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खून का टीका – उपन्यास || यादवेन्द्र शर्मा

Author: केवल कृष्ण घोड़ेला | On:11th May, 2022| Comments: 0

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आज के आर्टिकल में हम यादवेन्द्र शर्मा  जी के उपन्यास खून का टीका (Khun ka Teeka) का मूल पाठ पढेंगे और इससे जुड़ें महत्त्वपूर्ण तथ्य जानेंगे

खून का टीका – उपन्यास

यह उपन्यास चित्तौड़ के राणा हम्मीर के जीवन पर आधारित है।
राणा हम्मीर के जीवन की कुछ घटनाएँ बड़ी विवादास्पद है। यादवेन्द्र शर्मा  जी के अनुसार उन्होंने भरपूर सच्चाई के साथ उन घटनाओं का चित्रण करने का प्रयास किया है तथा सभी इतिहासवेत्ताओं के वर्णन के सत्य को ग्रहण करने की चेष्टा की है।
अनगसिंह, पवनसी और और शेरा-मेरा, काल्पनिक चरित्र है, हालांकि हम्मीर के पास ऐसे कई योद्धा थे पर उनके सही नाम न मिलने पर मैंने इन चरित्रों की उन्हीं के आधार पर काल्पनिक सर्जना कर दी।
उपन्यास में तत्काल की प्रभावशाली घटनाओं का वर्णन आज के पाठकों, छात्रों और देश की भावी पीढ़ी के सामने कुछ नए प्रश्न रखेगी कि प्राचीन भारत के महान शासक अत्यन्त दूरदर्शी थे और आज जिन साधनों से देश का पुनर्निर्माण हो रहा है, वे पहले भी यहाँ प्रचलित थे।
उपन्यास की त्रुटियों के लिए मैं विज्ञ जनों से क्षमा के साथ परामर्श भी चाहूँगा। ऐतिहासिक उपन्यास है, वह भी प्रथम, अतः क्षमा का अधिकारी हूँ ही।
इस उपन्यास में उन्हीं की सामग्री का उपयोग किया गया है जिन्हें यह उपन्यास समर्पित है।

साले की होली
बीकानेर-
(राजस्थान) – यादवेन्द्र शर्मा ’चन्द्र’

’’मुझे बलिदान दो, मुझे बलिदान दो।’’ एक परिचित-सी ध्वनि सिसौदिया वंश के स्वाभिमानी एवं धर्मपरायणी, एकलिंगेश्वर दीवाणा राणा रत्नसिंह के विश्वसनीय योद्धा सामन्त लक्ष्मणसिंह ’’लाखा’’ के कण-कुहरों में ध्वनित प्रतिध्वनित हुई। वे उन्मत्त हो उठे। अपने कक्ष में में जहाँ वे रात्रि के नीरव-निस्पन्द क्षणों में मेवाड़ की विकट समस्याओं में उलझे निद्रा की अराधना करने आए थे, एक परिचित ध्वनि में पुनः उलझ गए।
दीपक उनके सज्जित कक्ष में ज्वलित थो। मखमली शय्या पर वे अर्ध-शायित थे। अभी उन्होंने लम्बी अचकन और धोती पहन रखी थी जो हिम-सी श्वेत थी।
बाहर एक भृत्य हाथ में खड़ग लिए पहरा दे रहा था।
’’मुझे राज-बलि चाहिए।’ लाखा उठ खड़े हुए। उन्माद-ग्रस्त प्राणी की भाँति उन्होंने कक्ष को देखा। कोई नहीं था।
उनके गढ़ के बाहर कोई श्वान लम्बे स्वर में भोक उठा। पवन का तीव्र झोका वातायन से आया और दीपक की लौ लील कर चला गया। लाखा के अग-प्रत्यग से पसीना छूट गया। उन्होंने आकुल हो कुछ बोलना चाहा। तभी झोके के भयावह हिलोरें आने प्रारंभ हो गए। उनका काँपता स्वर उन हिलोरों में इस भाँति लुप्त हो गया जिस तरह पगली के अट्ठहास में सव साधारण का स्वर खो जाता है।
प्रचंड तिमिर! भयानक शाँति!
’’मुझे रक्त चाहिए’’ लाखा ने देखा- कुलदेवी साक्षात् उनके समक्ष खड़ी है। विकराल मुद्रा और विशाल रक्तिम नेत्र।
लाखा का सारा तन जड़ हो गया।
’’चित्तौड़ की रक्षा चाहते हो लाखा तो मुकुटधारी राज-पुत्रों का बलिदान दो। अपने आपको महाराणा के लिए बलिदान कर दो।’’
छेवी अन्तर्धान हो गई।
करुणा सिसकियाँ एवं घोर तिमिर देखकर सेवन ने कक्ष में प्रवेश किया और उसने पुन प्रकाश किया। लाखा जी को अचेत देख वह भयभीत हो उठा और शीघ्रता से वह वहाँ से भागा।
लाखा जी बाहर पुत्रों के गौरवशाली पिता थे। सभी पुत्र पराक्रमी और त्यागी। महाराणा के लिए सर्वस्व बलिदान करने वाले।
ज्येष्ठ पुत्र अरसी ने आकर अपने पिता को सँभाला। उपचार किया गया। थोड़ी देर में उन्हें चेतना लौटी। वे अर्य भरी दृष्टि से अरसी की ओर देखकर बोले, ’’अरसी, विगत समर में आठ सहज वीरों के प्राणों की आहुति से माँ की प्रचंड तृष्णा शांत नहीं हुई है। वह मुझे बार-बार कहती है- जब तक राजमुकुटधारी राजकुमार चितौड़ के रक्षार्थ समराग्नि में स्वाह न होंगे तब तक सिसौदिया वंश का प्रचंड मार्तण्ड यवन के कोप-रूपी बादलों से मुक्त नहीं होगा।’’
अरसी कुछ बोले कि अजयसिंह व अन्य पुत्र गण दास-दासियाँ भी आ गए। सभी लाखा के चारों ओर बैठ गए। एक भृत्य इत्र की सुगन्ध वातावरण में फेला रहा था। कुछ दासियाँ मोर पंख के बने पखों से हवा कर रही थी। सज्जित कक्ष की प्राचीरों पर लटकती तलवारें दीपकों का तीव्र प्रकाश प्रकार दीप्त हो उठी। क्षणिक गंभीर मौन छाया हुई थी।
अरसी गंभीर स्वर में बोला, ’’आपको भ्रम हो गया है पिताश्री।’’
’’नहीं अरसी! केवल आज नहीं, सदा माँ मुझसे बलिदान माँगती रहती है। अरसी तुम नहीं जानते- भगवती की आज्ञा को पूर्ण नहीं किया गया तो मेवाड़ जलकर भस्म हो जाएगा। यवन मेवाड़ियों की मान-मर्यादा को ध्वंस कर हमारे गौरव के चिह्न तक मिटा देंगे।’’
लाखा के सारे पुत्र मौन हो गए।
अब वे गाव-तकिए के सहारे बैठते हुए बोले, ’’खिलजी चित्तौड़ को विजय करके की साँस लेगा। राणा जी अब शक्तिहीन हो गए है। निरंतर को यह घेरा हमारे लिए भूख-प्यास का कारण बन गया है। चित्तौड़ के महाबली अपना शौर्य दिखलाकर स्वदेश अनुराग का अविस्मृत उदाहरण छोड़ गए है। इतना विपुल बलिदान लेकर भी विजयश्री हम पर प्रसन्न क्यों नहीं है ? तुम नहीं जानते मेरे पुत्रों – इस शोकातुर वातावरण में, रात्रि के नीरव निस्तब्ध क्षणों में माँ का विकराल मुख मुझे कहता है- ’’मैं भूखी हूँ – मैं भूखी हूँ।’’
’आप शांत रहिए ठाकुर सा।’
लेकिन लाखा शांत नहीं रहे। वे तन्द्रिलावस्था में आतुर व उद्विग्न होकर चैंक उठते और आतकित दृष्टि से यंत्र-तंत्र देखकर कह उठते, ’’चित्तौड़ के भविष्य की रक्षा करनी है तो माँ को बलि दो।’’
सम्पूर्ण रात्रि इसी तरह व्यतीत हुई।
प्रभात हुआ।
महाराणा के सम्मुख लाखा जी हाजिर हुए।
