
⇒ यमक
13. सुरतरु की मनु सिंधु मैं लसति सपल्लव डार।
इस पंक्ति में कौनसा अलंकार है –
⇒ वस्तूप्रेक्षा
14. ‘बिहारी सतसई’ के तृतीय दोहे में प्रयुक्त ‘होड़ाहोड़ी’ में अलंकार है-
⇒ वीप्सा
15. कीनैं हूँ कोटिक जतन अब कहि काढ़ै कौनु।।
रेखांकित शब्द का अर्थ है –
⇒ करोङों
16. लग्यो सुमनु ह्वै है सफलु, आतप-रोसु निवारि।
बारी-बारी आपनी सींचि सुहृदयता-बारि।।
यहाँ ’बारी-बारी’ में कौनसा अलंकार है –
⇒ पुनरुक्ति
17. ‘औरे-ओप, कनीनिकनु गनी घनी-सिरताज।
मनीं धनी के नेह की बनीं छनीं पट लाज।।’
उक्त दोहे के रत्नाकर जी ने चार अर्थ किए हैं, उनमें से एक है-
⇒ रूपगर्विता नायिका परक
18. कवि बिहारी की रचना का मुख्य स्वर है –
⇒ संयोग शृंगार
19. ’’जौवन नृपति प्रवीन’’ में कौनसा अलंकार है –
⇒ रूपक
20. ‘सालति है नटसाल-सी…….’
पंक्ति में प्रयुक्त अलंकार है-
⇒ उपमा
21. बिहारी ने अपने भक्ति संबंधी दोहों में किसे आराध्य माना है –
⇒ कृष्ण
22. ‘जुवति जोन्ह मैं मिलि गई।’
में अनुप्रास अलंकार का एक भेद है-
⇒ छेकानुप्रास
23. अपने अंग के जानि कै जोबन-नृपति प्रबीन,
स्तन मन, नैन, नितंब कौ बङौ इजाफा कीन।।
इस दोहे में बिहारी ने किन दो बातों को एक साथ वर्णित किया है –
⇒ राजनीति व यौवन
24. औरे-ओप, कनीनिकनु गनी घनी-सिरताज।
यहाँ कवि ने नायिका के किस अंग का वर्णन किया है-
⇒ नेत्रों की पुतलियाँ
25. ‘…….ए छवि छाके मैन’ पंक्ति में प्रयुक्त छाके शब्द में है-
⇒ पदौचित्य
26. सनि-कज्जल चख-झख-लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु।
इस पंक्ति से बिहारी के किस ज्ञान का पता चलता है-
⇒ ज्योतिष
27. जुवति जोन्ह में मिलि गई नैंक न होते लखाइ।
सौंधे कै डोरैं लगी अली, चली सँग जाइ।।
इस दोहे में कौनसा अलंकार है –
⇒ रूपकातिशयोक्ति
28. ‘अजौं तर्यौना ही रह्यौ श्रुति सेवत इक-रंग’ उक्त पंक्ति में प्रयुक्त श्रुति शब्द के दो अर्थ है-
⇒ कान, वेद
29. बहके, सब जिय की कहत, ठौरु कुठौरु लखैं न।
छिन ओरै, छिन और से, ए छबि छाके नैन।।
इस पंक्ति में किस अंग का वर्णन है –
⇒ नेत्र
30. नीकी दई अनाकनी, फीकी परी गुहारि।
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनु तारि।।
बिहारी के इस दोहे में व्यक्त है –
⇒ भक्ति
31. चाहत पिय-अद्वैतता काननु सेवत नैन।
यहाँ ’अद्वैतता’ का अर्थ है –
⇒ भावी संयोग
32. पिय-बिछुरन कौ दुसहु दुखु, हरषु जात प्यौसार ।
इस पंक्ति में कौनसा अलंकार है –
⇒ मायका
33. ‘झीनैं पट में झुलमुली……..’
रेखांकित शब्द व्यक्त कर रहा है-
⇒ नायिका की अनिर्वचनीय सुन्दरता
34. चिलक-चैंध मैं रूप-ठग, हाँसी-फाँसी डारि।
यहाँ कवि ने ’ठग’ किसे कहा गया है –
⇒ नायिका के रूप सौंदर्य का
35. कोनैं हूँ कोटिक जतन अब कहि काढ़ै कौनु।
भों मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु।।
इस दोहे में व्यक्त भाव है –
⇒ अनन्य प्रेम
36. अजौं तर्यौना ही रहयौ श्रुति सेवत इक-रंग।
नक-बास बेसरि लह्यौ बसि मुकुतनु कैं संग।।
यहाँ ’’तर्यौना’’ शब्द में कौनसा अलंकार है –
⇒ श्लेष
37. ‘……..काननु सेवत नैन।’
पंक्ति से आशय है-
⇒ नैनों का कानों तक पहुँचना
38. कवि बिहारी के आश्रयदाता थे –
⇒ मिर्जा जयसिंह
39. बिहारी सतसई में मुख्य रूप से किस भाषा के शब्दों की प्रधानता है –
⇒ ब्रज
40. रीतिकाल का सर्वश्रेष्ठ शृंगारी कवि है –
⇒ बिहारी
महत्त्वपूर्ण लिंक
🔷सूक्ष्म शिक्षण विधि 🔷 पत्र लेखन 🔷कारक
🔹क्रिया 🔷प्रेमचंद कहानी सम्पूर्ण पीडीऍफ़ 🔷प्रयोजना विधि
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🔹सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 🔷कबीर जीवन परिचय 🔷हिंदी व्याकरण पीडीऍफ़ 🔷 महादेवी वर्मा
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