समस्त सामन्त व सरदार उपस्थित थे। लाखा जी ने अपनी बात पुनः दोहराई। अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित चित्तौड़ के सारे वीर स्तब्ध से खड़े थे। लाखा जी कह रहे थे- ’’चित्तौड़ के सम्मान को बचाना है तो देवी के वचनों का पालन किया जाय। देवी ने मुझे स्वप्न में कहा है कि मैं राजबलि चाहती हूँ लाखा। जब तक राजमुकुटधारी राजकुमार मेवाड़ की रक्षार्थ रणभूमि में उत्सर्ग नहीं होंगे तब तक मेवाड़ पर शत्रुओं का आक्रमण होना बन्द नहीं होगा।’’
राणा रत्नसिंह जी बोले, ’’ यह भ्रम भी हो सकता है।’’
’’भ्रम नहीं है एकलिंगेश्वर दीवाणा जी, यह सत्य है। वीरों के स्वप्न सत्य में सदा परिणित होते आए है। हमारा धर्म में अपने कुल-देवी में आस्था और विश्वास है। यह भ्रम भी है तो कितना गौरवमय भ्रम है। जो व्यक्ति अपनी जननी जन्म-भूमि के लिए उत्सर्ग होगा, वह कितना भाग्यवान कहलाएगा। आज हमारे समक्ष एक ही जलता प्रश्न है- मेवाड़ की रक्षा।
दरबार के अन्तिम छोर पर अरसी बैठा था। निरन्तर तीन रात दिवस से वह चितिंत था। उसके पिताश्री निरन्तर एक बात पर अड़े हुए है। उनके कथन में गहरी आस्था है। क्या पता उनकी कल्पना सत्य का आधार लिए हुए हो, क्या पता पिताश्री का आग्रह में प्रभु का कोई आदेश हो ? आस्तिक संस्कारी अरसी के मन में निष्ठा जागी। पिताश्री के निरन्तर आग्रह ने उसके अन्तराल में विश्वास जगा दिया।
अरसी ने अभिवादन करके अपने पिता के स्वप्न को बल प्रदान किया। वह समर्थन करता हुआ बोला, ’’राणा जी, पिता के वचनों पर गौर करे। हम सब ईश्वर पर बड़ी आस्था रखते है, अतः हमें उनके कथन को व्यर्थ या स्वप्न समझ कर सर्वथा निमूल नहीं समझना चाहिए। आज मेवाड़ के चारों ओर विपत्तियों के बादल मँडरा रहे है, इस अवसर पर हमें देवी-देवताओं को सर्वोपरि सत्य मानकर नए ढंग व नए उत्साह से युद्ध का श्री-गणेश करना चाहिए।’’
राणा जी सिंहासन से एक क्षण के लिए उठ खड़े हुए। अशान्ति जनित-म्लान मुख को एक पल के लिए दोनों हाथों की हथेली में छुपा कर वे दीर्घ-विश्वास छोड़कर बोले, ’’कुछ समझ में नहीं आता है।’’
सिंहासन के दोनों ओर दो सेवक मयूर परों के पंखे झल रहे थे। सार अधिकारी विस्मय विमुग्ध से बैठे थे।
लाखा जी पुनः खड़े हुए। पंक्ति बद्ध पदानुसार बैठे वीरों के मध्य एक चक्कर लगाकर वे गम्भीर भारी स्वर में बोले, ’’मैं झूठ नहीं बोलता है। राणा जी, मैं देवी का सच्चा भक्त हूँ। उसने जब कभी मुझे स्वप्न या प्रत्यक्ष में दर्शन दिए, किसी प्रयोजन को लेकर ही दिये है। वह प्रयोजन सत्य के आधार से हीन नहीं होता है। हमारे अनेक शूरमा इस रण के काम आ चुके है। दिन-प्रतिदिन हमारी शक्ति क्षीण होती जा रही है, इस पर भी हमने देवी की आज्ञा का पालन नहीं किया, तब हमें भीषण परिणाम से टकराना होगा।’’
लाखा जी अपने आसन पर आकर बैठ गये। सारे दरबार में सन्नाटा छाया रहा। चित्तौड़ के विशाल गढ़ के चतुर्दिक खिलजी के अपार सेना पड़ी थी। अलाउद्दीन रूपासक्ति के वशीभूत होकर पद्मिनी को लेने के लिए अपना सारा रण-कौशल चित्तौड़ हथियाने में लगा रहा रथा।
एक अन्य सरदार ने उठकर कहा, ’’लाखा जी झूठ नहीं कहते।’’ और देखते-देखते लाखा जी की बात को सब का समर्थन प्राप्त हो गया। माँ को राजबलि दी जाएगी- इस बात पर सब का एक मत हो गए।
समस्या जटिल थी। कौन सामन्त अपने बारह पुत्रों को एक साथ बलिदान करना चाहेगा। मेवाड़ में बहुत से ऐसे सामन्त थे जिनके कई-कई पुत्र थे, लेकिन लाखा के स्वप्न पर इस तरह अपने वंश को क्यों कोई मिटाने को तत्पर होता ? जब राणा जी ने पूछा कि कौन अपने पुत्रों का उत्सर्ग करेगा तो दरबार में गहरा मौन छा गया, जैसे वहाँ कोई प्राणी उपस्थित ही नहीं है।
तब लाखा जी के चेहरे पर ग्लानि और संकोच दोनों भाव एक साथ और मिटे। उन्होंने विनती भरी दृष्टि से अपने पुत्रों की ओर देखा। पुत्रों में निमेष उत्पन्न हो गया। बाप की आन की रक्षा का प्रश्न लाखा जी के दोनों बड़े पुत्रों के सम्मुख नाच उठा। अरसी आगे बढ़ा। क्षण भर के लिए उसकी आँखों में जोश स्ुुलिंग सा ज्वलित हुआ और वह पितृ-सम्मान रक्षा हेतु बोला, ’’मैं सबसे पहले मुकुट धारण करूँगा।’’
अरसी का उद्घोष सुनकर सभी सरदार स्तब्द्ध हो गए। सब की अभिप्राय भरी दृष्टि अरसी पर केन्द्रित हो गई। अरसी कहे ही जो रहा था- ’’माँ की क्षुद्धा शांत करने के लिए इतनी देर नहीं करनी चाहिए। हमारी अधिष्ठात्री प्रचंड प्यास से आकुल होकर रक्त की बलि माँग रहीं है। मेवाड़ हेतु राणा जी को सहप इस उत्सर्ग के लिए तत्पर हो जाना चाहिए और मुझे राणा घोषित करके सैन्य का संचालन सौंप देना चाहिए। अरसी की अजानुबाहुओं का रक्त इस उद्धारता से दौड़ा कि उसका हाथ खग की मूठ पर चला गया। नेत्र अंगारों से दीप्त हो उठे। तनिक गम्भीर स्वर में सब पर दृष्टिपात करता हुआ बोला ’’यह भवानी साक्षी है राणा जी, एकलिंगेश्वर की आज्ञा से आपका यह चाकर अपना सर्वस्व विसर्जन करके मेवाड़ के गौरव को अक्षुण्ध रखेगा। माँ का स्वप्न हो या पिता का भ्रम किन्तु यह सत्य है। कि मुझे उत्सर्ग अपनी जन्मभूमि के लिए होना है। एक वीर दुष्टों का दलन करता हुआ वीर-गति को पा जाए, यही उसके जीवन के श्रेय की उपलब्धि है।’’
युवराज का यह उद्घोष उपस्थिति में आन्दोलन मचाने के लिए पर्याप्त था। अन्य पराक्रमियों के हाथ भी अपनी-अपनी तलवारों पर चले गए। लाखा जी का द्वितीय पुत्र अजयसिंह गरज करके बोला, ’’नहीं मेरे होते हुए आपको देश के लिए बलिदान नहीं होना पड़ेगा। आप ज्येष्ठ पुत्र है, पिताजी के बाद आप वंश-रक्षक के रूप में रहेंगे इसलिए यह काम मुझे सौंपा जाए। आप विश्वास रखें, मैं समरभूमि में यवन सेना को चित्तौड़ के पावन-प्रसादों को स्पर्श भी नहीं करने दूँगा।’’
आश्चर्य की एक नूतन लहर सभी सरदारों के हृदय छोरों को स्पर्श करती हुई बाधित हो गई। उत्सर्ग की यह होड़ मुर्दों में जान फूंकने के लिए काफी थी।
एक सरदार आगे बढ़कर बोला, इस वतव्य को मैं पूरा करूँगा, जन्मभूमि मेवाड़ की रक्षा के लिए तुच्छ प्राणों को त्याग करके मोक्ष का भागी बनूँगा।’’
राणा जी भी जोश में भर उठे। खड़े होकर बोले, ’’राजमुकुटधारी राजकुमार की बलि ?’’
अरसी अब राणा जी के सन्न्ािकट था। उसकी सुन्दर गहरी विशाल आंखों में दृढ़ निश्चय की अरूणिमा स्पष्ट लक्षित हो रही थी। अंग-अत्यंग में एक प्रकार की जड़ता आ गई थी। म्यान में से तलवार निकाल कर वह बोला, ’’वाद-विवाद में समय नष्ट मत कीजिए। आप जितनी देर करेंगे, शत्रु को संभलने का उतना ही अवसर मिलेगा, अतः आप से मेरी प्रार्थना है कि मुझे यह भार सौंपा जाए। मैं ज्येष्ठ पुत्र हूँ इस पद का अधिकारी हूँ, आपको मेरी शक्ति का परिचय भी है।’’
’’फिर भी।’’
’’बप्पा रावल का यह मुकुट मुझे पहना दिया जाए, सिसौदिया कुल के सूर्य को सौंपा जाये, मुझे मेवाड़ की मान-मर्यादा की रक्षा दी जाए। मैं जीते जी पगड़ी को नहीं गिरने दूँगा।’’
अन्त मैं निश्चय हुआ कि लाखा जी का भ्रम हो या देवी की आज्ञा, इसे अडिग के साथ पूर्ण की जाय और प्रथम महाराणा अरसी को बनाया जाय। मेवाड़ की सकट-स्थिति देखकर यही शुभ होगा कि सारे मेवाड़वासी लाखा जी की बात स्वीकार कर लें और चित्तौड़ पर उत्सर्ग हो जाए। पता नहीं, उनका यह स्वप्न, स्वप्न न हो, देवाज्ञा हो।’’
शंख की पावन ध्वनि और मंगल मंत्रों के मध्य अरसी ’अरिसिंह’ के सम्मान सूचक नाम के साथ ’महाराणा’ बना दिया गया और वह मेवाड़ के शेप शक्ति को एकत्रित करके चित्तौड़ की रक्षा हेतु समर भूमि में उतर पड़ा। उस दिन भास्कर की भीषण उज्लवता में घमासान संग्राम हुआ। मानवी शोणित की प्रावहित हुई सरिताएँ तथा यंत्र-तंत्र-सर्वत्र बिखरे भयावह प्रतीत हो रहे थे। निर्दयी बनचरों द्वारा उजड़े खेतों की तरह वह भूमि नर-पिशाचों द्वारा ख्ंाडित सौन्दर्यमयी मानवदेहों से भरी थी।
रात्रि का उन्मन आँचल मानवीय मर्मान्तक क्रनदन एवं चीत्कारों के संग विशाल ससृति पर आच्छादित हुआ। मारू का उन्माद भरा स्वर जो वीरों के करुण-कुहरों में रुक जाने पर भी सुनाई पड़ रहा था, अब आत्तनादों में परिवर्तित हुआ जान पड़ा।
राणा अरिसिंह आत-क्लात से अपने खेमे में मुख-प्रक्षालन करके शय्या पर अर्धशायित थे। सेवक भोजन का थाल उनके सम्मुख लाया। उन्होंने अस्वीकृति सूचक सिर हिला दिया। पुनः विचारमग्न होकर, हथेली का सम्बल लेकर बैठ गए।
एकांत व गहरा मौन।
मन में विचारों का अविराम आन्दोलन।
सोच रहे थे, ’’युद्ध क्यों होता है ? मनुष्य मनुष्य को इतनी निर्दयता से क्यों मारता है ? हम सब सभ्य कहलाने वाले प्राणी दुर्बुद्धि के पंख पर आरूढ़ होकर नगर के नगर क्यों ध्वंश कर देते है ?’’
अरिसिंह अशांत हो, उठ खड़े हुए।
उल्का पवन के झोंके से हिल उठी। उसके कांपते प्रकाश से सारा का सारा खेमा डोलता हुआ प्रतीत हुआ मानो धरती पर भूकम्प आ गया हो।
क्षण भर के लिए वे स्वयं भयभीत हो उठे। क्षणिक विचार मन में आया कि विनाश पर विनाश हो रहा है। अपने विशाल भाल पर हथेली फेर कर वे मन ही मन बड़बड़ाए- उसका मूल कारण है- मनुष्य का अविकार लिप्सा।
रूप् और अर्थ की चिरन्तन की भूख।
यवनपति खिलजी मेवाड़ के विपुल सौन्दर्य के पीछे उन्मत्त होकर उसको विनष्ट करने पर तत्पर हो रहा है। उसकी काम-तृष्णा नैराश्य के आवरण में आच्छन होकर विवश पर केन्द्रित हो गई है। वासना के डूबा वह मानवीय संवेदनाओं से परे होकर मद, दभ, अहंकार, ईष्र्या, द्वेष, अनाचार और हिंसा की प्रतिमूर्ति बन गया है। पद्मिनी नहीं मिली तो खिलजी की काम-लिप्सा अतृप्ति की वीचियों में लघु-तंरणी सी सम्बलहीन होकर डोल उठी। वह सैन्य-बल से अपने वचनों को विस्मृत कर चित्तौड़ को खंडहर के रूप में देखना चाहता है, चित्तौड़ की मान-मर्यादा पद्मिनी को अपनी बेगम के रूप् में अपने हरम। यह असम्भव है, असम्भव! सूर्यवंशी आहुतियों को अम्बार लगा देंगे, पर अपनी आन नहीं देंगे।’’
सैन्य संचालन का भार पवनसी को सौंपा गया। वह तलवार हित मस्तक नवा कर बोला, ’’दीवाणा जी की जय।’’
’’पवनसी।’’ अरिसिंह सावधान होते हुए बोले।
पवन सी तरुण-अरुण था। उसके अंग-अंग से रक्त टपकटा हुआ दिख रहा था। सिर झुकाकर बोला, ’’हुक्म सा।’’
’’सूर्य-देवता से दर्शन के साथ यवनों पर भंयकर आक्रमण किया जाय।’’
’’पर महाराज यवन सेना असंख्य है।’’
’’पराक्रम संख्या पर नहीं आंका जाता। मेवाड़ का योद्धा किसी का घर नहीं उजाड़ रहा है, वह किसी की बहू-बेटी की शरीर से नहीं खेल रहा है, वह किसी के अधिकारों को राहू की भांति नहीं ग्रस रहा है।’’ एक सांस में इतना लम्बा वाक्य बोलने से अरिसिंह का साँस फूल गया। वे रुककर पुन बोले, ’’मेवाड़ का योद्धा अपने चित्तौड़ की रक्षा कर रहा है, वह अपने देश की आन और बान के लिए बलिदान हो रहा है, वह अपनी माँ का गौरव और बहिन की राखी की लाज रख रहा है। उसका प्रतिरोध करना अत्यन्त दुष्कर है।’’
पवनसी सिर नवा कर खेमे से बाहर हो गया।
प्रभात हुआ।
प्राची-प्रागण में उषा की अरूणिमा प्रस्फुटित हुई। क्षितिज पर विस्तृत रक्तिम आभा रणादेवी के अघरों पर लगे शोणित सी जान पड़ी। आकाश में गिद्व मंडराने लगे थे। चतुर्दिक अस्त्र-शस्त्रों की आवाज सुनाई पड़ रही थी।
रणभेरी का निनाद आरम्भ हुआ।
मारू का गगन-भेदी स्वर के साथ राजपूतों के चरण उठे और आगे बढ़े। जब एकलिंगेश्वर के साथ हर-हर महादेव के उद्घोष से राजपूती सेना अग्रसर हुई। उधर यवनाधिपति भी अधिक सैनिकों के साथ आगे बढ़े। गुप्तचर ने अरिसिंह को समाचार सुनाया कि आज यवनों की ओर से गढ़ पर प्रचंड आक्रमण होगा।
’हम भी प्रत्याक्रमण उसी जोश से करना चाहिए।’
पवनसी की हथेली में कल घाव लग चुका था, अतः वह तनिक निरुत्साहित सा बोला, ’’किन्तु शक्ति।’’
अरिसिंह ने एक हुंकार भरी। पवनसी के कन्धे पर हाथ रखकर वे गंभीर स्वर में बोले, ’’हम अजेय शक्ति है। चित्तौड़ की रक्षा हम करेंगे। जब में रणभूमि में बहुत आगे बढ़ जाऊँ और शत्रु की सेना मुझे घेरने की चेष्टा करे तब तुम जोर का आक्रमण कर देना इस पद्धति से उन्हें अत्यंत होनि उठानी पड़ेगी।’’
पवनसी अपने स्वामी की आज्ञा मानना ही अपना धर्म समझना था।
मारू राग अब अपने भरपूर जोश में था।
संघर्ष की भीषण लय मेवाड़वासी चित्तौड़ की रक्षार्थ हेतु थी। हर-हर महादेव की प्रतिध्वनि उठ गई। घमासान युद्ध हुआ।
भोजन और अमल-पानी करके अरिसिंह उल्का के सम्मुख आकर खड़े हो गए। आज युद्ध में वे मृत्यु के मुँह से बाल-बाल बचे थे। क्षण भर के लिए उन्होंने कुलदेव एकलिंगेश्वर की अभ्यर्थना की। शय्या पर नेत्रोन्मीलन करके वे उठे- ’’महालोक की महायात्रा। नहीं, नहीं उससे भेंट पूर्व मृत्यु का आलिंगन ? नहीं-नहीं। वे अपनी पत्नी देवी के दर्शन से पूर्व मृत्यु नहीं चाहते। अपने आपको समाप्त करना नहीं चाहते।
मधुर कल्पना के वितान बुनते गए।
उन्हें लगा- ग्रामवाला लावण्यमयी देवी अपने अप्रितम रूप चद्रिका से कण-कण को आल्हादित कर रही है। कमनीय अग-सोष्ठव आकर्षण के केन्द्र बिन्दु बने हुए है। अनन्तर उन्हें लगा कि सारा खेमा रूप-यौवन मद से सुवासित हो उठा है। विलास-वैभव से परिपूर्ण युगल-मृणाल सम सुडोल बाँहे उन्हें अपने में आवेष्टित किए हुए है।
अतीत स्वप्न सा उन्हें स्मरण होने लगा-
अश्व का तीव्र वेग से भागना और सुअर का पीछा करना।
अरसी उस दिन आखेट हेतु निकला था। वन्य-पशु सूअर का सर्वप्रथम सामना हुआ। सूअर तीर से आहत होकर द्रुतगति से घने लहलहाते खेतों की ओर भागा।
अरसी ने उसका पीछा करना नहीं छोड़ा। वह खेतों को रौंदता हुआ सूअर का पीछा कर रहा था। ज्वार की बालियाँ पवन के झकोरों में हिल रही थी। अश्व के पाँवों की खड़खडाहट सुनकर एक ग्रामवाला ने गर्ज कर कहा, ’’ओ अश्वारोही, ठहर, खेत को मत उजाड़।’’
संगीत-सा मधुर स्वर ज्यों ही अरसी के कानों में पड़ा, उसने लगाम थाम ली और चकित सा वह उस युवती को निहारने लगा। युवती सकोच से स्तब्द्ध सी हो गई। कला की अघिष्ठात्री नारी-सौन्दर्य की अजेय अभेद्य रूप, अतल किन्नरी सोन्दर्य।
अरसी ने अपने अश्व को उस सुन्दरी के समीप किया। उसके कमल-नयन एवं तन्द्रिल पलकों को अनिमेप दृष्टि से देखा और केसर की सुरभि महकते गात की सौरभ से मुग्ध होता हुआ वह दीर्घ विश्वास सहित बोला, ’’मेरा शिकार।’’
युवती चतुर शिल्पी द्वारा विरचित सौम्य शाँत प्रतिमा की तरह स्थिर होकर बोली, ’’कैसा शिकार ?’’
’ओह!’ कहकर युवती मुड़ी और बोली, ’’श्रीमान् कृषकों की आत्मा को कुचलने की चेष्टा न कीजिएगा ? ये खेत हमारे जीवन है, इन पर आपका अश्वारूढ़ होकर दौड़ना हमें अति पीड़ाजनक लग सकता है। कदाचित इसका प्रतिशोध रक्तरंजित भी हो सकता है।’’ युवती ने क्षण भर के लिए चक्र-दृष्टि से अरसी को देखा और आगे बढ़ती हुई बोली, ’’आप मेरी प्रतीक्षा कीजिए मैं आपका शिकार अभी लाई।’’
अरसी विस्मित सा खड़ा रहा।
मन ही मन उसके बारे में सोचता रहा। तभी वह युवती उस सूअर को रज्जू से बांधकर ले आई। अरसी हतप्रभ सा देखता रहा।
युवती ने अरसी की ओर देखा फिर विनत हो उसने अपनी गर्दन झुका ली। उसके मुख पर सोम्यता झलकने लगी थी।’
’’तुम बड़ी वीर हो।’’
’क्या आप से भी।’’ युवती अपने पीछे एक मुक्त अट्टहास छोड़ गई। उस अट्टहास से प्रछन्न प्रतिक्रिया ने अरसी को विचलित कर दिया।
अरसी के दो चार साथी आ गए थे।
वृक्ष की छाया के नीचे वे विचार करने लगा। अरसी बार-बार वार्तालाप में प्रसंग रहित प्रश्न पूछ लिया करता था। उसके एक साथी ने अप्रत्याक्षित पूछा, ’’क्या बात है अरसी, तुम खो क्यों जाते हो ?’’
’’नही-नही।’’
खेतों से गीत की मादक ध्वनि आने लगी थी। कृषक-कन्याएँ अलकारों की धूप में झलकाती, रंग-बिरंगे वस्त्रों में सज्जित एकाग्र होकर गा रही थी।
तभी अश्व हिनहिनाकर उछला।
अरसी ने भाग कर देखा कि उसके मित्र के अश्व की एक टाँग में चोट आ गई है। उसके साथ ने तुरन्त अपनी पगड़ी से घोड़े की टाँग को बाँधा। इधर-उधर देखा तो वही युवती अपनी आरे आती हुई दिख पड़ी। इस बार वह उदास थी।
अरसी ने अपने मित्र से कहा, ’’यही है वह युवती।’’
युवती ने विनीत स्वर में कहा, ’’मैं आपसे क्षमा माँगती हूँ श्रीमान्, पक्षियों को उड़ाने के लिए गोफन चला रही थी, उसके एक कंकर से आपके अश्व की एक टाँग।’’
अरसी ने उतावली से बोला, ’’कोई बात नहीं।’’
युवती अपने गुलाबी-कोमल अघरों पर मुस्कान बिखेरती हुई पुनः उनकी दृष्टि से ओझल हो गई।
’’इन्द्रसिंह, यह युवती मेरे मन मंदिर में बस गई है।’’
’’छि, आज शिकार के हाथों तुम स्वयं शिकारी हो गए।
एक जोर का अट्टहास उस वन में गूँज पड़ा।
संध्या हो गई थी।
नर-नारियाँ खेतों से घर की ओर आ रहे थे। सम्पूर्ण ग्राम चहल-पहल से भर गया था।
अरसी युवती के पुनः दर्शन के लिए व्यग्र हो उठा।
साथी कह रहे थे कि घर चला जाए।
अरसी भावावेश में कह उठा, ’’नहीं इन्द्र, वह युवती।’’
बीच में इन्द्रसिंह बोला, ’’ठाकुर सा को जानते हो। सिसौदिया वंश में उसकी प्रतिष्ठा अनुकूल ही कुलवधू आ सकती है।’’
वंश-गौरव को स्मरण करके अरसी भी विवश हो गया। सभी अश्व पर अरूढ़ होकर चले। जिसके अश्व की टांग में चैट आई थी, वह साथी धीरे-धीरे आ रहा था।
पथ में ही उन्हें वही युवती फिर मिल गई। इस बार उसने अपने सिर पर बड़ा ’मटका’ रख रखा था। दोनों हाथों से उसने दो पाडियों (भैंस के बच्चों) को पकड़ रखा था। पाडिए, उछल-कूद कर रहे थे, पर क्या मजाल दूध का मटका गिर जाए। अरसी इससे बहुत प्रभावित हुआ।
इसके उपरान्त प्रतिदिन अरसी अकेला वहाँ से आता था और शनै शनै उसने उस युवती को अपने प्रेम की ओर आकर्षित कर लिया। वह युवती स्वयं चन्दानी राजपूत की कन्या थी। संयोग समझिए- अरसी ने जब उसके वृद्ध पिता के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट की तो उस वृद्ध ने उसे सूर्यवंशी समझ कर अपनी कन्या का ब्याह उससे कर दिया। ब्याह के उपरान्त इस रहस्य को कौटुम्बिक मर्यादा के प्रतिकूल समझकर अरसी ने किसी के समक्ष प्रगट नहीं किया। कदाचित लाखाजी इस विवाह की स्वीकृति भी नहीं देते। उस कन्या देवी ने कभी भी अरसी से आग्रह-अनुग्रह भी नहीं किया। वह कृषक कन्या तारुण्य के विपुल उन्माद में भी अरसी को अपना आराध्य मानकर विवेक प्रायण कदम उठाया करती थी।
जब अरसी को बाप होने के समाचार सुनाया गया तो वह अपरिसीम आनंद में डूब गया।
हम्मीर का जन्म हुआ- गाँव की मुक्त हवाओं के बीच।
उसकी माँ देवी हम्मीर को सिसौदिया कुल की प्रतिष्ठा के अनुरूप् उसे योद्धा बनाने लगी।
जब अरसी ने मृत्यु का सहप गले लगाया तो इस रहस्य को उसने लाखा जी के समक्ष प्रकट कर दिया। लाखाजी न उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। साधारण घटना की तरह उन्होंने इतना ही कहा, ठीक है।
राणा अरसी को इससे आघात लगा।
आज निर्भीय के नीरव क्षणों में उन्हें देवी की स्मृति रह-रह कर आ रही है। प्रभु की भाँति निश्छल व करूणा उसका फूल सा नन्हा-मुन्हा हम्मीर क्षण भर के लिए भी उसके स्मृति पट से नहीं हट रहा था।
बाहर प्रतिहारी तीव्र-स्वर में पहरा लगा रहा, ’’सावधान ?’’
अरसी ने अपने अश्रुपूरित नेत्रों को पोछा।
संभल कर बड़बड़ाए- ’’मुझे निर्बल नहीं होना चाहिए, निशक वनराज की भाँति मुझे अपने मन को बना लेना चाहिए। स्वजनों का सम्मोह वीरत्व के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। आज मुझे पत्नी पुत्र के लिए व्यग्र न होकर आक्रमण के लिए नूतन पथ-पाथेयों का निर्माण करना चाहिए।’’ तब अरिसिंह ने युद्ध की कला पर निपुर्ण सेनानी की भाँति विचारना प्रारम्भ किया। कहाँ से शत्रु पर धावा बोला जाय। किस प्रपच द्वारा शत्रु को परास्त किया जाय। उन्होंने विचारा कि यवन सेना को इस भ्रम में डाला जाय कि चित्तौड़ की सेना आज युद्ध-भूमि में अवतरित नहीं होगी। जब यह भ्रम शत्रुओं पर पूर्णतया छा जाय तो अप्रत्याशित आक्रमण कर देना चाहिए। इसी प्रकार की उघेड़वुन में अरसिंह विचलित हो उठे। उल्का के प्रकाश से एक दीप्न मुख उभरा। देवी का उदास-उन्मल मुख। उसके मुखर पर अपार करूणा का सागर उछल रहा है। एक नारी की चिरन्तन चाह झलक रही है। समीप ही उसके हम्मीर खड़ा-खड़ा क्रीड़ा कर रहा है। उसके हाथ में छोटा-सा तीर-कमान है। अरिसिंह भावाभिभूत हो गए। उन्हें लगा कि उनकी प्राणप्रिया विगलित स्वर में कह रही है- ’नाथ, आपने प्रतिज्ञा की थी- कभी न कभी मैं तुम्हें अपने स्वजनों से मिलाऊँगा, पिता और माता के दर्शन कराऊँगा। क्या आप वचन।’’
बीच में ही तड़प कर अरिसिंह ने उल्का को बुझा दिया।
घोर अन्धकार छा गया।
प्रतीची-प्रागण के तिमिर राक्षस की जैसे ही मृत्यु हुई वैसे ही प्राची में स्वर्णिम घटों को उड़ेलती हुई एक राजकुमार का आगमन हुआ।
चराचर से हल्का-हल्का गुजन उठा।
युद्ध के नगाड़े बजे।
अरिसिंह ने समस्त पौरुष के साथ आक्रमण बोल दिया।
मनुष्य-मनुष्य का रक्त-पिपासु बना रणभूमि से जूझ रहा था।

अरिसिंह के देहान्त होने के समाचार से सारे चित्तौड़ में विषाद छा गया। लाखाजी व राणाजी के हृदय पर भी बड़ा आघात लगा। किन्तु भगवती अभी और बलिदान चाहती थी। अतः अजयसिंह जी राणा बनने के लिए उद्धत हुए। लाखाजी अपने अन्य पुत्रों की बजाय अजयसिंह से अधिक स्नेह करते थे। उसे राणा बनाने के लिए वे राजी नहीं हुए। वंश-परम्परा की रक्षा और सिसौदिया कुल को सर्वनाश के पश्चात बप्पारावल के पितृजनों को पानी देने वाला इत्यादि वाक्य सुना कर उसे अपने से विचलित करा दिया। लाखाजी ने बड़े साहस भरे स्वर में कहा, ’’तुम जीवित रहकर चित्तौड़ के पुर्नोद्धार का प्रयास करना। गुहिलोत वंश को पुनः प्रतिष्ठा दिलाना, जो दीपक बुझ गया है, उसे पुनः जलाना। तब अजयसिंह गोपनीय मांग से कैलवाड़ा चला गया। वह चित्तौड़ को सदा सदा के लिए छोड़ कर चले गए।
महासेनापति पवनसी आहत हो गया था अतः उसे भी अजयसिंह के साथ भेज दिया गया। इस प्रकार महाबली सिसोदिया वंशज सामन्त लाखाजी ने अपने शेष पुत्रों को बारी-बारी से राज्य-सम्मान प्राप्त कराके जन्मभूमि की बलिवेदी पर न्यौछावर कर दिया। उनके सभी पुत्रों ने अपने शौर्य के विशेष उदाहरण छोड़े।
राणा जी और लाखा जी ने जब इतनी बड़ी आहुतियों के बाद भी विजय श्री को अपने पक्ष में नहीं देखा तो उन्होंने निश्चय कर लिया, ’’अब हमारा समय समाप्त हो गया, अब हमें समराग्नि में आहुति दे देनी चाहिए।’’
युद्ध के संकेत विपरीत चल रहे थे। विजय की कोई आशा नहीं दिख रही थी। तब सभी सरदारों एवं समान्तों ने केसरिया बाना पहन कर अन्तिम बार प्रबल आक्रमण करने का निश्चय किया। इधर जब पुरुषों ने केसरिया बाना पहनना निश्चय किया तो उधर वीर राजपूत ललनाएँ अपने सतीत्व के रक्षार्थ अपने आपको अग्नि-माँ की गोद में सौंपने को तत्पर हुई। जौहरव्रत की तैयारियाँ शुरू हो गई। महाराणी पद्मिनी के नेतृत्व सहस्त्र क्षत्राणियों ने अपना अन्तिम शृंगार किया। एक बहुत बड़ी चिता तैयार की गई। देखते-देखते ज्वालाएँ घी की आहुतियाँ पाकर प्रचंड रूप् से प्रज्वलित हो गई। सौन्दर्य की प्रतिमा महारानी पद्मिनी के अधरों पर एक उज्जवल मुस्कान थी। चित्तौड़ के वीर अपने हृदय को पत्थर के समान कठोर बना कर इस भयंकर किन्तु गौरवशाली जौहरव्रत को देख रहे थे। हृदय-विदारक संगीत प्रारम्भ हुआ। चित्तौड़ की प्राचीरों को कँपाती हुई ज्वाला और उग्र हुई। सर्वप्रथम चित्तौड़ की अधिष्ठात्री पद्मिनी ने आग का आलिंगन किया। तत्पश्चात चित्तौड़ की सभी ललनाएँ उन लपटों में कूद गई। किसी की भी आँखों में अश्रु नहीं था। अश्रु की जगह आज उनके रक्ताभा थी और था गौरवपूर्ण तेज।
जौहरव्रत समाप्त हो गया। रूप, गौरव और प्रतिष्ठा एक साथ अग्नि में समा गई।
वीर निश्चित हो गये। यवन सेना पर प्रत्याक्रमण के लिए अब वे द्विगुणित उत्साहित से उद्धत हुए। रण-मारू प्रबल वेग से बजा। वीर केसरिया बाने पहनकर मस्ती में झूम उठे। चित्तौड़ दुर्ग का सिंह द्वार खोल दिया गया। क्षुद्धित मृगराज की तरह राजपूत यवनों पर टूट पड़े। उन्होंने यवनों का तृणसम सहार करना प्रारम्भ कर दिया। पृथ्वी-मृतकों से भर गई। आज उसका आँचल खून से लाल बिल्कुल लाल था मानो वह सदा सुहागिन को जोड़ा ओढ़े हुए है।
सिसौदियों का एक-एक वीर उत्सर्ग हो गया पर विजय श्री अलाउद्दीन खिलजी के हाथ लगी। यवनों ने अपनी जीत के ढंके बजाते हुए उस चित्तौड़ में घुसे जो कल तक अतुल सौन्दर्य का कोश था, जिसके आंगन में सहस्त्र रूप उल्काएँ जलकर पवित्र आलोक की सर्जना करती थी, जहाँ देवता की अर्चना में प्रभात होते मंगल ध्वनियाँ गुंजित होती थी। आज वही नगर जन-शून्य थी। वहाँ आहतों की सिसकियों के अतिरिक्त कुछ भी चेतन नहीं था। सर्वत्र मानव के खंडित रूप। श्मसान, जलता श्मसान।
चिता धधक रही थी। अलाउद्दीन उसे देखकर तड़प उठा, ’मेरी पद्मिनी जल गई, उसका मासूम शरीर खाक हो गया।’
व्यथा से अभिभूत होकर खिलजी उस चिता को एकटक देख रहा था। किसी रूपसी ललना का हथजला हाथ आग से चटक कर दूर आ गिरा। माँस भक्षी गिद्ध लपकता हुआ खिलजी के आगे से उड़ा, खिलजी कांप गया। देखा- गिद्ध वह हाथ लेकर उड़ चला है।
उसके मुँह से हठात् निकला, ’’गुल के वास्ते आया था, खार भी नहीं मिला। दिल की हविस धुआँ बन कर घुमड़ रही है। यकीनन चित्तौड़ की बाहर यहाँ के लोग अपने साथ ले गए।’’
और दिल्लीपति ने पाश्चाताप भरी दृष्टि से उस समर-सागर को देखा जिसका जल रक्तिम था, जिसमें अनयकारी बादशाह द्वारा किए गए विकृत रूप, मानवी अग-प्रत्यग तैर रहे थे। जिसकी प्रत्येक लहर लावण्यमी नारियों के चीत्कारों से कंपित हो रही थी। तड़पते सिसकते आहत सैनिक माँ-माँ कह कर के चीख उठते थे। सहस्त्र नर समूह। विनाश ही विनाश ?
खिलजी का पत्थर दिल द्रवित हो गया।
उसकी दृष्टि अपने हाथी की ओर गई। उसे प्रतीत हुआ कि उसके हाथ इन्सानी खून से रंगे हुए है। अचानक उसके कठोर होठों पर क्रूर मुस्कान थिरक उठी। मन ही मन उसने विचारा-राजनीति में दया और करुणा का स्थान नहीं है।
उसके एक सिपाही ने आकर कहा, ’’चित्तौड़ में एक भी आदमी जिंदा नहीं है। बहादुर कौम सबकी सब मर मिटी। हमने अनहलवाड़ा पर, अवन्ती, देवगढ़ नगरों को भी उजाड़ डाला है।’’
खिलजी ने थोड़ी चहलकदमी की।
’’ओ राक्षस।’’ एक अन्यन्त वृद्धा आहत सैनिकों के मध्य से प्रगट हुई। झुर्रियों से उसका सारा मुँह भरा हुआ था। नेत्रों मे ंलाल चिनगारियाँ दीप्त हो रही थी। विकृति की कई रेखाएँ एक साथ उसके चेहरे पर दौड़ी। खिलजी विस्मित-सा उसे देखने लगा।
बुढ़िया बोली, ’’रक्त-पिपासु। संभाल अपना चित्तौड़ जो कल वीरों की लीला-भूमि थी और आज मरघट है। ओ नर-कीट, आज अपनी आँखों से इस हंसते गाते देश को देख, अब यह चित्तौड़ हमारा नहीं है, तुम्हारा है। देखो इसे बड़े यत्न से रखना। यह लाल खून से डूबी धरती तुम्हें बड़ा वरदान देगी, ये खंड-खंड राजमहल, ये टूटे-फूटे देवालय, ये ध्वस-विध्वस गढ़ कंगूरे किसी दुष्ट की ही शोभा बन सकते है। आगे बढ़ युद्ध-पिपासु, लगा इन्हें गले और जोर का अट्ठहास करके कह- ’मैंने चित्तौड़ जीत लिया।’
’’ओ वासना के देवता! तूने एक स्त्री के लिए सहस्त्रों का सुहाग छीन लिया। मेरी उस बहू को छीन लिया जिसके विवाह की मेंहदी भी फीकी नहीं हुई थी। उस पुत्र को छीन लिया जिसकी बाहुओं में उन्मत्त वैभव सांस भी लेने नहीं पाया। ओ दुराचारी, गौरव और सुख हिंसा से नहीं मिल सकते, उसके लिए प्यार चाहिए, प्यार।
’’मुझे छूना मत, मेरे लिए अग्नि माँ के समान है। मुझे इसकी की गोद में चिर-निद्रा लेनी है। हत्यारे, एक बात को ध्यान से सुन- संसार में यदि कोई वस्तु अमर है तो मृत्यु। मौत ही अमर है। एक दिन तुम्हें भी मिट्टी में ही मिलना है ?’’
वृद्धा स्वप्न सी झलक दिखाकर चिता में कूद पड़ी।
खिलजी पागल की तरह चीखा, ’’पकड़ो, इस जुबान-दराज को पकड़ो, इसकी गर्दन काट दो।’’
धुएँ के बादल ने खिलजी की आँखों के आगे घोर अंधेरा फैला दिया।
अजयसिंह कैलवाड़ा के पर्वतीय प्रदेश में निर्वासित प्राणी सा जीवनयापन करने लगे। मेवाड़ की पश्चिमी दिशा की ओर अरावती पर्वतमाला की तलहटी में शेरोमल नाम का एक समृद्धशाली नगर है, उसी की चोटी पर कैलवाड़ा स्थित है। यही पर अजयसिंह रात-दिन पराधीन चित्तौड़ के स्वतन्त्र होने के सपने देखने लगे। यवनों ने चित्तौड़ को कुछ दिन अपने अधीन रखा, बाद में उन्होंने जालौर के चैहान मालदेव को सौंप दिया। इधर भील एवं धाड़ेती सरदार मूजा बालेचा उन्हें तंग कर रहा था। यह मूजा बालेचा राजपूत था, जिसका काम डाके डालना था। बड़ा ही पराक्रमी और निर्दयी था। अजयसिंह सर्वप्रथम उसका ही काम तमाम करना चाहते थे। वह दुष्ट प्रकृति का पराक्रमी था और अजयसिंह का हाथ पाँव संभालने का मौका ही नहीं दे रहा था। अजयसिंह ने अपने दोनों बेटों अजीतसिंह और सुजानसिंह की भी मूजा बालेजा का गर्दन काटकर लाने के लिए उत्साहित किया किंतु वे सफल न हो सके। इससे उन्हें अत्यन्त निराशा हुई। तब उन्हें अरिसिंह जी की स्मृति आई। वे चाहते थे- कदाचित् अरसी का पुत्र आतताय को यमलोक पहुँचा दें।
अन्त में अजयसिंह ने हम्मीर को बुलवाने का निश्चय किया।
हम्मीर अपनी विधवा माता देवी के संरक्षण में ऊनवाँ गाँव में एक युग व्यतीत कर चुका था। उसने मलखब कुश्ती, तलवार चलाना, तीर कमान छोड़ना, अश्वारोहण, शास्त्रों का पढ़ना इत्यादि कालाओं में निपुणता प्राप्त कर ली थी। वह हठीला एवं कुशाग्र बुद्धिवाला तेजस्वी किशोर था। दिन भर अपने नाना के खेतों में कठोर श्रम करता, रात्रि के आगमन पर अपनी माँ देवी से भारतीय बालकों की कथाएँ सुना करता था। ध्रुव, प्रहलाद, वीर अभिमन्यु की कहानी उसे बड़ी रूचिकर लगती थी।
कभी-कभी वह माँ के दुखी होने पर पूछ बैठता था, ’’माँ, मैं अपने घर कब जाऊँगा, मेरे काका सा कहाँ है ?’’
देवी मौन हो जाया करती थी। उसके नेत्र भर आते थे। बेटे के इस प्रश्न पर उसे अरसी की याद हो आती थी। तब उसका मन वेदनाओं में डूब जाता था। वह अपने दुर्भाग्य पर आठ आँसू रो दिया करती थी कि उसने न दशरथ सार ससुर, न कौशल्या सी सास और न भरत-लक्ष्मण से देवरों को ही देखा। उसने पीले हाथ करके कभी ससुराल में चरण ही नहीं रखा। वह हतभागी है, बिल्कुल हतभागी।
’’माँ, तू रोती है ?’’ हम्मीर माँ को स्नेह से पूछता।
माँ ममता से भर उठती, ’’रोती कहाँ हूँ बेटे, सोच रही हूँ कि तुम अपने दादासा, काकासा और पिताश्री को प्रतिशोध कब लोगे ?’’
’’अपने पूर्वजों का गिन-गिन कर बदला लूँगा। मैं चित्तौड़ का राणा अवश्य बनूँगा माँ। मैं अपने देश को मुक्त कराऊँगा।’’
हम्मीर के हाथ की मुट्ठियाँ बंध जाया करती थी और देवी की छाती गर्व से फूल जाती थी।
सोने में सुहागा हो गया।
हम्मीर की लालसा दिन प्रतिदिन चित्तौड़ को स्वन्तत्र कराने के लिए प्रबल हो उठी। वह अपने चाचा से मिलने के लिए तड़प उठा। जब उसकी तड़प् अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची तभी चाचा का दूत उस के पास आया और उसने सारा हाल सुनाया। हम्मीर ने गुस्से में आकर कर कहा, ’’मूजा बालेचा! मैं उसकी गर्दन धड़ से अलग कर दूँगा।’’
माँ देवी यह सुन कर फूल सी खिल उठी, ’’मुझे तुम से ऐसी ही आशा थी बेटे, तुम जरूर राणा बनोगे। तुम अवश्य अपने शत्रुओं का दमन करोगे।’
विदाई के समय ऊनवा के सभी लोगों की आँखें भर आई। हम्मीर के साथ उसे गले मिल-मिल कर रो रहे थे। वृद्धजन व्यथा से तिरोहित हो कर कह रहे थे- ’’आज गाँव का रखवाला जा रहा है।’’
देवी की दशा बड़ी विचित्र थी। सुख-दुख, गौरव-आंशका, उत्साह-भय विपरीत भावों का मिश्रण उसकी दृष्टि में नाच रहा था।
हम्मीर ने भारी मन से माँ के चरण स्पर्श किए।
देवी ने ममता से उफन कर हम्मीर को छाती से लगा लिया। वर्षों के बाद आज उसकी अँगिया दूध से भर आई। विकट परिस्थिति के कारण वह अपपने बेटे के साथ नहीं जा पा रही है। एक दिन वह अरसी से अलग हुई थी और आज वह अरसी की निशानी को भी अनिश्चित काल के लिए छोड़ रही है। पता नहीं, भविष्य में वह उससे मिलेगी या नहीं। चित्तौड़ के चतुर्दिक जो झंझावात उठ रहे थे, ऐसी स्थिति में किसी के प्राणों को किसी भी समय खतरा उत्पन्न हो सकता है। फिर भी कत्र्तव्य को पूर्ण करना था। देवी ने हम्मीर को आशीर्वाद दिया और हम्मीर न डबडबाई आँखों से माँ के अन्तिम दर्शन किए।
हम्मीर के पवित्र तेजस्वी व्यक्तित्व को देखकर चाचा बड़े प्रसन्न हुअए। उसका गौरवर्ण, विशाल ललाट, अजानुबांहे, चैडा वक्षस्थल और खंजन से बांके नेत्र। चाचा पर उन सबका अत्यन्त प्रभाव पड़ा। चाचा के चरणास्पर्श के पश्चात् हम्मीर ने इतना ही कहा, ’’क्या हुक्म है ?’’
स्थान-स्थान पर हुए अपमानों की तीव्र ज्वालाओं से दग्ध हृदय को जब विगत दारुण वेदनाओं का अनुभव हुआ तब चाचा अवश अधीर हो उठे। शब्द गले में ही भटक कर रह गए। केवल नेत्र भर आए।
चचा को इतना चिन्तित देखकर हम्मीर बोला, ’’आप चिन्ता न कीजिये काका सा, मैं स्वदेशानुराग का महामन्त्र लेकर अपनी जन्मभूमि के बन्धनों को काटूँगा। आप मुझे आज्ञा दीजिए।’’
चाचा गम्भीर हो गए। पल भर के लिए उसका पितृत्व उमड़ आया। उसके सामने एक अधखिला फूल था। अधूरी अभिलाषाओं से उद्वेलित अन्तर। वे दुर्बल हो गए। वे कुमार को मृत्यु से युद्ध करने नहीं भेज सकते, नहीं भेज सकते। वे हठात् बोले, ’’अभी समय नहीं आया है।’’
’’समय की प्रतीक्षा में अवसर चले जाते हैं, काकासा।’’
’’श्रसमय का प्रयास जीवन में असफलता दे देता है।’’
’’साँप के बेटे का काम काटना होता है। मुझे शत्रु को परास्त करने की आज्ञा दीजिए, परिणाम की चिन्ता को छोङिए।’’
अन्त मंे विवश होकर चाचा बोाले, ’गोडवाड का डाकू मूजा वालेचा हमारे संगठनों के लिए अत्यन्त सिद्ध हो रहा है। जब तक उस व्यक्ति को ठिकाने नहीं लगाया जाएगा तब तक हमंे किसी भी काम में सफलता नहीं मिल सकेगी। तुम्हारे दोनों भाई अजीतसिंह और सुजान सिंह उसको मारने में असफल ही नहीं बल्कि उससे स्वयं हार गए, श्रत लाचार होकर मुझे तुम्हें बुलाना पङा, क्योंकि हमें चित्तौङ को पुन प्राप्त करना ही है।’’
’’आप निश्चित रहिए, आपकी आशा को मैं पूरी करूँगा।’’
’’शाबाश।’’
’’मैं मूजा वालेचा के गाँव जा रहा हूँ। या तो मैं उसकी गर्दन धङ से अलग कर आपको चरणों में ला गिराऊँगा, अन्यथा स्वयं को बलिदान कर दूँगा।’’
तब हम्मीर अन्य शस्त्रों से सज्जित होकर मूजा वालेचा के संहार हेतु चलने का उद्यत हुआ। एक बार पुनः चाचा के चरण स्पर्श करके कहा, ’’आऊँगा तो वालेचा का सिर ही लेकर अन्यथा नहीं।’’
चाचा ने दो-तीन विश्वस्त सरदारांे को उसके साथ रहने के लिए कह दिया। जिससे पवन सी भी था।
गोडवाड पहुंचाते ही हम्मीर को मालूम हुआ कि मूजा सामेरी गांव जलसे में गया हुआ है। श्रात-क्लाँत हम्मीर ने साँस लेना उचित नहीं समझा। उसी पग वह सामेरी के लिए रवाना हो गया।
सामेरी में मूजा अपने एक मित्र के यहाँ ठहरा हुआ था। उस मित्र की बरसगाँठ थी। जलसा प्रारम्भ था।
रात्रि की निस्तब्धता में गायिका का स्वर गुँजित हो रहा था। वह नृत्य के साथ भटके दे देकर उपस्थित जन समूह का मन लुभा रही थी। श्रमल पानी के दौर चल रहे थे। लोग उन्मत्त से घूम रहे थे। वाह-वाह कर रहे थे।
अश्व के आगमन का सन्देह होते ही मजा वालचा के कान खङे हो गए। उसने गायिका की ओर से अपना ध्यान हटाकर अपने साथी की ओर गया। उसका साथी उठ खङा हुआ। बाहर से आकर उसने धीरे से कहा ’’कोई पाहुना है। राजपूत है। वेशभूषा से वह राजसी सामन्त का पुत्र लग रहा है।
उसे आदर से बिठा दो।
हम्मीर भी जलस में सम्मिलित हो गया। वीर धीर उसने अपने पङौसी से यह जान लिया कि मुजा कौन है ?
मूजा ना हत्या जवान। काली दाढ़ी, मूँछ। सुगठित तनक बङी-बङी डरावनी श्राव। बोलतो तो लगता था कि कोई गुंज रहा है।
रातभर जलसा चलता रहा।
अन्त में मूजा बालेचा उठा। हम्मीर के पास आया। उस श्रमल-पानी करने की विनती की। हम्मीर ने उसकी आवाभगत को अस्वीकार कर दिया। मूजा ने नाम-धाम पूछा। हम्मीर ने सत्यवादी की तरह अपने कुटुम्ब का परिचय दे दिया ? परिचय सुनते ही मूजा की रग-रग में बिजली कौंध गई। भंगिमा को कठोर कर वह अधिकार भरे स्वर में बोला, ’’और तुमने इतना साहस कर लिया ?’’
हम्मीर ने निर्भयता पूर्वक उत्तर दिया, ’’राजपूत का धर्म ही साहस करना है। शत्रु से प्रतिशोध लेना उसका कत्र्तव्य होता है।’’
जलसे में इन दोनों की गर्जना से सन्नाटा छा गया। सब एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। मूजा उछल कर खङा हो गया। हम्मीर सावधान होकर निरीक्षक की दृष्टि से मूजा को देखने लगा। हम्मीर अस्त्र-शस्त्र.ों से सज्जित था और मूँजा बालेचा अपने कमर बन्द को कसने लगा।
नर्तकी एक कोने में अपने उस्ताद को पकङे खङी थी। दो अन्य सरदारों ने आगे बढ़कर हम्मीर को पकङना चाहा किन्तु मूजा ने उन्हें मना कर दिया। वह वीर था। किसी शत्रु को चक्र में फँसा कर मारना उसके धर्म मंे नहीं लिखा था। अतः उसने हम्मीर के समीप आकर पूछा, ’’क्या चाहते हो बालक ?’’
हम्मीर को अपने लिए बालक सम्बोधन अच्छा नहीं लगा। वह गुस्से मंे भर कर बोला, ’’वीर का क्या छोटा और क्या बङा?’’
मूजा की विशाल देह समक्ष हम्मीर बालक ही लगता था। मूजा के मित्र ने आकर कहा, ’’व्यर्थ में अपने प्राणों को गँवाने से क्या लाभ है ? तुम चले जाओ।’’
हम्मीर दृढ़ता से बोला, ’’लाभ हानि देखना व्यापारियों का काम है। मैं अपनी बात का निर्णय करके ही जाऊँगा।’’ उस का तन काँप रहा था।
एक गो-पद शिखा वाले ब्राह्मण ने बढ़ कर कहा, ’’कुमार आवेग से नहीं, किंचित नीति-बुद्धि से कार्य कीजिए।’’
हम्मीर ने कहा, ’’मैं पूर्व निश्चय कर चुका हूँ। मैं मजा से द्वन्द्व युद्ध करूँगा ही।’’
जलसे में हँसी का फीव्वारा छूट पङा। भयभीत नर्तकी भी हँसे बिना न रह सकी। उसका सेवक जिसकी चाल से स्पष्ट लक्षित होता था कि वह हिजङा है, विचित्र श्रद्धा से आगे बढ़ा और जनानी आवाज से बोला, ’’अरे भाई, इस उम्र में क्यों लङता-भिङता है, चल मुझसे ब्याह कर ले।’’
जलसे में अट्टहास गूँज पङा।
हम्मीर क्रोध आवेश से चिल्ला पङा, ’’चुप हो जाओ। क्यों इस हिजङे के साथ दाँत निकाल कर वीरों की सभा को अपमानित कर रहे हो ? मैं अरिसिंह का पुत्र हूँ। मैं रण-कौशल मंे निपुण हूँ और मेरी बाजुओं में अजेय शक्ति है। मैं सरदार मूजो को ललकारता हूँ कि मुझसे द्वन्द्व युद्ध करे।’’
मूजा श्रव अपने आपको शांत नहीं रख सका। उसने अपना खडग सँभाल लिया। एक बार उसने हम्मीर के दीप्त तारुण्य की ओर बढ़ते अंग-प्रत्यंग को चाह-भरी दृष्टि से अवलोकन किया फिर वह युद्ध के लिए उद्धत हुआ।
देखते देखते दोनों के खडग टकराने लगे। उपस्थिति नेत्र फाङ कर उन्हें देखने लगी। उपस्थिति का अनुमान मिथ्या निकला। यह बालक वस्तुत बालक नहीं, प्रचंड पराक्रमी योद्धा है। रण-विद्या में चतुर एवं पारंगत।
मूजा ने हम्मीर को अपने पंजे में आया देखकर शक्ति सहित वार किया। लोग चिल्लाए मर गया। किन्तु हम्मीर उस स्थान से हट गया और उसने पीछे से तुरन्त घूम कर मूजा की गर्दन पर वार कर दिया।
मूजा का सिर धरती का चुम्बन लेन लगा।
हम्मीर ने अपना भाला सँभाला मूजा का सिर उस पर लटका कर शस्त्रारूढ़ हो गया। फिर एकलिंगेश्वर की जय बोलता हुआ वह दु्रतगति से चाचा को यह सुख-सवाद सुनाने हेतु पवन-वेग से घावित हुआ।
अजयसिंह अधीर थे। उनकी आँखों से निद्रा उङ गई थी। बार-बार वे अपने सरदार चेतनसिंह से पूछ उठते थे कि क्या घोङे की टापें सुनाई पङ रही हैं ?’’
चेतनसिंह को उत्तर पाकर वे तिरस्कार पूर्ण स्वर में कहते, ’’मैं सचमुच उस बालक का हत्यारा हूँ। यह अपराध मुझे जीवन भर चैन नहीं लेने देगा। कहाँ राक्षस और कहाँ राक्षस और कहाँ वह फूल-सा बालक?’’
इसी तरह संदिग्ध वार्ताओं से विचलित अजयसिंह व्याकुल हो उठे। व्यग्रता और उग्रता का संघर्ष उनकी आँखों पल-पल छा रहा था।
यकायक उस अशान्ति काल में जब हम्मीर के आगमन की सूचना अजयसिंह को प्राप्त हुई तब उनके लोचन अश्रु-प्लावित हो उठे। हर्षा-तिरेक में उनका गात कम्पित हो उठा। वे आगे बढ़े और हम्मीर को अपने प्रगाढालिंगन से आबद्ध कर पुलक उठे, ’’चिरायु हो बेटा, सचमुच तुम चित्तौङ के राणा होने के योग्य हो।’’
हम्मीर के रूप की धवलता से प्रशंसा की अतिरेकता ने रक्तिमा दौङा दी। वह श्रद्धा से चाचा के चरण-स्पर्श करता हुआ बोला, ’’आप की मनोकामना पूर्ण हुई।’’ फिर उसने अपने भाले पर लटका मूजा वालेचा का सिर उतार कर उनके चरणों में भेंट कर दिया।
’’आपके अपमान का बदला पूरा हो गया। अब श्राप शांति से अपना कार्य सम्पूर्ण कीजिए।’’
चाचा हम्मीर के इस पराक्रम से गद्-गद् हो उठे। उन्होंने मूजा के सिर को ठोकर मार कर एक बार अपने भतीजे को चूम लिया और शत्रु के रक्त से उसके ललाट पर राजतिलक करके उसे चित्तौङ का राणा घोषित कर दिया।
सब सरदारों ने राणा हम्मीर की जय-जयकार की।
अजयसिंह ने तत्काल आदेश दिया, ’’हम्मीर इस पद-प्रतिष्ठा के सर्वथा योग्य है। सिसौदिया-वंश की राज्य-लक्ष्मी आज से इसके अधीन होती है और हम सभी सामन्त सरदार इसे अपना राणा और एकलिंगेश्वर का दीवाग स्वीकार करते हुए देश को मुक्त करने के लिए नव-आह्वान करते है।
इस घोषणा की एक और सुन्दर प्रतिक्रिया हुई। राणा के स्वामी भक्त और देश-भक्त सामन्त उससे आ-आकर मिल गए। वे पुन अपने नए राणा की छत्र छाया में अपना पौरुष और पराक्रम दिखाने के लिए आतुर हो उठे।
पर इस घोषणा में अजयसिंह के दोनों पुत्र अजीतसिंह और सुजानसिंह रुष्ट हो गए। उन्हें मार्मिक आघात लगा। फलस्वरूप् अजीतसिंह अल्पकाल ही में घुट-घुट कर मर गया और सुजानसिंह दक्षिण की ओर चला गया।
इन सभी घटनाओं से हम्मीर चिन्तित नहीं हुए। जो जाना चाहते है, वे जाए, हम्मीर ने किसी को नहीं रोका। किन्तु चित्तौङ का राणाजी घोषित होता था उसे एक रस्म अदा करनी पङती थी। पितृ-सम्मान की प्राप्ति की प्रसन्नता में राजपूत नरेश सामन्तों एवं सरदारों को लेकर समीप के शत्रु-राज्य पर आक्रमण किया करते थे। नरेश का सर्वत्र अधिकार होता था तब भी नया शासक इस प्रथा का अन्त नहीं करता।
सुजानसिंह ने दक्षिण में नए वंश की परम्परा डाली। वीर शिवा जो इसी वश में उत्पन्न हुए थे।
वह अभिनय मात्र द्वारा इस प्रथा को पूर्ण करता था। हम्मीर को मूजा बालेचा के साथियों से अभी तक आन्तरिक भय बना हुआ था। पता नहीं, वेे निर्भय, दृष्टि प्रकृति-प्रवृति के लोग कब हम्मीर को छल बल से देवलोक पहुँचा दें। श्रत उसने टीका-दौङ की प्रथा का केन्द्र उसके दुर्ग को ही बनाया।
बालेचा का गढ-दुर्ग गिरि था-सेलिया। वही से अपराधी मनोवृत्तियों का जन्म होता था और फिर अपराधी मनोवृत्ति के प्रतीक धाङते लोग शांति-प्रिय जनता पर भीषण अत्याचार करके उनका जीवन सुलगती लकङी-सा कर देते थे। हम्मीर ने निश्चय किया कि वह उस गिरि दुर्ग को ध्वसं करके मूजा बालेचा की शेष शक्ति को ही समाप्त कर देगा। उसने अपने सामन्तों एवं सरदारों को एकत्रित किया। उनके समक्ष अपनी इच्छा व्यक्त की। सरदार लोग उसके इस दुस्साहस पर विस्मय विमुग्ध हो गए। बोले, ’’वह दुर्ग बीहङ जंगल से घिरा हुआ है और वहाँ तक पहुँचना सहज नहीं है।’’
’श्रसम्भव’ और ’नहीं’ शब्द में मुझे श्रद्धा और विश्वास दोनों नहीं है।
’’श्रद्धा का प्रश्न नहीं है, अभी हमें हर कदम देख-भाल कर उठाना है। चारों ओर से मेवाङ शत्रुओं से घिरा हुआ है। हमारे पास हाथी, घोङे, अस्त्र-शस्त्र कुछ भी नहीं।’’
हम्मीर की आँखों के डोरे तन गए। वह बोला, ’’जिनका जीवन सदा तलवार की नोक पर रहता है, जिनके पूर्वज वदन के छलनी होने के बाद भी रणभूमि मंे शत्रु से लोहा लेते रहे, उनके वंशज ऐसे ’बोल’ बोल रहे है। मृत्यु को जीवन समझने के बाद भी आपकी वाणी ऐसी भाषा का प्रयोग कर रही है ? ओह! हमारी इन वाहुश्री को क्या हो गया जो महावली हाथियों के पथ को रोक दिया करती थी?’’
हम्मीर के ओजस्वी भाषण से सारे सामन्तों एवं सरदारों में जोश भर उठा। उन्होंने तया किया कि टीका-दौङ की प्रथा की अदायगी मूजा बालेचा के दुर्ग और मित्रों के विनाश से ही करनी चाहिए।
तत्काल हम्मीर की दशा अत्यन्त निर्बल थी। उसके पास सेना, अश्व, हाथी और अन्य सरदारों की शक्ति भी नहीं थी। फिर भी हठी और नीति-प्रवीण हम्मीर ने पुरखो की रीत को तोङना नहीं चाहा। उसने अपनी शक्ति को संयम करके सेलिया की ओर प्रस्थान कर दिया।
चाचा अजयसिंह, पवन सी और उसके साथ चुने हुए कुछ सरदार, मीना आदि लोग थे जिन्हें अजयसिंह ने चतुराई से मिला लिया था।
सेलिया गाँव पहुँचते ही हम्मीर ने रणभेरी बजवा दी। रणभेरी का शोर सुनकर दुर्ग के रक्षक आक्राता सँभल गए। उन्होंने अपने दुर्ग के कँगूरो पर चढ़कर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। जिसका प्रत्युत्तर भीलों ने वापस बाणों से दिया। आततायी पूर्णरूप से युद्ध के लिए तत्पर नहीं ये फिर भी वे सुरक्षित गढ़ में थे। विवश हो, सरदार पवन सी ने अपने साथियों को बाण वर्षा के लिए रोक दिया।
यहाँ वीरता के अतिरिक्त रण-कौशल की आवश्यकता थी। पवनसी ने बरसते बाणों के मध्य हम्मीर से निवेदन किया, ’राणा जी, इस दुर्ग को हम इस तरह महीनों ही नहीं जीत पाएँगे।’’
हम्मीर को अपने किए पर तनिक पछतावा नहीं था। वह अकङ कर बोला, ’जीवन पर सम्मोह त्याग कर दुर्ग में प्रवेश कर दो।’’
पवनसी के लघु भ्रता खेतसी व अन्य सरदारों को उस आज्ञा का पालन करना पङा। वह भी अपने भाई के साथ दुर्ग कीे ओर बढ़ा।
दिन भर युद्ध होता रहा।
रात्रि के समय छावनियों में हम्मीर अपने सरदारों से मंत्रणा करता रहा। उसके प्रहरी सजगता से पहरा दे रहे थे। उसके सैनिक श्रमल-पानी करके अपनी अपनी छावनियों में विश्राम कर रहे थे, ऐसा हम्मीर को विश्वास था। अजयसिंह बार-बार व्यग्र होकर कह उठते थे, ’’तुममें यह हठ अच्छा नहीं, रण बिना शक्ति कभी नहीं किया जा सकता है। दुर्भाग्य से यहाँ हम पराजित हो गए तो चित्तौङ की गुप्त शक्ति से सारा देश परिचित हो जाएगा और हम कभी भी चित्तौङ का उद्धार नहीं कर पाएँगे।’’

जल्द ही आगे का पार्ट अपलोड होगा 

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